पहले किसी ओहदेदार पर कोई आरोप लगता था तो वह पद छोड़ देता था या उसे पद से हटा दिया जाता था। ऐसी हालत में आतंकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर को टिकट देना और सांसद बनाना - आतंकवाद का समर्थन न हो, आतंक के आरोपी का समर्थन तो है ही। सत्याग्रह तो बिल्कुल नहीं है। अगर हो भी तो आरोपों से बरी कराने का हो सकता है। अधिकारियों के पद छोड़ देने का रिवाज इसलिए था कि वह पद पर रहते हुए अपने अधिकारों या प्रभाव का उपयोग जांच रुकवाने या उसे प्रभावित करने के लिए नहीं करे। प्रज्ञा ठाकुर के मामले में उल्टा हुआ है। उन्हें आम आदमी की तरह बेदाग साबित होने देने में क्या हर्ज था?
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प्रज्ञा ठाकुर के निर्दोष होने का फैसला तभी निष्पक्ष होगा जब वे सांसद पद से इस्तीफा देकर मुकदमे का सामना करेंगी। यह कैसे माना जा सकता है कि उनके सांसद बनने का मुकदमे से संबंधित तमाम छोडे-बड़े लोगों में से किसी पर कोई असर नहीं पड़ेगा। यही नहीं, साध्वी प्रज्ञा ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है क्योंकि उन्होंने एक ट्वीट में साध्वी प्रज्ञा को आतंकवादी कहा। भाजपा के तमाम सांसदों ने उनका समर्थन किया। टेलीविजन पर दुनिया ने देखा। पी चिदंबरम के मामले में तर्क दिया जा रहा है कि वे अकेले बहुत प्रभावशाली हैं इसलिए जमानत न दी जाए। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को सांसद बनाकर प्रभावशाली ही तो बनाया गया है और अब रक्षा समिति में शामिल करना और कार्रवाई की औपचारिकता के जरिए लोग देख रहे हैं कि सत्तारूढ़ दल उन्हें कितना पसंद करता है। और इसकी शुरुआत उम्मीदवार बनते ही हो गई थी। देश-दुनिया को पता चल गया था कि सत्तारूढ़ दल क्या मानता या चाहता है।
सत्तारूढ़ दल मतलब बहुमत तो है ही, भरपूर शक्ति भी है। प्रज्ञा ठाकुर को इसका लाभ मिला वो सांसद हो गईं और मुकदमे में भी मिलेगा। मुकदमे का मतलब सिर्फ जज नहीं होता है। जज के पास जो तथ्य रखे जाते हैं उसपर वह निर्णय लेता है। तथ्य रखने वाले, गवाह, जांच करने वाले बहुत सारे लोग एक मामले को प्रभावित कर सकते हैं। एक जज की हत्या का मामला भी चर्चा में है। और बरी करने वाले जज को ईनाम का मामला भी।
जब दुनिया जानती है कि सत्तारूढ़ दल, महाशक्तिशाली राजनीतिक पार्टी, स्वयंसेवकों का एक बड़ा समूह प्रज्ञा ठाकुर को अपराधी नहीं मानता है या तय कर चुका है कि वह अपराधी नहीं है तो क्या नौकरी बजाने वालों, नौकरी या धंधे से कुछ पैसे कमा कर परिवार चलाने वालों को हिम्मत होगी कि वे सत्ता प्रतिष्ठान को नाराज करके प्रज्ञा ठाकुर को आतंकवादी साबित होने दें। यहीं नहीं, ऐसा चाहने और मानने वाले भी बहुत होंगे जो इस मामले में लाभ प्राप्त कर सकते हैं। कोई नहीं कह सकता कि इसका कितना और कैसा असर होगा या नहीं होगा। हो सकता है नहीं हो पर हो भी सकता है। इन तमाम बातों से न्यायपालिका, सरकारी वकील, गवाह कोई भी किसी भी तरह से प्रभावित हुआ तो उसका असर फैसले पर पड़ सकता है। यही नहीं फैसले के खिलाफ ऊपर की अदालत में अपील भी सरकार ही करती है। समझौता एक्सप्रेस मामले में फैसला आते ही उस समय के गृह मंत्री ने कहा था कि सरकार अपील नहीं करेगी। मुझे नहीं पता अपील हुई या नहीं। जबकि फैसला जो है सो पढ़ने लायक।
अपील नहीं हुई तो भी अभियुक्त का बरी होना सही है? क्या अपील सिर्फ आम आदमी के लिए है। सरकार ने जिस आधार पर अपील नहीं करने का निर्णय़ किया वह दूसरे मामलों में लागू नहीं होता है या जहां होता है वहां भी सरकार ऐसा करती है? साध्वी प्रज्ञा पर आरोप निराधार हैं तो सरकार उसे वापस ले सकती है। मामले वापस लिए जाते हैं। और सरकार ऐसा कर सकती है। पर वह ऐसा नहीं कर रही है। दूसरी ओर साध्वी का समर्थन मुकदमे से जुड़े लोगों के लिए इशारा हो सकता है। न भी हो तो माना जा सकता है। और डर के इस माहौल में फैसला निष्पक्ष कैसे होगा?
