किसानों की गरिमा और एकता का प्रतीक बना किसान आंदोलन, सही मायनों में अब एक जन-आंदोलन का रूप ले चुका है जो भारत के लोकतंत्र की रक्षा और देश बचाने का भी प्रतीक है। इसी से आंदोलन को और अधिक तीव्र और असरदार बनाने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन के अगले पड़ाव के रूप में ''मिशन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड'' शुरू करने का फैसला किया है। संयुक्त किसान मोर्चा ने लखनऊ में पत्रकार वार्ता कर इसका आगाज किया। SKM ने कहा कि इस मिशन का उद्देश्य हरियाणा, पंजाब की तरह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के हर गांव को, किसान आंदोलन का मजबूत दुर्ग बनाना है ताकि, हमारे खाद्य और कृषि प्रणालियों पर क्रोनी कॉरपोरेट के नियंत्रण और उनके राजनीतिक दलालों को चुनौती दी सकें।
संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने कहा कि ''आज किसान मसीहा स्वामी सहजानंद सरस्वती, चौधरी चरण सिंह और चौ महेंद्र सिंह टिकैत की धरती ''उत्तर प्रदेश'' पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि उसे भारतीय खेती और किसानों को कॉरपोरेट और उनके राजनीतिक दलालों से बचाना है''।
खास है कि पूर्व प्रधानमंत्री व किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह तथा किसान नेता चौ महेंद्र सिंह टिकैत को सभी जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश में संगठित किसान आंदोलन के जनक व संचालक स्वामी सहजानंद थे। आजादी से पूर्व 1927 में उन्होंने देश के पहले किसान संगठन ''पश्चिमी किसान सभा'' की नींव रखी। दंडी संन्यासी होने के बावजूद स्वामी सहजानंद ने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया। स्वामीजी ने नारा दिया था कि..
"जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा।
ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलायेगा।"
उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी "किसान क्या करें" जिसके सात अध्याय में हिसाब करें और हिसाब मांगें, डरना छोड दें तथा लडें और लडना सीखें आदि शामिल हैं। स्वामीजी ने देखा कि किसानों की हाड़-तोड़ मेहनत का फल किस तरह जमींदार, साहूकार, बनिए, महाजन, पंडा-पुरोहित, साधु-फकीर, ओझा-गुणी, चूहे यहां तक कि कीड़े-मकोड़े और पशु-पक्षी तक गटक जाते हैं। वे अपनी किताब में बड़ी सरलता से इन स्थितियों को दर्शाते हुए किसानों से सवाल करते हैं कि क्या उन्होंने कभी सोचा है कि वे जो उत्पादन करते हैं, उस पर पहला हक उनके बाल-बच्चे और परिवार का है? उन्हें इस स्थिति से मुक्त होना पड़ेगा। लेकिन आज भी स्थिति ज्यादा नहीं बदली हैं। किसान आज भी, सरकारों व साहूकारों (कारपोरेट व उनके राजनीतिक दलालों) के साथ उचित मोल-भाव और कानून बनाने की ही लड़ाई लड़ रहा है।
संयुक्त मोर्चा के नेताओं के अनुसार, मिशन यूपी-उत्तराखंड के तहत राष्ट्रीय मुद्दों के साथ, इन दोनों प्रदेशों के किसानों के स्थानीय मुद्दे भी उठाए जाएंगे। संयुक्त मोर्चा के अनुसार, यूपी में गेहूं के अनुमानित 308 लाख टन उत्पादन में से सिर्फ 56 लाख टन यानी 18% गेहूं ही सरकार ने खरीदा है। इसके अलावा, अन्य फसलों (अरहर, मसूर, उड़द, चना, मक्का, मूंगफली, सरसों) में सरकारी खरीदी शून्य रही है। केंद्र सरकार की प्राइस स्टेबलाइजेशन स्कीम के तहत तिलहन दलहन की खरीद के प्रावधान का इस्तेमाल भी नहीं के बराबर हुआ है। इसी सब के चलते किसान को अपनी फसल, तय एमएसपी से नीचे बेचनी पड़ी है।
