मोदी सरकार की MSP कमेटी को SKM ने खारिज किया

Written by Navnish Kumar | Published on: July 20, 2022
केंद्र सरकार ने तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेते हुए किसानों की फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए कमेटी का गठन किया है। केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई इस (एमएसपी) कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) शामिल नहीं होगा। कमेटी में मोर्चा के 3 सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया गया है लेकिन मोर्चा (एसकेएम) ने मंगलवार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर सरकार की समिति को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि केंद्र की समिति ‘फर्जी’ दिखती है। 



SKM ने कहा कि निरस्त किए जा चुके कृषि कानूनों का समर्थन करने वाले ‘‘तथाकथित किसान नेता’’ इसके सदस्य हैं। एसकेएम के वरिष्ठ सदस्य दर्शन पाल ने आरोप लगाया कि क्योंकि वह किसानों के कानूनी अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात नहीं करती, ये फर्जी दिखती है। मोर्चा ने बयान जारी कर कहा कि सरकारी सदस्यों और सरकर के पिठ्ठुओं से भरी इस कमेटी के एजेंडा में एमएसपी (गारंटी) कानून पर स्वस्थ चर्चा की कोई गुंजाइश ही नहीं है!

तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर 2021 को किसानों से वादा किया था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर किसानों की मांगों पर विचार करने के लिए जल्द ही एक कमेटी बनाई जाएगी। उस घोषणा के 8 माह बाद कमेटी बनी है। वैसे कमेटी का गठन 12 जुलाई को हो गया था लेकिन उसकी अधिसूचना एक हफ्ते बाद 18 जुलाई को सार्वजनिक हुई। कमेटी का जो एजेंडा बनाया गया है और जिस तरह के लोगों को कमेटी में शामिल किया गया है उसे देखकर लग रहा है कि इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है। जानकारों ने आशंका जताते हुए कहा है कि, यह कमेटी एक तरह से किसानों को उलझाए रखने का ही जरिया बनेगी। जैसे आंदोलन के समय किसानों के साथ सरकार की वार्ताएं होती थीं और कुछ नतीजा नहीं निकलता था वैसे ही इस कमेटी की वार्ताओं में भी होगा। दूसरा इस कमेटी में एमएसपी गारंटी कानून बनाने का जिक्र नहीं होने और कमेटी में कृषि कानून समर्थकों को जगह दिए जाने के कारण मोर्चा ने खुद को अलग रखने का फैसला करते हुए कहा है कि एमएसपी कानून की मांग को लेकर आने वाले दिनों में आंदोलन तेज किया जाएगा। किसान मोर्चा के एक धड़े ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर एमएसपी कमेटी पर अपनी आपत्ति और आशंका जाहिर की है।

किसान नेता अभिमन्यु कोहाड़ ने पीटीआई-भाषा को बताया, ‘‘आज, हमने संयुक्त किसान मोर्चा के गैर-राजनीतिक नेताओं की एक बैठक की। सभी नेताओं ने सरकार की समिति को खारिज कर दिया। सरकार ने तथाकथित किसान नेताओं को समिति में शामिल किया है, जिनका दिल्ली की सीमाओं पर तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ हुए हमारे आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था।’’ कोहाड़ ने कहा कि सरकार ने कॉरपोरेट जगत के कुछ लोगों को भी एमएसपी समिति का सदस्य बनाया है। किसान नेता योगेंद्र यादव ने बाकायदा वीडियो जारी कर, कमेटी में शामिल एक किसान नेता के मोर्चा और किसान आंदोलन विरोधी रूख को जाहिर किया।