अगर सरकार मानती है कि प्रज्ञा ठाकुर को फंसाया गया है तो मामला वापस ले ले या फिर उन्हें सामान्य आदमी की तरह मुकदमे का सामना करने दे। कानूनी सहायता और धन वह फिर भी मुहैया करा सकती है, संदेश फिर भी भेजे, दिए, लिए जा सकते हैं, डर फिर भी रहेगा और फैसला तब भी होगा पर अभी जो हो रहा है वह खुल्लम खुल्ला मजाक है। जनता को बेवकूफ बनाना है। प्रज्ञा ठाकुर पर जब का यह मामला है तब वह सांसद नहीं थीं। सरकारी अधिकारियों को मिलने वाला लाभ उन्हें नहीं मिल सकता है। उन्हें आम आदमी की तरह बेदाग साबित होना चाहिए।
उनकी शक्ति से कौन नहीं डरेगा? कौन उनके खिलाफ गवाही देने की हिम्मत करेगा और कौन सबूत इकट्ठा करेगा। अगर पी चिदंबरम को प्रभावशाली होने के कारण जमानत नहीं दी जा रही है तो साध्वी प्रज्ञा को सांसद बनाकर भाजपा ने उनके खिलाफ मुकदमे को कमजोर नहीं किया है? स्वयंभू ईमानदारों ने दूसरों को बदनाम करने की रिपोर्ट देने वाले को पुरस्कृत किया और मामला अदालत में नहीं टिका तो भी बेशर्मी करते रहे। और खुद पद पर रहकर ईमानदार होने का दावा करते रहे। जांच से बचने के उपाय करते रहे। और कहते रहे कि उनपर आरोप ही नहीं है। जांच तो दूर।
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प्रज्ञा ठाकुर के निर्दोष होने का फैसला तभी निष्पक्ष होगा जब वे सांसद पद से इस्तीफा देकर मुकदमे का सामना करेंगी। यह कैसे माना जा सकता है कि उनके सांसद बनने का मुकदमे से संबंधित तमाम छोडे-बड़े लोगों में से किसी पर कोई असर नहीं पड़ेगा। यही नहीं, साध्वी प्रज्ञा ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है क्योंकि उन्होंने एक ट्वीट में साध्वी प्रज्ञा को आतंकवादी कहा। भाजपा के तमाम सांसदों ने उनका समर्थन किया। टेलीविजन पर दुनिया ने देखा। पी चिदंबरम के मामले में तर्क दिया जा रहा है कि वे अकेले बहुत प्रभावशाली हैं इसलिए जमानत न दी जाए। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को सांसद बनाकर प्रभावशाली ही तो बनाया गया है और अब रक्षा समिति में शामिल करना और कार्रवाई की औपचारिकता के जरिए लोग देख रहे हैं कि सत्तारूढ़ दल उन्हें कितना पसंद करता है। और इसकी शुरुआत उम्मीदवार बनते ही हो गई थी। देश-दुनिया को पता चल गया था कि सत्तारूढ़ दल क्या मानता या चाहता है।
सत्तारूढ़ दल मतलब बहुमत तो है ही, भरपूर शक्ति भी है। प्रज्ञा ठाकुर को इसका लाभ मिला वो सांसद हो गईं और मुकदमे में भी मिलेगा। मुकदमे का मतलब सिर्फ जज नहीं होता है। जज के पास जो तथ्य रखे जाते हैं उसपर वह निर्णय लेता है। तथ्य रखने वाले, गवाह, जांच करने वाले बहुत सारे लोग एक मामले को प्रभावित कर सकते हैं। एक जज की हत्या का मामला भी चर्चा में है। और बरी करने वाले जज को ईनाम का मामला भी।
