एन राम ने दि हिन्दू अख़बार में रफाल डील से संबंधित जो खुलासा किया है वो सन्न कर देने वाला है। इस बार एन राम ने रक्षा मंत्रालय के फाइल का वो हिस्सा ही छाप दिया है जिसमें इस बात पर सख़्त एतराज़ किया गया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय अपने स्तर पर इस डील को अंजाम दे रहा है और इसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय को नहीं है। ऐसा किया जाना समानांतर कार्यवाही मानी जाएगी जिससे इस डील के लिए बनाई गई रक्षा मंत्रालय की टीम की स्थिति कमज़ोर होती है। यह ख़बर अब साफ कर देती है कि प्रधानमंत्री देश के लिए अनिल अंबानी के लिए चुपचाप काम कर रहे थे। वही अनिल अंबानी जिनकी कंपनी 1 लाख करोड़ के घाटे में हैं और सरकारी पंचाट से दिवालिया होने का सर्टिफिकेट मांग रही है।
इस रिपोर्ट को समझने के लिए कुछ पक्षों को ध्यान में रखें। रफाल कंपनी से बातचीत के लिए रक्षा मंत्रालय एक टीम का गठन करता है। उसी तरह फ्रांस की तरफ से एक टीम का गठन किया जाता है। दोनों के बीच लंबे समय तक बातचीत चलती है। मोलभाव होता है। अचानक भारतीय टीम को पता चलता है कि इस बातचीत में उनकी जानकारी के बग़ैर प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल हो गया है और वह अपने स्तर पर शर्तों को बदल रहा है। एन राम ने जो नोट छापा है वो काफी है प्रधानमंत्री मोदी की भूमिका को साफ साफ पकड़ने के लिए। यही नहीं सरकार ने अक्तूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट से भी यह बात छिपाई है कि इस डील में प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल था। क्या ये सरकार सुप्रीम कोर्ट से भी झूठ बोलती है। इस नोट के अनुसार बिल्कुल झूठ बोलती है।
एन राम ने अपनी ख़बर के प्रमाण के तौर पर 24 नवंबर 2015 को जारी रक्षा मंत्रालय के एक नोट का हवाला दिया है। रक्षा मंत्रालय की टीम ने रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के ध्यान में लाने के लिए यह नोट तैयार किय था। इसमें कहा गया है कि " हमें प्रधानमंत्री कार्यालय को सलाह देनी चाहिए कि रक्षा सौदे के लिए बनी भारतीय टीम का कोई भी अफसर जो इस टीम का हिस्सा नहीं है वह फ्रांस की साइड से स्वतंत्र रूप से मोलभाव न करे। अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय के मोलभाव पर भरोसा नहीं है तो उचित स्तर पर प्रधानमंत्री कार्यालय ही बातचीत की एक नई प्रक्रिया बना ले। "
दि हिन्दू अखबार के पास जो सरकारी दस्तावेज़ हैं उसके अनुसार रक्षा मंत्रालय ने इस बात का विरोध किया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने जो कदम उठाए हैं वो रक्षा मंत्रालाय और उसकी टीम के प्रयासों को ठेस पहुंचाते हैं। उस वक्त के रक्षा सचिव जी. मोहन कुमार ने अपने हाथ से फाइल पर लिखा है कि रक्षा मंत्री इस पर ध्यान दें। प्रधानमंत्री कार्यालय से उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह की स्वतंत्र बातचीत न करे क्योंकि इससे भारतीय टीम की कोशिशों को धक्का पहुंचता है।
क्या प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा सचिव पर भरोसा नहीं है, इस बातचीत के लिए बनी टीम के प्रमुख वायुसेना के उपाध्यक्ष पर भरोसा नहीं है? आखिर गुपचुप तरीके से प्रधानमंत्री कार्यालय ने बातचीत कैसे शुरू कर दी? क्या उनका संयुक्त सचिव अपनी मर्ज़ी से ऐसा कर सकता है? तब तो दो ही बात हो सकती है। या तो आप पाठकों को हिन्दी पढ़नी नहीं आती है या फिर आप नरेंद्र मोदी पर आंखें मूंद कर विश्वास करते हैं। प्रधानमंत्री इस डील में देश के लिए रक्षा मंत्री, रक्षा सचिव और वायुसेना के उपाध्यक्ष को अंधेरे में रख रहे थे या फिर अनिल अंबानी के लिए?