संयुक्त किसान मोर्चा नेताओं ने बयान जारी करते हुए कहा कि सरकारी सदस्यों और सरकार के पिठ्ठुओं से भरी इस कमेटी के एजेंडा में एमएसपी कानून की चर्चा करने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। मोर्चा नेताओं ने कहा कि इस कमेटी के बारे में मोर्चे की सभी आशंकाएं सच निकली; ऐसी किसान-विरोधी कमेटी से मोर्चे का कोई संबंध नहीं हो सकता। इसी से मोर्चा ने समिति को सिरे से खारिज करते हुए इसमें कोई भी प्रतिनिधि नामांकित न करने का फैसला लिया है। प्रधानमंत्री द्वारा 19 नवंबर को तीन काले कानून रद्द करने के साथ जब इस समिति की घोषणा की गई थी, तभी से मोर्चा ऐसी किसी कमेटी के बारे में अपने संदेह सार्वजनिक किए हुए हैं। मार्च माह में जब सरकार ने मोर्चे से इस समिति के लिए नाम मांगे थे तब भी मोर्चा ने सरकार से कमेटी के बारे में स्पष्टीकरण मांगा था, जिसका जवाब नहीं मिला। 3 जुलाई को संयुक्त किसान मोर्चा की राष्ट्रीय बैठक ने सर्वसम्मति से फैसला किया था कि “जब तक सरकार इस समिति के अधिकार क्षेत्र और टर्म्स ऑफ रेफरेंस स्पष्ट नहीं करती तब तक इस कमिटी में संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि का नामांकन करने का औचित्य नहीं है।” सरकार द्वारा जारी नोटिफिकेशन से इस कमेटी के बारे में संयुक्त किसान मोर्चा के सभी संदेह सच निकले हैं। जाहिर है ऐसी किसान-विरोधी और अर्थहीन कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि भेजने का कोई औचित्य नहीं है।

किसान नेताओं ने कहा कि जब सरकार ने मोर्चा से इस समिति के लिए नाम मांगे थे तब उसके जवाब में 24 मार्च 2022 को कृषि सचिव को भेजी ईमेल में मोर्चा ने सरकार से पूछा था।

i) इस कमेटी के TOR (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) क्या रहेंगे?
ii) इस कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के अलावा किन और संगठनों, व्यक्तियों और पदाधिकारियों को शामिल किया जाएगा?
iii) कमेटी के अध्यक्ष कौन होंगे और इसकी कार्यप्रणाली क्या होगी?
iv) कमेटी को अपनी रिपोर्ट देने के लिए कितना समय मिलेगा?
v) क्या कमेटी की सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी होगी?

सरकार ने इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन कृषि मंत्री लगातार बयानबाजी करते रहे कि संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधियों के नाम न मिलने की वजह से कमेटी का गठन रुका हुआ है। संसद अधिवेशन से पहले इस समिति की घोषणा कर सरकार ने कागजी कार्यवाही पूरी करने की चेष्टा की है। लेकिन नोटिफिकेशन से इस कमेटी के पीछे सरकार की बदनीयत और कमेटी की अप्रासंगिकता स्पष्ट हो जाती है।

1. कमेटी के अध्यक्ष पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल हैं जिन्होंने तीनों किसान विरोधी कानून बनाए। उनके साथ नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद भी हैं जो इन तीनों कानूनों के मुख्य पैरोकार रहे। विशेषज्ञ के नाते वे अर्थशास्त्री हैं जो एमएसपी को कानूनी दर्जा देने के विरुद्ध रहे हैं।

2. कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के तीन प्रतिनिधियों के लिए जगह छोड़ी गई है। लेकिन बाकी स्थानों में किसान नेताओं के नाम पर सरकार ने अपने 5 वफादार लोगों को ठूंस लिया है जिन सबने खुलकर तीनों किसान विरोधी कानूनों की वकालत की थी। यह सब लोग या तो सीधे भाजपा-आरएसएस से जुड़े हैं या उनकी नीति की हिमायत करते हैं। कृष्णा वीर चौधरी, भारतीय कृषक समाज से जुड़े हैं और भाजपा के नेता हैं। सैयद पाशा पटेल, महाराष्ट्र से भाजपा के एमएलसी रह चुके हैं। प्रमोद कुमार चौधरी, आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य हैं। गुणवंत पाटिल, शेतकरी संगठन से जुड़े, डब्ल्यूटीओ के हिमायती और भारतीय स्वतंत्र पक्ष पार्टी के जनरल सेक्रेटरी हैं। गुणी प्रकाश किसान आंदोलन का विरोध करने में अग्रणी रहे हैं। यह पांचों लोग तीनों किसान विरोधी कानूनों के पक्ष में खुलकर बोले थे और अधिकांश किसान आंदोलन के खिलाफ जहर उगलने का काम करते रहे हैं।

