लेबर कोड बिल: श्रमिकों के बदहाल भविष्य का दस्तावेज़

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: September 24, 2020
लेबर कोड बिल: संसद में विपक्ष को दरकिनार कर हड़बड़ी में जनविरोधी बिल पास करवाना देश को निजी हाथों में गिरवी रखने की तैयारी तो नहीं.   



‘संकट को अवसर’ बनाकर ‘नए भारत’ की परिकल्पना करने वाली वर्तमान भारतीय सरकार ने नए भारत की संकल्पना से देश की जनता को ही दरकिनार कर दिया है. पूंजीपतियों और कॉर्पोरेट घरानों के प्रति निष्ठावान यह सरकार सदियों के संघर्ष और सैकड़ों कुर्बानियों से प्राप्त मजदूरों के अधिकारों को ख़त्म कर देश को 1 प्रतिशत कॉर्पोरेट घरानों या यूँ कहें कि मुनाफाखोरों के हवाले कर रही है जिससे शोषक और शोषित वर्ग के बीच की खाई और भी गहरी होगी. कोरोना महामारी के गंभीर समय में  हड़बड़ी में एक के बाद एक बिल को संसद में पारित करा लेना अवसर तलाशने का ही तो परिचायक है.

विपक्ष के मजबूत विरोध और मजदूरों के देशव्यापी प्रतिरोध के बावजूद संसद में किसान विरोधी बिल पारित करने के बाद मजदूर विरोधी बिल को दोनों सदनों से ध्वनि मत से पारित करा लिया गया है. इतना ही नहीं बुधवार को संसद स्थगन से पहले विपक्षी सांसदों की गैरमौजूदगी में कई अन्य जनविरोधी विधेयकों को अलोकतांत्रिक तरीके से पारित करा लिया गया है. राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने जानकारी देते हुए बताया है कि “सदन के लिए इस सत्र में 18 बैठकें निर्धारित की गयी थी लेकिन 10 ही हो सकीं और इस दौरान 25 विधेयक पारित किए गए.”

श्रम क्षेत्र में सुधार का हवाला देते हुए तीन लेबर कोड बिल को दोनों सदनों से पारित करवाए गए जो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून में तब्दील हो जाएगा हालाँकि इस बिल को लाने से पहले न तो विपक्षी दलों से बात की गयी और न ही देश के श्रमिक संगठनों को विश्वास में लिया गया. समझना  यह है कि असंवैधानिक तरीके से ही सही संसद में बिल पास कर जनता की चुनी हुई सरकार पूंजीपतियों की चाकरी करने पर उतारू है. आज सरकार ने पहले से ही त्रस्त श्रमिकों को सड़कों पर लाकर खड़ा कर दिया है. 
वर्तमान श्रमिक सुधार विधेयकों का विवरण:

औद्योगिक संबध संहिता बिल 2020 (Industrial Relations Code)

कम्पनियाँ को मजदूरों व् कर्मचारियों के छंटनी करने की खुली छुट दे दी गयी है. अब जिन कंपनियों में कर्मचारियों की संख्यां 300 से कम है वे सरकार से मंजूरी लिए बिना ही कर्मचारियों की छंटनी कर सकेंगे. अब तक यह प्रावधान केवल उन कंपनियों के लिए था जिसमें 100 से कम कर्मचारी या मजदूर काम करते हों. कंपनी को किसी भी कर्मचारी को काम पर रखने या निकालने की खुली छुट मिल गयी है. इसके अलावा यह बिल कहता है कि किसी भी कंपनी में काम करने वाले श्रमिक बिना 60 दिन पहले नोटिस दिए हड़ताल पर भी नहीं जा सकता पहले यह अवधि 6 हफ्ते की थी. हड़ताल की सारी शर्तों को सरकार व् मालिक के हवाले कर दिया गया है. अब हड़ताल एक मात्र शब्दावली बन कर रह गयी है. 

आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल 2020 (Occupational Safety, Health & Working Conditions Code)

इस बिल को मजदूर मालिक सम्बन्ध को लचीला बनाने के नाम पर पारित करवाया गया है जबकि सबसे अधिक मसले कंपनी व् शॉप के प्रबंधकों द्वारा मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार ,मजदूरी की अदायगी, संगठन बनाने के अधिकार, फेक्ट्री में हुए दुर्घटना को ले कर है, ऐसी स्थिति में मालिकों को मनमानेपन की छुट मिल गयी है. 

