क्या कहें प्रणब दा संघ के स्वयंसेवकों से?

Written by Ram Puniyani | Published on: June 7, 2018
संवाद, प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का अनिवार्य और अपरिहार्य हिस्सा है। परंतु तब हम क्या करें जब ऐसे लोग, जो प्रजातांत्रिक रास्ते से प्रजातंत्र को समाप्त करने की इच्छा रखते हों, उन लोगों के साथ संवाद करना चाहें, जो भारत के धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक संविधान में आस्था रखते हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा आरएसएस के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बतौर हिस्सा लेने के लिए राजी हो जाने पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। कुछ लोगों का कहना है कि आरएसएस और उसके जैसे संगठनों से संवाद करने में कोई बुराई नहीं है। आखिर क्या हम इस तथ्य को झुठला सकते हैं कि संघ आज देश में एक बड़ी शक्ति है। दूसरी ओर, अन्य लोगों का कहना है कि संघ को प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अंग नहीं माना जा सकता क्योंकि वह भारतीय राष्ट्रवाद में यकीन नहीं रखता और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहता है।

Pranab Mukherjee

आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गनाईजर‘ ने 14 अगस्त 1947 को लिखा, ‘‘अब हमें अपने आपको राष्ट्रवाद की झूठी अवधारणाओं से प्रभावित होने से बचाना होगा। आज जो विभ्रम की स्थिति हमारे देश में बनी हुई है उसे दूर करने और वर्तमान और भविष्य में हमारी समस्याओं से निपटने का एकमात्र तरीका यह है कि हम इस तथ्य को स्वीकारें कि हिन्दुस्तान में केवल हिन्दू ही एक राष्ट्र हैं और राष्ट्र का ढांचा इसी मजबूत और सुरक्षित नींव पर खड़ा किया जाना चाहिए। राष्ट्र का आधार होना चाहिए हिन्दू परंपराएं, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू विचार और हिन्दू आकांक्षाएं”। इसी तरह, नरेन्द्र मोदी ने सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कहा था कि चूंकि वे राष्ट्रवादी हैं और एक हिन्दू परिवार में जन्में थे इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं।

प्रणब मुखर्जी जीवनपर्यन्त एक सच्चे कांग्रेसी रहे हैं। वे भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता के मजबूत पक्षधर हैं। फिर, उन्हें एक ऐसे संगठन का निमंत्रण क्यों स्वीकार करना चाहिए, जिसका गठन ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए हुआ है। इस मुद्दे के दो पहलू हैं। जो लोग मुखर्जी द्वारा संघ का निमंत्रण स्वीकार करने का विरोध कर रहे हैं उनके इस तर्क में दम है कि इससे आरएसएस और उसके विघटनकारी एजेंडे को स्वीकार्यता मिलेगी। दूसरी ओर, यह तर्क भी दिया जा सकता है कि यह एक अवसर है, जिसका इस्तेमाल कर प्रणब मुखर्जी, आरएसएस के विघटनकारी एजेंडे के बारे में अपने विचार देश के सामने रख सकते हैं और संघ के कार्यकर्ताओं को यह चेतावनी दे सकते हैं कि उनके लिए यही बेहतर होगा कि वे हिन्दू राष्ट्रवाद का दामन छोड़ें और भारतीय राष्ट्रवाद की राह पर चलें।

क्या मुखर्जी आरएसएस को आईना दिखला पाएंगे? क्या वे उसे बता पाएंगे कि गांधी, पटेल और नेहरू, आरएसएस की विचारधारा और उसके राष्ट्रवाद के बारे में क्या सोचते थे? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद पटेल ने लिखा “उनके (आरएसएस)  नेताओं के भाषण साम्प्रदायिक जहर से भरे हुए थे। इसके नतीजे में देश में एक ऐसा जहरीला वातावरण बना जिसके चलते गांधीजी की हत्या जैसी भयावह त्रासदी संभव हो सकी। आरएसएस ने गांधीजी की मौत पर प्रसन्नता व्यक्त की और उसके कार्यकर्ताओं ने मिठाई बांटी” (एमएस गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को पटेल द्वारा लिखे गए पत्रों से)। गांधीजी की हत्या किसी एक व्यक्ति के पागलपन का नतीजा नहीं थी। वह आरएसएस की हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का परिणाम थी।

