"पूर्व सिविल सेवकों- संरक्षणवादियों ने वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि वन (संरक्षण) अधिनियम 2023 संविधान के साथ-साथ 'भारतीय पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों' के तहत गारंटीकृत कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।"
20 अक्टूबर को उच्चतम न्यायालय ने वन (संरक्षण) अधिनियम में हालिया संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर 6 हफ्ते में केंद्र से जवाब मांगा है। बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और कानून एवं न्याय मंत्रालय को नोटिस जारी किया। शीर्ष न्यायालय सेवानिवृत्त नौकरशाह अशोक कुमार शर्मा और अन्य की एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है। याचिका के जरिये वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 की संवैधानिकता को यह कहते हुए चुनौती दी है कि नया कानून देश के पुराने वन शासन ढांचे की अनदेखी करता है।
याचिका में कहा गया है, ‘‘2023 का संशोधन अधिनियम मनमाने तरीके से वन भूमि में कई तरह की परियोजनाओं और गतिविधियों की अनुमति देता है और ऐसा करते हुए यह वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से उन्हें छूट देता है।’’ इसमें कहा गया है, ‘‘ये परियोजनाएं और गतिविधियां नये कानून में अस्पष्ट रूप से परिभाषित की गई हैं, और इनकी व्याख्या व्यापक जनहित की कीमत पर वाणिज्यिक हितों को पूरा करने वाले तरीके के रूप में की जाएगी।’’
इन्हीं सब कारणों के चलते पूर्व सिविल सेवकों और संरक्षणवादियों ने अदालत से वन संरक्षण अधिनियम 2023 के हालिया संशोधनों को “अमान्य और शून्य” घोषित करने की मांग की है। कहा कि यह संविधान के साथ-साथ "भारतीय पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों" के तहत गारंटीकृत कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। अदालत ने केंद्र सरकार को 6 हफ्ते में जवाब देने को कहा है।
खास है कि वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को लोकसभा ने 26 जुलाई को और राज्यसभा ने अगस्त में पारित किया था। इसके जरिये देश की सीमाओं के 100 किमी के भीतर की जमीन को संरक्षण कानूनों के दायरे से छूट देने का प्रावधान किया गया है तथा वन क्षेत्रों में प्राणि उद्यान, सफारी (जंगल की यात्रा) एवं पारिस्थितिकी पर्यटन की सुविधाओं की अनुमति दी गई है। याचिका के अनुसार, प्राणि उद्यान जंतुओं को कैद रखते हैं और सफारी उद्यान महज बड़े बाड़े हैं। इसमें कहा गया है कि किसी भी तरह से इसे वन्यजीव या वन्य गतिविधियों के संरक्षण के उपायों के समान नहीं बताया जा सकता।
एक विवादास्पद विधेयक जो कानून बन गया
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने इसी साल 27 मार्च को लोकसभा में वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक पेश किया। विधेयक का उद्देश्य 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करना है, जो गैर-वन उद्देश्यों (जैसे पर्यटन) के लिए वनों के उपयोग को प्रतिबंधित करने सहित कई तरीकों से देश भर में वनों के संरक्षण का प्रावधान करता है। विधेयक में अन्य बातों के अलावा, देश के कार्बन लक्ष्यों को पूरा करने में वनीकरण के महत्व का हवाला देते हुए अधिनियम में कई कठोर बदलावों का प्रस्ताव किया गया है। अपनी याचिका में, याचिकाकर्ताओं ने 2023 के वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम की संवैधानिकता पर सवाल उठाया है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह अधिनियम राज्य की ओर से उसके कर्तव्यों की उपेक्षा' को दर्शाता है जो कि पर्यावरण की रक्षा और संरक्षण के लिए आवश्यक है। यही नहीं, द वायर के अनुसार, याचिका में तर्क दिया गया है कि नया संशोधित अधिनियम "एक नियामक व्यवस्था पेश करता है जो जंगलों को पहले दी जाने वाली सुरक्षा की प्रकृति और सीमा में कमी लाता है।", इसका मतलब है कि वनों की सुरक्षा की दिशा में, जैसा कि उसने पहले हस्ताक्षर किया था, के विपरीत सरकार ने काफी हद तक अपने कर्तव्यों से पल्ला झाड़ने का ही काम किया है। इसी से पर्यावरण को होने वाले संभावित नुकसान को देखते हुए, याचिकाकर्ताओं ने इस अधिनियम को अमान्य घोषित करने के लिए कहा है।
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत पर्यावरण और वनों की सुरक्षा करना सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है। संविधान ने हमेशा सरकार को इन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक की भूमिका सौंपी है। लाइव लॉ के अनुसार, याचिकाकर्ताओं में सेवानिवृत्त सिविल सेवक, जिनमें मंत्रालयों के पूर्व सदस्य, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति के पूर्व सदस्य और अन्य सम्मानित सेवानिवृत्त अधिकारी शामिल हैं। याचिकाकर्ताओं के समूह में पूर्व आईएएस अधिकारी एमके रंजीत सिंह भी हैं, जिन्होंने एक सलाहकार टीम का नेतृत्व किया था, जिसे भारत में चीतों को वापस लाने और पुन: बसाने पर अदालत की सहायता के लिए बनाया गया था। सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के साथ कानून और न्याय मंत्रालय को नोटिस भेजा है।
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांतो चंद्र सेन, अधिवक्ता कौशिक चौधरी और शिबानी घोष याचिकाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट की पीठ में बीआर गवई, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार, और प्रशांत कुमार मिश्रा शामिल हैं। पीठ ने केंद्रीय पर्यावरण एवं वन और कानून एवं न्याय मंत्रालयों से छह सप्ताह की अवधि के भीतर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा है। इतिहास बताता है कि यह महत्वपूर्ण याचिका हमारे देश में पर्यावरण और वन संरक्षण के भविष्य को आकार देने की क्षमता रखती है।
क्या कहती है याचिका?
