नारंगी भूमि पर गठित टास्क फोर्स की रिपोर्ट, इतिहास और वर्तमान

Written by राज कुमार सिन्हा | Published on: August 31, 2020
मई 2019 में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक कार्य बल का गठन किया जिसे राजस्व व वन विभागों के बीच नारंगी क्षेत्रों से सबंधित विवादों को हल करने के लिए स्पष्ट यांत्रिक प्रक्रिया और सुझाव देने के लिए गठित किया था। जिसका मुख्य काम नारंगी क्षेत्र की भूमि का कानून और कानूनी स्थिति, समाधान के लिए सिद्धांतों को विकसित करना, जो कानून के दायरे में हो और मध्यप्रदेश में समावेशी विकास के लिए, आदिवासी और वन समुदायों के अधिकारों सहित संरक्षण और विकास की जरूरतों को संतुलित करना था। कार्य बल की रिपोर्ट इसी साल कुछ महीने पहले आई है। ज्ञात हो कि 2004 में मुख्य सचिव ने सभी कलेक्टरों को बार-बार निर्देश देने के बाद और 2015 में प्रमुख सचिव वन विभाग के स्मरण पत्र के बाद भी समस्या बनी हुई है।



नारंगी भूमि के इतिहास को समझने के लिए अतीत में जाना होगा। वन कानून के माध्यम से देश के जंगलों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया। पहला आरक्षित वन कहा गया।ऐसा क्षेत्र जिसे भारतीय वन अधिनियम 1927 के अन्तर्गत पूर्ण रूप से वन अधिसूचित किया गया है। आरक्षित वनों के क्षेत्रफल में हर तरह की गतिविधि प्रतिबंधित होती है, जहां बिना अनुमति के कोई भी काम या गतिविधि नहीं किया जा सकता है। दूसरी श्रेणी के जंगल जिन्हे संरक्षित वन कहा गया। उनमें स्थानिय लोगों के अधिकारों का दस्तावेज़िकरण किया जाना था और अधिग्रहण नहीं किया जाना था।

ये जंगल स्थानिय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन थे जो इन जंगलों में बसे थे और जिनका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय निस्तार जरूरतों के लिए भी करते थे। इन संरक्षित वनों का एक बङा हिस्सा निस्तार अधिकारों के लिए सामान्य अधिसूचना के माध्यम से छोड़ दिया गया परन्तु इसे पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं किया गया। जिसका खामियाजा इन आदिवासी समुदायों को ऐतिहासिक अन्याय के रूप में भुगतान पङ रहा है।

इसी बात की पुष्टि वन अधिकार कानून 2006 की प्रस्तावना में होती है जिसमें लिखा है कि "औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी।" सन् 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य का भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था। जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर वनेत्तर सामुदायिक भूमि दर्ज थी। सन् 1958 में वयक्तिगत एवं सामुदायिक अधिकारों का अभिलेखन के बिना ही 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि में से 91.274 लाख हैक्टेयर वनभूमि को संरक्षित भूमि मानकर सन् 1961 से डिमारकेशन शुरू कर दिया और 56.310 लाख हैक्टेयर जमीनों को आरक्षित वन बनाए जाने हेतु वन अधिनियम 1927 की धारा 4(1) के तहत राजपत्र में अधिसूचित कर दिया। लेकिन धारा 5 से19 तक की कार्यवाहीयों के बिना ही इन जमीनों को वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया गया।

इन लाखों हैक्टेयर सामुदायिक जमीन में से वन विभाग ने वन विकास और वानिकी प्रबंधन के लिए उपयुक्त माना और उसे अपने नक्शे पर हरे रंग से रंग दिया। दूसरी ओर जो जमीन गांव के निस्तार, गांव के फैलाव जैसे संभावनाओं के लिए जमीनों का उपयोग किया जा रहा था, इसे अनुपयुक्त माना गया। इसे राजस्व विभाग ने नारंगी रंग से रंग दिया। जिसे नारंगी भूमि का नाम दिया गया। जबकि जंगलों से सबंधित किसी भी कानून में नारंगी भूमि या ऑरेंज एरिया के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। 91.274 लाख हैक्टेयर जमीन संरक्षित मान लिए जाने के बाद इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों का हक दिये जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाओ योजना के तहत अंतरित किया वहीं कुछ जमीनें 1975 में राज्य मंत्रीमंडल के निर्णय के तहत अंतरित किया गया। परन्तु बहुत सी अनुपयुक्त जमीनों को विभाग ने "ग्राम वन" के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा। समस्त भूमि को "नारंगी भूमि" मानकर उनका सीमांकन एवं सर्वे मई 1966 से किया गया जो आज भी चल रहा है परन्तु कोई नतीजा नहीं निकल सका है। वन विभाग ने 49 हजार 577 काबिजों को 1980 के बाद का अतिक्रमणकारी बता कर 30 जून 2006 तक बेदखल कर दिया।