गन्ना किसानों के बकाया भुगतान का मुद्दा भी ज्यों का त्यों लटका हुआ है। 14 दिन के भीतर भुगतान का वादा एक और जुमला साबित हो चुका है। आज गन्ना किसानों का लगभग 12000 करोड रुपए का बकाया है। किसान नेताओं के अनुसार, उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद गन्ना किसानों के 5000 करोड के ब्याज का भुगतान नहीं हुआ है। वहीं, 4 साल से गन्ना मूल्य में भी एक रुपये की बढ़ोतरी नहीं की गई है।
राकेश टिकैत ने कहा कि मायावती सरकार में 80 रुपये और अखिलेश यादव की सरकार में 50 रुपये गन्ने का दाम बढ़ा लेकिन योगी सरकार ने एक रूपया भी दाम नहीं बढ़ाया। आलू किसान को भी 3 वर्ष से उत्पादन लागत नहीं मिली। आलू निर्यात पर बैन को फ्री करवाने में सरकार ने कुछ नहीं किया। उन्होंने कहा कि इसके उलट देश में सबसे महंगी बिजली उत्तर प्रदेश में है। पड़ोसी हरियाणा में नाममात्र के रेट हैं तो पंजाब में बिजली फ्री है। और तो और, पूरी यूपी के किसान आवारा पशुओं की समस्या से त्रस्त हैं। फसल के साथ जानमाल का नुकसान अलग हो रहा है। नतीजा खेती पूर्णतया घाटे का सौदा बन चली है। भूमि अधिग्रहण भी एक बड़ा मुद्दा है। इतना ही नहीं, किसान नेता ने कहा कि गुजरात की ही तरह उत्तर प्रदेश भी पुलिस स्टेट बनता जा रहा है और हमने जिला पंचायत और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में इसे देखा है।
मिशन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का शुभारंभ करते हुए संयुक्त मोर्चा के नेताओं राकेश टिकैत, प्रो योगेंद्र यादव, शिव कुमार कक्का व जगजीत सिंह दल्लेवाल आदि ने कहा कि यह मिशन औपचारिक रूप से 5 सितंबर 2021 को मुजफ्फरनगर में विशाल महापंचायत के साथ शुरू होगा। मिशन के तहत हरियाणा पंजाब की तरह, भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं का हर जगह विरोध और बहिष्कार किया जाएगा। कहा खेती और किसानों को, कॉर्पोरेट और उनके राजनीतिक दलालों से बचाने को लड़ाई लड़ी जाएगी। अडानी अंबानी के प्रतिष्ठानों पर प्रदर्शन किया जाएगा। मोर्चा नेताओं ने किसान व अन्य प्रगतिशील संगठनों से हाथ मिलाने और इस मिशन के तहत राज्यों के सभी टोल प्लाजा को मुक्त करने का आह्वान किया। वहीं मिशन को आकार और प्रभाव देने के लिए दोनों राज्यों में बैठकें, संवाद, यात्राएं और रैलियां आयोजित की जाएंगी। चरणवार तरीके से देंखे तो इसके लिए प्रदेशों के आंदोलन में सक्रिय संगठनों के साथ संपर्क व समन्वय के साथ मंडलवार किसान कन्वेंशन व जिलेवार तैयारी बैठकें होंगी और 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में ऐतिहासिक महापंचायत होगी जिसमें देश भर से किसान भाग लेंगे।
