मप्र: बलात्कारी को 'दयालु' बताने वाली टिप्पणी पर हाईकोर्ट ने मानी ग़लती

Written by सोनिया यादव | Published on: October 31, 2022
चार साल की बच्ची को बलात्कार के बाद जिंदा छोड़ने के लिए दोषी को दयालु बताने वाली इंदौर बेंच की टिप्पणी पर अदालत ने स्वत: संज्ञान लेते इसे अनजाने में हुई ग़लती करार दिया है।


फ़ोटो साभार: पीटीआई

बीते कुछ दिनों में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की एक टिप्पणी काफी सुर्खियों में थी। अदालत ने अपने एक हैरान कर देने वाले फैसले में चार साल की बच्ची से रेप करने वाले शख्स की सजा को सिर्फ इसलिए कम कर दिया क्योंकि उसने तथाकथित "दलायुता" दिखाते हुए बच्ची की हत्या नहीं की थी। इतना ही नहीं कोर्ट ने अपराधी की सजा को उम्रकैद से घटाकर 20 साल का कठोर कारावास भी कर दिया था। हालांकि कोर्ट के इस फैसले की चौतरफा आलोचना हो थी, जिसके बाद अब अदालत ने इस मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लेते उस टिप्पणी को अनजाने में हुई गलती करार देने के साथ ही अपना फैसले में भी सुधार किया है।

बता दें कि मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने 18 अक्टूबर को इस संबंध में एक फैसला सुनाते हुए कहा था कि उसे ट्रायल कोर्ट द्वारा सबूतों और अपीलकर्ता के राक्षसी कृत्य पर विचार करने में कोई त्रुटि नजर नहीं आती है। दोषी जिसके मन में एक महिला की गरिमा के लिए कोई सम्मान नहीं है और जो 4 साल की बच्ची के साथ भी यौन संबंध रखने की प्रवृत्ति रखता है।

हालांकि, इस तथ्य पर विचार करते हुए कि अभियोजक ने बच्ची को जिंदा छोड़ दिया, यह उसकी दयालुता थी। यही वजह है कि यह अदालत मानती है कि मुजरिम के आजीवन कारावास की सजा को कम किया जा सकता है। इसलिए हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया जाता है। अपीलकर्ता को कानून के अनुसार 20 साल की सजा भुगतनी होगी।

किरकिरी के बाद माना अनजाने में हुई गलती
मामले के तूल पकड़ने के बाद 27 अक्टूबर को दिए गए एक संशोधित आदेश में न्यायाधीश सुबोध अभ्यंकर और सत्येंद्र कुमार सिंह की डबल बेंच ने कहा कि यह संज्ञान में लाया गया है कि इस अदालत की ओर से 18 अक्टूबर को दिए गए फैसले में अनजाने में गलती हुई है, जहां इस प्रकार की टिप्पणी का इस्तेमाल उस अपीलकर्ता के लिए किया गया है जिसको दुष्कर्म के अपराध में दोषी ठहराया गया है।

अदालत ने 27 अक्टूबर को अपनी चूक मानते हुए कहा कि यह स्पष्ट है कि उपरोक्त गलती अनजाने में हुई है, क्योंकि यह अदालत पहले ही अपीलकर्ता के कृत्य को राक्षसी मान चुकी है। ऐसी परिस्थिति में यह अदालत सीआरपीसी की धारा 362 के तहत प्रदत्त अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए, उपरोक्त पैराग्राफ को संशोधित करती है। हालांकि, इस तथ्य पर विचार करते हुए कि अपीलकर्ता ने पीड़ित को कोई अन्य शारीरिक चोट नहीं पहुंचाई, इस पर अदालत की राय है कि दोषी के आजीवन कारावास को 20 साल के कठोर कारावास तक कम किया जा सकता है।

क्या था पूरा मामला?
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, याचिकाकर्ता को 4 साल की बच्ची के साथ रेप के आरोप में आईपीसी की धारा-376(2)(F) के तहत सजा सुनाई गई थी। निचली अदालत द्वारा मिली उम्रकैद की सजा के खिलाफ उसने हाईकोर्ट में अपील की। याचिका में कहा गया कि उसे मामले में झूठा फंसाया गया है। साथ ही फोरेंसिक जांच की रिपोर्ट को भी रिकॉर्ड में नहीं लाया गया। उसने कोर्ट के सामने दलील दी कि यह मामला ऐसा नहीं है कि उसे उम्रकैद की सजा सुनाई जाए।

इस पर राज्य सरकार ने कोर्ट में जवाब दिया कि याचिकाकर्ता किसी तरह से नरमी बरते जाने लायक नहीं है और उसकी अपील खारिज की जानी चाहिए। सभी पक्षों को सुनने के बाद हाईकोर्ट ने कहा कि उसे अपराध के लिए उचित सजा मिली है। वहीं FSLरिपोर्ट रिकॉर्ड पर नहीं लाने को लेकर कोर्ट ने बताया कि यह पुलिस की तरफ से बड़ी लापरवाही का एक और उदाहरण है। इसके बावजूद, कोर्ट ने माना कि उपलब्ध सबूतों के आधार पर बिना किसी शंका के दोषी का अपराध साबित होता है। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए उसके दोष को बरकरार रखा। हालांकि इस बात को नोट करते हुए कि उसने बच्ची को जिंदा छोड़ा, कोर्ट ने उसकी सजा को कम करने की अनुमति दे दी।

पहले भी अदालतें कर चुकी हैं निराश
गौरतलब है कि ये कोई पहला मामला नहीं हैं, जब किसी न्‍यायालय के फैसले को न्‍याय से ज्यादा बच्चियों, औरतों के लिए दुख और अपमान की नज़रों से देखा जा रहा था। पिछले साल जनवरी में बॉम्बे हाईकोर्ट भी बच्चों के रेप से संबंधित एक मामले में विवादित फैसला सुना चुका है। अपने एक आदेश में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था कि पॉक्सो कानून का उपयोग करने के लिए स्किन-टू-स्किन संपर्क होना जरूरी है। उसने कहा था कि स्किन-टू-स्किन संपर्क के बिना युवती के वक्षस्थल को छूना यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उसके फैसले को पलट दिया था।

इससे पहले इंदौर हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में छेड़खानी करने वाले व्‍यक्ति को राखी बांधने की बात कही थी। राजस्‍थान हाईकोर्ट ने एक बार रेपिस्‍ट से शादी करवाने का फैसला दे दिया था, तो वहीं भंवरी देवी केस में राजस्‍थान की निचली अदालत ने कहा था कि एक ऊंची जाति का आदमी निचली जाति की औरत को हाथ भी नहीं लगा सकता है, तो रेप कैसे करेगा। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तलाक के एक मामले में कहा कि अगर विवाहिता हिंदू रीति रिवाज के अनुसार चूड़ियां और सिंदूर लगाने से इनकार करती है, तो पति तलाक ले सकता है। जाहिर है ये फैसले आपने आप में कई सवाल समेटे हैं, महिलाओं के अस्तित्व के साथ-साथ न्याय को भी कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।

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