किसानों पर ज्यादतियों पर जिन्होंने कभी मुंह न खोला, वे किसानों को कोसे जा रहे, इनकी सूरत पहचानो

Written by Mithun Prajapati | Published on: January 28, 2021
साधो, 'सर्वेश्वर दयाल सक्सेना' की एक कविता जिसका शीर्षक 'देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता' है, उसकी शुरुआत की कुछ लाइनें इस प्रकार हैं-


यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रही हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

साधो, अब तुम कहोगे कि आज मैं तुम्हें कविता क्यों सुना रहा हूँ? दअरसल जो बात मैं तुमसे डिस्कस करने जा रहा हूँ उस बात का सन्दर्भ इस कविता से है। साधो, तुम तो जानते ही हो कि सरकार जिन तीन कृषि कानूनों को किसानों के हित में बताते हुए अपनी पीठ थपथपा रही है उसके विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर देश भर से किसान आकर पिछले कुछ महीनों से धरने पर बैठे थे। किसानों ने 26 जनवरी के दिन दिल्ली में ट्रैक्टर से प्रवेश कर झांकी प्रस्तुत करने की बात कही थी जिसकी इजाजत प्रशासन ने अंतिम समय मे दे दिया था।  दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च और प्रवेश के दौरान कुछ छोटी मोटी घटनाएं हुईं। पुलिस और जो किसान भाई दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे उनके बीच एक दो जगह से झड़पों की खबर मिली। पुलिस ने आंसू गोले का प्रयोग किया, कई जगह रास्ते में बैरिकेड भी लगाए थे। इन्ही बीच कोई लाल किले पर तिरंगे के बगल में तिरंगे से अलग कोई दो झंडे लगा गया। इन लगाए गए झंडों के बारे में बताया जा रहा है कि एक खालसा सेना का प्रतीक है और दूसरा किसानों का। मीडिया, सोशल मीडिया सारा मुद्दा छोड़ अब इसी झंडे की चर्चा में लगा हुआ है। 

साधो, अब थोड़ा पीछे चलते हैं। तुम्हें याद ही होगा जब किसान दिल्ली के बॉर्डर्स पर तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठे हो रहे थे तो क्या क्या हुआ था। दिसंबर की ठंड में जब पूरा भारत रजाई में दुबका था तो सरकार बहादुर देश के अन्नदाता पर वाटर कैनन से पानी मार रही थी। किसान इकट्ठा न हों और प्रदर्शन खत्म हो जाये इसके लिए पुलिस ने कई बार कई जगह बल प्रयोग किया। किसानों का जत्था प्रदर्शन स्थल तक न पहुंचे इसके लिए सरकार बहादुर के प्रशासनिक अधिकारियों ने एक जगह हाइवे खोद दिया। जहां तक मुझे याद है विश्व के इतिहास में सरकार द्वारा अपने देश के नागरिकों को जो कि सरकार द्वारा बनाये गए कानून का विरोध कर रहे हों उनको रोकने के लिए हाइवे को खोद देने की यह पहली घटना थी। मुझे याद नहीं कि किसी और देश की सरकार ने कभी ऐसा किया था। साधो, शायद तुम्हें याद हो ! 

इस विरोध प्रदर्शन में ठंड से सौ से भी अधिक किसानों ने दम तोड़ दिया। यह सब होता रहा और इस देश का एक तबका लगातार इन किसानों को देश विरोधी, आतंकी, खालिस्तान समर्थक बताता रहा। भारत की मीडिया ने भी यह काम भरपूर किया। मोटी मोटी हेडलाइन्स में tv पर दिखाते रहे- प्रदर्शन कर रहे लोग हैं खालिस्तानी ?
 
एक क्वेश्चन मार्क लगाकर अपने को साफ बचाते हुए ये मेन स्ट्रीम मीडिया कहे जाने वाले चैनल देश के लोगों को यह बताते फिर रहे थे कि सरकार कितनी अच्छी है और ये विरोध प्रदर्शन कर रहे लोग जो ठंड में पुलिस की लाठियां, आंसू गोले, वाटर कैनन की मार झेल रहे हैं दरअसल सरकार विरोधी तत्त्व हैं और विपक्ष द्वारा भटकाए गए हैं। 

साधो, अब आते हैं कविता वाली बात पर। जब देश का किसान सरकार की मार झेलता कृषि कानूनों का विरोध कर रहा था। किसानों के भविष्य को गर्त में जाते देख कड़कती ठंड में जान दे रहा था तो इसी देश के कुछ नागरिक अपने को शातिराना तरीके से लिबरल साबित करते हुए विंटर एन्जॉय कर रहे थे, न्यू ईयर एन्जॉय कर रहे थे। न तो उन्होंने कभी किसानों के पक्ष में एक शब्द बोला और न ही कोई ऐसी बात कही जिससे यह पता चले कि वे सरकार की दमन वाली नीति के खिलाफ हैं। मतलब कि बगल के कमरे में आग लगी होने के बावजूद भी चैन की नींद सोना। साधो मुझे भी ऐसे लोगों से कुछ नहीं कहना। 

पर साधो, गजब तो तब हुआ जब यही खाया, पिया, रजाई के अंदर दुबका वर्ग झंडे वाली घटना को लेकर किसानों को कोसने लगा। मेन मीडिया आंदोलन को हिंसक बताते हुए सिर पीट रहा था तो जिस वर्ग की मैं चर्चा कर रहा हूँ वह अलग से किसानों को दोष दिए फिर रहा था। विरोध का यह कितना घातक और शातिर तरीका है। किसानों के पक्ष में एक अच्छर न लिखने वाले, एक शब्द न बोलने वाले अपने को किसानों का हितैषी  बताते हुए झंडे वाली घटना को लेकर  किसानों को कोस रहे हैं। 

साधो, संभाजी भगत की एक बड़ी खूबसूरत लाइन है- इनकी सूरत को पहचानों भाई, इनसे सम्भल के रहना रे भाई। 

साधो, खबर ऐसी भी आ रही है कि झंडे लगाने वाला भाजपा के एक सांसद का करीबी है। यह खबर कितनी सच है यह मैं नहीं कह सकता। पर इस तरह की हरकतें आम हो चली हैं। प्रदर्शन को हिंसक रूप देकर दमन कर देने का नायाब तरीका सरकारों में आजकल  खूब प्रचलन में है। 

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