खास है कि 8 माह से किसान दिल्ली के बाहर सड़कों पर खूंटा गाड़कर बैठे हैं। ठंड, गर्मी और भयंकर बरसात में भी वह नहीं डिगे हैं। इस दौरान उन्होंने रेल रोको से लेकर भारत बंद जैसे कई आयोजन भी किए मगर सरकार की तरफ से कोई व्यावहारिक रास्ता निकालने की ठोस पहल होती नहीं दिखी है। सरकार के इस उदासीन, टालमटोल वाले हठधर्मी रवैये के चलते ही किसानों ने संसद के करीब अपनी ''समांतर संसद'' चलानी शुरू कर दी है। SKM ने कहा सरकार किसानों से बात नहीं कर रही इसलिए उन्हें अपनी बात रखने के लिए यह तरीका निकालना पड़ा है। इस समांतर संसद में किसान नेताओं ने निर्वाचित सांसदों से भी सदन में किसानों की बात उठाने का आह्वान किया। कहा कि अगर वे किसानों की मांगों को संसद में नहीं उठाएंगे, तो उन्हें इसका नतीजा भी भुगतना पड़ सकता है। हालांकि ज्यादातर विपक्षी दल शुरू से किसानों की मांग के समर्थन में रहे हैं।
माना कि, कानून बनाना सरकारों का काम है मगर उसे लेकर अगर नागरिकों की तरफ से कोई आपत्ति दर्ज कराई जाती है, तो उस पर विचार करना, उन कमियों को दूर करना भी, सरकार का ही दायित्व है। हालांकि सरकार कहती रही है कि वह किसानों के सुझावों के मुताबिक इन कानूनों में संशोधन को तैयार है, पर जिन बिंदुओं को लेकर किसानों को एतराज है, उन पर वह बात ही नहीं करना चाहती। दरअसल, ये कानून जिन स्थितियों में पारित कराए गए, उससे ही सरकार की मंशा पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। अनेक कृषि विशेषज्ञ, किसान संगठन इन कानूनों में फसलों की खरीद, भंडारण, सहकारी खेती आदि से जुड़े प्रावधानों को खेती-किसानी के लिए खतरा मानते रहे हैं। इनके जरिए खेती पर कारपोरेट घरानों के कब्जे की आशंका जताई जाती रही है। उन्हें इन कानूनों में संशोधन की गुंजाइश नजर नहीं आती, इसलिए वे उन्हें पूरी तरह रद्द करने की मांग कर रहे हैं।
जानकारों के अनुसार, इन कानूनों को उचित ठहराने के लिए सरकार ने कभी तार्किक ढंग से बात नहीं की, बल्कि वह आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश करती अधिक देखी गई। पहले इसे देश के एक छोटे-से हिस्से के किसानों का आंदोलन बताया गया, फिर इसे खालिस्तान समर्थक कहा गया, फिर अनेक तरीकों से धरने पर बैठे किसानों को परेशान करने की कोशिश की गई। अनेक किसान नेताओं और उनका समर्थन कर रहे लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज करके उन्हें जेलों में डाल दिया गया। इस तरह किसानों की नाराजगी लगातार बढ़ती गई। अगर सरकार सचमुच इस आंदोलन की गंभीरता को समझती, तो शायद यह नौबत न आने पाती कि किसान संसद के समानांतर अपनी संसद लगाते। हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके में गांव-गांव में जनप्रतिनिधियों को किसानों का मुखर विरोध झेलना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार इस मसले को जितना टालेगी, नजरअंदाज या किसानों को छकाने का प्रयास करेगी, उतना ही इस आंदोलन का रुख उग्र होने की आशंका बनी रहेगी।
किसान आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं। इनमें कई अपने परिवार के साथ आईं हैं तो कुछ का परिवार गांव में ही है। इन में वे हजारों महिलाएं भी शामिल हैं जो अपने घर के पुरुषों के आंदोलन में शामिल होने पर खेत का कामकाज संभाल रही हैं। महिलाओं का कहना है कि उनके लिए भी ये बदलाव का समय है। हालांकि संघर्ष अभी लंबा है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में जिस तरह और जिस संख्या में महिलाएं 8 माह से आंदोलन में डटीं हैं उससे उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ यह अंदाजा भी सहज ही हो जाता है कि महिलाओं को अपने अधिकारों की समझ आ रही है। इस बीच खास यह भी है कि 26 जुलाई को दिल्ली में 'समानांतर संसद' के सफल आयोजन से महिलाओं ने भारतीय कृषि और किसान आंदोलन में अपनी भूमिका को ऐतिहासिक बना लिया है।
