पश्चिम बंगाल चुनाव: क्या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भारी पड़ेगी किसानों की अपील?

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: March 24, 2021
पश्चिम बंगाल में पहले चरण का चुनाव नजदीक आ चूका है. सभी पार्टियों द्वारा चुनावी घोषणापत्र जारी कर दिया गया है. जहाँ भारतीय जनता पार्टी द्वारा “सोनार बांग्ला संकल्प पत्र” जारी कर CAA लागू कराने की बात की गयी है वहीँ वाममोर्चा गठबंधन के घोषणापत्र में CAA राज्य भर में लागू नहीं करने के वायदे किए जा रहे हैं. इस बीच चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री मोदी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच जुबानी जंग जारी है. इस मौखिक जंग में प्रधानमंत्री पद की मर्यादा तक को भी दाव पर लगा दिया गया है. ख़ुद को जूते मारने, चौराहे पर लटकाने और सर पर लात मारने की बात किसी सत्तासीन प्रधानमंत्री के लिए अशोभनीय है. 


 
पश्चिम बंगाल का चुनाव ऐसे दौर में हो रहा है जब देश में हर दिन साम्प्रदायिकता का माहौल बनाया जा रहा है. लगभग 4 महीने से देश की राजधानी दिल्ली के द्वार पर अन्नदाता किसान अपनी मांगों को ले कर आंदोलनरत हैं जिसमें लगभग 270 किसान अपनी जान गवां चुके है. वर्तमान में पश्चिम बंगाल सहित देश के कई राज्यों में चुनाव है. चुनावी राज्यों की जनता से किसानों ने अपील भी किया है कि देश को कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में बेचने वाली भाजपा सरकार को वोट नहीं किया जाए. ये किसान इन सभी राज्यों में भाजपा की हार को शहीद हुए किसानों को श्रधांजलि के रूप में देखते हैं. 

पश्चिम बंगाल वर्षों से वर्गीय संघर्ष के लिए जाना जाता है जिसके ऊपर साम्प्रदायिकता की चुनावी चादर ढंकने की कोशिश की जा रही है. बंगाल विधान सभा के चुनाव में मजहब के आधार पर वोट मांगना या खुलेआम जनसभाओं में हिन्दू मुसलमान की बात कर लोगों को दो धड़ों में बाँटने की कोशिश करना इस ओर इशारा कर रही है. तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में आए शुभेंदु अधिकारी ने जनवरी में एक जनसभा को संबोधित करते हुए यह कहा कि तृणमूल का भरोसा 62000 पर है और हमारा भरोसा 213000 पर है यहाँ गौरतलब है कि नंदीग्राम विधानसभा में जहाँ से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और शुभेंदु अधिकारी आमने सामने हैं, मुस्लिम मतदाता की संख्या 62 हजार के करीब है. इस तरह की मजहबी बयानबाजी को भाजपा के किसी भी प्रदेश स्तर के अधिकारी ने खंडन नहीं किया जिसे मौन समर्थन ही माना जाएगा. 

पश्चिम बंगाल के चुनावी इतिहास पर अभी तक सांप्रदायिक रंग होने का कोई दाग नहीं है. वर्षों से जनता के मुलभूत अधिकारों और सवालों को लेकर बंगाल का चुनाव लड़ा जाता रहा है. मसलन 1967 का चुनाव खाद्य वस्तुओं की बढ़ती कीमत और महंगाई के नाम पर लड़ा गया था. संविधान की धारा 356 के सवाल पर 1971 का बंगाल चुनाव संपन्न हुआ. उस समय तत्कालीन राज्यपाल धर्मवीर की सिफ़ारिश और केंद्र सरकार की अपील पर राष्ट्रपति ने अजय मुखर्जी की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. नक्सलवाद व कानून, व्यवस्था के सवाल पर 1972 का बंगाल चुनाव हुआ. 1977 में आपातकाल के समय जनता पर हुई ज्यादती चुनावी मुद्दा बना. 2011 में नंदीग्राम में पुलिस द्वारा किए गए दमन और फायरिंग में 14 लोगों की मौत हो गयी जिसे और सिंगुर में चल रहे जबरन जमीन अधिग्रहण को ममता बनर्जी नें वाममोर्चा की सरकार के ख़िलाफ़ चुनावी मुद्दा बनाया था. इस समय वर्षों  से सत्तासीन वामपंथी सरकार को हार का सामना करना पड़ा था. वर्तमान में 2021 का बंगाल विधानसभा का चुनाव एक नए अंदाज और नए सवालों पर लड़ा जा रहा है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस चुनाव में साम्प्रदायिक सोच को सामने कर समाज के सोहाद्र को असामान्य करने की कोशिश की जा रही है. 

