इस देश के लोग भगवान भरोसे हैं, राजनीति न्यायपालिका के भरोसे...बाकि सरकार झुनझुना बजाने के लिए तो है ही
“शब्द भ्रमित है, भावना ही यथार्थ है...इसलिए उलझनें ज्यादा हैं.”
पहली तस्वीर. दिन के 11:30 बजे मुजफ्फरपुर से सप्तक्रांति खुलती है, दिल्ली के लिए. किसी भी दिन आरक्षित डब्बे में बैठ जाइए. एक बोगी में कम से कम दो पेशेंट ऐसे मिलेंगे (विजिबल) जो दिल्ली इलाज कराने आ रहे होते हैं. गंभीर बिमारी के शिकार. लीवर, किडनी फेल्योर के या कैंसर के. एक और ट्रेन खुलती है, मडुवाडीह, बनारस के लिए. मोतीहारी के कुछ मित्रों ने बताया कि लोगों ने इसका नाम ही पेशेंट ट्रेन रख दिया है. लोग अधिकाधिक संख्या में बीएचयू इलाज के लिए जाते हैं.
दूसरी तस्वीर. एक स्वयंभू गुरू श्री रविशंकर, भाजपा सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी और केन्द्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा एक कॉरपोरेट कार्यक्रम में मौजूद हैं. मौका है केंट आरओ के किसी उत्पाद के लांच का. ये तीनों पानी बर्बाद करने, पानी का व्यापार करने वाली मशीन का सीना तान कर उद्घाटन करते नजर आ रहे हैं. अब, पहली तस्वीर को दूसरी तस्वीर से मिला लीजिए.
एक तीसरी तस्वीर भी है. कल ही एक पोस्ट लिखा था कि आइए अयोध्या में मन्दिर की जगह एक बडा भव्य अस्पताल बनाते हैं. मित्रों ने कमेंट किया कि अस्पताल बनाने की शुरुआत जामा मस्जिद से की जाए या एक मित्र का कमेंट था कि अस्पताल राजनीतिक मुद्दा नहीं हो सकता, क्योंकि इससे वोट नहीं मिलता है. अब, इन तीनों तस्वीर को एक खांचे में फिट कर के आगे की लाइन पढिए.
पिछले दिनों के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एक नजर डालिए. मस्जिद में नमाज पढना जरूरी नहीं, महिलाएं सबरीमाला मन्दिर में जा सकती हैं, अडल्ट्री कानून खत्म हो, समलैंगिकता जायज है. आधार जरूरी भी है, जरूरी नहीं भी है. इंस्टैंट तीन तलाक गलत है. खतना पर एक याचिका स्वीकार कर ली गई है. अयोध्या पर 29 से सुनवाई होनी है. तो इतने भर से समझ जाइए कि इस देश में जनता किसके भरोसे है, राजनीति में जनता कहां है, उसकी समस्याएं कहां है? हमें समझ लेना चाहिए कि इस लोकतंत्र में हमारी औकात क्या है?
और इस सब के बीच सरकार चुनाव की तैयारी में है. कांग्रेस के अध्यक्ष पीएम को चोर बोल रहे हैं. दलित-ओबीसी आरक्षण बचाने की लडाई लड रहे हैं. सामान्य जाति के लोग आरक्षण खत्म होने की लालच में भाजपा का गुलाम बने हुए हैं. कम्युनिस्ट फासीवाद खत्म करने के फेर में हैं. माया-अखिलेश-लालू महागठबन्धन बनाने की जुगत में है.
जनता कहां है?
जनता ट्रेन में है. इलाज के लिए, मजदूरी के लिए, पढाई के लिए, नौकरी के लिए. जनता भाग रही है, दौड रही है, उसे पता नहीं आगे अन्धा कुंआ है. लेकिन ये भागमभाग ही उसके लिए विकास है. मां-बाप बच्चों को पढाने के लिए परेशान हैं. पता नहीं पढा कर बच्चों को कौन सा भविष्य मिलेगा, जब देश में फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट कानून लागू हो. दलित-ओबीसी आरक्षण के लिए हायतौबा मचाए हुए हैं, पता नहीं कहां एडमिशन लेगा, गलगोटिया में या एमिटी में तो आरक्षण मिलने से रहा. सवर्ण को लगता है कि दलित-ओबीसी ने आरक्षण के बहाने उनका हिस्सा हडप लिया, बिना ये सोचे कि आज भी 25 लाख सरकारी पद रिक्त पडे हुए हैं और सरकार में इतना दम नहीं है कि वो इन पदों पर स्थायी बहाली कर सके.
