वंशवाद बुरा है तो क्या व्यक्तिवाद अच्छा है

Written by राजकिशोर | Published on: May 19, 2018
कर्नाटक के विधान सभा चुनाव की सब से असुंदर बात यह है कि शुरू से आखिर तक यही लगता रहा कि चुनाव कर्नाटक के राज्य स्तर के नेता नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी लड़ रहे हैं। निश्चय ही इस चुनाव का एक निर्णायक महत्व है। 2019 में क्या हो सकता है, इसकी एक झाँकी इस चुनाव से मिल सकती है। मोदी को उम्मीद है कि कर्नाटक चुनाव के बाद कांग्रेस पीपीपी (पंजाब, पुड्डुचेरी और परिवार) की पार्टी बन कर रह जाएगी। दूसरी ओर, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अगर लगा कर कहते हैं कि कांग्रेस को दो सौ से ज्यादा सीटें मिलीं, तो वे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। 
 

 
प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार राहुल गांधी की सब से बड़ी आलोचना यह है कि वे वंशवाद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अगर वे नेहरू-गांधी परिवार के न होते, तो शायद उन्हें कोई जानता भी नहीं। मजे की बात है कि स्वयं राहुल गांधी ने भी राजनीति में वंशवाद की आलोचना की है। लेकिन इससे वे अपने ऊपर लगे वंशवाद के आरोप से बरी नहीं हो जाते। अगर वे सचमुच वंशवाद का विरोध करते हैं, तो कायदे से, कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते, इतना तो घोषित करना ही चाहिए ही था कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी, तो प्रधानमंत्री का चुनाव निर्वाचित सांसद करेंगे। अगर वे साथ में यह भी जोड़ देते कि नहीं, मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं हूँ, तो सोने में सुहागा हो जाता। मैं नहीं, कांग्रेस का कोई और नेता प्रधानमंत्री बनेगा। इन दिनों राहुल की सब से बड़ी खूबी यह जान पड़ती हैं कि वे आदर्शवाद की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, परंतु इसका कोई ठोस उदाहरण सामने नहीं आ रहा है। सिर्फ आदर्शवाद की बात करना, पर कोई आदर्शवादी काम न करना वास्तव में यथार्थवाद ही है, जिसका एक प्रमुख लक्ष्य यथास्थितिवाद को बनाए रखना है। 
 
वस्तुतः वंशवाद जातिवाद की ही एक किस्म है। जातिवाद में यह पहले से ही तय रहता है कि किसकी संतान किस पेशे में जाएगी। राजा का बेटा राजा, पुरोहित का बेटा पुरोहित, बनिए का बेटा बनिया और सफाईदार का बेटा सफाईदार। सदियों से स्थापित इस परंपरा से बचने का कोई उपाय न था। जो इसकी कोशिश करता था, उसे जाति और समज से बहिष्कृत कर दिया जाता था। राजा के बेटे को राजा बनने के लिए कोई योग्यता अर्जित नहीं करनी होती थी। वह अपने पिता का स्वाभाविक उत्तराधिकारी होता था। यह वह भी जानता था और प्रजा भी जानती थी। इसलिए संक्रमण में सामान्यतः किसी प्रकार का विघ्न नहीं आता था। 

राजतंत्र अब रहा नहीं। सत्ता का जनतंत्रीकरण हो चुका है। पेशों की जड़ता भी कुछ हद तक खत्म हो गई है। कोई भी आदमी जनता का वोट पा कर देश के ऊँचे से ऊँचे कार्यकारी पद तक पहुँच सकता है। इस जनवादी क्रांति के कारण ही लालू प्रसाद और मायावती जैसे नेता सत्ता में आ सके हैं। लेकिन कुछेक उदाहरणों को छोड़ दें और विचार करें कि सफल राजनेता समाज के किस तबके से आ रहे हैं, तो साफ दिखेगा कि यह अमीर और उच्चवर्णीय तबका है जो राजनीति को मैनपॉवर सप्लाई कर रहा है। अर्थात राजतंत्र कानूनी रूप से समाप्त हो चुका है, पर जातितंत्र और अमीरतंत्र बचा हुआ है। पुराना राजतंत्र व्यक्ति पर आधारित था, यह राजतंत्र वर्ग पर आधारित है। चूँकि राजनीति का कोई शुद्ध या जनपक्षीय रूप बचा नहीं है, इसलिए यह बात किसी को अखरती भी नहीं है।

