किसान आंदोलन में भूमिहीन-खेत मज़दूरों की भागीदारी के साथ-साथ सामाजिक बराबरी का सवाल

Written by दिव्या कपूर, गुरप्रीत डोनी | Published on: December 25, 2020
2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार खुलेआम पूंजीपतियों और कॉरपोरेट के पक्ष में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, नोटबंदी, जीएसटी जैसे फैसले और धारा 370 को निष्क्रिय करने, सीएए-एनआरसी जैसे क़ानूनों को जनता के विरोध के बाद भी लागू करती रही है। इसी कड़ी में करोना महामारी और लॉकडाउन में मौके का फायदा उठाते हुए मोदी सरकार ने सितम्बर, 2020 में संसद में तीन नए कृषि कानून गैर-कानूनी और तानाशाह तरीके से पास करा लिए और लागू करने का ऐलान कर दिया। पंजाब के किसानों ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया तथा लगातार तीन महीनों से पंजाब में धरना-प्रदर्शन करते हुए मोदी सरकार के अंबानी और अडानी जैसे पूंजीपतियों के साथ मिलकर अमल में लायी जाने वाली किसान विरोधी नीतियों के बारे में लोगों को जागरूक किया। बाद में सरकार के अडिग रवैये को देखते हुए किसान संगठनों ने नवंबर, 2020 को दिल्ली चलने का ऐलान किया जिसके समर्थन में भारी मात्रा में किसान अपने ट्रैक्टर-ट्रालियां लेकर दिल्ली की ओर बढ़े। लेकिन पुलिस द्वारा दिल्ली में प्रवेश करने पर रोके जाने पर किसान संगठनों ने मजबूरी में दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं को घेर कर आंदोलन करने का फैसला किया। धीरे-धीरे कुंडली और टिकरी बॉर्डर किसानों के आंदोलन का स्थल बन गया जिसका साथ देते हुए हरियाणा, यूपी, राजस्थान और देश के लगभग सभी राज्यों के किसान भी देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन कर रहे हैं। आज पंजाब के किसान-संगठनों द्वारा शुरू किया यह आंदोलन देश ज्यादातर वर्गों एवं विदेशों से मिलने वाले समर्थन के चलते एक व्यापक जन-आंदोलन में तब्दील होता दिख रहा है।


 
किसानों के इस आंदोलन में पंजाब के दलित एवं भूमिहीन समुदाय के भी बड़ी संख्या में शामिल होने की बात कही जा रही है। पर क्या सही में आन्दोलन में भूमिहीन तबके के मुद्दों और समाज में फैली ढाँचागत जातिवादी विचारधारा और उत्पीडन के खिलाफ भी मांग उठती हुई दिखती है? 

1960 के दशक में हरित क्रांति का केंद्र मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा था। हरित क्रांति के नाम पर बड़ी पूँजी के निवेश के साथ-साथ मशीनी-करण को भी बल मिला और पंजाब की खेती पारंपरिक खेती से व्यावसायिक खेती में बदल गयी। जिससे पंजाब में खेत-मजदूर को मिलने वाले काम के अवसरों में भारी कमी आयी। पंजाब की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है जहां मुख्य रूप से तीन श्रेणियों के लोग खेती पर सीधे तौर पर निर्भर करते हैं। पहली श्रेणी में जमींदार आते हैं जिनके पास बड़े पैमाने पर जमीन है, दूसरी में भूमिहीन किसान जो किराये पर जमीन लेकर खेती करते हैं और तीसरी श्रेणी उन खेत-मजदूरों की है जो मजदूरी करके अपना घर परिवार चलाते हैं। पंजाब के ज्यादातर खेत-मजदूर, दलित समुदाय से आते हैं जो 2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब की कुल आबादी के 32% हैं लेकिन इनके पास सिर्फ 3% ज़मीन का मालिकाना हक़ है। अपनी ज़मीन न होने के कारण यह तबका जमीदारों के खेतों में मजदूरी करने को विवश रहता है। खेती में बड़ा योगदान होने के बावजूद भी यह तबका हमेशा से ही शोषण और बहिष्कार का शिकार रहा है। जमींदार और खेत मजदूर का रिश्ता शोषक और शोषित का है, जिसके कारण उनके बीच अंतर्विरोध रहे हैं।

