मज़हबी फासीवाद के खिलाफ़ ईरान की नारी शक्ति की पहली जीत। ईरानी सरकार ने धार्मिक पुलिस ( MORALITY POLICE) को हटाने या उसका हस्तक्षेप सीमित करने की घोषणा की है। इसी पुलिस की कस्टडी में 22 वर्षीय कुर्दिश युवती महसा अमीनी की जान गयी थी। उसकी गिरफ़्तारी की वजह यह थी कि उसने हिजाब “ठीक से” नहीं पहना था। उसके बाद पूरे देश में और बाहर जो औरतों द्वारा विरोध प्रदर्शन महीनों तक चला उसमें तीन सौ से ज़्यादा इंसानी जानें गयीं।
ईरान में महसा अमीनी के समर्थन में विरोध प्रदर्शन: प्रतीकात्मक तस्वीर
लड़ाई लंबी है। सत्ता का रवैय्या अभी भी कुछ खास नर्म नहीं हुआ है। हिजाब कानून की अवहेलना करने वालों को मौत की सजा तक देने की धमकी अब भी दी जा रही है। मगर ईरान की औरत ने अच्छी तरह ज़ाहिर कर दिया है कि चादर, बुर्का या हिजाब पहनना-न पहनना सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी मर्ज़ी पर है।
मुस्लिम दक्षिण पंथ आखिर आज भी क्यों अपनी औरत को बार-बार उन गुज़री सदियों में घसीट कर ले जाना चाहता है जब औरत और बकरी में कुछ खास फ़र्क नहीं समझा जाता था। घर में बंद रहो, मर्द के लिए बच्चे पैदा करो और जब वो चाहे उसके बिस्तर पर पहुँच जाओ, इसके आगे पुरुष की नज़र में स्त्री की कोई भूमिका ही नहीं मानी जाती थी। ये बात अलग है कि 14 सौ साल पहले भी औरत घर से बाहर निकल कर कारोबार करती थी, सज-धज कर बाहर निकलती थी, सियासत और जंग में आगे-आगे होती थी, इस्लाम की पहली मस्जिद में ज़ख्मी सिपाहियों की देख-भाल भी करती थी और, ये सब पैग़ंबर की नज़र के सामने और उनकी स्वीकृति से होता था।
कहा जाता है कि पर्दा खुद औरत को पसंद है। हमारी कई औरतों से इस विषय पर बात-चीत हुई। बड़े गर्व से उन्होंने अपने आप को पर्दापोश कहा। मैं कई ऐसी युवतियों को भी जानता हूँ जिनके ऊपर प्रत्यक्ष रूप से कोई बाहरी दबाव न होने के बावजूद वो घर से बाहर बुर्के के बिना नहीं निकलतीं।
दरअसल इन मुस्लिम महिलाओं का दिमाग़ उसी तरह काम करता है जैसे गाँव का एक आम ग़रीब दलित तथाकथित ऊंची ज़ात वाले के सामने कहे जाने के बावजूद उसके बराबर नहीं बैठता। उसे लगता है कि उसकी जगह ज़मीन पर ही है। ये सैकड़ों साल की ब्रेन वाशिंग का नतीजा है। अच्छी जन्नती औरत कौन ? जो पर्दा करती है। उसे लगता है कि उसके समाज में उसे तभी स्वीकृति मिल सकती है जब वो अपने मज़हबी आलिमों की तालीम के मुताबिक अपनी ज़िंदगी जियेगी। क़ुरान की असली तालीम से मौलवियों की तालीम का वास्तव में कितना सम्बन्ध है और कितना इसमें समाज पर दबदबा रखने का उनका निहित स्वार्थ है, इस पर सोचने के लिए उसका माहौल उसे मौक़ा ही नहीं देता।
आलिम कहता है कि औरत में सिर से पाँव तक सेक्स है, इसलिए बाहरी ताकतों से उसके बचाव के लिए उसका सिर से पाँव तक ढंका होना ज़रूरी है। आलिम औरत के लिए परदे की ज़रूरत पर व्याख्यान देते हुए सूरे “हिजाब” की बात करता है। वो हिजाब का मतलब पर्दा बताता है। सही है। पर वो ये नहीं बताता कि इस अरबी शब्द का मतलब वो पर्दा है जो दरवाजे और खिड़की पर लटकाया जाता है।