सच भी है कि ''कोई आंदोलन अभूतपूर्व तब बनता है जब उसमें महिलाओं की भागीदारी अभूतपूर्व होती है''। लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार महिलाओं द्वारा किसान संसद चलाई गईं जिसमें महिला किसानों (सांसदों) ने आवश्यक वस्तु अधिनियम पर देश व दुनिया का ध्यान खींचा और एक ऐसा कानून बनाने की मांग की जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देता हो।
महिला (किसान) संसद की अध्यक्षता कर रही वाम नेत्री सुभाषिनी अली ने कहा कि किसान संसद में महिलाओं की दृढ़ता और शक्ति से साफ हो गया है कि महिलाएं खेती भी कर सकती हैं और देश भी चला सकती हैं। कहा आज यहां, हर व्यक्ति नेता है। उन्होंने कहा कि तीनों कानूनों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन और न्यूनतम समर्थन मूल्य की उनकी मांग जारी रहेगी। महिला संसद में शहीद भगतसिंह की भतीजी गुरजीत कौर और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता व सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के साथ हरियाणा, पंजाब व यूपी सहित अन्य राज्यों की 200 प्रदर्शनकारी महिलाएं शामिल हुईं। अधिकांश महिलाएं केसरिया पगड़ी पहने हुई थीं। सभी ने एक मत से आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत किसानों और उपभोक्ताओं पर पड़ने वाले असर के साथ, महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने के संबंध में प्रस्ताव पास किए।
महिला नेताओं ने कहा कि इस कानून का कुप्रभाव सिर्फ किसानों पर ही नहीं बल्कि उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा। कहा इस कानून के कारण भोजन पहुंच से बाहर हो जाएगा और हमें खाने मे कटौती करने को मजबूर होना पड़ेगा। महिला किसान संसद में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव भी पारित किया गया कि भारतीय कृषि में महिलाओं के अपार योगदान के बावजूद, उन्हें वह सम्मान और दर्जा नहीं मिल पाया है जो उन्हें चाहिए। महिला संसद ने सर्वसम्मति से यह भी निर्णय लिया कि पंचायतों और स्थानीय निकायों की तर्ज पर संसद और विधानसभाओं में भी महिलाओं के लिए 33% आरक्षण होना चाहिए।
संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने कहा कि ''आज किसान मसीहा स्वामी सहजानंद सरस्वती, चौधरी चरण सिंह और चौ महेंद्र सिंह टिकैत की धरती ''उत्तर प्रदेश'' पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि उसे भारतीय खेती और किसानों को कॉरपोरेट और उनके राजनीतिक दलालों से बचाना है''।
खास है कि पूर्व प्रधानमंत्री व किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह तथा किसान नेता चौ महेंद्र सिंह टिकैत को सभी जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश में संगठित किसान आंदोलन के जनक व संचालक स्वामी सहजानंद थे। आजादी से पूर्व 1927 में उन्होंने देश के पहले किसान संगठन ''पश्चिमी किसान सभा'' की नींव रखी। दंडी संन्यासी होने के बावजूद स्वामी सहजानंद ने रोटी को ही भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया। स्वामीजी ने नारा दिया था कि..
"जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा।
ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलायेगा।"
उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी "किसान क्या करें" जिसके सात अध्याय में हिसाब करें और हिसाब मांगें, डरना छोड दें तथा लडें और लडना सीखें आदि शामिल हैं। स्वामीजी ने देखा कि किसानों की हाड़-तोड़ मेहनत का फल किस तरह जमींदार, साहूकार, बनिए, महाजन, पंडा-पुरोहित, साधु-फकीर, ओझा-गुणी, चूहे यहां तक कि कीड़े-मकोड़े और पशु-पक्षी तक गटक जाते हैं। वे अपनी किताब में बड़ी सरलता से इन स्थितियों को दर्शाते हुए किसानों से सवाल करते हैं कि क्या उन्होंने कभी सोचा है कि वे जो उत्पादन करते हैं, उस पर पहला हक उनके बाल-बच्चे और परिवार का है? उन्हें इस स्थिति से मुक्त होना पड़ेगा। लेकिन आज भी स्थिति ज्यादा नहीं बदली हैं। किसान आज भी, सरकारों व साहूकारों (कारपोरेट व उनके राजनीतिक दलालों) के साथ उचित मोल-भाव और कानून बनाने की ही लड़ाई लड़ रहा है।
संयुक्त मोर्चा के नेताओं के अनुसार, मिशन यूपी-उत्तराखंड के तहत राष्ट्रीय मुद्दों के साथ, इन दोनों प्रदेशों के किसानों के स्थानीय मुद्दे भी उठाए जाएंगे। संयुक्त मोर्चा के अनुसार, यूपी में गेहूं के अनुमानित 308 लाख टन उत्पादन में से सिर्फ 56 लाख टन यानी 18% गेहूं ही सरकार ने खरीदा है। इसके अलावा, अन्य फसलों (अरहर, मसूर, उड़द, चना, मक्का, मूंगफली, सरसों) में सरकारी खरीदी शून्य रही है। केंद्र सरकार की प्राइस स्टेबलाइजेशन स्कीम के तहत तिलहन दलहन की खरीद के प्रावधान का इस्तेमाल भी नहीं के बराबर हुआ है। इसी सब के चलते किसान को अपनी फसल, तय एमएसपी से नीचे बेचनी पड़ी है।
गन्ना किसानों के बकाया भुगतान का मुद्दा भी ज्यों का त्यों लटका हुआ है। 14 दिन के भीतर भुगतान का वादा एक और जुमला साबित हो चुका है। आज गन्ना किसानों का लगभग 12000 करोड रुपए का बकाया है। किसान नेताओं के अनुसार, उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद गन्ना किसानों के 5000 करोड के ब्याज का भुगतान नहीं हुआ है। वहीं, 4 साल से गन्ना मूल्य में भी एक रुपये की बढ़ोतरी नहीं की गई है।
राकेश टिकैत ने कहा कि मायावती सरकार में 80 रुपये और अखिलेश यादव की सरकार में 50 रुपये गन्ने का दाम बढ़ा लेकिन योगी सरकार ने एक रूपया भी दाम नहीं बढ़ाया। आलू किसान को भी 3 वर्ष से उत्पादन लागत नहीं मिली। आलू निर्यात पर बैन को फ्री करवाने में सरकार ने कुछ नहीं किया। उन्होंने कहा कि इसके उलट देश में सबसे महंगी बिजली उत्तर प्रदेश में है। पड़ोसी हरियाणा में नाममात्र के रेट हैं तो पंजाब में बिजली फ्री है। और तो और, पूरी यूपी के किसान आवारा पशुओं की समस्या से त्रस्त हैं। फसल के साथ जानमाल का नुकसान अलग हो रहा है। नतीजा खेती पूर्णतया घाटे का सौदा बन चली है। भूमि अधिग्रहण भी एक बड़ा मुद्दा है। इतना ही नहीं, किसान नेता ने कहा कि गुजरात की ही तरह उत्तर प्रदेश भी पुलिस स्टेट बनता जा रहा है और हमने जिला पंचायत और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में इसे देखा है।