आईएएनएस के अनुसार, याचिकाकर्ताओं के वरिष्ठ वकील प्रशांतो चंद्र सेन ने अदालत से कहा है कि संशोधन 'वनों' की परिभाषा को 'प्रतिबंधित' करने का प्रयास करता है, जिसे पहले 1996 के टीएन गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा परिभाषित किया गया था।
1995 का ये मामला भारत में वन अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय था जब टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद ने सुप्रीम कोर्ट में एक ऐतिहासिक रिट याचिका दायर की थी। इस कानूनी कार्रवाई के पीछे का कारण, नीलगिरी वन भूमि को अवैध लकड़ी संचालन के विनाशकारी परिणामों से बचाना था।
ये याचिका, भारत के वनों और पर्यावरणीय स्थिरता पर दूरगामी परिणाम लिए हैं। याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने देश के वनों के टिकाऊ और सुरक्षित उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए व्यापक निर्देशों की एक श्रृंखला जारी की हैं। इसके अलावा, अदालत ने एक कुशल ढांचा स्थापित किया, जिसे निगरानी और कार्यान्वयन पर नज़र रखने का काम सौंपा गया था, जहां क्षेत्रीय और राज्य-स्तरीय समुदाय देश भर में लकड़ी की आवाजाही और कटाई को विनियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यह एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसने भारत के जंगलों और उनकी जैव विविधता को, विशेष रूप से उन पर निर्भर अनगिनत भारतीयों की आजीविका और भावी पीढ़ियों के लिए, सुरक्षित करने का काम किया। हालांकि याचिकाकर्ताओं ने आज तर्क दिया कि 2023 के संशोधित कानून के पहलू अस्पष्ट हैं और व्याख्या के अधीन हैं, जिसे याचिकाकर्ता प्रमाणित करते हैं, इससे सार्वजनिक हित के विचार को खतरा हो सकता है और साथ ही वाणिज्यिक संस्थाओं के पक्ष में काम करने की संभावना हो सकती है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह वास्तव में भारत, विशेष रूप से उत्तर पूर्वी राज्यों में वन संरक्षण के प्रयासों के लिए झटका साबित हो सकता है।
सबरंग इंडिया के अनुसार, कुल मिलाकर यह अधिनियम 1980 के वन कानून में व्यापक बदलाव लाने का प्रयास है, जिसे शुरू में वन भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए बड़े पैमाने पर परिवर्तन को रोकने के लिए तैयार किया गया था। संशोधित अधिनियम इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाली कुछ भूमियों को छूट देता है, जिससे इन भूमियों को पेड़ों से मुक्त करना और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करना आसान हो जाता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भारत के लगभग 28% वन रिकॉर्डेड वन क्षेत्र के दायरे से बाहर हैं, और इस प्रकार उन्हें पहले जो भी सुरक्षा प्रदान की गई थी वह समाप्त हो जाएगी।
हालांकि, यह पहली बार नहीं है कि कानून में संशोधन किया गया है, इसमें वर्षों से संशोधन किया गया है, फिर भी इस अधिनियम में प्रदान किए गए मूल प्रावधानों को कमजोर करना कार्यकर्ताओं और पर्यवेक्षकों के लिए अत्यधिक चिंता का विषय है। हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, याचिका में दावा किया गया है कि भारत में वन अधिकारों का भविष्य एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। ऐसे में "संशोधित अधिनियम एक तरह से भारत में जंगलों की मौत की घंटी होगी।"
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20 अक्टूबर को उच्चतम न्यायालय ने वन (संरक्षण) अधिनियम में हालिया संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर 6 हफ्ते में केंद्र से जवाब मांगा है। बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिका पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और कानून एवं न्याय मंत्रालय को नोटिस जारी किया। शीर्ष न्यायालय सेवानिवृत्त नौकरशाह अशोक कुमार शर्मा और अन्य की एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है। याचिका के जरिये वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 की संवैधानिकता को यह कहते हुए चुनौती दी है कि नया कानून देश के पुराने वन शासन ढांचे की अनदेखी करता है।
याचिका में कहा गया है, ‘‘2023 का संशोधन अधिनियम मनमाने तरीके से वन भूमि में कई तरह की परियोजनाओं और गतिविधियों की अनुमति देता है और ऐसा करते हुए यह वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से उन्हें छूट देता है।’’ इसमें कहा गया है, ‘‘ये परियोजनाएं और गतिविधियां नये कानून में अस्पष्ट रूप से परिभाषित की गई हैं, और इनकी व्याख्या व्यापक जनहित की कीमत पर वाणिज्यिक हितों को पूरा करने वाले तरीके के रूप में की जाएगी।’’
