युवा सपनों की हत्या है जेएनयू में सीटों की कटौती

Written by Harsh Mander | Published on: April 24, 2017
6 साल के इस नौजवान को जल्दी रोना आ जाता है। सुमित से इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर मुलकात होती है। एक स्टोरी के जरिये। सुमित उस दिन रोया था जब पहली बार हिसार से दिल्ली आकर जेएनयू के एमए प्रोग्राम में अपना नाम देखा था। दूसरी बार उसे तब रोना आया था जब वह अपनी पहली क्लास में टीचर की पढ़ाई को बिल्कुल नहीं समझ पाया था। तब उसके टीचर ने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा था घबराओ नहीं, तुम जेएनयू में आए हो। तुम हमारे सुरक्षित हाथों में हो। एक बार फिर सुमित अपने टीचर के कमरे में बैठा है। एक बार फिर उसकी आंखों में आंसू हैं। इस बार इसकी वजह जेएनयू की ओर से एमफिल और पीएचडी की सीटों की कटौती है।

JNU
 
(इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर देखिये – IE, ‘Deprivation points go, so do some JNU dreams: ‘All I wanted was a PhD, then to teach in Hisar’’, April 12, the second of a three-part series).

हिसार के सब्जी बेचने वाले के लड़के सुमित ने जेएनयू में आने के लिए सब कुछ किया। शादियों की पार्टी में झूठी प्लेटें उठाईं। अस्पतालों में पर्चियां बांटी। उसका एक ही सपना था। जेएनयू से पीएचडी कर अपने शहर हिसार लौटना और वहां पढ़ाना। लेकिन यूजीसी की ओरसे एमफिल और पीएचडी की सीटों को कम करने के साथ ही उसके सपनों को ग्रहण लग गया। जेएनयू में एडमिशन की विशेष प्रणाली है। इसके तहत पिछड़े सामाजिक और इलाके की पृष्ठभूमि वाले लोगों को एडवांटेज प्वाइंट दिए जाते हैं। इन्हें वंचना या डेप्रिवेशन प्वाइंट कहते हैं। यूनिवर्सिटी के टीचर सायास ऐसा माहौल बनाते हैं, जो छात्र-छात्राओं को उसकी क्षमताओं के बेहतरीन दोहन के लिए तैयार करे। लेकिन ये कोशिशें भी पूरी नहीं पड़तीं। हाल में एक दलित छात्र जे मुथुकृष्णन की आत्महत्या ने इसका अहसास कराया। उस घटना ने ताकीद की कि अब भी उच्च शिक्षा के हमारे बेहतरीन संस्थानों में भी सुविधाविहीन पृष्ठभूमि के छात्र-छात्राओं के लिए माहौल माकूल नहीं है।
 
पिछले साल की शुरुआत से ही यानी जब से जेएनयू में छात्रों पर राष्ट्रविरोधी नारे लगाने के आरोप लगे तभी से छात्र-छात्राओं की असहमति की आवाज पर लगाम की कोशिश शुरू हो गई और लिबरल आर्ट में उच्च शिक्षा को सरकार की ओर से फंडिंग का सवाल उठाया जाने लगा। इसके बाद से ही स्वतंत्र सोच, बहुलता, समानता और संस्थान की सार्वजनिकता को खत्म करने करने के लिए कई कदम उठाए गए। इस कड़वे संघर्ष में हम जेएनयू जैसे संस्थानों के सार्वजनिक में योगदान को भुला देते हैं। यह भूल जाते हैं कि ऐसे संस्थान वंचितों को जगह देते हैं और इस वर्ग के स्टूडेंट्स को संवारते हैं। लेकिन अब हालात तेजी से बदलने शुरू हो गए हैं। हाल में दिल्ली हाई कोर्ट ने जेएनयू में दिए जाने वाले वंचना प्वाइंट के सिस्टम को खारिज कर दिया।

सुसाइट से पहले मुथुकृष्णन ने अपने आखिरी फेसबुक पोस्ट में लिखा। बराबरी का हक न देने का मतलब आपको हर चीज से वंचित करना है।

हाल के वर्षों में शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है और इतना ही विस्तार इसके निजीकरण का भी हुआ है। ऐसा अनुमान है कि भारत में उच्च शिक्षा में प्रवेश करने वाले आधे या दो तिहाई स्टूडेंट्स पहली पीढ़ी के पढ़ाई-लिखाई करने वाले होंगे। जेएनयू देश के चंद सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों में से एक है, जिसने इस पृष्ठभूमि के छात्र-छात्राओं का आगे बढ़ कर स्वागत किया है। और इस तरह उसने एक महत्वपूर्ण सामाजिक और सार्वजनिक भूमिका निभाई है। पिछले सात दशकों में हमने अपने युवाओं के लिए बहुत कम काम किया है। बड़ी तादाद में पीढ़ी दर शिक्षा और रोजगार विहीन युवाओं की तादाद बढ़ती जा रही है। और जो कुछ भी थोड़ा बहुत कुछ किया है, उसके सामने भी संकट है।

समस्या यह है कि भारत में हम उच्च शिक्षा संस्थानों पर बहुत कम खर्च करते हैं। और जो थोड़ा बहुत खर्च करते हैं, उसका बहुत ही थोड़ा हिस्सा ऐसे संस्थानों को मिलता है, जो स्वतंत्र सोच को बढ़ावा देते हैं और जो युवाओं को गरीबी और सामाजिक भेदभाव से निकालने में मदद करता है।

जेएनयू से पीएचडी कर रहे उमर खालिद अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं- हमारे विश्वविद्यालय दबे-कुचले लोगों की कब्रगाह बनते जा रहे हैं। ये उन लोगों के लिए बंद होने जा रहे हैं जो भूगोल, इतिहास की अपनी पृष्ठभूमि, संपत्ति, शिक्षित मां-बाप, लैंगिक, जातिगत और शहरों में बिताए गए बचपन की सुविधा से वंचित हैं।
 
(हर्ष मंदर मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक हैं। यह लेख मूल रूप में 22 अप्रैल के इंडियन एक्सप्रेस में छपा था।)

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