मिशन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का शुभारंभ करते हुए संयुक्त मोर्चा के नेताओं राकेश टिकैत, प्रो योगेंद्र यादव, शिव कुमार कक्का व जगजीत सिंह दल्लेवाल आदि ने कहा कि यह मिशन औपचारिक रूप से 5 सितंबर 2021 को मुजफ्फरनगर में विशाल महापंचायत के साथ शुरू होगा। मिशन के तहत हरियाणा पंजाब की तरह, भाजपा और उसके सहयोगी दलों के नेताओं का हर जगह विरोध और बहिष्कार किया जाएगा। कहा खेती और किसानों को, कॉर्पोरेट और उनके राजनीतिक दलालों से बचाने को लड़ाई लड़ी जाएगी। अडानी अंबानी के प्रतिष्ठानों पर प्रदर्शन किया जाएगा। मोर्चा नेताओं ने किसान व अन्य प्रगतिशील संगठनों से हाथ मिलाने और इस मिशन के तहत राज्यों के सभी टोल प्लाजा को मुक्त करने का आह्वान किया। वहीं मिशन को आकार और प्रभाव देने के लिए दोनों राज्यों में बैठकें, संवाद, यात्राएं और रैलियां आयोजित की जाएंगी। चरणवार तरीके से देंखे तो इसके लिए प्रदेशों के आंदोलन में सक्रिय संगठनों के साथ संपर्क व समन्वय के साथ मंडलवार किसान कन्वेंशन व जिलेवार तैयारी बैठकें होंगी और 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में ऐतिहासिक महापंचायत होगी जिसमें देश भर से किसान भाग लेंगे।
खास है कि 8 माह से किसान दिल्ली के बाहर सड़कों पर खूंटा गाड़कर बैठे हैं। ठंड, गर्मी और भयंकर बरसात में भी वह नहीं डिगे हैं। इस दौरान उन्होंने रेल रोको से लेकर भारत बंद जैसे कई आयोजन भी किए मगर सरकार की तरफ से कोई व्यावहारिक रास्ता निकालने की ठोस पहल होती नहीं दिखी है। सरकार के इस उदासीन, टालमटोल वाले हठधर्मी रवैये के चलते ही किसानों ने संसद के करीब अपनी ''समांतर संसद'' चलानी शुरू कर दी है। SKM ने कहा सरकार किसानों से बात नहीं कर रही इसलिए उन्हें अपनी बात रखने के लिए यह तरीका निकालना पड़ा है। इस समांतर संसद में किसान नेताओं ने निर्वाचित सांसदों से भी सदन में किसानों की बात उठाने का आह्वान किया। कहा कि अगर वे किसानों की मांगों को संसद में नहीं उठाएंगे, तो उन्हें इसका नतीजा भी भुगतना पड़ सकता है। हालांकि ज्यादातर विपक्षी दल शुरू से किसानों की मांग के समर्थन में रहे हैं।
माना कि, कानून बनाना सरकारों का काम है मगर उसे लेकर अगर नागरिकों की तरफ से कोई आपत्ति दर्ज कराई जाती है, तो उस पर विचार करना, उन कमियों को दूर करना भी, सरकार का ही दायित्व है। हालांकि सरकार कहती रही है कि वह किसानों के सुझावों के मुताबिक इन कानूनों में संशोधन को तैयार है, पर जिन बिंदुओं को लेकर किसानों को एतराज है, उन पर वह बात ही नहीं करना चाहती। दरअसल, ये कानून जिन स्थितियों में पारित कराए गए, उससे ही सरकार की मंशा पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। अनेक कृषि विशेषज्ञ, किसान संगठन इन कानूनों में फसलों की खरीद, भंडारण, सहकारी खेती आदि से जुड़े प्रावधानों को खेती-किसानी के लिए खतरा मानते रहे हैं। इनके जरिए खेती पर कारपोरेट घरानों के कब्जे की आशंका जताई जाती रही है। उन्हें इन कानूनों में संशोधन की गुंजाइश नजर नहीं आती, इसलिए वे उन्हें पूरी तरह रद्द करने की मांग कर रहे हैं।
जानकारों के अनुसार, इन कानूनों को उचित ठहराने के लिए सरकार ने कभी तार्किक ढंग से बात नहीं की, बल्कि वह आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश करती अधिक देखी गई। पहले इसे देश के एक छोटे-से हिस्से के किसानों का आंदोलन बताया गया, फिर इसे खालिस्तान समर्थक कहा गया, फिर अनेक तरीकों से धरने पर बैठे किसानों को परेशान करने की कोशिश की गई। अनेक किसान नेताओं और उनका समर्थन कर रहे लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज करके उन्हें जेलों में डाल दिया गया। इस तरह किसानों की नाराजगी लगातार बढ़ती गई। अगर सरकार सचमुच इस आंदोलन की गंभीरता को समझती, तो शायद यह नौबत न आने पाती कि किसान संसद के समानांतर अपनी संसद लगाते। हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके में गांव-गांव में जनप्रतिनिधियों को किसानों का मुखर विरोध झेलना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार इस मसले को जितना टालेगी, नजरअंदाज या किसानों को छकाने का प्रयास करेगी, उतना ही इस आंदोलन का रुख उग्र होने की आशंका बनी रहेगी।
