उत्तर प्रदेश: क़र्ज़-माफ़ी के टोटके से खेती-किसानी का संकट नहीं हल हो सकता

Written by आनन्द सिंह | Published on: May 8, 2017
UP farmer
Image: Times of India

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए भाजपा और संघ परिवार ने हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण बढ़ाने के लिए हर चुनाव की तरह इस बार भी तमाम घटिया हथकण्डे अपनाये। लेकिन हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों को अच्छी तरह पता था कि केवल साम्प्रदायिकता की आग फैलाकर वे सत्ता के गलियारों तक नहीं पहुँच सकते। इसलिए उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान साम्प्रदायिकता के ज़हर को विकास के जुमलों और कुछ आर्थिक मुद्दों की चाशनी के साथ परोसा। जहाँ एक ओर चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने शमशान-क़ब्रिस्तान की बात की, वहीं चुनावों के ठीक पहले उन्होंने किसानों की क़र्ज़-माफ़ी का वायदा करके क़र्ज़ में डूबी विशाल किसान आबादी को अपने खेमे में करने की चाल चली। जैसाकि चुनाव के नतीजों ने दिखाया, फ़ासिस्ट अपनी इस चाल में क़ामयाब रहे। पूरे देश में जारी पूँजीवादी कृषि संकट और उसकी वजह से किसानों के बेतहाशा क़र्ज़ को देखते हुए पिछले कुछ अरसे से उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में किसानों की क़र्ज़-माफ़ी के क़यास लगाये जा रहे थे। हालाँकि बैंकों के शीर्ष अधिकारी और तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री क़र्ज़-माफ़ी से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले बोझ के मद्देनज़र केन्द्र व राज्य सरकारों को लगातार आगाह कर रहे थे, लेकिन उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने उन्हें धता बताते हुए अपनी पहली कैबिनेट बैठक में ही छोटे व सीमान्त किसानों की क़र्ज़-माफ़ी की घोषणा करते हुए 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले किसानों में भाजपा के आधार को सुदृढ़ करने की अपनी मंशा साफ़ ज़ाहिर कर दी। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस क़दम से किसानों के एक हिस्से को तात्कालिक राहत मिलेगी और इसलिए किसानों के बीच भाजपा का आधार मज़बूत होगा। लेकिन जो लोग यह मान बैठे हैं कि इस फ़ैसले से यूपी में खेती-किसानी का संकट कम हो जायेगा और छोटे किसानों के अच्छे दिन आ जायेंगे, वे बहुत बड़े मुग़ालते में जी रहे हैं, क्योंकि पिछले कुछ दशकों से भारतीय कृषि एक गम्भीर संकट की शिकार है और किसानों के बढ़ते क़र्ज़ उस संकट का लक्षण मात्र हैं। तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी यह मानते हैं कि किसानों की क़र्ज़-माफ़ी जैसे लोकलुभावन हथकण्डों से भारतीय कृषि के संकट में कोई कमी नहीं आने वाली है। साथ ही यह आँकड़ों सहित दिखाया जा सकता है कि इस क़दम से किसानों को जो तात्कालिक राहत मिलेगी, वो भी छोटे किसानों के एक छोटे हिस्से तक ही सीमित रहेगी।
 
योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा लिये गये 36,359 करोड़ रुपये के क़र्ज़-माफ़ी के फ़ैसले को मीडिया में इस तरह से प्रचारित किया गया मानो इससे सभी 2.15 करोड़ छोटे व सीमान्त किसानों को लाभ होगा। लेकिन सच्चाई तो यह है कि सीमान्त व छोटे किसानों के एक छोटे हिस्से को ही इसका लाभ मिलेगा। आइए आँकड़ों के ज़रिये इस सच्चाई का पता लगायें। सरकारी आँकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में कुल 2.3 करोड़ किसान हैं जिनमें 1.85 करोड़ सीमान्त किसान (एक हेक्टेयर या 2.5 एक‍ड़ से कम की जोत वाले), 30 लाख छोटे किसान (1-2 हेक्टेयर की जोत वाले) और शेष बड़े किसान (2 हेक्टेयर से अधिक जोत वाले) हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की ख़ुद की घोषणा के अनुसार 2.15 करोड़ छोटे व सीमान्त किसानों में से क़र्ज़ माफ़ी का लाभ ले पा सकने वाले किसानों की संख्या लगभग 86 लाख ही होगी। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आँकड़ों के अनुसार प्रदेश में क़र्ज़ लेने वाले कुल छोटे व सीमान्त किसानों के आधे से भी कम किसानों ने बैंकों से क़र्ज़ लिया है। आधे से अधिक किसानों ने स्थानीय महाजन, व्यापारी, मित्र, रिश्तेदार या बड़े किसानों आदि से क़र्ज़ ले रखा है। ज़ाहिर है कि क़र्ज़ में डूबे अधिकांश छोटे-सीमान्त किसानों को योगी सरकार द्वारा लिये गये क़र्ज़-माफ़ी के फ़ैसले से तात्कालिक राहत भी नहीं मिलेगी, क्योंकि वह वाणिज्यिक बैंकों और कोऑपरेटिव बैंकों जैसे संस्थाओं द्वारा दिये गये संस्थागत क़र्ज़ पर ही लागू होता है। यही नहीं, आँकड़े यह भी दिखाते हैं कि किसान की जोत जितनी ही छोटी होती है, उसके द्वारा संस्थागत स्रोतों द्वारा लिये जाने वाले क़र्ज़ की सम्भावना उतनी ही कम होती है। एक एकड़ से कम जोत वाले किसानों में से केवल 28 प्रतिशत किसानों ने ही बैंकों से क़र्ज़ ले रखा है। यानी 72 प्रतिशत ऐसे अति-सीमान्त किसानों ने ग़ैर-संस्थागत स्रोतों से क़र्ज़ ले रखा है, जिन्हें क़र्ज़-माफ़ी का कोई लाभ नहीं होने वाला है। अत: छोटे किसानों के सापेक्षत: समृद्ध हिस्से को ही इस क़र्ज़-माफ़ी से राहत पहुँचेगी।
 
