आतंकवाद से लड़ने नाम पर बनाये गये पोटा और टाडा जैसे क़ानूनों से बहुत ज़्यादा ख़तरनाक गैरकानूनी गतिविधियाँ रोकथाम कानून (यूएपीए) है। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए), गृह मंत्रालय के अन्तर्गत पुलिस व अन्य राज्यों की पुलिस, उत्पीड़ितों को ही उत्पीड़ित बनाने में लगी है। इन दोनों को पूरी तरह खत्म किया जाना आवश्यक है। वरना लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाना मुश्किल हो जायेगा। मानवाधिकार के साथ-साथ लोकतंत्र को बचाने के लिए सरकारों के हाथ में असीमित ताकत देने वाले ऐसे कानूनों को समाप्त होना ज़रूरी है। मानवाधिकार को बचाना यानी लोकतंत्र को मज़बूत करना है।
ये माँग पीयूसीएल और सौ से ज्यादा सामाजिक संगठनों की तरफ़ से शुरू किये गये UAPA ख़त्म करने के तीन दिवसीय अभियान के पहले दिन बुधवार को ऑनलाइन मीटिंग में की गयी। इस ऑनलाइन मीटिंग में देश भर के नामचीन वकील, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, पत्रकार, महिला अधिकार कार्यकर्ता, स्टूडेंट शामिल थे।
मीटिंग की शुरुआत में पीयूसीएल की कविता श्रीवास्तव ने कहा कि हम इन तीन दिनों में देश के 13 राज्यों में यूएपीए के इस्तेमाल पर चर्चा करेंगे। हम देख रहे हैं कि किस तरह इस कानून का इस्तेमाल उन लोगों की आवाज़ बंद करने के लिए किया जा रहा है, जो किसी न किसी रूप में रूप में सरकारी के विचारों और नीतियों से असहमति रखते हैं।
पीयूसीएल के महासचिव वकील वी. सुरेश ने कहा कि हम इतिहास के अहम दौर से गुज़र रहे हैँ। आज लोकतंत्र की हत्या की जा रही है। इस काम के लिए यूएपीए का इस्तेमाल हथियार की तरह किया जा रहा है। वी. सुरेश ने 2004 में यूएपीए-1967 में संशोधन से पहले के कानूनों और ख़ासकर टाडा, पोटा के बारे में जानकारी दी। इन कानूनों की यूएपीए से तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि यह कई मामलों में इनसे बहुत ज़्यादा ख़तरनाक है।
पीयूसीएल ने विज्ञप्ति जारी कर कहा कि चाहे वह पुलिस द्वारा आरोपित को कोर्ट के सामने पेश करने या पुलिस रिमांड के समय का मामला हो या चार्जशीट फ़ाइल करने का समय- ये सब इस क़ानून को ज्यादा निरंकुश बनाते हैं। उन्होंने बताया कि पुलिस चाहे तो एक साल तक भी चार्जशीट फ़ाइल नहीं कर सकती है। इसमें ज़मानत की शर्तें बेहद कड़ी हैं। आम कानूनों के उलट, यह ऐसा क़ानून है जिसमें गिरफ़्तार लोगों के बारे में यह मान लिया जाता है कि इन्होंने अपराध किया है। आरोपितों पर ही अपने को बेगुनाह साबित करने का दारोमदार है। जमानत न देने के लिए सिर्फ इतना ही देखना पर्याप्त है कि प्रथम दृष्टया अभियुक्त अपराध में शामिल लगता हो। उन्होंने कहा कि जमानत मिलने के ऐसे प्रावधान के रहते भीमा कोरेगांव या ऐसे ही मामलों में गिरफ्तार लोगों को जमानत मिलना मुश्किल है। हमें ऐसे कानून की जरूरत नहीं है। यह भारतीय संविधान की मूल आत्मा और मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन है।
पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और वकील मिहिर देसाई का कहना था कि टाडा और पोटा ख़ास हालात को देखते हुए सीमित समय के लिए बने कानून थे। यूएपीए हमेशा के लिए है। उन्होंने एनआईए एक्ट के बारे में चर्चा की और कहा कि इसके माध्यम से केन्द्र के पास शक्ति है कि वह तय करे कि कोई केस एनआईए जाँच करेगी या राज्य। इस क़ानून से राज्य की शक्ति छीन ली गयी है। भीमा कोरेगाँव की जाँच पहले पुणे पुलिस कर रही थी। बाद में एनआईए करने लगी। हम उसका नतीजा देख रहे हैं।
उन्होंने कहा कि यूएपीए और एनआईए के तहत आरोप लगाने वाले या गवाहों के नाम उजागर न करने का प्रावधान है। यह सामान्य कानूनों के तहत नहीं है। इससे जाँच और अदालती कार्यवाही में काफ़ी मुश्किल हो रही है। उनका सुझाव था कि हमें यूएपीए के साथ-साथ एनआईए एक्ट को भी खत्म करने की माँग करनी चाहिए।
उन्होंने इसी सिलसिले में नेटग्रिड की चर्चा की और कहा कि इसकी वजह से कई सारी एजेंसियों के माध्यम से हमारी लगातार निगरानी होने वाली है। हमें इसके बारे में भी सचेत रहना चाहिए। आज कम्प्यूटर का इस्तेमाल बड़े तौर पर हो रहा है। लोगों को फँसाने के लिए कम्प्यूटर में चीजें प्लांट की जा रही हैं। यह ख़तरनाक है।
तेलंगाना में यूएपीए के इस्तेमाल के बारे में human rights forum के माधव राव ने विस्तार से बताया। उनके मुताबिक तेलंगाना में यूएपीए के इस्तेमाल की हालत बहुत गंभीर है। इसके तहत गिरफ्तार ज्यादातर लोग भद्रादीकोट्टम जिले के आदिवासी हैं। यह ज़िला छत्तीसगढ़ से सटी सीमा के पास है। इनमें ज्यादातर छत्तीसगढ़ी आदिवसासी हैं। वे वहां सलवा जुडुम की हिंसा से बचने के लिए भाग कर यहाँ आये थे। उन्होंने बताया कि पुलिस का एक बना-बनाया तरीका है। वह उसी तरीके का इस्तेमाल कर लोगों को पकड़ने और गिरफ्तार करने का काम कर रही है। पकड़े गये लोगों पर आरोप लगाया जाता है कि वे प्रतिबंधित माओवादी संगठन के नेताओं से मिलने जा रहे थे। इनकी कथित गवाहियाँ ली जाती हैं। फिर कथित कुबूलनामा बनाया जाता है। इनके कथित बयान के आधार पर आरोपितों की लम्बी लिस्ट बना ली जाती है।
गिरफ्तार लोगों के साथ-साथ जिन लोगों का नाम शामिल कर लिया जाता है, उनमें महिला संगठन, महिला संगठन, किसान संगठन, मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ता और आम लोग हैं। पुलिस जाँच को लटकाये रखती है। इससे केस की सुनवाई ही शुरू नहीं हो पाती है। लोग सालों जेल में बंद रहते हैं।
सिविल लिबर्टिज कमेटी ऑफ आंध्रप्रदेश के. क्रांति चैतन्य ने बताया कि कैसे पुलिस ने अलग-अलग दो लोगों को पकड़ा। इनके कथित बयान के आधार पर 64 और 27 लोगों को आरोपित बना दिया गया है। इनमें कई वे लोग हैं, जो यूएपीए को हटाने का अभियान चला रहे हैं। उन्होंने कहा कि सोचिए यह कितना दिलचस्प है कि एक व्यक्ति पूरे राज्य के हर जिले से अपने सहयोगी के नाम पुलिस को बता रहा है। जो व्यक्ति छह साल से जेल में है, उसका नाम भी आरोपितों में आ गया है।
इनके साथ वकील रघुनाथ वेरोज़ ने बताया की मानव अधिकारों के काम का एक निष्पक्ष औज़ार Fact-Finding करना है जिसे अपराधिक गतिविधि में डाला जा रहा है I। रवि नारला जो 7/8 वर्ष जेल में बिता कर आये हैं ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह कानून वापस लिया जाना चाहिए क्योंकि यह कानून केवल जेल के अन्दर फेंकने के लिया बनाया गया है।