कार्य बल ने रिपोर्ट में कहा कि नारंगी भूमि की कानूनी स्थिति के आंकलन अनुसार किसी भूमि का भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 29 के तहत ज़ारी अधिसूचना में शामिल करने से संरक्षित वन बन जाता है। संरक्षित वन के गठन के बाद राज्य सरकार को भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 32 के तहत बनाए गए नियमों द्वारा कुछ गतिविधियों को विनियमित करने की शक्ति मिलती है। संरक्षित वन भूमि की कानूनी मान्यता तब खत्म हो जाती है जब उसे भारतीय अधिनियम 1927 की धारा  34(ए) तहत अधिसूचित किया जाता है। मध्यप्रदेश भू राजस्व संहिता 1959 के प्रावधानों अनुसार उक्त भूमि राजस्व विभाग के अधीन हो जाता है। जिसे भू राजस्व संहिता के अध्याय 18 के प्रावधानों के अनुसार प्रशासित किया जा सकता है। धारा 34(ए) के तहत अधिसूचना जारी करने के लिए वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के तहत केंद्र सरकार की कोई पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। इस तरह की अधिसूचना का मतलब यह है कि वनभूमि भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 32 के तहत बने नियमों के अधीन नहीं होगी, बल्कि मध्य प्रदेश भू राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 में निहित प्रावधानों के अधीन होगी। वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 की धारा 2 खंड (1) के प्रावधान केवल आरक्षित वन पर लागू होते हैं।सामान्य अधिनियम 1897 की धारा 21 के प्रावधान और भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 4 या 29 की तरह जारी किसी भी अधिसूचना को संशोधित करने या रद्द करने के लिए राज्य सरकार को अधिकार देता है।

संरक्षित क्षेत्रों के बङे हिस्से को लेफ्ट आउट क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। जब सन् 1963 में सर्वेक्षण और सीमांकन शुरू किया गया तो उक्त क्षेत्रों में अतिक्रमणकारियों की एक बङी संख्या पाया गया और ग्रामीणों को अपने निस्तार आवश्यकताओं को पूरा करने में समस्याओं का सामना करना पङ रहा था। क्योंकि लगभग सभी गांवों के पास के जंगल वन विभाग के कब्जे और प्रबंधन के अधीन थे। 1960 के दशक में देश भयंकर सुखे का सामना कर रहा था और भोजन की कमी हो गई। इस संदर्भ में किसानों को "अधिक खाद्य कार्यक्रम" के तहत खेती के लिये भूमि आबंटित की गई थी। यह भूमि सर्वेक्षण और सीमांकन प्रकिया के दौरान लेफ्ट आउट क्षेत्र में शामिल था और इस भूमि को धारा 34(ए) के तहत अधिसूचना की प्रत्याशा में वितरित किया गया था। परन्तु अधिकतर लेफ्ट आउट भूमि को 34(ए) के तहत अधिसूचित नहीं किया गया। कार्य बल ने उपरोक्त सभी समस्याओं के लिये चार मुख्य कारणों की पहचान किया है। 

(1) नियत प्रकिया पूरी होने के इंतजार किये बिना डी- नोटीफिकेशन और भूमि का वितरण 
(2) धारा 34(ए) के तहत सूचनाओं को प्रतिबिंबित करने के लिए अपने अभिलेख का अपडेट करने में वन एवं राजस्व विभाग की विफलता (3) 1955 की अधिसूचनाओं का गलत व्याख्या और 1958 की सामान्य अधिसूचना के क्रियान्वयन में गलतियाँ और
(4) सरकारी नीति और विभागीय कार्यो में बदलाव सरकार के नीतिगत निर्णयों के अनुरूप नहीं होना प्रमुख कारण है।

