कानून मंत्रालय ने खत्म किया फ़िल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण

Written by sabrang india | Published on: April 9, 2021
नई दिल्ली। फिल्म इंडस्ट्री ने फ़िल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) को खत्म करने के सरकार के फैसले पर कड़ी नाराजगी जाहिर की है। फिल्म इंडस्ट्री के निर्माताओं, निर्देशकों और लेखकों का मानना है कि यह फैसला उनकी रचनात्मकता को समाप्त करना है। उनका कहना है कि फिल्म के निर्माता-निर्देशक अपनी फ़िल्मों में केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड की कांट-छांट या उन दृश्यों को हटाने की मांग के विरोध में अब तक क़ानून द्वारा स्थापित एफसीएटी का दरवाज़ा खटखटा सकते थे लेकिन इसे समाप्त करने के निर्णय के बाद ऐसा करना मुमकिन नहीं हो पाएगा। 



बता दें कि कानून मंत्रालय ने साल 1952 में निर्माताओं-निर्देशकों की अपील को सुनने के लिए गठित फ़िल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) को तत्काल प्रभाव से हटा दिया है। अब केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड से नाख़ुश निर्माता-निर्देशकों को हाईकोर्ट का रुख़ करना होगा।

फिल्म निर्माता मुकेश भट्ट कहते हैं कि, "ये बेहद ग़लत हो रहा है। किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाए बगैर अपनी बात कहना ग़लत नहीं हैं लेकिन अब ऐसा कैसे होगा? सेंसर बोर्ड के फ़ैसले से हम जब भी नाखुश होते थे तब हम एफसीएटी के पास जाते थे। वो हमारी बातें सुनता था। कभी फ़ैसला हक में आता तो कभी हक़ में नहीं होता था, पर वो सही था लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा। अब सीबीएफसी ही सर्वेसर्वा रहेगी और अब वो अपनी मनमानी करेंगे और मैं इसके सख्त ख़िलाफ़ हूँ।'

वे कहते हैं कि, "जिस किसी ने भी ये फ़ैसला लिया है उसने फ़िल्ममेकर्स को बर्बाद कर दिया क्योंकि जब सीबीएफसी के ख़िलाफ़ उसे अपनी बात रखनी होगी तो उसे हाई कोर्ट जाना पड़ेगा। जज के पास पहले से कई अहम लंबित मामले होंगे। ऐसे में फ़िल्म के लिए कोर्ट में लड़ाई लंबी चलेगी। अब इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री भी चाइनीज़ फ़िल्म इंडस्ट्री की तरह हो गई हैं। दोनों में अब कोई फ़र्क़ नहीं है। अब निर्देशक और पटकथा लेखक को लिखने से पहले ये सोचना होगा कि जो मैं लिखने जा रहा हूँ सेंसर बोर्ड इसकी मंज़ूरी देगा या नहीं। यहीं से उनकी क्रिएटिविटी ख़त्म हो जाएगी।"

 रामकुमार सिंह ने कहा, "ऐसा नहीं होना चाहिए था, मैंने देखा है सेंसर बोर्ड में कई लोग संवेदनशील नहीं होते, हालाँकि कई लोग बहुत समझदार भी हैं वहाँ। लेकिन मैं इसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता कि सेंसर बोर्ड में लोग सरकारी नीति से चलते हैं। वहाँ सरकारी तरीके से काम होता है, वो कहते हैं ये लाइन मत लिखो ये मत कहो। ये क्रिएटिविटी हैं, जिसे फ़िल्म में डालने से क्या बदलाव होगा ये निर्देशक और लेखक बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। वो इस बात को समझाने की कोशिश भी करते हैं। कई बार सेंसर बोर्ड समझता भी है।" बता दें कि रामकुमार फ़िल्म अनारकली ऑफ़ आरा के गीत, सरकार 3 के डायलॉग और ज़ेड प्लस का स्कीन प्ले कर चुके हैं। 

रामकुमार ने कहा, "मुझसे कहा गया था कि मैं अपनी इस फ़िल्म से प्रधानमंत्री शब्द हटा दूँ ।प्रधानमंत्री ऐसी ग़लती नहीं कर सकते कि उनको अंग्रेज़ी या हिंदी नहीं आती हो। हमने उन्हें समझाया कि ये तो एक ड्रामा है, कहानी है। इसमें कैसे तय कर लेंगे कि पीएम को क्या आता है और क्या नहीं। अगर प्रधानमंत्री ही फ़िल्म से हटा दिया तो पूरी फ़िल्म ही ख़त्म हो जाएगी। ये कहानी प्रधानमंत्री और एक आम आदमी के बीच की दोस्ती की है। ये हमारा एक छोटा सा तर्क था। लेकिन जब वे नहीं माने तो हम एफसीएटी में गए और वहाँ फ़ैसला हमारे हक़ में आया।"

फिल्म निर्माता-निर्देशक हंसल मेहता ने अपने ट्वीट में लिखा, "क्या फ़िल्म प्रमाणन की शिकायतों के समाधान के लिए होई कोर्ट के पास इतना समय होता है? कितने फ़िल्म निर्माताओं के पास अदालतों का रुख़ करने का साधन होगा? एफसीएटी को भंग करना निश्चित तौर पर मनचाहा काम करने से रोकने वाला फ़ैसला है। यह इस समय क्यों किया गया? यह फ़ैसला लिया ही क्यों गया?"

फ़िल्म निर्देशक विशाल भारद्वाज ने भी ट्विटर पर इस फ़ैसले की निंदा की और लिखा, "एफसीएटी को ख़त्म करना सिनेमा के लिए 'दुखद दिन' है।" विशाल भारद्वाज के ट्वीट पर फ़िल्म निर्माता गुनीत मोंगा ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा, "ऐसा कैसे होता है? कौन तय करता है?"
 

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