3. कमेटी के एजेंडा में एमएसपी पर कानून बनाने का जिक्र तक नहीं है। यानी कि यह प्रश्न कमेटी के सामने रखा ही नहीं जाएगा। एजेंडा में कुछ ऐसे आइटम डाले गए हैं जिन पर सरकार की कमेटी पहले से बनी हुई है। कृषि विपणन में सुधार के नाम पर एक ऐसा आइटम डाला गया है जिसके जरिए सरकार पिछले दरवाजे से तीन काले कानूनों को वापस लाने की कोशिश कर सकती है।

इन तथ्यों की रोशनी में संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा इस कमेटी में अपने प्रतिनिधि भेजने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। किसानों को फसल का उचित दाम दिलाने के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी हासिल करने के वास्ते संयुक्त किसान मोर्चा का संघर्ष जारी रहेगा।

किसान नेता डॉ दर्शन पाल, हन्नान मोल्ला, जोगिंदर सिंह उगराहां, युद्धवीर सिंह, योगेंद्र यादव ने कहा कि उन्हें इस समिति में कोई विश्वास नहीं है क्योंकि इसके नियम और संदर्भ स्पष्ट नहीं हैं। किसान नेताओं ने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘समिति में पंजाब का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। केंद्र द्वारा गठित यह समिति किसानों के कानूनी अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात नहीं करती है।’’ कहा ‘‘एसकेएम की 3 जुलाई की बैठक में हमने फैसला किया था कि हम किसी भी समिति के लिए अपने प्रतिनिधियों के नाम तभी देंगे जब केंद्र की समिति के संदर्भ की शर्तें हमें स्पष्ट कर दी जाएंगी। इस समिति में यह कमी दिखती है और यह फर्जी लगती है।’’

सरकार ने ये अधिसूचना की थी जारी
कृषि मंत्रालय ने समिति की घोषणा करते हुए राजपत्रित अधिसूचना जारी की थी। समिति में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद, भारतीय आर्थिक विकास संस्थान के कृषि-अर्थशास्त्री सीएससी शेखर और आईआईएम अहमदाबाद के सुखपाल सिंह तथा कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के वरिष्ठ सदस्य नवीन पी सिंह शामिल होंगे। किसानों के प्रतिनिधियों में से समिति में, राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता किसान भारत भूषण त्यागी, एसकेएम के तीन सदस्य और अन्य किसान संगठनों के पांच सदस्य होंगे, जिनमें गुणवंत पाटिल, कृष्णवीर चौधरी, प्रमोद कुमार चौधरी, गुनी प्रकाश और सैय्यद पाशा पटेल शामिल हैं। किसान सहकारिता के दो सदस्य, इफको के अध्यक्ष दिलीप संघानी और सीएनआरआई महासचिव बिनोद आनंद समिति में शामिल हैं। कृषि विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ सदस्य, केंद्र सरकार के पांच सचिव और कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, सिक्किम व ओडिशा के मुख्य सचिव भी समिति का हिस्सा हैं। 

राष्ट्रीय कृषि विस्तार संस्था के महानिदेशक डॉ. पी चंद्रशेख्रर, शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज के वीसी डॉ. जेपी शर्मा और जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के वीसी डॉ. प्रदीप कुमार बिसेन शामिल हैं। इसके साथ ही भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के सचिव, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के सचिव, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के सचिव, सहकारिता मंत्रालय के सचिव और वस्त्र मंत्रालय के सचिव को भी इस कमेटी में रखा गया है। इनके अलावा संयुक्त सचिव फसल को मेंबर सेक्रेटरी के तौर पर कमेटी में शामिल किया गया है। केंद्र सरकार के मुताबिक, यह कमेटी किसानों के लिए MSP मिलने की व्यवस्था को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए सुझाव देगी। कृषि लागत और मूल्य आयोग को अधिक वैज्ञानिक बनाने का सुझाव भी देगी। 