कार्य बल ने सरकार को निम्न सुझाव भी दिये हैं।
(1)नारंगी क्षेत्रों में जारी किये गये पट्टों को कैबिनेट निर्णयों के अनुसार 34(ए) के तहत संरक्षित जंगलों को अधिसूचित नहीं किया गया। इन पट्टों को लेकर राज्य सरकार को केन्द्र सरकार से अनुमति प्राप्त कर इस समस्या को निपटाना चाहिए। राजस्व अधिकारियों द्वारा 1976 के बाद के बाद जो पट्टा दे दिया गया है लेकिन 2005 के पहले। उक्त पट्टेधारियों की समस्या का निराकरण वन अधिकार कानून 2006 के प्रावधानों के अनुसार किया जाना चाहिए।

(2)आरक्षित वन के गठन के लिए भारतीय अधिनियम 1927 की धारा 4 के तहत अधिसूचना जारी की गई थी परन्तु इसका निपटारा लंबित है और 1927 की धारा 20 के तहत अधिसूचित नहीं किया गया है। आरक्षित वनों की अधिसूचना के लिये कार्यवाही 9 से सबंधित सिफारिशों के अधीन शीघ्र पूरी की जानी चाहिए।

(3) राज्य सरकार द्वारा धारा 34(ए) के तहत ज़ारी अधिसूचना के अनुसार राजस्व और वन विभाग के अभिलेख को अपडेट नहीं किया गया है। इसको लेकर भूमि की सही कानूनी स्थिति को दर्शाने के लिए राजस्व और वन अभिलेखों को अधतन किया जाना चाहिए।

(4) कुछ जिलों के गांव की सीमाएं बदल दी गई हैं। अधिसूचना के समय गांव की सीमाओं में परिवर्तन होने वाले मानचित्रों को उनकी मुल सीमाओं में फिर से स्थापित किया जाना चाहिए।

(5) रैयतवारी गांवों की पहचान करनी चाहिए जहां 1958 की सामान्य अधिसूचना लागू नहीं की गई होगी इन गांव में भूमि की स्थिति 1958 की अधिसूचना के समय की तरह बनी रहनी चाहिए। इस राजस्व भूमि का प्रशासन 1959 के मध्यप्रदेश राजस्व कोड के अनुसार किया जाना चाहिए।

(6) प्रत्येक गांव की जमीन का उपखंड स्तरीय अधिकारी को जांच करना चाहिए जो राजस्व अभिलेखों में बंजर भूमि वन के रूप में दर्ज नहीं की गई थी। लेकिन अधिकारियों द्धारा संरक्षित वन के रूप में माना जाता है। 1958 के बाद अभिलेख पर इस भूमि की स्थिति को राजस्व भूमि के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, जबतक भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत अधिसूचनाए नहीं किया जाए। यह केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की सिफारिश के अनुरूप है।

(7) भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 29 के तहत जारी अधिसूचनाओं में राजस्व ग्रामों के अभिलेखों के संदर्भ में भूमि को संरक्षित वन में परिवर्तन करने का कार्य किया गया है। कई मामलों में भूमि के उपखंड की वास्तविक वनखंड क्षेत्र से अलग है। अतः वनखंड के उपखंड की वास्तविक क्षेत्र को संरक्षित वन में परिवर्तित किये गये भूखंडों का रिकार्ड क्षेत्र के साथ मिलान करना चाहिए। 

(8) 1960 के दशक में सर्वेक्षण और सीमांकन प्रक्रिया के दौरान लगभग 30 हजार हेक्टेयर निजी भूमि को वन विभाग अपने कार्य योजना में शामिल कर लिया है। भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 3 और 29 राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं देता है। अतः निजी भूमि को वन रिकार्ड से तत्काल अलग कर दिया जाए और वन विभाग को इस तरह की भूमि पर भू स्वामि अधिकारों का प्रयोग करने की अनुमति सिवाए उन भूमि के लिये हो जहां मालिकों को मुआवजा दिया गया है।

(9) कुछ मामलों में अधिकारियों ने बिना किसी कानूनी प्राधिकार के कार्य योजना में संशोधन के दौरान वन सीमाओं में परिवर्तन किया है। भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 20 या 29 के अन्तर्गत जारी अधिसूचना को प्रतिबंधित करने के लिए सीमाओं को सुधारा जाना चाहिए।

(10)राजस्व भूमि जिसे कार्य योजना के अनुसार प्रबंधन में वन विभाग शामिल कर लिया है। मध्यप्रदेश भू राजस्व संहिता 1959 के अनुसार तुरंत राजस्व विभाग को सोंप देना चाहिए।

(11)राजस्व और वन विभाग के नक्शे विभिन्न मानचित्रों पर दिखाया जाता है। वन और राजस्व दोनों के मानचित्रों को डिजिटल बनाना चाहिए।

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