ऐसा दावा किया जाता है कि गांधीजी आरएसएस की एक शाखा में गए थे। तथ्य यह है कि गांधीजी कभी भी आरएसएस से प्रभावित नहीं थे। उनके सचिव प्यारेलाल लिखते हैं कि सन् 1946 में हुई हिंसा के बाद गांधीजी के काफिले के एक सदस्य ने वाघा में आरएसएस के कार्यकर्ताओं द्वारा दिखाई गई कार्यकुशलता, अनुशासन, साहस और कड़ी मेहनत की प्रशंसा की। वाघा, पंजाब में शरणार्थियों का एक बड़ा कैंप था। इस पर गांधीजी ने कहा कि “न भूलो कि हिटलर के नेतृत्व में नाजियों और मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवादियों ने भी इन्हीं सब गुणों का प्रदर्शन किया था।‘‘ गांधीजी, आरएसएस को एकाधिकारवादी दृष्टिकोण वाला साम्प्रदायिक संगठन मानते थे।

इसके पहले भी गांधीजी ने आरएसएस के संबंध में लिखा था, जिससे उसके बारे में उनके विचार स्पष्ट होते हैं। ‘हरिजन’ के 9 अगस्त 1942 के अंक में गांधी लिखते हैं, ‘‘मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गतिविधियों के बारे में सुना है और मुझे यह भी पता है कि यह एक साम्प्रदायिक संगठन है‘‘। गांधीजी ने यह टिप्पणी एक शिकायत के संदर्भ में की, जिसमें कहा गया था कि किसी स्थान पर ‘दूसरे समुदाय’ के विरूद्ध नारे लगाए गए और भाषण दिए गए। गांधीजी यहां  आरएसएस की शाखा में स्वयंसेवकों द्वारा लगाए गए कुछ नारों का जिक्र  कर रहे थे, जिनमें यह कहा गया था कि यह देश केवल हिन्दुओं का है और अंग्रेजों के इस देश से जाने के बाद हिन्दू, अन्य धर्मों के लोगों को अपना गुलाम बना लेंगे। साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा किए जा रहे उपद्रव पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा, “मैंने आरएसएस के बारे में कई बातें सुनी हैं। मुझे बताया गया है कि संघ इस सारी शरारत की जड़ में है” (गांधी, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 98, पृष्ठ 320-322, प्रकाशन विभाग, सूचना व प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1958)।

क्या आरएसएस में कुछ बदलाव आया है? क्या उसके बारे में कही गई पुरानी बातों को फिर से दुहराने का कोई अर्थ है? सच यह है कि घृणा की जिस विचारधारा ने गांधी की हत्या की थी, वह अब भी उतनी ही मजबूत है। राममंदिर, गोहत्या आदि जैसे मुद्दों को लेकर जो हिंसा हो रही है उसके लिए केवल तलवारें, लाठियां और चाकू थामे हाथ दोषी नहीं हैं। इसके पीछे है विचारधारा - हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा। आजादी के बाद से आरएसएस के आकार और उसके प्रभाव में आशातीत वृद्धि हुई है परंतु उसका एजेंडा आज भी वही है। इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण का उपयोग कर वह अब भी अल्पसंख्यकों के विरूद्ध विषवमन कर रहा है, फिर मुद्दा चाहे पद्मावत का हो या लव जिहाद का। पास्टर स्टेन्स की हत्या और ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा के लिए जितना उसे करने वाले दोषी थे, उतना ही दोष इस दुष्प्रचार का भी था कि ईसाई मिशनरियां जोर जबरदस्ती, धोखाधड़ी और लोभ-लालच के जरिए हिन्दुओं को ईसाई बना रही हैं।

क्या आरएसएस अपनी हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा को त्याग सकता है? क्या वह गोलवलकर या ‘वी, आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ या ‘बंच ऑफ़ थाट्स’ को नकार सकता है? अगर मुखर्जी, आरएसएस को एक ऐसा संगठन बनाना चाहते हैं जो बहुवादी राष्ट्रवाद में आस्था रखता हो, तो शायद उन्होंने एक असंभव काम अपने हाथों में ले लिया है। आरएसएस के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होने के लिए राजी होकर मुखर्जी ने एक अत्यंत जोखिम भरा काम किया है। या तो वे आरएसएस के हिन्दू राष्ट्रवाद को स्वीकार्यता देंगे या उन्हें यह चुनौती स्वीकार करनी होगी कि वे संघ को उसकी विघटनकारी विचारधारा को त्यागने के लिए कहें और उसे उस राह पर चलने के लिए प्रेरित करें जो गांधी और नेहरू ने दिखाई थी और जो हमें धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक भारत की ओर ले जाएगी। 

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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