किसान परेशान है कि उसे अपनी फसल का उचित कीमत नहीं मिल रहा है, जबकि वो खुद ही अपनी मां (जमीन) की कोख सालों से बांझ बनाता आ रहा है. खुद भी जहर खा रहा है और दुनिया को भी जहर खिला रहा है. दुग्ध उत्पादक सडक पर इसलिए दूध बहा रहे हैं कि उन्हें सही कीमत नहीं मिल रही. लेकिन, 60 फीसदी नकली दूध खाने और खिलाने वालों के खिलाफ उनके मन में कोई गुस्सा नहीं है. मुसलमान अपने आप को अल्पसंख्यक और पिछडा मानते हुए भी अपने दकियानूसी नेताओं-धर्मगुरुओं के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. युवाओं को धन्धा के लिए लोन चाहिए, जो मिल नहीं रहा लेकिन 13 करोड मुद्रा लोन का प्रचार जरूर अपने व्हाट्सएप्प से कर रहे हैं. छोटे व्यापारी जीएसटी-नोटबंदी को कोस रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि 15 लाख करोड के एनपीए से उनका कोई नुकसान नहीं होगा.
संपूर्णता में जनता को इससे कोई मतलब नहीं कि वो क्या खा रही है, क्या पी रही है, किस हवा में सांस ले रही है, कौन सा राजनीतिक फैसला उसके जीवन से जुडा है, कौन सा उसके वोट से? लेकिन, हम जनता भाग्यवादी हैं, भोले हैं, धूर्त हैं. हम सब भूल जाते हैं, जब हमारा नेता हमसे रामराज लाने की बात करता है. तब हम भी लालची हो जाते हैं. हमें मन्दिर दिखता है, मस्जिद दिखता है, अपने खाते में 15 लाख रुपया दिखता है, आरक्षण का खात्मा दिखता है, मुसलमानों के साथ होने वाला मजाक दिखता है. हम खुश हो जाते हैं.
और फिर मतदान करने के बाद......मोतीहारी या मुजफ्फरपुर स्टेशन पर सप्तक्रांति या मडुवाडीह एक्सप्रेस पकडने आ जाते हैं...
“शब्द भ्रमित है, भावना ही यथार्थ है...इसलिए उलझनें ज्यादा हैं.”
पहली तस्वीर. दिन के 11:30 बजे मुजफ्फरपुर से सप्तक्रांति खुलती है, दिल्ली के लिए. किसी भी दिन आरक्षित डब्बे में बैठ जाइए. एक बोगी में कम से कम दो पेशेंट ऐसे मिलेंगे (विजिबल) जो दिल्ली इलाज कराने आ रहे होते हैं. गंभीर बिमारी के शिकार. लीवर, किडनी फेल्योर के या कैंसर के. एक और ट्रेन खुलती है, मडुवाडीह, बनारस के लिए. मोतीहारी के कुछ मित्रों ने बताया कि लोगों ने इसका नाम ही पेशेंट ट्रेन रख दिया है. लोग अधिकाधिक संख्या में बीएचयू इलाज के लिए जाते हैं.
दूसरी तस्वीर. एक स्वयंभू गुरू श्री रविशंकर, भाजपा सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी और केन्द्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा एक कॉरपोरेट कार्यक्रम में मौजूद हैं. मौका है केंट आरओ के किसी उत्पाद के लांच का. ये तीनों पानी बर्बाद करने, पानी का व्यापार करने वाली मशीन का सीना तान कर उद्घाटन करते नजर आ रहे हैं. अब, पहली तस्वीर को दूसरी तस्वीर से मिला लीजिए.
एक तीसरी तस्वीर भी है. कल ही एक पोस्ट लिखा था कि आइए अयोध्या में मन्दिर की जगह एक बडा भव्य अस्पताल बनाते हैं. मित्रों ने कमेंट किया कि अस्पताल बनाने की शुरुआत जामा मस्जिद से की जाए या एक मित्र का कमेंट था कि अस्पताल राजनीतिक मुद्दा नहीं हो सकता, क्योंकि इससे वोट नहीं मिलता है. अब, इन तीनों तस्वीर को एक खांचे में फिट कर के आगे की लाइन पढिए.