इस सूरे के आने की एक पृष्ठभूमि है। होता ये था कि पैग़ंबर से मिलने जो लोग उनके घर आते थे वो अक्सर परदे के उस तरफ़ चले जाते थे जहां उनकी बीवियाँ “निजी“ अवस्था में होती थीं। इसलिए कुरान ने इस सूरे की आयतों के ज़रिए उनके लिए हद मुक़र्रर की।
सूरे अल-नूर में हुक्म हुआ है कि अपनी शर्म गाहों की हिफ़ाज़त करो। यानी उन्हें ढक कर रक्खो। आलिम इस सूरे का भी हवाला देता है। इसकी भी वजह थी। 14 सौ साल पहले के रेगीस्तानी अरब में उतनी ही बेहिसाब गर्मी पड़ती थी जितनी आज पड़ती है। आज गर्मी में आराम दिलाने वाली जो सुविधाएं हैं वो उस वक़्त नहीं थीं। गर्मी से परेशान मर्द की तरह औरत भी अपने जिस्म का बहुत सारा हिस्सा खुला रखने पर मजबूर होती थी। कभी-कभी वो किसी काम की हड़बड़ी में दरवाज़े से बाहर भी चली जाती थी।
इस्लाम आने से पहले वहां घरों में शौचालय बनाने की रवायत नहीं थी। औरत-मर्द सब बाहर झाड़ियों और पत्थरों की ओट में बैठ कर हाजत पूरी करते थे और वहां से गुज़रने वालों को अक्सर नज़र आते थे। अपनी शर्म गाहों की हिफाजत करने का हुक्म इन दो बातों के आधार पर आया। इस्लामी दुनिया की उस वक़्त शुरुआत थीं और हालात और ज़रूरत के मुताबिक आयतों के आने का सिलसिला जारी था। बात शर्म गाहों को ढंकने की थी, सिर से पाँव तक पूरे शरीर को ढंकने की नहीं।
इस्लाम एक व्यावहारिक मज़हबी फ़िलासफ़ी है जो अति नहीं, संतुलन की बात करता है। और ये संतुलन की बात स्त्री-पुरुष दोनों के लिए है।
18वीं सदी में नजद घाटी के अब्दुल अल-वहाब के एक खास तरह के शुद्धतावादी इस्लाम जिसे वहाबीवाद कहा गया, का प्रचार-प्रसार बढ़ने तक मक्का और मदीना की औरतें रंगीन कपड़े पहनती थीं और एक आज़ाद ज़िंदगी जीती थीं। धीरे-धीरे नजद की औरतों का काला बुर्का अरब के दूसरे इलाकों में फैलता गया और फिर अन्य देशों में। अल-वहाब के अनुसरण करने वालों के कट्टरपन की वजह से ही उस्मानिया हुकूमत के दौर में काबा में उनके जाने पर पाबंदी लगा दी गयी थी। आज स्थिति ये है कि 50 से ज़्यादा मुस्लिम बहुल देशों में से जहां जितना ज़्यादा वहाबीवाद हावी है वहां हिजाब और बुर्के का चलन उसी अनुपात में है। मज़े की बात है कि ईरान का शिया इस्लाम एक तरफ़ वहाबीवाद का पुरज़ोर विरोध करता है, दूरी तरफ़ औरतों के मामले में उसी के दृष्टिकोण का पालन करता है।
सन 1922 में तुर्की के मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने अपने देश की औरतों से कहा था, “आज़ादी पर तुम्हारा उतना ही हक़ है जितना किसी मर्द का और तुम्हारा पर्दा तुम्हारी आज़ादी से तुम्हें वंचित करता है।” एक दूरदर्शी लीडर की ये बात आज भी तुर्की की महिलाओं को प्रेरित करती है, वहां मज़बूत हो रहे इस्लामी दक्षिणवाद के बावजूद।
जिन मुस्लिम बहुल देशों में वहाबीवाद का प्रभाव सीमित है वहां की औरतों का पहनावा और आचार-व्यवहार इतना अलग है कि हमारे मौलवी साहबों के फतवों में उनका फिट होना नामुमकिन है। अफ्रीका के सिएरा लीओन जैसे ग़रीब मुस्लिम बहुल देश की औरतें भी आज़ादी और स्वायत्तता के मामले में हमारे देश की औरतों से कहीं आगे हैं। बरबारिस्तान की मुस्लिम औरतों कोई मौलवी ये नहीं बताता कि उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं। वो स्कर्ट पहन कर मस्जिद भी जा सकती हैं।