कुल उन्मूलन परेता समिति के नेता प्रभाकर की बेटी स्वेच्छा प्रभाकर ने भी अपने अनुभव साझा किये और बताया कि उनके पिता क्योंकि जाति मिटाना चाहते थे और कमज़ोर जाति पर लगतार हो रहे हमले पर सवाल उठाते थे तो उन्हे बेवजह जेल में बंद कर दिया।
दिल्ली में यूएपीए के इस्तेमाल के बारे में प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद ने चर्चा शुरू की। उन्होंने बताया दिल्ली में एक साल पहले भयानक साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। इससे पहले नागरिकता विरोधी कानून के खिलाफ कई जगह धरने चल रहे थे। हिंसा के बाद कई एफआईआर हुए। एक एफआईआर षडयंत्र के आरोप का हुआ। इसमें गिरफ्तार लोगों पर यूएपीए के तहत मुकदमे दर्ज हुए हैं। अपूर्वानंद ने कहा कि जिस तरह से चीजें घटित हो रही है, वह बता रहा है कि हम बहुत ही अंधकारमय दौर से गुजर रहे हैं।
वकील शाहरुख आलम ने दिल्ली में यूएपीए के तहत दायर केस की पृष्ठभूमि में कहा कि हम देख सकते हैं कि कैसे संवैधानिक शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात कहने को आतंकवादी जैसी गतिविधियों में बदल दिया गया है। लोगों के असहमति के अधिकार, विरोध प्रदर्शन के अधिकार को सरकार और देश के खिलाफ हिंसक षडयंत्र में बदलने की कोशिश की गयी है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक काम को आतंकवादी काम की तरह पेश किया जा रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता नदीम खान ने कहा कि दिल्ली में अब तक लगभग चार सौ लोगों को पुलिस ने पूछताछ के लिए बुलाया है। लोग डर गये हैं। छात्रों के परिवारीजनों को फोन किये जा रहे हैं। नौजवान पीढ़ी डरी-सहमी है।
वकील गुनीत कौर ने कहा कि किसान आंदोलन की मदद करने वालों को फंसाया जा रहा है ताकि उनमें डर पैदा हो। दिल्ली आने से पहले भी किसान पंजाब में आंदोलन कर रहे थे। लेकिन जब उनकी सुनवाई नहीं हुई तो वे दिल्ली आये और उनके खिलाफ खालिस्तानी का आरोप लगना शुरू हो गया। अब कई लोगों को जांच एजेंसी पूछताछ के लिए बुला रही है। उन्होंने कहा कि राज्य की तरफ से होने वाली हिंसा को अदालत ने पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। हरियाणा और दिल्ली में जिस तरह पुलिस हिंसा हुई और किसान जिस तरह से ठंड की हालत में रह रहे हैं, लोग मर रहे हैं लेकिन कोट उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रही है।
दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन से जुड़े संदीप सिंह ने विस्तार से उन लोगों के बारे में बताया जिन्हें एनआईए की तरफ़ से नोटिस भेजी गयी है। संदीप सिंह ने बताया कि इनमें वे पत्रकार हैं, जो किसान आंदोलन के लिए खबरें लिख और दिखा रहे हैं। इनमें धरने में शामिल किसानों की मदद करने वाली संस्था खालसा एड के लोग, बुद्धिजीवी, गुलामी के खिलाफ करने वाले कार्यकर्ता, बस से मदद करने वाले, लंगर चलाने वाले, डेयरी चलाने वाले, अभिनेता, जत्थेदार, लेखक शामिल हैं। अब तक कितने लोगों को एनआईए की नोटिस मिली है, इसकी संख्या की सही जानकारी किसी के पास नहीं है।