कमेटी के ढांचे और एजेंडे से उपजी आशंकाएं और सवाल
दूसरी ओर, कमेटी के ढांचे और एजेंडे को लेकर भी कई सवाल है। मसलन, कमेटी का जो एजेंडा बनाया गया है और जिस तरह के लोगों को कमेटी में शामिल किया गया है उसे देखकर जानकारों को भी कई आशंकाएं हैं। उन्हें लग रहा है कि इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला है। यह कमेटी एक तरह से किसानों को उलझाए रखने का जरिया बनेगी। जैसे आंदोलन के समय किसानों के साथ सरकार की वार्ताएं होती थीं और कुछ नतीजा नहीं निकलता था वैसे ही इस कमेटी की वार्ताओं में भी होगा। वरिष्ठ पत्रकार अजीत दिवेद्वी नया इंडिया में छपे अपने लेख में कहते है कि कमेटी के गठन के साथ ही कई कारण दिख रहे हैं, जिनसे लग रहा है कि यह कमेटी किसानों की मांग के साथ न्याय नहीं कर पाएगी या इसका फेल होना तय है।

पहला कारण तो यह है कि इसे सरकारी बाबुओं की कमेटी बना दिया गया है। अध्यक्ष के साथ साथ केंद्र व राज्य सरकार के दर्जनों अधिकारी इसके सदस्य होंगे। इसके अध्यक्ष कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय के सचिव रहे संजय अग्रवाल हैं और उनके साथ साथ नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद को इस कमेटी का सदस्य बनाया गया है। सोचें, रमेश चंद तीनों विवादित कानूनों का मसौदा तैयार करने वालों में थे और संजय अग्रवाल के सचिव रहते उन्हें लागू किया गया था। प्रधानमंत्री द्वारा तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा से ठीक पहले तक ये दोनों लोग कानूनों का बचाव कर रहे थे। जब प्रधानमंत्री ने बिना शर्त तीनों विवादित कानूनों को वापस ले लिया तब इन्होंने चुप्पी साध ली। लेकिन अब सरकार किसानों की अहम मांग पर विचार के लिए कमेटी में इन दोनों को लेकर आई है। सवाल है कि जब किसान आंदोलन के समय हर बार उनके साथ वार्ता राजनीतिक नेतृत्व की हुई तो अब क्यों पूर्व कृषि सचिव वार्ता करेंगे? अगर सरकार गंभीर होती तो कमेटी का नेतृत्व राजनीतिक व्यक्ति को दिया जाता और उसमें सदस्य सचिव की तरह किसी अधिकारी को रखा जा सकता था।

इस कमेटी के फेल होने का दूसरा कारण यह है कि इसमें बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को शामिल किया गया है, जो भाजपा या राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या ऐसे कृषि व सहकारी संगठनों से जुड़े हैं, जो सरकार का समर्थन करती हैं। इसमें संयुक्त किसान मोर्चा के लिए तीन सदस्यों की जगह छोड़ी गई है, जो उनकी ओर से नाम दिए जाने के बाद भरी जाएगी। सवाल है कि जब चार-पांच दूसरे किसान संगठनों के सदस्यों के नाम इसमें शामिल करके उनकी घोषणा कर दी गई है तो उसी तरह कमेटी के गठन से पहले संयुक्त किसान मोर्चा से बात करके उनके तीन नाम लेकर एक साथ ही घोषणा क्यों नहीं की गई? आखिर भारतीय कृषक समाज या शेतकरी संगठन या भारतीय किसान संघ सहित जिन किसान संगठनों के लोगों के नाम घोषित किए गए हैं उनसे भी तो पहले बातचीत हुई होगी? क्या जिन लोगों के नाम घोषित किए गए हैं वे सरकार को अपने अनुकूल लगे इसलिए उनका नाम पहले घोषित हो गया और संयुक्त किसान मोर्चा को बाद के लिए छोड़ दिया गया?

