जब फोटो पत्रकारिता पर सबसे शर्मनाक हमले का गवाह बनी दिल्ली

Written by Sanjay Vohra | Published on: March 26, 2018
‘कैमरा मत तोड़िए प्लीज़, सर’– ये आवाज़ उस 20 सैकेंड्स के क्लिप में साफ़ साफ़ सुनी जा सकती है जिसमें फोटो जर्नलिस्ट अनुश्री फड़नवीस अपने कैमरे को, अपने से ज्यादा ताकतवर और बेहतर कद काठी वाली दिल्ली पुलिस की 7– 8 ‘जांबाज़’ महिला सिपाहियों से बचाने के लिए जूझ रही थी. अनु नाकाम रही उन कथित ट्रैंड महिला सिपाहियों के सामने. कैमरा छीना जा चुका था और शायद किसी पुलिस अफसर के कब्ज़े में आ चुका था. 


अनुश्री कह रही थीं– कैमरा मत तोडिये प्लीज़, सर. अनुश्री को अपने से ज्यादा फ़िक्र कैमरे की थी क्यूंकि वो प्रोफैशनल कैमरा न सिर्फ कीमती रहा होगा बल्कि उसमें, जबरदस्त हंगामे की कवरेज के दौरान अनुश्री की खींची तस्वीरें भी कैद थी. हो सकता है और भी तस्वीरें हों, किसी असाइन्मेंट की अहम तस्वीरें. लेकिन ये पक्का है कि अनु ने ऐसे दो चार फोटो ज़रूर खेंच लिए होंगे जिसमें पुलिस की खिंचाई होनी लाज़मी रही होगी. शायद पुलिस ऐसा कुछ कर रही थी जो उसे नहीं करना चाहिए था– मारपीट या ऐसी ही कोई हरकत जो प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पुलिस करती है और जिसे करने की मनाही है.

दिल्ली पुलिस की अभद्रता के खिलाफ पत्रकारों का कैमरा रखकर प्रदर्शन

ये सब शुक्रवार यानि मार्च 23, 2018 को उस वक्त हुआ जब जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी के छात्र प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस उन्हें रोक रही थी. ये हरकत पत्रकारों को काम करने से रोकने ( अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकने जैसा ), बदतमीजी करने और सम्पति को छिनने/नुक्सान पहुँचाने का केस तो है ही साथ ही इससे ये भी साबित होता है कि देश की राजधानी की पुलिस और उसके अफसर भीड़ /उपद्रव नियन्त्रण करने की परिस्थितियों को ठीक से हेन्डल करने में न तो उतने प्रशिक्षित हैं जितना देश की राजधानी की पुलिस से अपेक्षा की जाती है और न ही लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की उतनी इज्जत या चिंता करते हैं जितना एक स्वस्थ लोकतंत्र में कार्यपालिका को जरूरत है.

जिस तरीके से अनुश्री से कैमरा झपटने के लिए अचानक 7-8 महिला पुलिस कर्मियों ने अनु को दबोचा वैसा जोर तो पुलिस को किसी शातिर अपराधी को पकड़ने में भी लगाने की जरूरत नहीं पड़ती. इससे ये भी साफ़ साफ़ दीखाई दे रहा था कि उन्होंने ऐसा एक साथ तुरंत किसी आदेश पर किया. उस वक्त वहाँ उनकी वरिष्ठ महिला अधिकारी (सम्भवत कोई एसीपी ) भी थीं. यहाँ ये भी सवाल उठता है कि क्या ये काम दो – तीन सिपाही भी नहीं कर सकती थीं क्या ? या, ये पुलिस की मिडिया के प्रति किसी कुंठा का नतीजा तो नहीं ? या फिर अफसरों के सामने खुद को ज्यादा काबिल और सक्षम साबित करने की मानसिकता के तहत कम्पीटीशन में सब अनुश्री की तरफ ऐसे लपकीं जैसे किसी भागते चोर को रंगे हाथ दबोचना हो

अनुश्री वाली घटना से भी दुखद दूसरी घटना में भी पुलिस की कारस्तानी का शिकार एक और महिला रिपोर्टर बनी. उन्हें इस्न्पेक्टर रैक के अफसर की बदतमीजी झेलनी पड़ी जिन्हें अफसर ने पीछे से आकर दबोच लिया. पुलिस का तर्क ये कि वो पत्रकार को प्रदर्शकारी छात्रा समझ बैठे. जबकि महिला पत्रकार एक साइड में खड़ी थीं. वाह री दिल्ली पुलिस..वाह रे तेरी समझ....शर्मनाक नहीं क्या ये ?

इतना सब होने के बावजूद पुलिस को अपनी गलती का अहसास नहीं हुआ. तब भी नहीं जब पुलिस मुख्यालय प्रदर्शन करने पहूंचे रिपोर्टर्स और फोटोग्राफर्स ने अपनी तकलीफ सुनने के लिए पुलिस के आला अफसरों को कहा. फोटो पत्रकारिता के हिसाब से सबसे शर्मनाक वाक्ये का गवाह भी राजधानी बनी जब पत्रकारों ने मजबूर होकर अपने कैमरे सडक पर उन पुलिसवालों के कदमों में रख छोड़े जो उन्हें पुलिस मुख्यालय के गेट तक जाने से रोकने आये थे. दिल्ली में रिपोर्टिंग के सालों के अनुभव के बीच मैंने तो कभी इतनी शर्मनाक घटना नहीं देखी.

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