मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने की पेरिस में सर कलम की घटना की निंदा, ईशनिंदा कानूनों और स्वधर्म त्याग को ख़त्म करने की भी मांग

Written by sabrang india | Published on: October 27, 2020
मुस्लिम बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं ने पेरिस में सर कलम किए जाने के घटना की निंदा की। उन्होंने  ईशनिंदा कानूनों और स्वधर्म त्याग (apostasy) को ख़त्म करने की भी मांग की।



मुस्लिम बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं ने रविवार को एक वेबिनार के जरिए, पेरिस में 18 वर्षीय मुस्लिम कट्टरपंथी, अब्दुल्लाख अन्ज़ोरोव के द्वारा स्कूल शिक्षक सैमुअल पेटी के सर कलम किये जाने के जघन्य अपराध की भर्त्सना की।

इस वेबिनार का आयोजन इंडियन मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी (IMSD) संगठन के द्वारा किया गया था। जिसका संचालन संगठन के संयोजक जावेद आनंद ने किया। जिसमें प्रतिभागी के तौर पर चार पैनलिस्ट और आईएमएसडी के पदाधिकारी व प्रमुख सदस्य शामिल थे।

अपनी शुरुआती टिप्पणी करते हुए आनंद ने कहा, 'हम यहाँ बिना किसी किन्तु-परन्तु के बड़ी साफगोई के साथ, न सिर्फ उस व्यक्ति की निंदा करते हैं जिसने यह बर्बर कृत्य किया बल्कि हम उन सबकी भर्त्सना करते हैं जिनकी इस अपराध को हवा देने में किसी भी तरह की भूमिका रही है। साथ ही हम उनकी भी आलोचना करते हैं जो इस तरह के कृत्य को सही ठहरा रहे हैं। हम लोग यहाँ सिर्फ ‘मिस्टर पेटी’ के सर कलम की भर्त्सना करने के लिए इकट्ठा नहीं हुए हैं, बल्कि हम दुनिया के हर कोने से ईशनिंदा और स्वधर्म त्याग (apostasy) को पूरी तरह से ख़त्म करने की मांग करते हैं।'

इस वेबिनार में मुंबई से शरीक हुई इस्लामिक बुद्धिजीवी, डॉक्टर जीनत शौकत अली ने कहा कि इस्लाम धर्मत्याग और ईशनिंदा के लिए लोगों को मारने की इज़ाजत नहीं देता। क़ुरान में कहीं भी इस तरह की सज़ा का ज़िक्र तक नहीं है। क़ुरान हमेशा ही शांति और न्याय के पक्ष में अहिंसक तरीके से खड़ा रहा है। अगर विद्वान् और उलेमा लोग हदीस साहित्य को समझें और उसकी जाँच-पड़ताल करें, तो यह बेहद फायदेमंद होगा। उन्होंने आगे कहा कि हदीस की प्रमाणिकता क़ुरान की आयतों के अनुरूप होनी चाहिए।

अली ने यह भी कहा कि मैं बड़े विनम्रता के साथ कहना चाहूँगी कि पेरिस की यह घटना मुस्लिम जगत के उलेमाओं और नेताओं के लिए एक चेतावनी है। यह समय धार्मिक मौलवियों और माता-पिता दोनों के लिए बच्चों को दिशा निर्देश देने का है, उन्हें सजग करने का है। यह समय उन्हें यह बताने का है कि हिंसा के ऐसे कृत्य न केवल इस्लाम में घृणित और तिरस्कृत माने जाते हैं, बल्कि इस्लाम के द्वारा शांति, सहिष्णुता, सामाजिक एकता, उच्च नैतिकता और आध्यात्मिक गहराई का जो संदेश है उसके एकदम उलट और विरोधाभाषी हैं।

दिल्ली से न्यू ऐज इस्लाम के कॉलमिस्ट और लेखक अरशद आलम ने अपनी बात रखते हुए अध्यापक के सर कलम किए जाने के पीछे जो इस्लारमिक सोच है, उसके बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने इस बात की ओर इशारा किया कि यह एक सोची-समझी और योजनाबद्ध घटना थी। उन्होंने तार्किक ढंग से इसे समझाते हुए कहा कि आतंक के ऐसे कृत्यों का मुख्य मक़सद इस्लाम के किसी भी आलोचक को चुप कराना है। उनका कहना था कि शार्ले हेब्दो के कार्टून को यूरोपीय परंपरा की नज़र से देखा जाना चाहिए। वह लंबे वक़्त से व्यंगात्मक लहज़े अपनाता रहा है खासतौर से ईसाई धर्म की परम्पराओं को लेकर भी। जबकि अब इस्लाम भी एक यूरोपीय मज़हब है, इसलिए किसी भी धर्म या मज़हब के लिए एक ही तरह का बर्ताव किया जाना चाहिए। आलम ने कहा कि जो लोग ईशा निन्दा कानून को बनाए रखना चाहते हैं, खासतौर से ये वही ताकतें हैं जो उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष परंपरा की विरोधी हैं और इसलिए उन्हें दक्षिणपंथी राजनीति का ही हिस्सा मानना चाहिए।

आलम ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि दुनिया भर में ईश निंदा और धर्मत्याग के कानूनों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए मुसलमानों पर भरोसा किया जाता है, क्योंकि वे ही इस तरह के कानूनों के सबसे बड़े शिकार हैं। इसके अलावा, ये कानून मुसलमानों के दिमाग को नियंत्रित करने और डराने का भी काम करते हैं और जबतक ऐसे कानून ख़त्म नहीं हो जाते, तब तक मुसलमानों और अन्य लोगों को आज़ाद सोच और खुले समाज के विकास के लिए विचार-विमर्श करने और आलोचना करने की आज़ादी नहीं होगी।