वैश्विक स्तर पर भी भारतीय चुनाव के ग्राफ़ कुछ ठीक नहीं हैं. स्वीडन स्थित एक इंस्टिट्यूट ने अपनी रिसर्च में कहा है कि भारत अब चुनावी लोकतंत्र नहीं रहा बल्कि चुनावी तानशाही में तब्दील हो चुका है. इस रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2014 में भाजपा की जीत के बाद से देश का लोकतान्त्रिक स्वरुप काफ़ी कमजोर हो गया है और अब यह तानशाही की तरफ बढ़ गया है. स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में स्थित स्वतंत्र शोध संस्थान वी-डेम की यह रिपोर्ट उनके द्वारा किए गए आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है. वी-डेम की रिपोर्ट में 180 देशों में से भारत निचले 50 फीसदी देशों में शामिल हो गया है. इस साल यह 97 वें पायदान पर है. स्वीडिश रिपोर्ट में कई चौकानें वाले ख़ुलासे भी किए गए हैं इसमें कहा गया है कि वर्तमान समय में दुनिया की 68 प्रतिशत जनता तानशाही में जीवन जीने को मजबूर है. दुनिया की एक तिहाई जनसंख्या या यूँ कहें कि 216 अरब वाले लगभग 25 देशों का तानाशाहीकरण हो रहा है जिसमें G-20 के  देश मसलन ब्राजील, भारत व तुर्की जैसे देश भी शामिल हैं.

वी-डेम के अनुसार विभिन्न परिस्थितियों के होने के बावजूद भी हर जगह तानाशाहीकरण का एक ही पैटर्न देखने को मिलता है. जब सत्ता मीडिया और नागरिक समाज पर हमले करने लगती है, प्रतिरोध का आदर न करके समाज को विभाजित किया जाता है और आम जनता तक झूठी सुचनाएं फैलाई जाती है तो यह तानाशाही की तरह बढ़ते समाज का सूचक है. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में धीरे-धीरे मीडिया, अकादमिक जगत और सिविल सोसाइटी की आजादी को छीना जा रहा है और यह गिरावट 2014 में भाजपा की जीत और उनके हिंदूवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने की चाहत से अधिक हुई है. भारत के उदारवादी लोकतंत्र के सूचकांक में 23 फ़ीसदी की गिरावट आई है. 

वी-डेम ने कहा कि सिविल सोसाइटी का दमन, मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप और चुनाव आयोग की स्वायत्ता में कमी के चलते भारत की यह स्थिति हुई है. इस रिपोर्ट में भारत सरकार के द्वारा राजद्रोह, मानहानि और यूएपीए कानूनों का लगातार हो रहे इस्तेमाल की भी आलोचना की है. उदाहरण के तौर पर अगर देखा जाए तो भाजपा के सत्ता में आने के बाद से 7000 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा किया गया है. साथ ही भारत में नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शन का सरकार द्वारा दमन किए जाने की भी आलोचना की गयी है. हाल के दिनों में ही अमेरिकी सरकार द्वारा वित्तपोषित गैर सरकारी संगठन फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में भी यह दावा किया गया है कि भारत में नागरिक स्वतन्त्रता का लगातार क्षरण हो रहा है. इस संगठन ने तो भारत को स्वतंत्र देश के दर्जे से हटा कर आंशिक रूप से स्वतंत्र देशों की श्रेणी में डाल दिया है. 

वर्तमान में भारत की चुनावी प्रक्रिया और सत्तासीन संगठनों का क्रियाकलाप सवालों के घेरे में है. साम्प्रदायिकरण की तरफ़ बढ़ते भारतीय समाज को आन्दोलनरत किसानों द्वारा बचाने की जद्दोजहद और जन सरोकार के सवालों को उठाकर लोकतंत्र को बचाने का किसानों का प्रयास विचारनीय है. किसानों की अपील, नौजवानों के संघर्ष व जनता के वोट से बंगाल सहित अन्य चुनावी राज्यों में सांप्रदायिक ताकतों को मात देकर संविधान व लोकतंत्र को बचाने की दिशा में बढ़ा जा सकता है. 

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