रक्षा मंत्रालय ने जो नोट भेजा था उसे उप सचिव एस के शर्मा ने तैयार किया था। जिसे ख़रीद प्रबंधक व संयुक्त सचिव और ख़रीद प्रक्रिया के महानिदेशक दोनों ने ही समर्थन दिया था। रक्षा मंत्रालय के इस नोट से पता चलता है कि उन्हें इसकी भनक तक नहीं थी। 23 अक्तूबर 2015 तक कुछ पता नहीं था कि प्रधानमंत्री कार्यालय भी अपने स्तर पर रफाल विमान को लेकर बातचीत कर रहा है।
इन नोट में लिखा है कि फ्रांस की टीम के प्रमुख जनरल स्टीफ रेब से प्रधानमंत्री कार्यालय बातचीत कर रहा था। इसकी जानकारी भारतीय टीम को 23 अक्तूबर 2015 को मिलती है। इस नोट में फ्रांस के रक्षा मंत्रालय के कूटनीतिक सलाहकार लुई वेसी और प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेश अशरफ के बीच हुई टेलिफोन वार्ता का जिक्र है। यह बातचीत 20 अक्तूबर 2015 को हुई थी। आप जानते हैं कि अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री ने पेरिस में डील का एलान कर दिया था। 26 जनवरी 2016 को जब ओलान्द भारत आए थे तब इस डील को लेकर समझौता पत्र पर हस्ताक्षर हुआ था।
भारत की तरफ से जो टीम बनी थी उसके अध्यक्ष वायुसेना के उपाध्यक्ष एयर मार्शल एस बी पी सिन्हा थे। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेद अशरफ को बताया कि ऐसी बातचीत हो रही है तो जावेद अशरफ ने जवाब में लिखा कि हां बातचीत हुई थी। जावेद यह भी कहते हैं कि फ्रांस की टीम के मुखिया ने अपने राष्ट्रपति ओलान्द की सलाह पर उनसे चर्चा की थी और जनरलब रेब के पत्र को कर भी चर्चा हुई थी। इसी पत्र को लेकर भी रक्षा मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखा था। आपको याद होगा कि सितंबर 2018 में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलान्द ने एसोसिएट प्रेस से कहा था कि उन पर रिलायंस ग्रुप को शामिल करने का दबाव डाला गया था। उसके लिए नया फार्मूला बना था।
रक्षा मंत्रालय के नोट में प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से होने वाली बातचीत को समानांतर कार्यवाही बताया है। कहा है कि इससे भारतीय टीम की इस डील में दावेदारी कमज़ोर होती है। जब रक्षा मंत्रालय बातचीत कर ही रहा था तो बिना उसकी जानकारी के प्रधानमंत्री कार्यालय अपने स्तर पर क्यों बातचीत करने लगा। नोट में लिखा है कि इस तरह की समानांतर बातचीत से फ्रांस के पक्ष को लाभ हो रहा था। जब बात सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रही थी तो फ्रांस की साइड को भी संदेश चला ही गया होगा कि इसमें जो भी करना है प्रधानमंत्री करेंगे। रक्षा मंत्री या उनके मंत्रालय की कमेटी से कुछ नहीं होगा।
जनरल रेब अपने पत्र में लिखते हैं कि फ्रांस के कूटनीतिक सलाहकार और प्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव के बीच जो बातचीत हुई है उसमें यह तय हुआ है कि कोई बैंक गारंटी नहीं दी जाएगी। जो लेटर आफ कंफर्ट है वो काफी है। उसे ही कंपनी की तरफ से गारंटी मानी जाए। इसी को लेकर सवाल उठ रहे थे कि बगैर संप्रभु गारंटी के यह डील कैसे हो गई। सरकार गोलमोल जवाब देती रही।