ईरान में महसा अमीनी के समर्थन में विरोध प्रदर्शन: प्रतीकात्मक तस्वीर
लड़ाई लंबी है। सत्ता का रवैय्या अभी भी कुछ खास नर्म नहीं हुआ है। हिजाब कानून की अवहेलना करने वालों को मौत की सजा तक देने की धमकी अब भी दी जा रही है। मगर ईरान की औरत ने अच्छी तरह ज़ाहिर कर दिया है कि चादर, बुर्का या हिजाब पहनना-न पहनना सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी मर्ज़ी पर है।
मुस्लिम दक्षिण पंथ आखिर आज भी क्यों अपनी औरत को बार-बार उन गुज़री सदियों में घसीट कर ले जाना चाहता है जब औरत और बकरी में कुछ खास फ़र्क नहीं समझा जाता था। घर में बंद रहो, मर्द के लिए बच्चे पैदा करो और जब वो चाहे उसके बिस्तर पर पहुँच जाओ, इसके आगे पुरुष की नज़र में स्त्री की कोई भूमिका ही नहीं मानी जाती थी। ये बात अलग है कि 14 सौ साल पहले भी औरत घर से बाहर निकल कर कारोबार करती थी, सज-धज कर बाहर निकलती थी, सियासत और जंग में आगे-आगे होती थी, इस्लाम की पहली मस्जिद में ज़ख्मी सिपाहियों की देख-भाल भी करती थी और, ये सब पैग़ंबर की नज़र के सामने और उनकी स्वीकृति से होता था।
कहा जाता है कि पर्दा खुद औरत को पसंद है। हमारी कई औरतों से इस विषय पर बात-चीत हुई। बड़े गर्व से उन्होंने अपने आप को पर्दापोश कहा। मैं कई ऐसी युवतियों को भी जानता हूँ जिनके ऊपर प्रत्यक्ष रूप से कोई बाहरी दबाव न होने के बावजूद वो घर से बाहर बुर्के के बिना नहीं निकलतीं।
दरअसल इन मुस्लिम महिलाओं का दिमाग़ उसी तरह काम करता है जैसे गाँव का एक आम ग़रीब दलित तथाकथित ऊंची ज़ात वाले के सामने कहे जाने के बावजूद उसके बराबर नहीं बैठता। उसे लगता है कि उसकी जगह ज़मीन पर ही है। ये सैकड़ों साल की ब्रेन वाशिंग का नतीजा है। अच्छी जन्नती औरत कौन ? जो पर्दा करती है। उसे लगता है कि उसके समाज में उसे तभी स्वीकृति मिल सकती है जब वो अपने मज़हबी आलिमों की तालीम के मुताबिक अपनी ज़िंदगी जियेगी। क़ुरान की असली तालीम से मौलवियों की तालीम का वास्तव में कितना सम्बन्ध है और कितना इसमें समाज पर दबदबा रखने का उनका निहित स्वार्थ है, इस पर सोचने के लिए उसका माहौल उसे मौक़ा ही नहीं देता।
आलिम कहता है कि औरत में सिर से पाँव तक सेक्स है, इसलिए बाहरी ताकतों से उसके बचाव के लिए उसका सिर से पाँव तक ढंका होना ज़रूरी है। आलिम औरत के लिए परदे की ज़रूरत पर व्याख्यान देते हुए सूरे “हिजाब” की बात करता है। वो हिजाब का मतलब पर्दा बताता है। सही है। पर वो ये नहीं बताता कि इस अरबी शब्द का मतलब वो पर्दा है जो दरवाजे और खिड़की पर लटकाया जाता है।
इस सूरे के आने की एक पृष्ठभूमि है। होता ये था कि पैग़ंबर से मिलने जो लोग उनके घर आते थे वो अक्सर परदे के उस तरफ़ चले जाते थे जहां उनकी बीवियाँ “निजी“ अवस्था में होती थीं। इसलिए कुरान ने इस सूरे की आयतों के ज़रिए उनके लिए हद मुक़र्रर की।