यह बिल कंपनियों को छुट देता है कि अधिकांश लोगों को कांट्रेक्ट (ठेके) बेसिस पर नौकरी दे सके और किसी भी कर्मचारी व् कामगार को कभी भी काम से निकाला जा सके साथ ही कांट्रेक्ट को कितनी बार भी बढाया और ख़त्म किया जा सकता है  इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं किया गया है. वह प्रावधान भी हटा लिया गया है जिसमे किसी भी मौजूदा कर्मचारी को कांट्रेक्ट वर्कर में तब्दील करने पर रोक थी.

महिलाओं के लिए वर्किंग आवर (काम के घंटे) सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे के बीच रहेगा जो कि काम के घंटे को 8 घंटे से कम करने की मांग को ख़ारिज करता हुआ नजर आ रहा है.  शाम 7 बजे के बाद अगर महिलाओं से काम करवाया जा रहा है तो उनके सुरक्षा की जिम्मेदारी कंपनी की होगी. बेटी बचाओ का नारा देने वाली सरकार महिलाओं के सुरक्षा की जिम्मेदार कंपनी के हवाले छोड़ रही है.  
सामाजिक सुरक्षा बिल 2020 (Code on Social Security 2020)

सामाजिक सुरक्षा बोर्ड बनाने के वादे के साथ यह विधेयक लाया गया है जिसके तहत असंगठित मजदूर, ठेका पर काम करने वाले आधुनिक रूप से कुशल मजदूर व् अस्थिर काम करने वाले को शामिल किया जाएगा. ऐसे कामगारों को ग्रेच्युटी (अनुदान) देने की बात भी की गयी है.

क्या है ग्रेच्युटी: एक ही कंपनी में लम्बे समय तक काम करने वाले कामगारों को सैलेरी, पेंशन और प्रोविडेंट फंड के अलावा ग्रेच्युटी भी दी जाती है. ग्रेच्युटी किसी भी कर्मचारी को कंपनी की तरफ से मिलने वाला रिवार्ड होता है. पेमेंट ऑफ़ ग्रेच्युटी एक्ट 1972 के तहत 10 से अधिक एम्प्लाई वाले संस्थानों के हर कर्मचारी को इसका लाभ मिलता है.

अंतर राज्यीय प्रवासी मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाया जाएगा लेकिन प्रवासी मजदूरों को अपने मनोनुकूल परिभाषित किया गया है. यह बिल अस्थायी मजदूरों को काम के जगह पर आवास देने की उनकी जिम्मेदारियों को खत्म करता है और अगर मजदूर काम के जगह के आस-पास अपना आवास बना लेते हैं तो उसे उजाड़ने के बाद उनको अस्थायी रूप से बसाने की जिम्मेदारी भी अब सरकार की नहीं होगी. आसान शब्दों में कहें तो सरकार द्वारा जनता को दिए जाने वाले रोजगार की गारेंटी को कॉर्पोरेट के हाथों गिरवी रखा जा रहा है.  

साफ तौर पर कहा जाए तो बीजेपी के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में कर्मचारियों के पेंशन को खत्म किया गया और अब ठेके पर काम करने वाले अस्थायी नौकरी में चंद प्रतिशत का अनुदान लोगों को ठगने से ज्यादा कुछ भी नहीं है. गौर करने वाली बात यह है कि क्या मजदुर वर्ग पर किया गया अहसान था श्रमिक कानून या मजदूरों को मिले हुए अधिकार इनके लम्बे संघर्ष का परिणाम है. आज उस संघर्ष को याद रखने की जरुरत है ताकि दुनिया भर की फासीवादी नीतियों को बारीकी से समझा जा सके.