हिन्दी के करोड़ों पाठकों को इस डील की बारीकियों से अनजान रखने का षडयंत्र चल रहा है। संसाधनों और बेजोड़ संवाददाताओं से लैस हिन्दी के अख़बारों ने रफाल की खबर को अपने पाठकों तक नहीं पहुंचने दिया है। आप पाठकों को यह नोट करना चाहिए कि आखिर ऐसी रिपोर्टिंग हिन्दी के अखबार और चैनल में क्यों नहीं होती है। तब फिर आप कैसे इस सरकार का और प्रधानमंत्री की ईमानदारी का मूल्यांकन करेंगे। मैं तभी कहता हूं कि हिन्दी के अख़बारों ने हिन्दी के पाठकों की हत्या की है। अब एक ही रास्ता है। आप इस खबर के लिए हिन्दू अखबार किसी तरह से पढ़ें। मैंने पर्याप्त अनुवाद कर दिया है। देखें कि अनिल अंबानी के लिए प्रधानमंत्री मोदी किस तरह चुपचाप काम कर रहे थे।
इस रिपोर्ट को समझने के लिए कुछ पक्षों को ध्यान में रखें। रफाल कंपनी से बातचीत के लिए रक्षा मंत्रालय एक टीम का गठन करता है। उसी तरह फ्रांस की तरफ से एक टीम का गठन किया जाता है। दोनों के बीच लंबे समय तक बातचीत चलती है। मोलभाव होता है। अचानक भारतीय टीम को पता चलता है कि इस बातचीत में उनकी जानकारी के बग़ैर प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल हो गया है और वह अपने स्तर पर शर्तों को बदल रहा है। एन राम ने जो नोट छापा है वो काफी है प्रधानमंत्री मोदी की भूमिका को साफ साफ पकड़ने के लिए। यही नहीं सरकार ने अक्तूबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट से भी यह बात छिपाई है कि इस डील में प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल था। क्या ये सरकार सुप्रीम कोर्ट से भी झूठ बोलती है। इस नोट के अनुसार बिल्कुल झूठ बोलती है।
एन राम ने अपनी ख़बर के प्रमाण के तौर पर 24 नवंबर 2015 को जारी रक्षा मंत्रालय के एक नोट का हवाला दिया है। रक्षा मंत्रालय की टीम ने रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के ध्यान में लाने के लिए यह नोट तैयार किय था। इसमें कहा गया है कि " हमें प्रधानमंत्री कार्यालय को सलाह देनी चाहिए कि रक्षा सौदे के लिए बनी भारतीय टीम का कोई भी अफसर जो इस टीम का हिस्सा नहीं है वह फ्रांस की साइड से स्वतंत्र रूप से मोलभाव न करे। अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय के मोलभाव पर भरोसा नहीं है तो उचित स्तर पर प्रधानमंत्री कार्यालय ही बातचीत की एक नई प्रक्रिया बना ले। "
दि हिन्दू अखबार के पास जो सरकारी दस्तावेज़ हैं उसके अनुसार रक्षा मंत्रालय ने इस बात का विरोध किया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने जो कदम उठाए हैं वो रक्षा मंत्रालाय और उसकी टीम के प्रयासों को ठेस पहुंचाते हैं। उस वक्त के रक्षा सचिव जी. मोहन कुमार ने अपने हाथ से फाइल पर लिखा है कि रक्षा मंत्री इस पर ध्यान दें। प्रधानमंत्री कार्यालय से उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह की स्वतंत्र बातचीत न करे क्योंकि इससे भारतीय टीम की कोशिशों को धक्का पहुंचता है।
क्या प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा सचिव पर भरोसा नहीं है, इस बातचीत के लिए बनी टीम के प्रमुख वायुसेना के उपाध्यक्ष पर भरोसा नहीं है? आखिर गुपचुप तरीके से प्रधानमंत्री कार्यालय ने बातचीत कैसे शुरू कर दी? क्या उनका संयुक्त सचिव अपनी मर्ज़ी से ऐसा कर सकता है? तब तो दो ही बात हो सकती है। या तो आप पाठकों को हिन्दी पढ़नी नहीं आती है या फिर आप नरेंद्र मोदी पर आंखें मूंद कर विश्वास करते हैं। प्रधानमंत्री इस डील में देश के लिए रक्षा मंत्री, रक्षा सचिव और वायुसेना के उपाध्यक्ष को अंधेरे में रख रहे थे या फिर अनिल अंबानी के लिए?