जब दुनिया जानती है कि सत्तारूढ़ दल, महाशक्तिशाली राजनीतिक पार्टी, स्वयंसेवकों का एक बड़ा समूह प्रज्ञा ठाकुर को अपराधी नहीं मानता है या तय कर चुका है कि वह अपराधी नहीं है तो क्या नौकरी बजाने वालों, नौकरी या धंधे से कुछ पैसे कमा कर परिवार चलाने वालों को हिम्मत होगी कि वे सत्ता प्रतिष्ठान को नाराज करके प्रज्ञा ठाकुर को आतंकवादी साबित होने दें। यहीं नहीं, ऐसा चाहने और मानने वाले भी बहुत होंगे जो इस मामले में लाभ प्राप्त कर सकते हैं। कोई नहीं कह सकता कि इसका कितना और कैसा असर होगा या नहीं होगा। हो सकता है नहीं हो पर हो भी सकता है। इन तमाम बातों से न्यायपालिका, सरकारी वकील, गवाह कोई भी किसी भी तरह से प्रभावित हुआ तो उसका असर फैसले पर पड़ सकता है। यही नहीं फैसले के खिलाफ ऊपर की अदालत में अपील भी सरकार ही करती है। समझौता एक्सप्रेस मामले में फैसला आते ही उस समय के गृह मंत्री ने कहा था कि सरकार अपील नहीं करेगी। मुझे नहीं पता अपील हुई या नहीं। जबकि फैसला जो है सो पढ़ने लायक।
अपील नहीं हुई तो भी अभियुक्त का बरी होना सही है? क्या अपील सिर्फ आम आदमी के लिए है। सरकार ने जिस आधार पर अपील नहीं करने का निर्णय़ किया वह दूसरे मामलों में लागू नहीं होता है या जहां होता है वहां भी सरकार ऐसा करती है? साध्वी प्रज्ञा पर आरोप निराधार हैं तो सरकार उसे वापस ले सकती है। मामले वापस लिए जाते हैं। और सरकार ऐसा कर सकती है। पर वह ऐसा नहीं कर रही है। दूसरी ओर साध्वी का समर्थन मुकदमे से जुड़े लोगों के लिए इशारा हो सकता है। न भी हो तो माना जा सकता है। और डर के इस माहौल में फैसला निष्पक्ष कैसे होगा?
अगर सरकार मानती है कि प्रज्ञा ठाकुर को फंसाया गया है तो मामला वापस ले ले या फिर उन्हें सामान्य आदमी की तरह मुकदमे का सामना करने दे। कानूनी सहायता और धन वह फिर भी मुहैया करा सकती है, संदेश फिर भी भेजे, दिए, लिए जा सकते हैं, डर फिर भी रहेगा और फैसला तब भी होगा पर अभी जो हो रहा है वह खुल्लम खुल्ला मजाक है। जनता को बेवकूफ बनाना है। प्रज्ञा ठाकुर पर जब का यह मामला है तब वह सांसद नहीं थीं। सरकारी अधिकारियों को मिलने वाला लाभ उन्हें नहीं मिल सकता है। उन्हें आम आदमी की तरह बेदाग साबित होना चाहिए।
उनकी शक्ति से कौन नहीं डरेगा? कौन उनके खिलाफ गवाही देने की हिम्मत करेगा और कौन सबूत इकट्ठा करेगा। अगर पी चिदंबरम को प्रभावशाली होने के कारण जमानत नहीं दी जा रही है तो साध्वी प्रज्ञा को सांसद बनाकर भाजपा ने उनके खिलाफ मुकदमे को कमजोर नहीं किया है? स्वयंभू ईमानदारों ने दूसरों को बदनाम करने की रिपोर्ट देने वाले को पुरस्कृत किया और मामला अदालत में नहीं टिका तो भी बेशर्मी करते रहे। और खुद पद पर रहकर ईमानदार होने का दावा करते रहे। जांच से बचने के उपाय करते रहे। और कहते रहे कि उनपर आरोप ही नहीं है। जांच तो दूर।