थारू महिला से छेड़छाड़ पर दुधवा नेशनल पार्क के डिप्टी डायरेक्टर पर मुकदमा दर्ज

Published on: August 27, 2020
लखीमपुर खीरी। आदिवासी थारू महिला से छेड़छाड़ पर दुधवा नेशनल पार्क के डिप्टी डायरेक्टर मनोज कुमार सोनकर के खिलाफ लखीमपुर-खीरी ज़िले की गौरीफंटा कोतवाली में मुकदमा दर्ज हो गया है। पुलिस ने छेड़छाड़ के साथ एससी-एसटी एक्ट की धाराएं भी लगाई हैं। 



घटना एक अगस्त की है जब यह थारू महिला अपने खेत पर बकरी चरा रही थी। तभी डीडी दुधवा मनोज कुमार सोनकर गश्ती दल के साथ वहां आएं और वन भूमि पर बकरी चराने के आरोप में महिला से बदतमीजी की। महिला का कहना है कि वह अपने खेत में बकरी चरा रही थी। उसने यह बात डीडी दुधवा को कही तो डीडी दुधवा मनोज सोनकर नाराज हो गए। आरोप है कि डीडी दुधवा जाति सूचक गालियों पर उतर आए और विरोध पर बुरी नजर से हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगे। इस पर आसपास की महिलाएं आदि आ गईं तो डीडी दुधवा वहां से चले गए। दो बकरी व एक ग्रामीण को भी पार्क कर्मी अपने साथ ले गए। वहां से वापस लौटते समय इससे गुस्साए ग्रामीणों महिलाओं व पुरुषों ने सेड़ा-बेड़ा में रास्ते पर बांस-बल्लियां लगाकर रास्ता बंद कर दिया था। 

मामले में पार्ककर्मियों और ग्रामीणों के बीच हाथापाई के भी आरोप हैं। गौरीफंटा पुलिस के पहुंचने और पकड़े गए ग्रामीण को वन विभाग द्वारा छोड़ने पर ही गुस्साए ग्रामीण शांत हुए थे। बाद में मामले में महिला की तहरीर पर गौरीफंटा कोतवाली पुलिस ने दुधवा नेशनल पार्क के डिप्टी डायरेक्टर मनोज कुमार सोनकर समेत अन्य पर छेड़छाड़ व एससीएसटी एक्ट समेत अन्य धाराओं में रिपोर्ट दर्ज कर ली गई है। पुलिस क्षेत्राधिकारी पलिया कुलदीप कुकरेती कहते हैं कि गौरीफंटा कोतवाली में डीडी दुधवा के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की गई है। जिसमें जांच कर आगे की कार्रवाई की जाएगी।

वन कर्मियों का जुलाई में भी ग्रामीणों से विवाद हुआ था। एक जुलाई को भारत-नेपाल सीमा पर मोहाना नदी घाट की जमीन को जोतने को लेकर दुधवा नेशनल पार्क की बनकटी वन विभाग की टीम और कजरिया गांव की वन समिति के लोगों के बीच झड़प हो गई। जो मारपीट में बदल गई। वनकर्मियों ने कई हवाई फायर भी किए थे। मामले में दोनों पक्षों की तरफ से गौरीफंटा कोतवाली में रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी।

पूरे मामले को लेकर थारू आदिवासी महिला किसान संगठन की प्रमुख व वनाधिकार कार्यकर्ता सहवनिया राणा कहती हैं कि वन विभाग द्वारा वनाश्रित समुदायों के उत्पीड़न के पीछे ऐतिहासिक कारण हैं। अंग्रेजी काल की तरह आज भी वन विभाग ना सिर्फ जंगल को अपनी जागीर मानते हैं बल्कि यहां रहने वाले समुदायों के घरेलू जानवरों और महिलाओं को भी अपनी सम्पत्ति समझ कर लूटने का अधिकार मानते हैं। 

यही कारण है कि आज़ाद भारत में वनाश्रित समुदायों के जंगल पर अधिकारों को स्थापित करने के उदे्श्य से संसद द्वारा 2006 में पास किये गये वनाधिकार कानून को ज़मीनी स्तर पर लागू न होने देने के लिये लगातार अड़चने पैदा कर रहा है और अंग्रेजी काल में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बनाये गये ‘‘भारतीय वन अधिनियम-1927’’ को सर्वोपरि मानते हुए इस कानून का इस्तेमाल समुदायों के उत्पीड़न के लिये लगातार करता चला आ रहा है। 

लंबे समय से थारू जनजाति व अन्य वनाश्रित समुदायों के अधिकारों के लिए काम कर रहे अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य रजनीश गौरीफंटा कोतवाली पुलिस अधिकारियों का तहेदिल से धन्यवाद अदा करते हुए कहते हैं कि उन्होंने यहां की थारू आदिवासी महिलाओं के सरकारी अधिकारियों द्वारा किये गये उत्पीड़न को गम्भीरता से संज्ञान में लेते हुए इनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने का काम किया। 2012 में सूडा गॉव की वनाधिकार नेत्री निबादा राणा पर दुधवा वार्डन ईश्वर दयाल और गौरीफंटा थानाध्यक्ष शुभसूचित राम द्वारा जब जानलेवा हमला किया गया, उस वक्त एक माह बाद लोगों के आंदोलित होकर हजारों की संख्या में तहसील घेराओ के बाद ही पुलिस द्वारा इन दोनों अधिकारियों पर मुकदमें कायम हो सके थे।

रजनीश कहते हैं कि प्रशासन को भी यह बात समझनी होगी कि वनाधिकार कानून के आने के बाद अब वनों पर वनविभाग के अधिकार सीमित हो गये हैं। यह व्यवस्था अब संशोधन 2012 के अन्तर्गत समुदायों को हस्तांतरित की जानी है और प्रशासन को समुदायों के साथ मददगार की भूमिका में रहना होगा। यही नहीं, यह भी समझना होगा कि वन क्षेत्रों में वन विभाग और वन समुदायों के आये दिन होने वाले टकराव को खत्म करने का रास्ता वनाधिकार कानून के सही अर्थों में लागू होने में ही छुपा है।

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