रक्षा मंत्रालय ने जो नोट भेजा था उसे उप सचिव एस के शर्मा ने तैयार किया था। जिसे ख़रीद प्रबंधक व संयुक्त सचिव और ख़रीद प्रक्रिया के महानिदेशक दोनों ने ही समर्थन दिया था। रक्षा मंत्रालय के इस नोट से पता चलता है कि उन्हें इसकी भनक तक नहीं थी। 23 अक्तूबर 2015 तक कुछ पता नहीं था कि प्रधानमंत्री कार्यालय भी अपने स्तर पर रफाल विमान को लेकर बातचीत कर रहा है।
इन नोट में लिखा है कि फ्रांस की टीम के प्रमुख जनरल स्टीफ रेब से प्रधानमंत्री कार्यालय बातचीत कर रहा था। इसकी जानकारी भारतीय टीम को 23 अक्तूबर 2015 को मिलती है। इस नोट में फ्रांस के रक्षा मंत्रालय के कूटनीतिक सलाहकार लुई वेसी और प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेश अशरफ के बीच हुई टेलिफोन वार्ता का जिक्र है। यह बातचीत 20 अक्तूबर 2015 को हुई थी। आप जानते हैं कि अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री ने पेरिस में डील का एलान कर दिया था। 26 जनवरी 2016 को जब ओलान्द भारत आए थे तब इस डील को लेकर समझौता पत्र पर हस्ताक्षर हुआ था।
भारत की तरफ से जो टीम बनी थी उसके अध्यक्ष वायुसेना के उपाध्यक्ष एयर मार्शल एस बी पी सिन्हा थे। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेद अशरफ को बताया कि ऐसी बातचीत हो रही है तो जावेद अशरफ ने जवाब में लिखा कि हां बातचीत हुई थी। जावेद यह भी कहते हैं कि फ्रांस की टीम के मुखिया ने अपने राष्ट्रपति ओलान्द की सलाह पर उनसे चर्चा की थी और जनरलब रेब के पत्र को कर भी चर्चा हुई थी। इसी पत्र को लेकर भी रक्षा मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखा था। आपको याद होगा कि सितंबर 2018 में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलान्द ने एसोसिएट प्रेस से कहा था कि उन पर रिलायंस ग्रुप को शामिल करने का दबाव डाला गया था। उसके लिए नया फार्मूला बना था।
रक्षा मंत्रालय के नोट में प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से होने वाली बातचीत को समानांतर कार्यवाही बताया है। कहा है कि इससे भारतीय टीम की इस डील में दावेदारी कमज़ोर होती है। जब रक्षा मंत्रालय बातचीत कर ही रहा था तो बिना उसकी जानकारी के प्रधानमंत्री कार्यालय अपने स्तर पर क्यों बातचीत करने लगा। नोट में लिखा है कि इस तरह की समानांतर बातचीत से फ्रांस के पक्ष को लाभ हो रहा था। जब बात सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रही थी तो फ्रांस की साइड को भी संदेश चला ही गया होगा कि इसमें जो भी करना है प्रधानमंत्री करेंगे। रक्षा मंत्री या उनके मंत्रालय की कमेटी से कुछ नहीं होगा।
जनरल रेब अपने पत्र में लिखते हैं कि फ्रांस के कूटनीतिक सलाहकार और प्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव के बीच जो बातचीत हुई है उसमें यह तय हुआ है कि कोई बैंक गारंटी नहीं दी जाएगी। जो लेटर आफ कंफर्ट है वो काफी है। उसे ही कंपनी की तरफ से गारंटी मानी जाए। इसी को लेकर सवाल उठ रहे थे कि बगैर संप्रभु गारंटी के यह डील कैसे हो गई। सरकार गोलमोल जवाब देती रही।
हिन्दी के करोड़ों पाठकों को इस डील की बारीकियों से अनजान रखने का षडयंत्र चल रहा है। संसाधनों और बेजोड़ संवाददाताओं से लैस हिन्दी के अख़बारों ने रफाल की खबर को अपने पाठकों तक नहीं पहुंचने दिया है। आप पाठकों को यह नोट करना चाहिए कि आखिर ऐसी रिपोर्टिंग हिन्दी के अखबार और चैनल में क्यों नहीं होती है। तब फिर आप कैसे इस सरकार का और प्रधानमंत्री की ईमानदारी का मूल्यांकन करेंगे। मैं तभी कहता हूं कि हिन्दी के अख़बारों ने हिन्दी के पाठकों की हत्या की है। अब एक ही रास्ता है। आप इस खबर के लिए हिन्दू अखबार किसी तरह से पढ़ें। मैंने पर्याप्त अनुवाद कर दिया है। देखें कि अनिल अंबानी के लिए प्रधानमंत्री मोदी किस तरह चुपचाप काम कर रहे थे।