लिलासी में बन रहे उम्भा जैसे हालात, 15 गोंड़ आदिवासी महिलाओं को सोनभद्र पुलिस ने पीटा

Written by Navnish Kumar | Published on: January 11, 2021
याद कीजिए, साल 2019 की 16 जुलाई। सोनभद्र के उम्भा गांव में वन विभाग की 'विवादित' जमीन पर कब्जे को लेकर इलाके के दबंगों ने 11 आदिवासियों की गोलियों से भूनकर निर्मम हत्या कर दी गई थी। गोलीबारी में गोंड जनजाति के 11 लोग मारे गए थे। दर्जनों घायल हुए थे। पुलिस प्रशासन की अनदेखी से अब लीलासी में भी उम्भा जैसे हालात बनते दिख रहे हैं। ऐसी ही 'विवादित' व वनाधिकार कानून के तहत क्लेम की गई जमीन पर अवैध कब्जे का विरोध कर रही 15 गोंड़ आदिवासी महिलाओं के साथ सोनभद्र पुलिस ने न सिर्फ मारपीट की, बल्कि 6 महिलाओं को जेल भी भेज दिया।



जिस जमीन को लेकर उम्भा में 11 गोंड़ आदिवासियों की जान ले ली गई थी, उस जमीन को दबंग, गैर कानूनी तरीके से हथियाना चाहते थे। पहले यह जमीन सोसाइटी के नाम थी। बाद में एक आईएएस परिवार ने अवैध तरीके से इसे खरीद लिया और करोड़ों का मुनाफा बनाते हुए, प्रधान आदि दबंगों को बेच दिया था। जिन्होंने कब्जा लेने के लिए 11 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था। 

सोनभद्र में उम्भा अकेला गांव नही है जहां आदिवासियों की काबिज-काश्त व वनाधिकार कानून के तहत दावा की गई 'धारा-20 की विवादित' जमीनों पर गैर कानूनी तरीके से कब्जा किया गया या किया जा रहा हैं और खरीद फरोख्त से करोडों-अरबों रुपये बनाए जा रहे हैं। 

उम्भा कांड के बाद शासन द्वारा कराई गई जांच में ही हजारों एकड़ जमीन पर इसी तरह के अवैध कब्जे पाए गए हैं। 

अपर मुख्य सचिव रेणुका कुमार की अध्यक्षता वाली 6 सदस्यीय कमेटी ने अपनी 1100 पेज की जांच रिपोर्ट में कहा है कि एक हजार एकड़ से अधिक जमीन पर अवैध कब्जा किया गया है जिसमें 650 एकड़ से अधिक जमीन सहकारी समितियां बनाकर कब्जा की गई है। इस जमीन की कीमत लगभग 700 करोड़ रुपये आंकी गई है। जांच समिति ने 1952 से 2019 तक के दस्तावेज के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है। 

अब दूसरा सच सुनिए। गैर कानूनी तरीके से जमीनों पर कब्जा करने वालों में नेता व अधिकारी सबसे आगे हैं। उम्भा कांड में भी नेता व आईएएस के खरीद बेच में सीधे शामिल होने का खुलासा हुआ है। यही नहीं, करोड़ों के वारे-न्यारे के इस गोरखधंधे में स्थानीय पुलिस प्रशासन, दबंग कब्जा धारकों का सबसे बड़ा मददगार रहा है। यह हम नहीं, बल्कि उम्भा कांड के बाद आई एसआईटी की जांच रिपोर्ट यह सब चुगली कर रही है। 

खबरों के अनुसार, एसआईटी की रिपोर्ट में सामने आया कि आरोपियों ने उम्भा की जमीन बिक्री में ही एक करोड़ नौ लाख नब्बे हजार छब्बीस रुपये का लाभ अर्जित किया। वहीं एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में सोनभद्र के तत्कालीन डीएम, एसडीएम समेत 21 अधिकारियों/कर्मचारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई और एक एसडीएम, एक तहसीलदार समेत 22 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने की सिफारिश की है। जो पुख्ता सबूत हैं मिलीभगत का।

लेकिन सवाल इससे भी कहीं आगे का यह है कि क्या उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रशासन ने उम्भा कांड से कोई सबक लिया है? जवाब 'ना' में है। और वह आज भी पूरी तरह ताकतवर दबंगों के ही साथ खड़ा दिखता है। इसका ताजा उदाहरण दुद्धी तहसील के म्योरपुर थाना अंतर्गत लीलासी गांव में देखने को मिला है। 

यहां आदिवासियों ने अपनी कानून (वनाधिकार अधिनियम-2006) के तहत क्लेम की गई जमीन पर दबंगों के (उम्भा गांव की ही तरह से) गैर कानूनी कब्जे का विरोध किया तो पुलिस ने अवैध कब्जा रोकने की बजाय, उल्टे आदिवासी महिलाओं को मारा पीटा और शांति भंग आदि की धाराओं में जेल भेज दिया। 

आदिवासियों का कहना है कि विवादित जमीन उन आदिवासियों की हैं। स्थानीय आदिवासी नेता नन्दू गोंड आदि के अनुसार, धारा-20 की इस 'विवादित' जमीन पर करीब दो दशक पूर्व एक स्थानीय विधायक ने अपने प्रभाव से कब्जा जमा लिया था और उम्भा की तरह ही बाद में जमीन दूसरे दबंग व्यक्ति को बेच दी जो अब कब्जा कर रहा है। पुलिस भी, इस गैर कानूनी खरीद-बेच में न सिर्फ दबंगों के साथ खड़ी है बल्कि वह कानून की दुहाई दे रहे आदिवासी समुदाय के लोगों को नक्सली आदि तक कहने व बताने से भी गुरेज न करके, उन (आदिवासियों) के नागरिक अधिकारों का भी अपमान कर रही है।