बैठक के अंत में लोगों के सवालों और आम व्यक्ति, छात्र, क्या करें जैसे विचारों से समाप्त हुई। अभियान के दूसरे दिन यानी की 21 जनवरी को पुन: शाम 6 बजे संवाद की शुरुआत होगी और असम, महाराष्ट्र, पंजाब व हरियाणा, कर्नाटक व केरल राज्यों की प्रस्तुति की जाएगी।
द्वारा जारी:
PUCL
ये माँग पीयूसीएल और सौ से ज्यादा सामाजिक संगठनों की तरफ़ से शुरू किये गये UAPA ख़त्म करने के तीन दिवसीय अभियान के पहले दिन बुधवार को ऑनलाइन मीटिंग में की गयी। इस ऑनलाइन मीटिंग में देश भर के नामचीन वकील, कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, पत्रकार, महिला अधिकार कार्यकर्ता, स्टूडेंट शामिल थे।
मीटिंग की शुरुआत में पीयूसीएल की कविता श्रीवास्तव ने कहा कि हम इन तीन दिनों में देश के 13 राज्यों में यूएपीए के इस्तेमाल पर चर्चा करेंगे। हम देख रहे हैं कि किस तरह इस कानून का इस्तेमाल उन लोगों की आवाज़ बंद करने के लिए किया जा रहा है, जो किसी न किसी रूप में रूप में सरकारी के विचारों और नीतियों से असहमति रखते हैं।
पीयूसीएल के महासचिव वकील वी. सुरेश ने कहा कि हम इतिहास के अहम दौर से गुज़र रहे हैँ। आज लोकतंत्र की हत्या की जा रही है। इस काम के लिए यूएपीए का इस्तेमाल हथियार की तरह किया जा रहा है। वी. सुरेश ने 2004 में यूएपीए-1967 में संशोधन से पहले के कानूनों और ख़ासकर टाडा, पोटा के बारे में जानकारी दी। इन कानूनों की यूएपीए से तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि यह कई मामलों में इनसे बहुत ज़्यादा ख़तरनाक है।
पीयूसीएल ने विज्ञप्ति जारी कर कहा कि चाहे वह पुलिस द्वारा आरोपित को कोर्ट के सामने पेश करने या पुलिस रिमांड के समय का मामला हो या चार्जशीट फ़ाइल करने का समय- ये सब इस क़ानून को ज्यादा निरंकुश बनाते हैं। उन्होंने बताया कि पुलिस चाहे तो एक साल तक भी चार्जशीट फ़ाइल नहीं कर सकती है। इसमें ज़मानत की शर्तें बेहद कड़ी हैं। आम कानूनों के उलट, यह ऐसा क़ानून है जिसमें गिरफ़्तार लोगों के बारे में यह मान लिया जाता है कि इन्होंने अपराध किया है। आरोपितों पर ही अपने को बेगुनाह साबित करने का दारोमदार है। जमानत न देने के लिए सिर्फ इतना ही देखना पर्याप्त है कि प्रथम दृष्टया अभियुक्त अपराध में शामिल लगता हो। उन्होंने कहा कि जमानत मिलने के ऐसे प्रावधान के रहते भीमा कोरेगांव या ऐसे ही मामलों में गिरफ्तार लोगों को जमानत मिलना मुश्किल है। हमें ऐसे कानून की जरूरत नहीं है। यह भारतीय संविधान की मूल आत्मा और मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन है।
पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और वकील मिहिर देसाई का कहना था कि टाडा और पोटा ख़ास हालात को देखते हुए सीमित समय के लिए बने कानून थे। यूएपीए हमेशा के लिए है। उन्होंने एनआईए एक्ट के बारे में चर्चा की और कहा कि इसके माध्यम से केन्द्र के पास शक्ति है कि वह तय करे कि कोई केस एनआईए जाँच करेगी या राज्य। इस क़ानून से राज्य की शक्ति छीन ली गयी है। भीमा कोरेगाँव की जाँच पहले पुणे पुलिस कर रही थी। बाद में एनआईए करने लगी। हम उसका नतीजा देख रहे हैं।