तीसरा कारण यह है कि इस कमेटी में बहुत से लोग सदस्य हैं। कई दर्जन सदस्य हैं। कई किसान संगठनों के लोग इसमें सदस्य हैं तो कई सहकारी संगठनों के लोगों को भी इसमें शामिल किया गया है। कृषि वैज्ञानिक, कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े अध्येता, केंद्र सरकार के अधिकारी और राज्य सरकारों के अनेकानेक अधिकारी इसमें शामिल किए गए हैं। केंद्र और राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर जिन अधिकारियों को सदस्य बनाया गया है वे पदेन हैं। यानी अधिकारी बदलेंगे तो सदस्य बदल जाएगा। सोचें, ऐसी कमेटी क्या काम करेगी? वैसे भी जिस कमेटी में बहुत ज्यादा सदस्य होते हैं वह नतीजे नहीं दे पाती है।

इसके फेल होने का चौथा कारण यह है कि इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है कि कमेटी कब तक सिफारिश करेगी। यानी कमेटी की बैठकें अनंतकाल तक चलती रह सकती हैं। पांचवां कारण यह है कि इसकी सिफारिशें केंद्र सरकार पर बाध्यकारी नहीं हैं यानी कमेटी सिर्फ अनुशंसा करने का काम करेगी और उसे मानना या न मानना सरकार पर निर्भर है। इसके विफल होने का छठा कारण यह है कि कमेटी को सिर्फ एमएसपी पर विचार नहीं करना है, बल्कि कृषि से जुड़े अनेक मसलों पर विचार करना है। आंदोलन करने वाले किसान एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे थे। वे ऐसा कानून बनाने की मांग कर रहे थे, जिसमें यह अनिवार्य किया जाए कि कोई भी कारोबारी, देश में कहीं भी एमएसपी से कम कीमत पर अनाज नहीं खरीद सके। ऐसी खरीद को गैरकानूनी बनाया जाए। लेकिन कमेटी के एजेंडे में एमएसपी की कानूनी गारंटी की बजाय कई दूसरी चीजें शामिल कर दी गई हैं।

अंत में कमेटी का एजेंडा अपने आप में इसके विफल होने का एक कारण बनेगा। कमेटी की घोषणा करते हुए कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि ‘जीरो बजट आधारित कृषि को बढ़ाना देने, फसल का पैटर्न बदलने और न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य यानी एमएसपी को अधिक प्रभावी व पारदर्शी बनाने के लिए एक समिति का गठन किया गया है’। इसमें लिखा गया है कि कमेटी एमएसपी को अधिक प्रभावी व पारदर्शी बनाने पर विचार करेगी, जबकि किसान चाहते हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी देने पर विचार हो। फसलों का पैटर्न बदलने या जीरो बजट कृषि को बढ़ावा देने के मसले पर पहले से काम हो रहा है और किसानों की असली चिंता वह नहीं है। आंदोलन करने वाले किसान एमएसपी की गारंटी चाहते थे। लेकिन यह कमेटी उस पर विचार नहीं करेगी। हो सकता है कि कमेटी के सामने एमएसपी की गारंटी करने वाले कानून का मुद्दा ही न आए। ध्यान रहे इस साल सरकार ने अनाज की बहुत कम खरीद की है। पिछले साल के मुकाबले लगभग आधी खरीद हुई है। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय हालात को देखते हुए निजी कारोबारियों ने निर्यात के लिए खूब खरीद की और कई जगह किसानों को एमएसपी से ज्यादा कीमत मिली। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एमएसपी अप्रासंगिक हो गया। एमएसपी की जरूरत है और आगे भी रहेगी। सरकार की खरीद कम होने के बाद इसकी जरूरत और बढ़ गई है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए।

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