प्रतिरोधी कविताएँ: पाश और अमृता प्रीतम

Written by Sabrangindia Staff | Published on: September 22, 2018



सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फ़ों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते 


मेरा शहर
मेरा शहर एक लंबी बहस की तरह है
सड़कें-बेतुकी दलीलों-सी
और गलियां इस तरह
जैसे एक बात को 
कोई इधर घसीटता कोई उधर।

हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मुंह से झाग बहता है।

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुंह से
फिर साइकिलों और स्कूटरों के पहिए
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां-हॉर्न एक-दूसरे पर झपटते।

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता।

शंख घंटों के सांस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस खत्म न होती
मेरा शहर एक लंबी बहस की तरह है।
 

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