पिछले दिनों के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एक नजर डालिए. मस्जिद में नमाज पढना जरूरी नहीं, महिलाएं सबरीमाला मन्दिर में जा सकती हैं, अडल्ट्री कानून खत्म हो, समलैंगिकता जायज है. आधार जरूरी भी है, जरूरी नहीं भी है. इंस्टैंट तीन तलाक गलत है. खतना पर एक याचिका स्वीकार कर ली गई है. अयोध्या पर 29 से सुनवाई होनी है. तो इतने भर से समझ जाइए कि इस देश में जनता किसके भरोसे है, राजनीति में जनता कहां है, उसकी समस्याएं कहां है? हमें समझ लेना चाहिए कि इस लोकतंत्र में हमारी औकात क्या है?
और इस सब के बीच सरकार चुनाव की तैयारी में है. कांग्रेस के अध्यक्ष पीएम को चोर बोल रहे हैं. दलित-ओबीसी आरक्षण बचाने की लडाई लड रहे हैं. सामान्य जाति के लोग आरक्षण खत्म होने की लालच में भाजपा का गुलाम बने हुए हैं. कम्युनिस्ट फासीवाद खत्म करने के फेर में हैं. माया-अखिलेश-लालू महागठबन्धन बनाने की जुगत में है.
जनता कहां है?
जनता ट्रेन में है. इलाज के लिए, मजदूरी के लिए, पढाई के लिए, नौकरी के लिए. जनता भाग रही है, दौड रही है, उसे पता नहीं आगे अन्धा कुंआ है. लेकिन ये भागमभाग ही उसके लिए विकास है. मां-बाप बच्चों को पढाने के लिए परेशान हैं. पता नहीं पढा कर बच्चों को कौन सा भविष्य मिलेगा, जब देश में फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट कानून लागू हो. दलित-ओबीसी आरक्षण के लिए हायतौबा मचाए हुए हैं, पता नहीं कहां एडमिशन लेगा, गलगोटिया में या एमिटी में तो आरक्षण मिलने से रहा. सवर्ण को लगता है कि दलित-ओबीसी ने आरक्षण के बहाने उनका हिस्सा हडप लिया, बिना ये सोचे कि आज भी 25 लाख सरकारी पद रिक्त पडे हुए हैं और सरकार में इतना दम नहीं है कि वो इन पदों पर स्थायी बहाली कर सके.
किसान परेशान है कि उसे अपनी फसल का उचित कीमत नहीं मिल रहा है, जबकि वो खुद ही अपनी मां (जमीन) की कोख सालों से बांझ बनाता आ रहा है. खुद भी जहर खा रहा है और दुनिया को भी जहर खिला रहा है. दुग्ध उत्पादक सडक पर इसलिए दूध बहा रहे हैं कि उन्हें सही कीमत नहीं मिल रही. लेकिन, 60 फीसदी नकली दूध खाने और खिलाने वालों के खिलाफ उनके मन में कोई गुस्सा नहीं है. मुसलमान अपने आप को अल्पसंख्यक और पिछडा मानते हुए भी अपने दकियानूसी नेताओं-धर्मगुरुओं के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. युवाओं को धन्धा के लिए लोन चाहिए, जो मिल नहीं रहा लेकिन 13 करोड मुद्रा लोन का प्रचार जरूर अपने व्हाट्सएप्प से कर रहे हैं. छोटे व्यापारी जीएसटी-नोटबंदी को कोस रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि 15 लाख करोड के एनपीए से उनका कोई नुकसान नहीं होगा.
संपूर्णता में जनता को इससे कोई मतलब नहीं कि वो क्या खा रही है, क्या पी रही है, किस हवा में सांस ले रही है, कौन सा राजनीतिक फैसला उसके जीवन से जुडा है, कौन सा उसके वोट से? लेकिन, हम जनता भाग्यवादी हैं, भोले हैं, धूर्त हैं. हम सब भूल जाते हैं, जब हमारा नेता हमसे रामराज लाने की बात करता है. तब हम भी लालची हो जाते हैं. हमें मन्दिर दिखता है, मस्जिद दिखता है, अपने खाते में 15 लाख रुपया दिखता है, आरक्षण का खात्मा दिखता है, मुसलमानों के साथ होने वाला मजाक दिखता है. हम खुश हो जाते हैं.
और फिर मतदान करने के बाद......मोतीहारी या मुजफ्फरपुर स्टेशन पर सप्तक्रांति या मडुवाडीह एक्सप्रेस पकडने आ जाते हैं...