‘ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी’ के नेता गुरमुख मान दलित कैमरा (ऑनलाइन चैनल) की टीम से बात करते हुए केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए किसान क़ानूनों की ख़ामियों को गिनाते हुए कहते हैं कि वो और उनका संगठन शुरू से ही किसान आन्दोलन से जुड़े हैं और मोदी सरकार के फासीवादी एजेंडे के खिलाफ हैं जिसका विरोध जरूरी है। पंजाब में सीरी-लेबर के बारे में बात करते हुए वे बताते हैं कि जमींदारों के खेतों में ख़ासतौर पर दलितों के दो समुदाय काम करते हैं- मज़हबी सिख और रविदासिया सिख। सीरी-लेबर आमतौर पर बंधुआ मज़दूर के रूप में काम करती है। दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर चल रहे किसानों के आन्दोलन में दलितों और खेत मज़दूरों की उपस्थिति पर बात करते हुए वह कहते हैं कि कोरोना महामारी के समय यूपी-बिहार के प्रवासी मज़दूर वापिस चले गए थे। तब पंजाब में धान की बुवाई के समय वहां के स्थानीय मज़दूरों द्वारा मजदूरी के रेट को बढ़ाने (शहर में मिलने वाली मजदूरी के बराबर) की मांग करने पर जमींदारों द्वारा दलितों का बहिष्कार कर दिया गया था। जिसके कारण दलित समुदाय में किसानों के लिए नाराज़गी है और किसान आन्दोलन में उनकी नुमाइंदगी उस पैमाने पर नही है जितनी होनी चाहिए थी। लेकिन गुरमुख मान संगठन की बात को रखते हुए कहते हैं कि चेतना के स्तर  पर मैं और मेरा संगठन मानते हैं कि इस समय मोदी सरकार बड़ा दुश्मन है जिसके खिलाफ सभी को साथ आना चाहिए। वह स्पष्ट करते हैं कि आज भी जातिगत उत्पीड़न खत्म नहीं हुआ है और ये एक बड़ा मुद्दा है। पर इस समय मोदी सरकार के खिलाफ आन्दोलन भी बड़ा मुद्दा है, इसलिए वे सहयोग करने आए हैं। 

पंजाब के फोटो आर्टिस्ट और डॉक्यूमेंटरी फिल्म-निर्माता रणदीप मदोके भी दलित कैमरे की टीम से बात करते हुए दलित और खेत मज़दूर की किसान-आन्दोलन मे भागीदारी पर कहते हैं कि आन्दोलन में आना और लम्बे समय तक रूकने में साधन भी एक बड़ा मसला है। मज़दूर के पास आने-जाने के साधन नहीं हैं और ये तबका रोज़ कमा कर रोज खाने वाला है। आन्दोलन के बारे में बताते हुए कहते हैं पंजाब में दलित-संगठन कम हैं, और अगर हैं तो दलित लोग उनसे कम जुड़े हैं। उन्हें यहाँ आना चाहिए जिससे वो भी सीख पायेंगे कि संगठित होकर लड़ने का क्या महत्व होता है? साथ ही वह आन्दोलन के माहौल में बराबरी की बात करते हुए इसकी तुलना 'बेगमपुरा' से करते हैं जिसकी कल्पना गुरु रविदास जी ने की थी।

दलितों और भूमिहीन लोगों को इन क़ानूनों से होने वाले सीधे नुकसान को लेकर दो बातें प्रमुखता से कही जा रही हैं। एक तो यह कि बड़ी कंपनियों के आने से खेती में मशीनी-करण बढ़ेगा। जिससे खेत-मज़दूर को कम काम मिलेगा और बेरोज़गारी बढ़ेगी। जिसका सीधा प्रभाव दलित और खेत मज़दूरों पर पड़ेगा। दूसरा दलित, खेत-मज़दूर और गरीब लोग ज़्यादातर राशन के लिए सरकारी योजनाओं पर निर्भर करते हैं। अगर कानून लागू होते हैं तो सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाला सस्ता राशन बंद हो जायेगा और फिर राशन को बाज़ार से ज़्यादा रेट में ख़रीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। 

दलित समाज से आने वाले और अमेरिका में शोधकर्ता कुलदीप का कहना है कि ये आन्दोलन खासतौर पर किसानों की आर्थिक मांगों को लेकर किया जा रहा है, जो भारत की राजनीतिक परिस्थियों को देखते हुए महत्वपूर्ण है। लेकिन खेत-मज़दूर और दलितों की भागीदारी के तर्क पर सवाल करते हुए कहते हैं पंजाब में ज़मीनी स्तर पर भूमिहीन लोगों के जीवन में इस आन्दोलन से कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है क्योंकि अभी तो भूमिहीन लोग खेतों में मज़दूरी करके अपना काम चलाते हैं, और बाद में वही लोग किसी बड़ी कंपनी के लिए काम करेंगे। फ़र्क़ सिर्फ इतना आएगा कि अभी वो खेतों में एक तरह की बंधुआ मज़दूरी कर रहे हैं और खेती ख़त्म होने से उनका शोषण कंपनियां करेंगी जिसके कई उदाहरण देश के अलग-अलग कोनों से हमारे सामने हैं। तथ्यों की जांच से पता चलता है कि जो जमींदार तबका अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्षरत है वही दलितों के पास थोड़ी बहुत बची हुई जमीन लेने के लिए भी प्रयासरत रहता है। इसलिए सामाजिक और आर्थिक बराबरी के लिए इन अंतर्विरोधों से टकराना भी जरूरी है।



“पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स (रेगुलेशन) रूल्स, 1964” के अनुसार पंचायतों के अधीन आने वाली शामलाट ज़मीन (गॉव की सामुदायिक ज़मीन) का 33% हिस्सा दलित समुदायों के लिए आरक्षित है। गांव के सवर्ण जमींदार किसान इस पर कब्ज़ा करके रखते है जिसके कारण गांव में भूमिहीन समुदाय और सवर्ण जमीदारों के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती है। मिसाल के तौर पर सन 2008 में जब मज़दूरों ने इक्कठा होकर ज़िला संगरूर के एक गांव बेनडा में ‘पंचायती ज़मीन’ पर अपने हक़ को लेकर आवाज़ उठाई तो पंजाब के जमींदारों ने उनका कड़ा विरोध किया। विरोध भी ऐसा कि मरने-मारने तक बात आ पहुंची। दलित मज़दूरों के बारे में बोला जा रहा था- ‘ये कौन होते हैं खेती करने वाले? या जमीन के साथ इनका क्या रिश्ता?’ मगर आख़िरकार मज़दूरों ने एकता से ये संघर्ष जीत लिया जो बाद में एक लहर का रूप धारण करके पंजाब के मालवा क्षेत्र के 100 से अधिक गांव में फ़ैल गया। "झलूर" संगरूर ज़िले का एक गांव (जिसकी जमीन का बड़ा हिस्सा ‘पंचायती जमीन’ का था) में जब वहां के दलितों द्वारा ‘पंचायती ज़मीन’ के हक़ की लड़ाई के लिए संघर्ष तेज़ हुआ तो वहाँ जमीदारों ने दलितों पर हमला कर दिया। इस संघर्ष में मज़दूरों का साथ देते हुए जब भारतीय किसान यूनियन एकता (उग्राहां) के नेता जोगिंदर उग्राहां ने मज़दूरों के साथ होने की बात कही तो जमींदारों ने उनका भी विरोध किया। ये सब देखते हुए उग्राहां संगठन पीछे हट गया। 

आज मोदी सरकार द्वारा देश के पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए पारित किए गये किसान क़ानूनों का विरोध चल रहा है और साथ ही सरकार द्वारा फ़सलों के न्यूनतम मूल्य तय करने को लेकर क़ानून बनाने की माँग उठ रही है जोकि किसानों की वाजिब माँग है। यह माना जा रहा है कि खेती में मंडी का निजीकरण होने से पूंजीपति फसल का कम दाम देगा या कॉरपोरेट मनमाने तरीक़े से दाम तय करके किसानों को प्रताड़ित करेगा। लेकिन इसी तरह से जमींदार छोटा हो या बड़ा मुनाफ़े को बढ़ाने की आड़ में खेत-मज़दूर के हक को मारने की कोशिश में रहता है। साथ ही जातिगत भेदभाव भी करता है। इस मुद्दे पर भी इसी आंदोलन में चर्चा होना ज़रूरी है। 

शहीद-ए-आजम भगत सिंह इंसान से इन्सान की इसी लूट के बारे कहते हुए लिखते हैं कि “जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इंकार करते हो तो अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए?”

आन्दोलन में आए लोगों के बीच हो रही बातों में ये सवाल काफी अहम रहा है कि दलित और भूमिहीन तबके को इस आन्दोलन में क्यूँ आना चाहिए? उनके मसलों का तो यहाँ कोई जिक्र ही नहीं हैं। तो बात आती है कि किसान नहीं रहेगा, तो मज़दूर भी नही रहेगा। जिसके जवाब में ये बात निकल कर आती है, कि अगर मज़दूर न हो तो किसान ज़मीन होने पर भी कुछ नही है, इसलिए इस आंदोलन में खेत-मज़दूरों के मुद्दे और भागीदारी दोनों महत्वपूर्ण हैं। जून- 1928 में विद्रोही नाम से ‘किरती मैगज़ीन’ में प्रकाशित लेख ‘अछूत समस्या’ में भगत सिंह किसान-मज़दूरों की समस्या पर लिखते हैं- “जब गाँवों में मजदूर-प्रचार शुरू हुआ उस समय किसानों को सरकारी आदमी यह बात समझा कर भड़काते थे कि देखो, यह भंगी-चमारों को सिर पर चढ़ा रहे हैं और तुम्हारा काम बंद करवाएंगे। बस किसान इतने में ही भड़क गए। उन्हें याद रहना चाहिए कि उनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक कि वे इन गरीबों को नीच और कमीन कह कर अपनी जूती के नीचे दबाए रखना चाहते हैं।’’ 