छोटे किसानों के सापेक्षत: समृद्ध हिस्से को क़र्ज़-माफ़ी से जो राहत मिलेगी, वह भी तात्कालिक ही रहेगी और पूँजीवादी खेती का संकट भविष्य में उसे क़र्ज़ के भँवरजाल की ओर ठेलता रहेगा। दरअसल खेती-किसानी का मौजूदा संकट ढाँचागत है। आज़ादी के बाद के दशकों में भारतीय कृषि में हुए पूँजीवादी विकास के साथ ही साथ गाँवों में किसानों का विभेदीकरण तेज़ी से बढ़ा है और जोतों का आकार क्रमश: कम से कम होता गया है। 1970-71 की कृषि जनगणना के बाद से भारत में खेती की औसत जोत में लगातार गिरावट देखने को आयी है। 2010-11 की ताज़ा कृषि जनगणना के मुताबिक़ भारत में जोतों का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर रह गया है और सीमान्त किसानों की संख्या 67 प्रतिशत व छोटे किसानों की संख्या लगभग 18 प्रतिशत है। यानी किसानों की कुल संख्या का 85 प्रतिशत छोटे व सीमान्त किसान हैं। पूँजीवादी खेती होने की वजह से खाद, बीज, कीटनाशक व खेती के उपकरणों की क़ीमतें लगातार बढ़ने से खेती-बाड़ी की लागत में लगातार बढ़ोतरी हुई है।
 
1990 के दशक से नवउदारवादी नीतियाँ लागू होने के बाद से कृषि का संकट गहरा होता गया है क्योंकि खेती-बाड़ी में पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा देश के भीतर तक ही नहीं सीमित है, बल्कि विश्व बाज़ार की हलचलें भी उसे प्रभावित करती हैं। ऐसे में बड़ी जोत वाले किसान, जो कृषि के आ‍धुनिक उपकरणों से खेती करते हैं और समय पर फ़सल कटवाकर जल्द से जल्द मण्डी में फ़सल पहुँचाने की क्षमता रखते हैं, वे अगर क़र्ज़ भी लेते हैं तो फ़ायदे में रहते हैं। छोटी जोत वाले किसान क़र्ज़ लेकर बड़ी मुश्किल से जो कुछ भी उगा पाते हैं उसे भी समय पर मण्डी में न पहुँचा पाने की वजह से उन्हें अपनी फ़सल की पर्याप्त क़ीमत नहीं मिल पाती। इस प्रकार मण्डी में बड़े किसानों का ही दबदबा क़ायम हो जाता है और अधिकांश किसानों के लिए खेती-बाड़ी एक घाटे का सौदा बन जाती है। ऊपर से अगर मौसम दग़ा दे जाता है तो छोटे किसानों की समस्या और बढ़ जाती है। जिस किसान के पास जितनी कम ज़मीन रहती है, उसकी तकलीफ़ें उतनी ही अधिक होती हैं। सीमान्त किसानों की हालत इतनी ख़राब होती जाती है कि अगर वे दूसरों के खेतों में मज़दूरी न करें, तो उनके परिवार का पेट पालना भी दूभर हो जाता है। गाँवों में बड़ी संख्या ऐसे अर्द्ध-सर्वहाराओं की है जिनकी नियति देर-सबेर पूरी तरह से सर्वहारा में तब्दील हो जाने की है। इसमें क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि गाँवों में हाल के दशकों में बड़े पैमाने पर छोटे किसान तबाह हुए हैं और यह प्रक्रिया समय बीतने के साथ बढ़ती गयी है। हालत यहाँ तक आ पहुँची है कि सेण्टर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटी के एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक़ गाँवों में 61 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो शहरों में नौकरी मिलने पर अपनी खेती-बाड़ी पूरी तरह से छोड़ने के लिए तैयार हैं। यह आँकड़ा चीख़-चीख़ कर भारतीय कृषि के संकट की कहानी बयान कर रहा है।
 