इन्हीं सब कारणों के चलते पूर्व सिविल सेवकों और संरक्षणवादियों ने अदालत से वन संरक्षण अधिनियम 2023 के हालिया संशोधनों को “अमान्य और शून्य” घोषित करने की मांग की है। कहा कि यह संविधान के साथ-साथ "भारतीय पर्यावरणीय न्यायशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों" के तहत गारंटीकृत कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। अदालत ने केंद्र सरकार को 6 हफ्ते में जवाब देने को कहा है।
खास है कि वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को लोकसभा ने 26 जुलाई को और राज्यसभा ने अगस्त में पारित किया था। इसके जरिये देश की सीमाओं के 100 किमी के भीतर की जमीन को संरक्षण कानूनों के दायरे से छूट देने का प्रावधान किया गया है तथा वन क्षेत्रों में प्राणि उद्यान, सफारी (जंगल की यात्रा) एवं पारिस्थितिकी पर्यटन की सुविधाओं की अनुमति दी गई है। याचिका के अनुसार, प्राणि उद्यान जंतुओं को कैद रखते हैं और सफारी उद्यान महज बड़े बाड़े हैं। इसमें कहा गया है कि किसी भी तरह से इसे वन्यजीव या वन्य गतिविधियों के संरक्षण के उपायों के समान नहीं बताया जा सकता।
एक विवादास्पद विधेयक जो कानून बन गया
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने इसी साल 27 मार्च को लोकसभा में वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक पेश किया। विधेयक का उद्देश्य 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करना है, जो गैर-वन उद्देश्यों (जैसे पर्यटन) के लिए वनों के उपयोग को प्रतिबंधित करने सहित कई तरीकों से देश भर में वनों के संरक्षण का प्रावधान करता है। विधेयक में अन्य बातों के अलावा, देश के कार्बन लक्ष्यों को पूरा करने में वनीकरण के महत्व का हवाला देते हुए अधिनियम में कई कठोर बदलावों का प्रस्ताव किया गया है। अपनी याचिका में, याचिकाकर्ताओं ने 2023 के वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम की संवैधानिकता पर सवाल उठाया है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह अधिनियम राज्य की ओर से उसके कर्तव्यों की उपेक्षा' को दर्शाता है जो कि पर्यावरण की रक्षा और संरक्षण के लिए आवश्यक है। यही नहीं, द वायर के अनुसार, याचिका में तर्क दिया गया है कि नया संशोधित अधिनियम "एक नियामक व्यवस्था पेश करता है जो जंगलों को पहले दी जाने वाली सुरक्षा की प्रकृति और सीमा में कमी लाता है।", इसका मतलब है कि वनों की सुरक्षा की दिशा में, जैसा कि उसने पहले हस्ताक्षर किया था, के विपरीत सरकार ने काफी हद तक अपने कर्तव्यों से पल्ला झाड़ने का ही काम किया है। इसी से पर्यावरण को होने वाले संभावित नुकसान को देखते हुए, याचिकाकर्ताओं ने इस अधिनियम को अमान्य घोषित करने के लिए कहा है।
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत पर्यावरण और वनों की सुरक्षा करना सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है। संविधान ने हमेशा सरकार को इन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षक की भूमिका सौंपी है। लाइव लॉ के अनुसार, याचिकाकर्ताओं में सेवानिवृत्त सिविल सेवक, जिनमें मंत्रालयों के पूर्व सदस्य, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति के पूर्व सदस्य और अन्य सम्मानित सेवानिवृत्त अधिकारी शामिल हैं। याचिकाकर्ताओं के समूह में पूर्व आईएएस अधिकारी एमके रंजीत सिंह भी हैं, जिन्होंने एक सलाहकार टीम का नेतृत्व किया था, जिसे भारत में चीतों को वापस लाने और पुन: बसाने पर अदालत की सहायता के लिए बनाया गया था। सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के साथ कानून और न्याय मंत्रालय को नोटिस भेजा है।
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांतो चंद्र सेन, अधिवक्ता कौशिक चौधरी और शिबानी घोष याचिकाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट की पीठ में बीआर गवई, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार, और प्रशांत कुमार मिश्रा शामिल हैं। पीठ ने केंद्रीय पर्यावरण एवं वन और कानून एवं न्याय मंत्रालयों से छह सप्ताह की अवधि के भीतर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा है। इतिहास बताता है कि यह महत्वपूर्ण याचिका हमारे देश में पर्यावरण और वन संरक्षण के भविष्य को आकार देने की क्षमता रखती है।
क्या कहती है याचिका?
