स्टेच्यू ऑफ यूनिटी: वेदना एक आदंबर प्रतिमा की

Written by Ujjawal Krishnam | Published on: November 3, 2018

विश्व की विशालतम प्रतिमा अपने आप में गूढ़ रहस्य को भी छिपाए खड़ी है, क्या यह दबे कुचले के पेट पर स्तंभित तो नहीं?

 
Statue of unity
 
केवडिया के मनोरमा को लपेटे हुए, प्राकृतिक सिरोमानियों के बीच विद्यमान विशालकाय ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ भारत के मनोबल को ऊंचा करता देखा जा रहा है, कहा यह भी जा रहा है कि पर्यटन को लाभ पहुंचेगा। सरदार पटेल, जिन्हें लौह पुरुष के नाम से जाना जाता है, की प्रतिमा एकता को प्रदर्शित करने के कथित नाम पर स्तंभित किया गया है।
 
३००० करोड़ के लागत से बनी प्रतिमा के जगह शायद कई विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय खोले जा सकते थे, ऐसा विवेचकों ने अनुमान लगाया। खैर छोड़िए, विश्वविद्यालय तो बनते रहेंगे, एक प्रतिमा भी चाहिए थी, ततः बन गई। इसके साथ भारत विशाल प्रतिमाओं वाला देश भी बन गया, अब क्या? चलिए विचारते हैं इस प्रतिमा के नीव को,  भारत के तत्कालीन ‘एकता‘ ‘अखंडता‘ और ‘समरसता‘ को जिसे मूलभूत अयस्क मान खड़ा किया गया है ‘सरदार’ के प्रतिमा को। 
 
‘लौह पुरूष’ पटेल भारत के प्रथम गृह मंत्री तो थे ही, साथ में भारत गणराज्य के ऐतिहासिक गठन का श्रेय भी सरदार को जाता है, जिसके पीछे छिपा है छोटे छोटे रजवाड़े के विलय का दिलचस्प किस्सा। वैसे हम इस वस्तु पर  विराम लेंगे और बात यहां करेंगे ‘एकता - अखंडता‘ की, जो आज का महत्वपूर्ण शीर्षक बन कर उभरी है। 
 
कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद का मशला तो जाहिर है, लेकिन इनमें नक्सल का मुद्दा आज भी एक अनसुलझी कहानी बनी हुई है, जहां हम अखंडता की बात करे तो राष्ट्र ने उन आदिवासियों को क्या दिया जो हर रोज़ एक नई सुबह में ‘राष्ट्रविरोधी’ विचारधारा का संचार करते हैं। 
 
कभी हमने ये तो नहीं पूछा - आखिर, क्यूं? आखिर क्यों आज भारत बनाम भारत की स्थिति बन चुकी है जहां राजनेता माओवादी उग्रवादियों को सबसे बड़ा आंतरिक ख़तरा मानते हैं। उनकी माटी, उनकी जमीन में ऐसा कौन सा लालच छुपा है जो जनतंत्र के पहरेदारों को जनता के ही खिलाफ खड़ा कर रही है। शायद सरदार होतें, तो उनके गले ना उतरती बात, समझ भी  न पाते कि जन जमीन और जमुरियत का कौन सा ऐसा सिक्का उनका खोंता निकला कि अखंड राष्ट्र के मंडल पर एक धब्बा और मेजबानी का जुमला सा बन कर रह गई अखंडता?
 