खेती-किसानी के संकट से निपटने के नाम पर क़र्ज़-माफ़ी के टोटका पहले भी कई बार आज़माया जा चुका है। लेकिन इसके बावजूद यह संकट लगातार गहराता गया है। आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे बड़ी क़र्ज़-माफ़ी की घोषणा वर्ष 2008 में तत्का‍लीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने की थी। उस समय देश-भर में किसानों के कुल 52 हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक के क़र्ज़ माफ़ किये गये थे। लेकिन उसके बाद से खेती का संकट कम होने की बजाय बढ़ा ही है, जिसका स्पष्ट संकेत देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों की आत्महत्याओं की संख्या में बढ़ोतरी के रूप में दिखता है। कई अध्ययनों ने यह दिखाया है कि उस देशव्यापी क़र्ज़-माफ़ी से भले ही किसानों को तात्कालिक राहत मिली हो, लेकिन लम्बे कालखण्ड में देखने पर कृषि अर्थव्यवस्था पर उसका असर कुल मिलाकर नकारात्मक ही हुआ क्योंकि जिन इलाक़ों में किसानों ने अधिक क़र्ज़ लिया था, वहाँ क़र्ज-माफ़ी के बाद बैंकों ने क़र्ज़ देना कम कर दिया। ज़ाहिर है कि इसका नुक़सान छोटे व सीमान्त किसानों को होता है जो स्थानीय महाजनों व आढ़तियों के चंगुल में फँस जाते हैं। यही नहीं, कम्प्ट्रोलर एण्ड ऑडिटर जनरल (सीएजी) की ऑडिट में यह तथ्य भी सामने आया है कि 2008 में घोषित देशव्यापी क़र्ज़-माफ़ी के दौरान समय पर काग़ज़ात न उपलब्ध करा पाने की वजह से तमाम ग़रीब किसानों का क़र्ज़ माफ़ नहीं हुआ था और उसके उलट कई समृद्ध किसानों की क़र्ज़-माफ़ी हो गयी थी।
 
भारतीय कृषि के संकट का एक नतीजा गाँवों में भूमिहीन किसानों की लगातार बढ़ती संख्या के रूप में सामने आ रहा है। 2001 की जनगणना में भारत में गाँवों के भूमिहीन मज़दूरों की संख्या 10.67 करोड़ थी, जो 2011 तक आते-आते 14.43 पहुँच गयी। इसमें लगभग 2 करोड़ भूमिहीन मज़दूर अकेले उत्तर प्रदेश से हैं। ग़ौरतलब है कि किसानों की क़र्ज़-माफ़ी के शोरगुल में इस विशाल ग्रामीण सर्वहारा वर्ग की आवाज़़ मानो दबा दी जाती है। इस भूमिहीन मज़दूर आबादी की भी अच्छी-ख़ासी संख्या क़र्ज़ के बोझ तले दबी रहती है। लेकिन उनके क़र्ज़-माफ़ी की बातें भूले-भटके भी नहीं की जाती। यही नहीं, अक्सर इस बात को दृष्टिओझल कर दिया जाता है कि किसानों की क़र्ज़-माफ़ी से सरकार को पड़ने वाला अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी मुख्यत: गाँवों और शहरों की सर्वहारा आबादी को ही उठाना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में किसानों की क़र्ज़-माफ़ी का बोझ भी मज़दूर वर्ग पर पड़ने वाला है। ग़ौरतलब है कि केन्द्र सरकार द्वारा क़र्ज़-माफ़ी के लिए आर्थिक मदद करने से मना करने के बाद क़र्ज़-माफ़ी के लिए मुद्रा जुटाने के लिए योगी सरकार ने किसान राहत बॉण्ड जारी करने का फै़सला किया है। ज़ाहिर है कि उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व के 8 प्रतिशत से भी अधिक क़ीमत के इन बॉण्डों की सूद सहित भरपाई मज़दूर वर्ग को करनी पड़ेगी, क्योंकि इसके लिए जो अतिरिक्त कर लगाना होगा, उसका बोझ मुख्यत: मज़दूरों पर ही पड़ेगा। उत्तर प्रदेश में क़र्ज़-माफ़ी के बाद पंजाब और महाराष्ट्र जैसे संकटग्रस्त राज्यों में भी क़र्ज़-माफ़ी की क़वायद तेज़ हो गयी है। तमिलनाडु के उच्च न्यायालय ने भी राज्य के सभी किसानों के लिए क़र्ज़-माफ़ी की योजना लागू करने का आदेश दिया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसी योजनाओं से किसानों की ज़ि‍न्दगी की तकलीफ़ें तो कम नहीं होने वाली, हाँ इनके फलस्वरूप आने वाले दिनों में मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता के ऊपर महँगाई की मार ज़रूर तेज़ पड़ने वाली है।
 
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017 अंक में प्रकाशित 
 
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