उन्होंने कहा कि यूएपीए और एनआईए के तहत आरोप लगाने वाले या गवाहों के नाम उजागर न करने का प्रावधान है। यह सामान्य कानूनों के तहत नहीं है। इससे जाँच और अदालती कार्यवाही में काफ़ी मुश्किल हो रही है। उनका सुझाव था कि हमें यूएपीए के साथ-साथ एनआईए एक्ट को भी खत्म करने की माँग करनी चाहिए।
उन्होंने इसी सिलसिले में नेटग्रिड की चर्चा की और कहा कि इसकी वजह से कई सारी एजेंसियों के माध्यम से हमारी लगातार निगरानी होने वाली है। हमें इसके बारे में भी सचेत रहना चाहिए। आज कम्प्यूटर का इस्तेमाल बड़े तौर पर हो रहा है। लोगों को फँसाने के लिए कम्प्यूटर में चीजें प्लांट की जा रही हैं। यह ख़तरनाक है।
तेलंगाना में यूएपीए के इस्तेमाल के बारे में human rights forum के माधव राव ने विस्तार से बताया। उनके मुताबिक तेलंगाना में यूएपीए के इस्तेमाल की हालत बहुत गंभीर है। इसके तहत गिरफ्तार ज्यादातर लोग भद्रादीकोट्टम जिले के आदिवासी हैं। यह ज़िला छत्तीसगढ़ से सटी सीमा के पास है। इनमें ज्यादातर छत्तीसगढ़ी आदिवसासी हैं। वे वहां सलवा जुडुम की हिंसा से बचने के लिए भाग कर यहाँ आये थे। उन्होंने बताया कि पुलिस का एक बना-बनाया तरीका है। वह उसी तरीके का इस्तेमाल कर लोगों को पकड़ने और गिरफ्तार करने का काम कर रही है। पकड़े गये लोगों पर आरोप लगाया जाता है कि वे प्रतिबंधित माओवादी संगठन के नेताओं से मिलने जा रहे थे। इनकी कथित गवाहियाँ ली जाती हैं। फिर कथित कुबूलनामा बनाया जाता है। इनके कथित बयान के आधार पर आरोपितों की लम्बी लिस्ट बना ली जाती है।
गिरफ्तार लोगों के साथ-साथ जिन लोगों का नाम शामिल कर लिया जाता है, उनमें महिला संगठन, महिला संगठन, किसान संगठन, मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ता और आम लोग हैं। पुलिस जाँच को लटकाये रखती है। इससे केस की सुनवाई ही शुरू नहीं हो पाती है। लोग सालों जेल में बंद रहते हैं।
सिविल लिबर्टिज कमेटी ऑफ आंध्रप्रदेश के. क्रांति चैतन्य ने बताया कि कैसे पुलिस ने अलग-अलग दो लोगों को पकड़ा। इनके कथित बयान के आधार पर 64 और 27 लोगों को आरोपित बना दिया गया है। इनमें कई वे लोग हैं, जो यूएपीए को हटाने का अभियान चला रहे हैं। उन्होंने कहा कि सोचिए यह कितना दिलचस्प है कि एक व्यक्ति पूरे राज्य के हर जिले से अपने सहयोगी के नाम पुलिस को बता रहा है। जो व्यक्ति छह साल से जेल में है, उसका नाम भी आरोपितों में आ गया है।
इनके साथ वकील रघुनाथ वेरोज़ ने बताया की मानव अधिकारों के काम का एक निष्पक्ष औज़ार Fact-Finding करना है जिसे अपराधिक गतिविधि में डाला जा रहा है I। रवि नारला जो 7/8 वर्ष जेल में बिता कर आये हैं ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह कानून वापस लिया जाना चाहिए क्योंकि यह कानून केवल जेल के अन्दर फेंकने के लिया बनाया गया है।
कुल उन्मूलन परेता समिति के नेता प्रभाकर की बेटी स्वेच्छा प्रभाकर ने भी अपने अनुभव साझा किये और बताया कि उनके पिता क्योंकि जाति मिटाना चाहते थे और कमज़ोर जाति पर लगतार हो रहे हमले पर सवाल उठाते थे तो उन्हे बेवजह जेल में बंद कर दिया।
