संवैधानिक पदाधिकारी जब जिम्मेदारी निभाने में नाकाम हों तो अदालत चुप नहीं बैठ सकती: सुप्रीम कोर्ट

Written by sabrang india | Published on: September 13, 2025
सुप्रीम कोर्ट की यह सख्त टिप्पणी विपक्ष-शासित राज्यों में राज्यपालों द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने में हो रही अनावश्यक देरी से जुड़े मामले की सुनवाई के अंतिम दिन सामने आई।



सुप्रीम कोर्ट ने 11 सितंबर को स्पष्ट रूप से कहा कि अगर कोई संवैधानिक पदाधिकारी, चाहे उसका पद कितना भी ऊंचा क्यों न हो, अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में विफल रहता है तो अदालत मूकदर्शक बनी नहीं रह सकती।

मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने यह टिप्पणी राष्ट्रपति के संदर्भ में की। सुप्रीम कोर्ट की यह सख्त टिप्पणी विपक्ष-शासित राज्यों में राज्यपालों द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने में हो रही अनावश्यक देरी से जुड़े मामले की सुनवाई के अंतिम दिन सामने आई।

द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार की ओर से पक्ष रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से बातचीत के दौरान मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा, “कोई भी संवैधानिक पद कानून से ऊपर नहीं है। मैं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में विश्वास करता हूं, और मानता हूं कि न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद नहीं बनने देना चाहिए। लेकिन यदि लोकतंत्र का कोई स्तंभ अपने कर्तव्यों से पीछे हटता है, तो क्या संविधान का संरक्षक होने के नाते अदालत चुपचाप बैठी रह सकती है?”

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट किया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को उनके समक्ष विचार या स्वीकृति के लिए भेजे गए विधेयकों पर अधिकतम तीन महीनों के भीतर निर्णय लेना होगा। अदालत ने यह भी टिप्पणी की थी कि राज्यपालों की ‘मर्जी और मनमानी’ के चलते जनता के हित में बनाए जाने वाले कानून अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रह सकते।

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए तर्क दिया कि न्यायपालिका, राज्यपालों और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप कर रही है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपनी दलील में कहा कि हर विधेयक की परिस्थितियां अलग होती हैं, इसलिए उन पर एक समान समय-सीमा लागू करना ‘खुद न्यायपालिका के लिए भी नुकसानदायक’ साबित हो सकता है।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि “हर विधेयक की परिस्थितियां अलग होती हैं। कुछ मामलों में राज्यपाल को अतिरिक्त विचार-विमर्श या विशेषज्ञ परामर्श की आवश्यकता हो सकती है। कई बार राज्य सरकारें, यह जानते हुए भी कि कोई बिल राज्य के लिए हानिकारक हो सकता है, जनता के दबाव में उसे पारित कर देती हैं। ऐसे हालात में खुद राज्य सरकार भी राज्यपाल से आग्रह कर सकती है कि उस विधेयक पर निर्णय फिलहाल रोका जाए। इसलिए, सभी विधेयकों पर एक समान समय-सीमा लागू करना व्यावहारिक नहीं है और यह व्यवस्था नुकसानदायक भी साबित हो सकती है।”

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने आगे तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों को यह आदेश नहीं दे सकता कि वे किसी विधेयक को मंजूरी दें। उन्होंने कहा कि राज्यपाल की स्वीकृति विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है, और अदालतें इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं।

इस पर न्यायमूर्ति कांत ने स्पष्ट किया कि अदालत राज्यपाल को यह निर्देश नहीं दे सकती कि वे किसी विशेष तरीके से निर्णय लें, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे निर्णय लेने से बच नहीं सकते।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह भी कहा कि यह धारणा सही नहीं है कि राज्यपाल हमेशा विधेयकों को लंबित रखते हैं। उन्होंने दावा किया कि पिछले 50 वर्षों में अधिकांश मामलों में राज्यपालों ने एक महीने के भीतर ही विधेयकों पर निर्णय लिया है। मेहता ने उदाहरण देते हुए कहा, “तमिलनाडु में भी, विवादित 10 विधेयकों को छोड़ दें तो बाकी सभी पर एक महीने के भीतर निर्णय लिया गया।”

मुख्य न्यायाधीश गवई ने संविधान निर्माताओं के दृष्टिकोण का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल की भूमिका का उद्देश्य सदैव समन्वय और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनाए रखना था।

इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि दशकों तक राज्य और राज्यपाल के बीच संबंध सौहार्दपूर्ण रहे हैं, लेकिन हाल के वर्षों में दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने उपराज्यपाल के खिलाफ संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाएं दाखिल करनी शुरू कीं।

मेहता ने कहा, “यह प्रक्रिया हाल ही में दिल्ली सरकार के साथ शुरू हुई है। अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस और वामपंथी सरकारें भी हैं, लेकिन क्या उनकी ओर से भी अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाएं दायर होती हैं?”

अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने कहा कि राज्यपाल के पास यह विवेक होना चाहिए कि वे किसी विधेयक को संवैधानिक कसौटी पर परख कर मंजूरी दें या उसे रोक दें।

मुख्य न्यायाधीश गवई ने टिप्पणी की, “अगर राज्यपाल किसी विधेयक पर हस्ताक्षर न करने का निर्णय लेते हैं और इसके बारे में विधानसभा को सूचित करते हैं, तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सवाल यह है कि क्या राज्यपाल बिना कोई सूचना दिए, विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं?”

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