यह भी तब, जब 2018 में भी इस जमीन को लेकर आदिवासी महिलाओं पर हमला हो चुका है। तब दबंगों की शह पर वन विभाग व पुलिस ने घरों में घुसकर तोड़फोड़ की थी। वहीं, पुरुष पुलिसकर्मियों द्वारा महिलाओं से मारपीट व अभद्रता आदि जमकर कहर बरपाया गया था। इतना ही नहीं, उल्टे किस्मतिया गोंड़ आदि महिलाओं पर लकड़ी चोरी जैसे झूठे मुकदमे बना दिए गए थे। बाद में वन मंत्री से मिलकर लौट रहे वनाधिकार समिति के सदस्यों व अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की महिला लीडर सुकालो गोंड़ तक को रेलवे स्टेशन से ही उठाकर जेल में डाल दिया था। यूनियन नेत्री सुकालो गोंड़ को 5 माह जेल में रखा गया। यही नहीं, दो माह पहले भी महिलाओं ने अवैध कब्जे का विरोध किया था। तब भी शासन प्रशासन को लिखा गया था लेकिन शायद वही बात है कि पुलिस-प्रशासन उम्भा कांड के बाद भी ऐसे अवैध कब्जों को लेकर गंभीर नहीं दिखता है। 

खास है कि सोनभद्र उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा ज़िला है। यह देश का एकमात्र ऐसा ज़िला है जिसकी सीमा चार राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार से लगती है। कैमूर की पहाड़ियों और जंगलों में बसे सोनभद्र इलाक़े में तक़रीबन 70 फ़ीसदी आबादी आदिवासियों की है। यहां के आदिवासी आज भी वन अधिकार क़ानून के तहत ज़मीन का मालिकाना हक पाने के लिए सरकारी हुक्मरानों के साथ निवेदन से लेकर विरोध तक की सारी लड़ाईयां लड़ रहे हैं। लेकिन सरकारी हुक्मरान अपने फ़ायदे के लिए कानून (वनाधिकार) की बजाय, जंगल के क़ानून की तरह, ताकतवर का ही हुक्म (राज), बजाते ज्यादा दिख रहे हैं।

सदियों से प्रताड़ना सहते आ रहे आदिवासी समुदाय के प्रति, आज भी पुलिस (कई बड़े अधिकारियों) के भी दुर्भावनापूर्ण रवैये व बर्ताव को देखकर लगता है कि इन्हें (नागरिकों संग बर्ताव) के साथ-साथ कानून व संविधान की भी तत्काल ट्रेनिंग की आवश्यकता है। 

लीलासी गांव की ही बात करें तो एक ओर, प्रशासन आदिवासियों के वनाधिकार के व्यक्तिगत व सामुहिक दावों पर निर्णय लेने में अनावश्यक देरी कर रहा है तो दूसरी ओर, पुलिस ने आदिवासी समुदाय की क्लेम की गई जमीन पर अवैध कब्जाधारकों को ही शह देती दिख रही है। बिना जांच पड़ताल के ही गोंड़ आदिवासियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। वनाधिकार कानून के तहत 'विवादित' जमीन पर 23 मार्च 2018 को सामूहिक दावा करने के बाद से उत्पीड़न ज्यादा बढ़ गया है।

म्योरपुर पुलिस ने तो हद ही कर दी है। लीलासी में क्लेम की गई धारा-20 की जमीन पर अवैध कब्जा रोकने को लेकर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे आदिवासी समाज की महिलाओं और लड़कियों तक को नहीं बख्शा। मारा पीटा और शांति भंग आदि की धाराओं में 15 गोंड़ आदिवासी महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया। 6 को जेल भेज दिया। इनमें आदिवासी नेता नंदू गोंड़ की पत्नी सुखवरिया व दोनों बेटियां सविता व अनीता भी शामिल हैं। अन्य महिलाओं में रामदसिया, वृहस्पतिया, पार्बती, कलावती, सतवंती, हीरावती, फुलझरिया, चंद्रावती, जगमनिया, मंजू, फुलबस व देवंती शामिल हैं। 

यही नहीं, जब एसपी अमरेंद्र सिंह से इस बाबत फोन पर बात की गई तो उन्होंने न सिर्फ आदिवासी महिलाओं को नक्सली जताने की कोशिश की बल्कि कब्जे वाली जमीन को कब्जाधारक की निजी बताते हुए यहां तक कह डाला कि आप इनके सिंपेथाईजर हैं क्या? उससे एक बारी ऐसा लगा कि जैसे उनकी नजर में आदिवासी महिलाओं का सिंपेथाईजर होना भी कोई गुनाह हो।

हो सकता है एसपी को उनके मातहत अधिकारी कर्मचारियों ने जमीन के निजी होने आदि की बाबत, गलत जानकारी दे दी हो लेकिन उनकी, कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष व विरोध प्रदर्शन कर रही आदिवासी महिलाओं के सिंपेथाईजर कहने वाली सोच, अपने आप में बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।

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