सूरे अल-नूर में हुक्म हुआ है कि अपनी शर्म गाहों की हिफ़ाज़त करो। यानी उन्हें ढक कर रक्खो। आलिम इस सूरे का भी हवाला देता है। इसकी भी वजह थी। 14 सौ साल पहले के रेगीस्तानी अरब में उतनी ही बेहिसाब गर्मी पड़ती थी जितनी आज पड़ती है। आज गर्मी में आराम दिलाने वाली जो सुविधाएं हैं वो उस वक़्त नहीं थीं। गर्मी से परेशान मर्द की तरह औरत भी अपने जिस्म का बहुत सारा हिस्सा खुला रखने पर मजबूर होती थी। कभी-कभी वो किसी काम की हड़बड़ी में दरवाज़े से बाहर भी चली जाती थी।
इस्लाम आने से पहले वहां घरों में शौचालय बनाने की रवायत नहीं थी। औरत-मर्द सब बाहर झाड़ियों और पत्थरों की ओट में बैठ कर हाजत पूरी करते थे और वहां से गुज़रने वालों को अक्सर नज़र आते थे। अपनी शर्म गाहों की हिफाजत करने का हुक्म इन दो बातों के आधार पर आया। इस्लामी दुनिया की उस वक़्त शुरुआत थीं और हालात और ज़रूरत के मुताबिक आयतों के आने का सिलसिला जारी था। बात शर्म गाहों को ढंकने की थी, सिर से पाँव तक पूरे शरीर को ढंकने की नहीं।
इस्लाम एक व्यावहारिक मज़हबी फ़िलासफ़ी है जो अति नहीं, संतुलन की बात करता है। और ये संतुलन की बात स्त्री-पुरुष दोनों के लिए है।
18वीं सदी में नजद घाटी के अब्दुल अल-वहाब के एक खास तरह के शुद्धतावादी इस्लाम जिसे वहाबीवाद कहा गया, का प्रचार-प्रसार बढ़ने तक मक्का और मदीना की औरतें रंगीन कपड़े पहनती थीं और एक आज़ाद ज़िंदगी जीती थीं। धीरे-धीरे नजद की औरतों का काला बुर्का अरब के दूसरे इलाकों में फैलता गया और फिर अन्य देशों में। अल-वहाब के अनुसरण करने वालों के कट्टरपन की वजह से ही उस्मानिया हुकूमत के दौर में काबा में उनके जाने पर पाबंदी लगा दी गयी थी। आज स्थिति ये है कि 50 से ज़्यादा मुस्लिम बहुल देशों में से जहां जितना ज़्यादा वहाबीवाद हावी है वहां हिजाब और बुर्के का चलन उसी अनुपात में है। मज़े की बात है कि ईरान का शिया इस्लाम एक तरफ़ वहाबीवाद का पुरज़ोर विरोध करता है, दूरी तरफ़ औरतों के मामले में उसी के दृष्टिकोण का पालन करता है।
सन 1922 में तुर्की के मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने अपने देश की औरतों से कहा था, “आज़ादी पर तुम्हारा उतना ही हक़ है जितना किसी मर्द का और तुम्हारा पर्दा तुम्हारी आज़ादी से तुम्हें वंचित करता है।” एक दूरदर्शी लीडर की ये बात आज भी तुर्की की महिलाओं को प्रेरित करती है, वहां मज़बूत हो रहे इस्लामी दक्षिणवाद के बावजूद।
जिन मुस्लिम बहुल देशों में वहाबीवाद का प्रभाव सीमित है वहां की औरतों का पहनावा और आचार-व्यवहार इतना अलग है कि हमारे मौलवी साहबों के फतवों में उनका फिट होना नामुमकिन है। अफ्रीका के सिएरा लीओन जैसे ग़रीब मुस्लिम बहुल देश की औरतें भी आज़ादी और स्वायत्तता के मामले में हमारे देश की औरतों से कहीं आगे हैं। बरबारिस्तान की मुस्लिम औरतों कोई मौलवी ये नहीं बताता कि उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं। वो स्कर्ट पहन कर मस्जिद भी जा सकती हैं।