वार्ता में चेन्नई से शिरकत कर रहे अधिवक्ता और मध्यस्थ, ए. जे. जवाद ने असहमति की आवाज़ को दबाने और उन्मादी भीड़ को भड़काने के लिए धर्मतंत्र और निरंकुशता को इस्तेमाल करने वाली ताकतों और ईशनिन्दा और राष्ट्रद्रोह के जरिए डराने और अंकुश लगाने वाली ताकतों के बीच समानता के बारे में अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि धर्म और राष्ट्रवाद भावनाओं को बहकाने और लोगों का इस्तेमाल किये जाने वाले औज़ार हैं। ईशनिन्दा विरोधी और देशद्रोही कानूनों का इस्तेमाल धर्मतंत्र और निरंकुश शासकों के द्वारा बहुत पहले से आलोचकों और असहमत लोगों पर हमला करने के लिए किया जाता रहा है।

उन्होंने बताया कि किस तरह से 11वीं शताब्दी में, कानून और धर्मशास्त्र के सुन्नी विद्वानों ने जिन्हें "उलेमा" कहा जाता था, राजनीतिक शासकों के साथ मिलकर यह काम करना शुरू किया था। इसलिए के वे मुस्लिम दार्शनिकों के समाज पर पड़ने वाले रूढ़िवादी प्रभावों को चुनौती दे सकें।

जवाद ने आगे बताया कि सुन्नी रूढ़िवादिता को एकजुट करने वाले सबसे प्रमुख इस्लामिक विद्वान ग़ज़ाली थे। उन्हें एक समझदार और जानकार विद्वान् माना जाता था। उनकी मौत 1111 में हुई थी। आज भी सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली प्रभावी किताबों में ग़ज़ाली ने ही दो मुस्लिम दार्शनिकों, फ़ाराबी और इब्न सिना के बारे में लिखा। ये दोनों उससे बहुत पहले मर चुके थे। लेकिन उसने लिखा कि ये ये दोनों अल्लाह के परंपरागत विचारों के खिलाफ थे और इनके अनुयायियों को मौत की सजा दी जा सकती थी।

जवाद ने आगे बताया कि 12वीं शताब्दी के मुस्लिम शासकों को ग़ज़ाली की इस सोच ने एक मौका दिया। यह मौका उनके लिए था जो उन विचारकों को ख़त्म करना चाहते थे- जो धार्मिक रूढ़िवाद के आलोचक थे और शासन जिन्हें ख़तरे के रूप में देखता था। यह सिलसिला आज भी जारी है।

मुंबई से लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता फिरोज मिठीबोरवाला ने कहा कि कार्टून विवाद के खिलाफ मूल रूप से जो तर्क सामने आता है वह इस तरह का है कि वे "मजाक उड़ाते हैं" और "मेरी धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं" और इसलिए इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। पैगंबर मुहम्मद का कार्टून, निस्संदेह आम मुसलमानों की भावनाओं को आहत करता हैं, परन्तु इसके लिए आप अहिंसक प्रतिक्रिया दे सकते है, जोकि इससे कहीं अधिक प्रभावी होगी।

उन्होंने कहा कि एक तरफ, हमारे सामने एक धार्मिक कट्टरपंथी द्वारा ईशनिंदा के नाम पर की गई हत्या है। वहीँ दूसरी ओर, अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता की एक धर्मनिरपेक्ष फ्रांसीसी परंपरा है, जहाँ सभी धर्मों को ख़ारिज करने का अधिकार शामिल है।

अब वह समय आ चुका है जब धार्मिक लोगों को एक जरूरी सच को स्वीकार करने की जरूरत है : हर धार्मिक पाठ और धार्मिक परंपरा अन्य संप्रदायों और धर्मों के अनुयायियों के लिए, आक्रामक, निन्दात्मक और गैरधर्मी है।

ईशनिंदा और विधर्म की अवधारणाएं अनिवार्य रूप से जनविरोधी और लोकतंत्र विरोधी हैं। चूँकि उनका एजेंडा है कि वैचारिक और संरचनात्मक दोनों तरह के धार्मिक और बौद्धिक बहस व धार्मिक उत्पीड़न और हिंसा के मुद्दे पर विचार-विमर्श को रोकना है। मिठिबोरवाला ने अपना निष्कर्ष पेश करते हुए कहा, इसलिए ईशनिंदा और विधर्म जैसी अवधारणाओं का किसी भी कर्तव्यनिष्ठ सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है और इसे समाप्त होना चाहिए।

वेबिनार की शुरुआत में ही मारे गए शिक्षक के सम्मान में प्रतीकात्मक रूप से 2 मिनट का मौन रखा गया। पेरिस की एक मस्जिद के इमाम हसन चालगौमी ने शिक्षक को "अभिव्यक्ति की आज़ादी का शहीद" कहा। उन्होंने उस शिक्षक को एक बुद्धिमान व्यक्ति बताया, जिसने सहिष्णुता, सभ्यता और दूसरों के लिए सम्मान सिखाया था।” इमाम ने आगे कहा, “माफ़ कीजिये, यह इस्लाम नहीं है, यह धर्म भी नही है, इस तरह का इस्लामवाद, इस्लाम के नाम पर ज़हर है।”

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