चिदंबरम और राजनाथ जी के बीच कितना भी अधिक राजनीतिक मतभेद हो, जब बात दंतेवाड़ा और दंडकारण्य की आती है तो  दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस तरह ‘वेदांता’ द्वेष भावना नहीं रखता इनसे, वस्तुतः वहीं अपेक्षा ऐसे कारखाने रखतें हैं सरकार से, माई बाप तो उन कुपोषितों के जा रहे बली चढ़ने जिनके दूसरे पल तेंदू पत्ते की अनुलब्धता से आर्थिक छत चरमरा  जाए। जन, जंगल और जमीन  उसी इंकाई पर टिका है हमारा शहरी हुजूम जो अंग्रेज़ी के दो टूक समाचार बोध से विडंबात्मक स्थिति में भी एक मूर्ति मात्र के नाम पर  यूनिटी और डायवर्सिटी  जैसे गूढ़ शब्दों को छेड़ता है। क्या वहीं यूनिटी जो जनजातियों  के डायवर्सिटी को नोच खाने पर तुली है? 
 
यह बात शायद सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रतिमा से हजारों किलोमीटर दूर की है, शायद इसका कोई असर  गुजरात में ना दिखे, शायद जनतना अदालत और उडिया आदिवासियों का स्वराज्य अमूनन कुछ और हो। विचलता तब बढ़ जाती है, जब हास्य हश्र और दुःखी दैत्य टूट पड़ता है लात मारने, अपितु यह भी एक सोचनीय बिंदु है कि पटेल की प्रतिमा से स्थानीय जनता खुश है?
 
१९९० के नर्मदा विस्थापन का दौर अभी भी उनके जहन में शामिल है, गांववासियों को जमीन तो मिले लेकिन विस्थापित लोगों को अभी तक मूलभूत सुविधाओं जैसे- पानी भी अच्छे से मुहैया नहीं। जब ग्रामीण और आदिवासी धरना देने आए तो केवड़िया से उन्हें हिरासत में ले लिया गया ताकि विश्वपटल पर भारत और उसके  प्रधानमंत्री की गरिमा बनी रहे, भला वह स्मारक ही कैसा जिसके नीचे गरीब पानी को तरसे और ३ तारे वाले होटल में धनी पर्यटक पानी के फ़व्वारे उड़ाएं। 
 
प्रधान सेवक का यह वादा था कि केवड़िया जैसे ग्रामीण इलाके को विश्व पर्यटन के मानचित्र पर लाएंगे, लेकिन उसके पहले साहेब  ने शायद ही सोचा की विशाल विस्तार में वे गरीब आदिवासी  पेट कैसे भरेंगे? पर्यटन के बहाने तो सही लेकिन केवड़िया कॉलोनी में यातायात की अच्छी सुविधा तक नहीं। वडोदरा, जो सबसे नजदीक शहर है प्रतिमा के, वो भी ८० किलोमीटर है। प्रश्न यह भी है कि क्या कॉन्ट्रैक्ट के आगे भी कुछ हासिल हो सकता है सुदूर आदिवासियों को, जिनके लिए प्रतिमा- एक प्रतिमा है और चाहे कोई सरकार आए, पराई ही है। 
 
राजनीतिक पक्षों ने जो दिवंगत महापुरुषों को क्रय विक्रय का जरिया बना लिया है, उन्हें इस पर शर्म भी नहीं कि उसी समय मात्र में वे महापुरुषों के मूल्यों कि चिता भी जला रहे हैं। 
 
ऐसी विभित्शिका जिसका पर्याय केवल द्वेष की राजनीति है- जो मौजूद है हमारे स्वाभिमानी देश की सिर्ष पर। जहां अल्पसंख्यक, महिला, आदिवासी, दलित का स्वाभिमान हर रोज़ उछाला जाए, जहां एकता और अखंडता कटु ब्राह्मणवाद और सावरकर  के हिंदुत्व का परिचायक मात्र बन रह जाए, उस देश और उसके सरकार को धिक्कार है कि एक महापुरुष के विशालकाय प्रतिमा के मान पर भी उनके आदर्श मूल्यों को ना प्रबद्घ कर पाया 
 
एकता और अखंडता की गूढता हम तभी समझ पाएंगे जब आंतरिक क्लेश और सामाजिक अपंगतायों का बहिष्कार कर दें, नहीं तो ये बस हास्य वेदना ही रह जाएगी भारतीयता पर।  

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