21वीं सदी में हो रहे इस किसान आंदोलन में नए ज़माने की बात करते हुए जहां एक तरफ नौजवान लड़कियाँ अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए समाज और आन्दोलन में अपने हिस्से और ज़िम्मेदारी की बात रख रही हैं, वहीं ये बात भी समझनी होगी कि पंजाब और हरियाणा के ज्यादातर खेतों के काम में महिलाओ की भागीदारी अहम रही है, लेकिन उन्हें कभी भी खेत का मालिकाना हक़ तो दूर किसान होने का दर्जा भी नहीं दिया जाता। साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण जमींदारों के खेतों में मजदूरी करने को बाध्य दलित महिलाओं के यौनिक और मानसिक शोषण का मुद्दा भी विचारणीय है। इस प्रकार आंदोलन में समाज में व्याप्त पितृसत्ता और जातिवादी मानसिकता और नए ज़माने की नौजवान लड़कियों के हक़ की बात और जुझारू सोच देखने को मिलती है। जन आंदोलन के साथ-साथ क्रांतिकारी कवियों संत राम उदासी, लाल सिंह दिल, पाश और गुरशरण सिंह की धरोहर को आगे बढ़ाते हुए एक नयी सांस्कृतिक आंदोलन भी जरूरी है। आंदोलन के पक्ष में गायकों का इस तरह से खुले-आम आकर खड़े होना सराहनीय है। परन्तु इसके आज किसानों के पक्ष में खड़े हो जाने से क्या हम कह सकते हैं कि ये कलाकार सामाजिक सरोकार के मुद्दों को लेकर चेतन हुए हैं? अगर चेतन हुए हैं तो इन कलाकारों को समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा और एक नए प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की तरफ बढ़ना होगा। क्योंकि लड़ाई लंबी है और टक्कर सीधी हुक़ूमत से है। जोश ज़रूरी है, पर सहनशीलता और विचारधारा भी ज़रूरी है।

भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर ने कहा था- “अंग्रेज़ों के खिलाफ तो हमारी लड़ाई महत्वपूर्ण है लेकिन जातिगत संरचना के कारण जो सामाजिक और आर्थिक अन्याय देश में व्याप्त हैं उससे लड़ना भी उतना ही जरूरी है।” गाँधी जी छुआछूत को सामाजिक और नैतिक समस्या के मिश्रण के तौर पर देखते हैं, जबकि अंबेडकर छुआछूत को वैचारिक, आर्थिक और राजनीतिक कारणों से निकलता हुआ देखते हैं। डॉ. अंबेडकर छुआछूत के शिकार लोगों के उत्थान के लिए आधुनिक मूल्यों जैसे सामाजिक न्याय, बराबरी, आत्म-सम्मान और गौरव के साथ-साथ कानूनी राजनीतिक दृष्टिकोण पर जोर देते हैं।

समाज के बाक़ी वर्गों के लोग किसानों को केवल बाहर से ही समर्थन ही देने में सक्षम हैं, लेकिन खेती में मज़दूर वर्ग जमीदारों और किसानों का सहभागी है जो सदियों से उनके साथ किए गए ढाँचागत भेदभाव के कारण शोषित और पीड़ित रहा है। आज के संदर्भ में यह बात सही है कि एकजुट होकर फासीवादी मोदी सरकार को चुनौती देने की जरूरत है परन्तु उस एकजुटता को हासिल करने के लिए सामाजिक रूप से अपने भीतर के भेद-भाव और रूढ़िवादी परम्पराओं से लड़ना भी उतना ही जरूरी है। किसान संगठनों और व्यापक समाज द्वारा शोषित एवं उत्पीड़ित तबके को सिर्फ नैतिकता के तौर पर आंदोलन में शामिल करने की बजाए उनके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को भी आंदोलन में शामिल करना होगा। जब जमींदार और मज़दूर अपने अंतर्विरोधों को तोड़ कर पूँजीवाद और फासीवाद के सामने खड़ा हो जाएगा तो देश और समाज की क्रांति के सामने ये सभी ताक़तें घुटने टेकने को मजबूर हो जाएगी। इस तरह से किसानों का यह जन आंदोलन जीत हासिल कर ऐतिहासिक रूप से समाज को एक नयी दिशा दे सकेगा।  

नोट: दिव्या कपूर ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से राजनीतिक विज्ञान में मास्टर्स और मास कॉम्यूनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा किया है। गुरप्रीत डोनी कवि और थिएटर आर्टिस्ट हैं और पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से एलएलबी कर रहे हैं। 

बाकी ख़बरें