एक सफल राजनेता की संतानों को क्या करना चाहिए? उन्हें राजनीति में आना चाहिए या नहीं? कई बार इसका उत्तर यह कह कर दिया जाता है कि जब जज का बेटा जज, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील और प्रोफेसर का बेटा प्रोफेसर बनता है, तब तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, फिर मंत्री के बेटे को मंत्री बनते देख किसी की छाती क्यों फटने लगती है? इस तुलना में एक कपट है। कपट यह है कि अन्य सभी पेशों के लिए कुछ परिभाषित योग्यताएँ अर्जित करनी पड़ती हैं, परीक्षाएँ पास करनी होती हैं और अपने पेशे में अपने आप को सिर्फ अपने बल पर स्थापित करना होता है। वकील का बेटा वकील बन सकता है, पर जरूरी नहीं कि उसकी वकालत पिता जितनी ही सफल हो। लेकिन नेता और मंत्री बनने पर ये शर्तें लागू नहीं होतीं। सत्ताधारी पिता अपनी संतानों को सहज ही सत्ता में बैठा सकता है। इसके लिए संतानों में कोई योग्यता होना जरूरी नहीं है। किसी नेता की मृत्यु हो जाने पर पार्टी भी उसकी संतान को वही दर्जा दे देती है। 

इस तुलना में एक कपट और है। वकालत, डॉक्टरी या फ्रोफेसरी जीविकाएँ हैं। इनमें समाज का भला मुख्य नहीं है – वह एक बाई-प्रोडक्ट है, मुख्य बात पर्याप्त पैसा कमाना है, जिसके बाद रुतबा अपने आप बढ़ जाता है। वकील और डॉक्टर जैसे-जैसे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनकी फीस बढ़ती जाती है। बड़े डॉक्टर बड़े लोगों का इलाज करते हैं और छोटे वकील छोटे लोगों के मुकदमे लड़ते हैं। क्या राजनीति भी इसी कार्य-समूह में आती है? गंदे से गंदा राजनेता भी यह नहीं कहेगा कि मैं तो रुपया कमाने के लिए राजनीति में आया हूँ। सरकारी कर्मचारियों को पब्लिक सर्वेंट कहा जाता है, नेता दावा करते हैं कि वे सब से बड़े पब्लिक सर्वेंट हैं। 

नरेंद्र मोदी अपने को प्रधान सेवक कहना पसंद करते हैं। हर नेता यह बताता है कि राजनीति धंधा नहीं, जन सेवा है। ऐसी स्थिति में, यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि जन सेवक का बेटा जन सेवक बने, यह एक स्वाभाविक घटना है। लेकिन यह वाक्य तभी अर्थपूर्ण होगा जब जन सेवा से कोई मौद्रिक लाभ न होता हो, बल्कि घर का पैसा जाता हो। बहुत कम संतानें जन सेवा की इस परंपरा को अपनाती हैं।

वंशवाद अगर बुरा है, तो व्यक्तिवाद भी कम बुरा नहीं है। कोई एक आदमी पूरी पार्टी पर हावी हो जाए और अपने को हजार का नोट तथा दूसरों को पाँच-दस रुपए का नोट मानने लगे, तब जनतंत्र के विलाप के दिन आ जाते हैं। अपनी बेटी इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने से पहले पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वंशवादी नहीं थे, पर व्यक्तिवादी जरूर थे। कांग्रेस के एक और बड़े नेता सरदार पटेल से उनका टकराव तब तक बना रहा जब तक सरदार जीवित थे। 

यह व्यक्तिवाद हमारे समाज का एक बुनियादी लक्षण हो। जिसके पास थोड़ी-सी भी सत्ता आ जाती है, वह अहंकार से पागल हो जाता है। हमारे देश में व्यक्तिवादी नेताओं की हमारे यहाँ एक लंबी परंपरा है – इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, संजय गांधी, ज्योति बसु, एन टी रामाराव, मायावती, लालू प्रसाद, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, आदि-आदि। भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी इस समय देश के सबसे बड़े व्यक्तिवादी नेता हैं। उनके सामने उनकी पार्टी बौनी नजर आती है। वंशवाद की निंदा का समय आ गया है, व्यक्तिवाद की भर्त्सना कब शुरू होगी?

(ये लेखक के निजी विचार हैं। ये लेख उनके फेसबुक पोस्ट से साभार लिया गया है। )

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