28-29 मार्च को कर्मचारी संगठनों ने बुलाई आम हड़ताल

Written by Navnish Kumar | Published on: March 28, 2022
सेंट्रल ट्रेड यूनियनों ने केंद्र सरकार की निजीकरण व श्रमिक विरोधी नीतियों के खिलाफ 28-29 मार्च को दो दिनी आम हड़ताल का ऐलान किया है। कर्मचारी संगठनों का कहना है कि वो केंद्र सरकार की कर्मचारी विरोधी, मजदूर-किसान विरोधी, युवा, जनता व राष्ट्र विरोधी नीतियों के खिलाफ ये हड़ताल कर रहे हैं। सरकारी बैंकों व संस्थानों के निजीकरण और बैंकिंग कानून अधिनियम 2021 को लेकर बैंक यूनियनों ने भी हड़ताल में शामिल होने का फैसला किया है। सेंट्रल ट्रेड यूनियनों के ज्वाइंट फोरम ने सोमवार औऱ मंगलवार को सरकार की नीतियों को कर्मचारी विरोधी बताते हुए इस राष्ट्रव्यापी हड़ताल (भारत बंद) का आह्वान किया है। तेल, बिजली, कोयला, दूरसंचार, डाक विभाग और बीमा से जुड़े कर्मचारियों के भी हड़ताल में शामिल होने की संभावना है तो रेलवे और रक्षा विभाग से जुड़े कर्मचारी संगठन भी बड़े पैमाने पर हड़ताल को सफल बनाने के लिए जन लामबंदी करेंगे। 



दो दिनी भारत बंद (हड़ताल) को वामपंथी पार्टियों सहित कई राजनीतिक दलों का समर्थन मिला है। आयोजकों ने नए लेबर कोड के खात्मे के साथ बेरोजगार व मज़दूर हित में क़ानून बनाने, देश बेचो अभियान पर रोक लगाने व सभी प्रकार की लूट के खात्मे के लिए एक सतत एवं जुझारू आंदोलन में बदलने का आह्वान किया है। 

केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने मोदी सरकार द्वारा बनाई गई मज़दूर विरोधी चारों श्रम संहिताओं को रद्द करने, मज़दूरों की रोजी रोटी छीनने वाले निजीकरण, मुद्रीकरण व ठेका प्रथा जैसी जनविरोधी नीतियों पर रोक लगवाने आदि मांगों को लेकर 28 व 29 मार्च को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है। देशभर के संघर्षशील ट्रेड यूनियनों व मज़दूर संगठनों के साझा मंच, मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान ने भी हड़ताल के समर्थन में पर्चा जारी किया है जिसमें सभी मज़दूरों को न्यूनतम मजदूरी ₹26000 व श्रम कानूनों की सुरक्षा सुनिश्चित करने, ठेकेदारी प्रथा खत्म करने व सार्वजनिक संपत्तियों का निजीकरण-मुद्रीकरण बंद करने आदि की मांग की गई है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सत्ताधारी दल से जुड़े संगठन बीएमएस ने भी साफ तौर पर कहा है कि नए लेबर कोड मज़दूर विरोधी हैं। मज़दूर संगठनों के पुरजोर विरोध के बावजूद मोदी सरकार ने ये श्रम संहिताएं क्यों बनाई हैं?

दरअसल कॉरपोरेट्स व बड़े पूंजीपति लंबे समय से ऐसे मज़दूर विरोधी कानूनों की मांग करते रहे हैं जिससे स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने ये नए लेबर कोड पूंजीपतियों के हित में बनाए हैं। ट्रेड यूनियन लीडर व सहारनपुर सीआईटीयू के जिलाध्यक्ष सुरेंद्र कुमार कहते हैं कि इन लेबर कोडस् के लागू होने के बाद मज़दूरों की स्थिति अधिकार-विहीन गुलामों जैसी हो जाएगी। किसानों के जुझारू आंदोलन से डरी मोदी सरकार अभी तक लेबर कोड लागू नहीं कर सकी है किंतु मौका देख लागू करने की फिराक में है। 