किसान आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं। इनमें कई अपने परिवार के साथ आईं हैं तो कुछ का परिवार गांव में ही है। इन में वे हजारों महिलाएं भी शामिल हैं जो अपने घर के पुरुषों के आंदोलन में शामिल होने पर खेत का कामकाज संभाल रही हैं। महिलाओं का कहना है कि उनके लिए भी ये बदलाव का समय है। हालांकि संघर्ष अभी लंबा है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में जिस तरह और जिस संख्या में महिलाएं 8 माह से आंदोलन में डटीं हैं उससे उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ यह अंदाजा भी सहज ही हो जाता है कि महिलाओं को अपने अधिकारों की समझ आ रही है। इस बीच खास यह भी है कि 26 जुलाई को दिल्ली में 'समानांतर संसद' के सफल आयोजन से महिलाओं ने भारतीय कृषि और किसान आंदोलन में अपनी भूमिका को ऐतिहासिक बना लिया है।
सच भी है कि ''कोई आंदोलन अभूतपूर्व तब बनता है जब उसमें महिलाओं की भागीदारी अभूतपूर्व होती है''। लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार महिलाओं द्वारा किसान संसद चलाई गईं जिसमें महिला किसानों (सांसदों) ने आवश्यक वस्तु अधिनियम पर देश व दुनिया का ध्यान खींचा और एक ऐसा कानून बनाने की मांग की जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देता हो।
महिला (किसान) संसद की अध्यक्षता कर रही वाम नेत्री सुभाषिनी अली ने कहा कि किसान संसद में महिलाओं की दृढ़ता और शक्ति से साफ हो गया है कि महिलाएं खेती भी कर सकती हैं और देश भी चला सकती हैं। कहा आज यहां, हर व्यक्ति नेता है। उन्होंने कहा कि तीनों कानूनों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन और न्यूनतम समर्थन मूल्य की उनकी मांग जारी रहेगी। महिला संसद में शहीद भगतसिंह की भतीजी गुरजीत कौर और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता व सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के साथ हरियाणा, पंजाब व यूपी सहित अन्य राज्यों की 200 प्रदर्शनकारी महिलाएं शामिल हुईं। अधिकांश महिलाएं केसरिया पगड़ी पहने हुई थीं। सभी ने एक मत से आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत किसानों और उपभोक्ताओं पर पड़ने वाले असर के साथ, महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने के संबंध में प्रस्ताव पास किए।
महिला नेताओं ने कहा कि इस कानून का कुप्रभाव सिर्फ किसानों पर ही नहीं बल्कि उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा। कहा इस कानून के कारण भोजन पहुंच से बाहर हो जाएगा और हमें खाने मे कटौती करने को मजबूर होना पड़ेगा। महिला किसान संसद में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव भी पारित किया गया कि भारतीय कृषि में महिलाओं के अपार योगदान के बावजूद, उन्हें वह सम्मान और दर्जा नहीं मिल पाया है जो उन्हें चाहिए। महिला संसद ने सर्वसम्मति से यह भी निर्णय लिया कि पंचायतों और स्थानीय निकायों की तर्ज पर संसद और विधानसभाओं में भी महिलाओं के लिए 33% आरक्षण होना चाहिए।