आईएएनएस के अनुसार, याचिकाकर्ताओं के वरिष्ठ वकील प्रशांतो चंद्र सेन ने अदालत से कहा है कि संशोधन 'वनों' की परिभाषा को 'प्रतिबंधित' करने का प्रयास करता है, जिसे पहले 1996 के टीएन गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा परिभाषित किया गया था।
1995 का ये मामला भारत में वन अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय था जब टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद ने सुप्रीम कोर्ट में एक ऐतिहासिक रिट याचिका दायर की थी। इस कानूनी कार्रवाई के पीछे का कारण, नीलगिरी वन भूमि को अवैध लकड़ी संचालन के विनाशकारी परिणामों से बचाना था।
ये याचिका, भारत के वनों और पर्यावरणीय स्थिरता पर दूरगामी परिणाम लिए हैं। याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने देश के वनों के टिकाऊ और सुरक्षित उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए व्यापक निर्देशों की एक श्रृंखला जारी की हैं। इसके अलावा, अदालत ने एक कुशल ढांचा स्थापित किया, जिसे निगरानी और कार्यान्वयन पर नज़र रखने का काम सौंपा गया था, जहां क्षेत्रीय और राज्य-स्तरीय समुदाय देश भर में लकड़ी की आवाजाही और कटाई को विनियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यह एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसने भारत के जंगलों और उनकी जैव विविधता को, विशेष रूप से उन पर निर्भर अनगिनत भारतीयों की आजीविका और भावी पीढ़ियों के लिए, सुरक्षित करने का काम किया। हालांकि याचिकाकर्ताओं ने आज तर्क दिया कि 2023 के संशोधित कानून के पहलू अस्पष्ट हैं और व्याख्या के अधीन हैं, जिसे याचिकाकर्ता प्रमाणित करते हैं, इससे सार्वजनिक हित के विचार को खतरा हो सकता है और साथ ही वाणिज्यिक संस्थाओं के पक्ष में काम करने की संभावना हो सकती है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह वास्तव में भारत, विशेष रूप से उत्तर पूर्वी राज्यों में वन संरक्षण के प्रयासों के लिए झटका साबित हो सकता है।
सबरंग इंडिया के अनुसार, कुल मिलाकर यह अधिनियम 1980 के वन कानून में व्यापक बदलाव लाने का प्रयास है, जिसे शुरू में वन भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए बड़े पैमाने पर परिवर्तन को रोकने के लिए तैयार किया गया था। संशोधित अधिनियम इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाली कुछ भूमियों को छूट देता है, जिससे इन भूमियों को पेड़ों से मुक्त करना और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करना आसान हो जाता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भारत के लगभग 28% वन रिकॉर्डेड वन क्षेत्र के दायरे से बाहर हैं, और इस प्रकार उन्हें पहले जो भी सुरक्षा प्रदान की गई थी वह समाप्त हो जाएगी।
हालांकि, यह पहली बार नहीं है कि कानून में संशोधन किया गया है, इसमें वर्षों से संशोधन किया गया है, फिर भी इस अधिनियम में प्रदान किए गए मूल प्रावधानों को कमजोर करना कार्यकर्ताओं और पर्यवेक्षकों के लिए अत्यधिक चिंता का विषय है। हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार, याचिका में दावा किया गया है कि भारत में वन अधिकारों का भविष्य एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। ऐसे में "संशोधित अधिनियम एक तरह से भारत में जंगलों की मौत की घंटी होगी।"
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