न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव (एनटीयूआई) के कार्यकारी उपाध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि इन श्रम संहिताओं में यूनियन बनाने और हड़ताल करने के अधिकार को भी पेचीदा व आपराधिक बना दिया गया है। हायर एंड फायर नीति लागू करना, मज़दूरों को ठेका श्रम और कैजुअल नौकरियों में धकेल देना, सामूहिक सौदेबाजी के बजाय व्यक्तिगत वार्ता, आदि के प्रावधान किये गए हैं। इनमें कोई भी प्रावधान मज़दूरों की जायज मांगों को पूरा करने में सक्षम नहीं है। जैसे कि ठेका और स्थायी श्रमिकों के बीच समानता, समान काम की समान मज़दूरी, नौकरी की सुरक्षा, न्यूनतम मज़दूरी के स्वीकृत फॉर्मूले के कार्यान्वयन आदि करना है। 

यही नहीं, न्यूनतम मज़दूरी भुगतान, ईएसआई, पीएफ, काम के दौरान मज़दूरों की सुरक्षा पर मालिकों की जिम्मेदारी से छूट देकर दोषी मालिकों को मिलने वाली सजा को भी परोक्ष तौर से खत्म कर दिया है। मज़दूरों की शिकायत पर श्रम निरीक्षकों द्वारा कम्पनियों के औचक निरीक्षण के अधिकार पर रोक लगा दी गई है। स्वतंत्र न्यायालयों की जगह न्यायाधिकरण बनाने की बात की गई है। न्यायाधिकरणों में स्वतंत्र जजों की बजाए सरकारी जज के साथ नौकरशाह बैठेंगे। सबसे महत्वपूर्ण इनके फैसलों को सिविल कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी। दूसरा, कारखाना की परिभाषा बदल कर मज़दूर वर्ग के बड़े हिस्से को श्रम कानूनों के दायरे से बाहर कर दिया गया है। ठेकेदारी प्रथा को खत्म करने के बजाय सरकार ट्रेनी व फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट आदि कानूनों के जरिए इसे बढ़ावा दे रही है। इसपे तुर्रा यह कि नए श्रम कोड में ठेकेदार को भी नियोक्ता मान के समस्या को हल करने के बजाय, इस मुद्दे से पीछा छुड़ा लिया गया है तो महिला मज़दूरों की सुरक्षा का सवाल एक बड़ा सवाल है।

चौधरी के अनुसार, आज देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवानों को चाहत के अनुसार नौकरी नहीं मिल पा रही है। उनकी जवानी की लूट की जा रही है जिससे नौजवान आत्महत्या करने तक को मजबूर हो रहे हैं। जिन सरकारी संस्थानों में युवाओं को नौकरी मिल सकती है, उनका तेजी से निजीकरण व निगमीकरण किया जा रहा है। निजीकरण उदारीकरण की नीतियों के द्वारा बैंक, बीमा, टेलीकॉम, तेल, कृषि, शिक्षा-स्वास्थ्य व जल, जंगल, जमीन आदि को कॉरपोरेट पूंजीपतियों को सौंप दिया गया है, अथवा सौंपने की प्रक्रिया चल रही है। सरकार के 'राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन' का अर्थ ही है कि जितना संभव हो राष्ट्रीय सम्पति को बेचना है। सड़क, रेल नेटवर्क, एयरलाइंस, दूरसंचार नेटवर्क बेचा जा रहा है। एयर इंडिया, बीपीसीएल, आईडीबीआई, कोयला खदानों और सभी बड़े सरकारी निगमों को बिक्री के लिए तैयार किया जा रहा है, जिसका मज़दूरों पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ने वाला है।