श्रमिक अधिकार के लिए हुए सदियों तक संघर्ष: 
मजदूरों का त्यौहार मई दिवस आठ घंटे काम के दिन के लिए मजदूरों के खुनी संघर्ष से पैदा हुआ है उसके पहले मजदूर सोलह से अठारह घंटे का काम करते थे. कई देशों में काम के घंटे का कोई नियम ही नहीं था. दुनियाभर में अलग-अलग जगह पर इस माँग को लेकर आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग को लेकर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई। ओधोगीकरण और पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव से अमेरिका में एक विशाल मजदूर वर्ग पैदा हुआ. मजदूरों ने अपने हाथों से अमेरिका में राष्ट्र निर्माण व् राष्ट्र के विकास की इमारत खड़ी की. उस समय शोषक और शोषितों का दौर प्रबलता पर था जिसके ख़िलाफ़ मजदुर वर्ग एकजुट हो गए. फासीवाद का चरित्र पूरी दुनिया में एक समान देखा जा सकता है उस समय भी शोषक के खिलाफ उठने वाले आवाज को बेरहमी व् क्रूरता के साथ कुचल दिया जाता था. 1 मई 1886 को पुरे अमेरिका के लाखो मजदूरों ने एक साथ हड़ताल शुरू की.

अमेरिका में 1886 में मजदूरों का जुलूस  
 

(मजदूरबिगुल से साभारः)

हड़ताल में हुई हिंसक झड़प में आन्दोलनकर्ताओं के नाम को शामिल किया गया और लम्बी क़ानूनी प्रक्रिया के बाद आन्दोलन के नेतृत्वकर्ताओं में से 7 लोगों को मौत की सजा सुना दी. उनमे से एक स्पाइस ने अदालत में चिल्लाकर कहा था कि ”अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो… आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।”

(11 नवम्बर 1887) मज़दूर वर्ग के इतिहास में काला शुक्रवार था। पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फ़िशर को शिकागो की कुक काउण्टी जेल में फाँसी दे दी गयी। अफ़सरों ने मज़दूर नेताओं की मौत का तमाशा देखने के लिए शिकागो के दो सौ धनवान शहरियों को बुला रखा था। लेकिन मज़दूरों को डर से काँपते देखने की उनकी तमन्ना धरी की धरी रह गयी। वहाँ मौजूद एक पत्रकार ने बाद में लिखा : ”चारों मज़दूर नेता क्रान्तिकारी गीत गाते हुए फाँसी के तख्ते तक पहुँचे और शान के साथ अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो हुए। फाँसी के फन्दे उनके गलों में डाल दिये गये। स्पाइस का फन्दा ज्यादा सख्त था, फ़िशर ने जब उसे ठीक किया तो स्पाइस ने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा। फिर स्पाइस ने चीख़कर कहा, ‘एक समय आयेगा जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज्यादा ताक़तवर होगी जिन्हें तुम आज दबा डाल रहे हो…’ फिर पार्सन्स ने बोलना शुरू किया, ‘मेरी बात सुनो… अमेरिका के लोगो! मेरी बात सुनो… जनता की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकेगा…’ लेकिन इसी समय तख्ता खींच लिया गया।

13 नवम्बर को चारों मज़दूर नेताओं की शवयात्रा शिकागो के मज़दूरों की एक विशाल रैली में बदल गयी। पाँच लाख से भी ज्यादा लोग इन नायकों को आख़िरी सलाम देने के लिए सड़कों पर उमड़ पड़े।

ऐसी ही लम्बी लड़ाई भारत की जनता ने भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी और मजदूरों ने अपने अधिकार एक-एक करके हासिल किए. देश की आजादी के बाद बढ़ते पूंजीवादी प्रभाव और शोषक वर्ग के प्रति सरकार की उदारता के खिलाफ मजदूर हमेशा से लामबंद हुए हैं और उस समय बातचीत से बदलाव की दशा-दिशा तय की जाती थी. देश के हर जाति, धर्म, वर्ग, उम्र, लिंग, के श्रमिकों के लिए आने वाला दौर चुनौतीपूर्ण होगा. बिडम्बना यह है कि 2014 में वर्तमान बीजेपी सरकार के आने के बाद वे पूंजीपति शोषक वर्ग की गॉड में बैठ कर विरोधियों के प्रति फासीवादी रवैया अख्तियार कर चुकी है जहाँ विपक्ष या विरोध की कोई जगह नहीं है जो किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र को पतन की तरफ ले कर जाती है. 

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