दिल्ली में यूएपीए के इस्तेमाल के बारे में प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद ने चर्चा शुरू की। उन्होंने बताया दिल्ली में एक साल पहले भयानक साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। इससे पहले नागरिकता विरोधी कानून के खिलाफ कई जगह धरने चल रहे थे। हिंसा के बाद कई एफआईआर हुए। एक एफआईआर षडयंत्र के आरोप का हुआ। इसमें गिरफ्तार लोगों पर यूएपीए के तहत मुकदमे दर्ज हुए हैं। अपूर्वानंद ने कहा कि जिस तरह से चीजें घटित हो रही है, वह बता रहा है कि हम बहुत ही अंधकारमय दौर से गुजर रहे हैं।
वकील शाहरुख आलम ने दिल्ली में यूएपीए के तहत दायर केस की पृष्ठभूमि में कहा कि हम देख सकते हैं कि कैसे संवैधानिक शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात कहने को आतंकवादी जैसी गतिविधियों में बदल दिया गया है। लोगों के असहमति के अधिकार, विरोध प्रदर्शन के अधिकार को सरकार और देश के खिलाफ हिंसक षडयंत्र में बदलने की कोशिश की गयी है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक काम को आतंकवादी काम की तरह पेश किया जा रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता नदीम खान ने कहा कि दिल्ली में अब तक लगभग चार सौ लोगों को पुलिस ने पूछताछ के लिए बुलाया है। लोग डर गये हैं। छात्रों के परिवारीजनों को फोन किये जा रहे हैं। नौजवान पीढ़ी डरी-सहमी है।
वकील गुनीत कौर ने कहा कि किसान आंदोलन की मदद करने वालों को फंसाया जा रहा है ताकि उनमें डर पैदा हो। दिल्ली आने से पहले भी किसान पंजाब में आंदोलन कर रहे थे। लेकिन जब उनकी सुनवाई नहीं हुई तो वे दिल्ली आये और उनके खिलाफ खालिस्तानी का आरोप लगना शुरू हो गया। अब कई लोगों को जांच एजेंसी पूछताछ के लिए बुला रही है। उन्होंने कहा कि राज्य की तरफ से होने वाली हिंसा को अदालत ने पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। हरियाणा और दिल्ली में जिस तरह पुलिस हिंसा हुई और किसान जिस तरह से ठंड की हालत में रह रहे हैं, लोग मर रहे हैं लेकिन कोट उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रही है।
दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन से जुड़े संदीप सिंह ने विस्तार से उन लोगों के बारे में बताया जिन्हें एनआईए की तरफ़ से नोटिस भेजी गयी है। संदीप सिंह ने बताया कि इनमें वे पत्रकार हैं, जो किसान आंदोलन के लिए खबरें लिख और दिखा रहे हैं। इनमें धरने में शामिल किसानों की मदद करने वाली संस्था खालसा एड के लोग, बुद्धिजीवी, गुलामी के खिलाफ करने वाले कार्यकर्ता, बस से मदद करने वाले, लंगर चलाने वाले, डेयरी चलाने वाले, अभिनेता, जत्थेदार, लेखक शामिल हैं। अब तक कितने लोगों को एनआईए की नोटिस मिली है, इसकी संख्या की सही जानकारी किसी के पास नहीं है।
बैठक के अंत में लोगों के सवालों और आम व्यक्ति, छात्र, क्या करें जैसे विचारों से समाप्त हुई। अभियान के दूसरे दिन यानी की 21 जनवरी को पुन: शाम 6 बजे संवाद की शुरुआत होगी और असम, महाराष्ट्र, पंजाब व हरियाणा, कर्नाटक व केरल राज्यों की प्रस्तुति की जाएगी।
द्वारा जारी:
PUCL