देश की सत्ता संसाधनों पर कोरपोरेट्स के नियंत्रण के कारण बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी से गरीब किसान, मजदूर छोटे व्यापारी अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। अभी हाल में ईपीएफ पर ऐतिहासिक रूप से ब्याज दर कम करके कमर्चारियों-मज़दूरों पर एक और हमला बोला गया है। देश में गरीबी-अमीरी की खाई तेजी से बढ़ रही है। महिला हिंसा, दलितों, आदिवासियों-अल्पसंख्यकों पर अपराध की घटनाएं बढ़ रही हैं। सत्ता के गलियारों में अपराधियों का कब्जा है। काले दमनकारी कानूनों के जरिये पुलिसिया आतंक मेहनतकश जनता व उनके पक्षधर बुद्धिजीवी कार्यकर्ताओं पर कहर बरपा रहा है। मज़दूरों-मेहनतकशों का जीवन चौतरफा संकटों से घिरा है और वे संकट से निजात पाना चाहते हैं। सरकार को भय है कि मज़दूर भी किसानों की तरह मज़दूर विरोधी कानून व नीतियों तथा शोषण दमन की जड़ वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के रास्ते पर न चल पड़ें इसलिए वह मज़दूर वर्ग को विभाजित करने के लिए अंध देशभक्ति और हिंदुत्ववाद के सिद्धांतों को आगे बढ़ा रही है। वे लगातार लोगों का ध्यान गैर-मुद्दों की ओर मोड़ते हैं। ऐसे में मज़दूर वर्ग को अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए निरंतर, जुझारू व निर्णायक आंदोलन की जरूरत है। इसलिए सभी मज़दूर 28 व 29 मार्च की अखिल भारतीय हड़ताल में बढ़चढ़ कर भाग लें और कामयाब बनायें।

यही नहीं, आय ना होने और महंगाई बढ़ने के कारण देश की अर्थव्यवस्था भी गर्त में जा रही है। इस स्थिति से उबरने के लिए जरूरी है कि लोगों को सुरक्षित, स्थायी नौकरी मिले। जब लोगों के पास खर्च करने को पैसे होंगे तब ही बाज़ार में मांग बढ़ेगी और रोज़गार के नए अवसर पैदा होेंगे। यह तभी संभव है जब सरकार अपनी मुद्रास्फीति नीति बदले, सामाजिक सुरक्षा पर अपना खर्च बढ़ाए ताकि पैसा सीधा लोगों की जेब तक पहुँचे। लेकिन भाजपा सरकार की नीतियां इसके उलट हैं। पैसे उगाहने के लिए सरकार ने भविष्य निधि पर मिलने वाली ब्याज दर में कटौती कर दी है, जिससे अनिश्चितता और बढ़ गई है। सरकारी उपक्रमों जैसे भारतीय बीमा निगम आदि में विनिवेश की तैयारी चल रही है, या फिर उन्हें निजी कंपनियों को औने-पौने में बेचा जा रहा है। एनटीआईयू के अनुसार, रेलवे स्टेशन, हवाईअड्डे, बंदरगाह समेत बैंक आदि का लगातार निजीकरण हो रहा है। जिन पूँजीपतियों को सरकार सार्वजनिक संपदा बेच रही है वे सरकारी बैंक के कर्ज़दार हैं। राजनैतिक दबाव में इन पूँजीपतियों का कर्ज़ माफ करने के कारण सरकारी बैंक दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गए हैं। इतिहास बताता है कि जब-जब आर्थिक संकट गहराता है, दक्षिणपंथी ताक़तें सर उठाती हैं। भारत का भी यही हाल है। 

सत्तासीन पार्टी आर्थिक संकट से ध्यान भटकाने के लिए देश को सामाजिक संकट के कुएं मेंं धकेल रही है। लोगों में धार्मिक विद्वेष बढ़ रहा है, लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन लगातार हो रहा है जिसमें देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका भी सरकार का साथ दे रही है। देश के निराश, हताश व बेरोज़गार युवा वर्ग को नफ़रत की अफीम चटा कर हिंसा के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मेहनतकश जनता को जाति, धर्म, प्रांत, भाषा आदि के आधार पर भड़काकर आपस में लड़ाया जा रहा है। बहुसंख्यक धार्मिक सम्मेलन और चुनावी मंचों से निरंकुश भड़काऊ भाषण दिए जा रहे हैं और संघ की पुरूष प्रधान और हिन्दुत्व वादी सोच का खुल कर प्रचार किया जा रहा है। इसका प्रतिकूल परिणाम साफ दिखने लगा है, मुस्लिम किशोरियों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है, उनके पहनावे को निशाना बनाकर उन पर हमले किए जा रहे हैं, महिलाओं की प्रतिभागिता श्रम बाज़ार में लगातार घट रही है। जनता के हक़ की बात करने वाले लोगों को आतंकवादी और देशद्रोही बता कर उन पर केस चलाए जा रहे हैं। मज़दूर और उनके यूनियन इन फ़र्जी मामलों से अछूते नहीं हैं। ट्रेड यूनियन के अधिकार भी लोकतांत्रिक अधिकारों संग गुंथे हुए हैं। यदि लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन जारी रहा तो मज़दूरों के अधिकार भी सुरक्षित नहीं रहेंगे।

मजदूरों के लिए अमृत काल नहीं, द्रोह काल है: एनटीयूआई
एनटीयूआई द्वारा जारी वक्तव्यों के अनुसार, वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा है कि देश को आज़ादी का अमृत काल मनाने की तैयारियां करनी चाहिए। आज़ादी से अब तक का यह सबसे अंधकारमय काल होगा जब देश बेरोज़गारी, भुखमरी, अशिक्षा और वैमनस्य के चपेट में होगा। मज़दूर वर्ग को अमृत काल नहीं, द्रोह काल की तैयारी करनी होगी। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा 28-29 मार्च 2022 को आम हड़ताल का आह्वान मज़दूर विरोधी क़ानूनों और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल है। न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव इस जंग में मेहनतकश वर्ग के हर लड़ाके के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा है और भगत सिंह की कही बात को दोहराता है कि एक युद्ध जारी है और यह युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक चंद शक्तिशाली लोगों का मेहनतकश जनता के संसाधनों पर कब्ज़ा ख़त्म नहीं हो जाता।

इंकलाब ज़िंदाबाद! 

प्रमुख मांगे।
28-29 मार्च 2022 की आम हड़ताल में शामिल हो!
मोदी सरकार:
मज़दूर विरोधी चारों लेबर कोड वापिस लो!
सबके लिए स्थायी सुरक्षित नौकरी सुनिश्चित करो!
ठेका प्रथा, फिक्स टर्म इम्पलायमेंट ख़त्म करो!
एक सम्मानजनक न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करो!
सभी के लिए पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करो!
समान काम के लिए समान मज़दूरी दो!
सरकारी उपक्रमों का निजीकरण, उनमें विनिवेश बंद करो!

सहारनपुर में ट्रेड यूनियनों ने मांगों को लेकर सीआईटीयू के बैनर तले विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया है। अखिल भारतीय किसान सभा के जिलाध्यक्ष राव दाऊद कहते हैं कि सभी मुख्य मांगों के साथ किसानों को लेकर भी उनकी मांगें है। जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी जामा पहनाए जाने की मांग है तो 14 दिन में गन्ना भुगतान करने व अन्यथा की स्थिति में सूद सहित भुगतान की मांग हैं। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों को पड़ोसी हरियाणा व पंजाब राज्य के बराबर रेट (गन्ना भाव) दिलाया जाए। 

वरिष्ठ किसान नेता प्रीतम चौधरी कहते हैं कि हमारे (यूपी के) गन्ने की चीनी रिकवरी हरियाणा पंजाब से ज्यादा है लेकिन भाव 10-12 रुपये कुंतल कम है जो गलत है। दूसरा, भूमि अधिग्रहण में एक जिले और एक परियोजना में समान प्रकृति की जमीनों के मुआवजों में 1 और 20 के बड़े अंतर कर दिए गए हैं जो गलत है। मुआवजों में संभव समानता होनी चाहिए ताकि किसान को बेवजह की मुक़दमेबाजियों में फंसने से बचाया जा सके।

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