जाति धर्म की बंदिशों के बावजूद भी इन्सानियतं जिन्दा है

Written by Vidya Bhushan Rawat | Published on: January 7, 2018
दिन था शनिवार ३१ दिसंबर जब सभी नए वर्ष की इंतेजारी में थे. देवरिया जिले के बेल्हाम्मा गाँव के कुम्हार जाति के एक परिवार में महिला की मौत हो गयी. पति ज्यादातर शराब पीकर मस्त रहता और गाँव में एलान करता फिरता के इस गाँव के सारे मुसलमानों को यहाँ से भगा दूंगा . जिस दिन पत्नी का देहांत हुआ, घर में कोई भी नहीं था. रिश्तेदार भी कोई संपर्क नहीं रखते थे. शव के लिए लकडियो तक का प्रबंध नहीं था. पड़ोस के मुसलमानों ने मिलकर उसकी मदद की और जितने भी लोग अंतिम संस्कार में आये, उसमे अधिकांश मुस्लिम थे. 

hindu muslim unity
 
आज जब बेल्हाम्मा में करीब ७२ वर्षीय शब्बीर अहमद साहेब से उनके घर पर मिला तो गाँव के हालत पर चर्चा करते वक्त उन्होंने अपना दर्द जाहिर किया. आज मुसलमानों को ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे वो सभी अपराधी है, भारतीय नहीं है और गाय खाने वाले है. शब्बीर साहेब के घर के सामने उनकी गाय देखी तो मज़ा ही आ गया है. ‘ ये एक दिन में २२ लीटर दूध देती है’ , वह बोले . शब्बीर अहमद और उनके अन्य भाई समाज सेवा में ही अपना जीवन कुर्बान कर दिए. इस क्षेत्र में उन्होंने बहुत से मदरसे खुल्ब्वाये, बच्चो को स्चूली शिक्षा की बात की. वो कहते है, हम भाइयो ने बहुत मेहनत की और आज हमारा बिज़नस है और इस क्षेत्र में नाम है. उनके बगल में बैठा ‘वर्मा’ उनका ड्राईवर एक समय में मुसलमानों से बहुत घृणा करता था. पड़ोस के गाँव का वर्मा, ड्राइवरी करने के लिए उनके पास आया. वो अपना काम समय पर करता और चुपचाप घर चला जाता. शब्बीर साहेब ने देख लिया के ड्राईवर केवल काम के लिए आता है और खाना नहीं खाता और चाय तक नहीं पीता क्योंकि जब भी उससे पूछा जाता वो कोई बहाना कर देता. बहुत दिन हो गए, एक दिन शब्बीर साहेब ने ड्राइवर से कहा, वर्मा अगर तुम यहाँ खाना या चाय नहीं पी सकते तो नौकरी भी नहीं कर सकते. तुम्हे इस बारे में सोचना है. इतने दिनों तक काम करने के वर्मा को भी पता चल चुका था के वो किन लोगो के साथ में है. आज वर्मा शब्बीर साहेब और उनके परिवार के अन्य लोगो के साथ में इस तरह से है जैसे परिवार के रिश्ते है. मैंने वर्मा से पुछा तो उसने कहा के शुरुआत के दौर में मुझे मुसलमानों से बहुत घृणा थी और मैं उनके हाथ का कुछ भी खाने या पीने को तैयार नहीं था क्योंकि मेरे दिमाग में केवल ये डाला गया था के मुस्लमान कट्टर होते है और गाय का मांस खाते है, बहुत सी शादिया करते और देश के दुश्मन है. इतने दिनों से गाँव में रहने के बावजूद भी मैं ऐसा सोचता था लेकिन जब मेरे पिता की मौत हुई तो उनके अंतिम संस्कार में भी शब्बीर चाचा ने मदद की, मेरे परिवार के पास तो इतना कुछ नहीं था और रिश्तेदार तो दूर दूर तक बाद में आये. वहा से मेरी आँखे खुली और फिर मैंने सोचा जब ये लोग मुझे इतना अपना मानते है जितना मेरे रिश्तेदार भी नहीं तो फिर मुझे क्या करना चाहिए. आज हम परिवारों के बीच में आना जाना है और वर्मा के लिए शब्बीर साहेब के परिवार की महिलाए माँ, बहिनों के तरह है और इसी तरह शब्बीर अहमद जी के घर के रिश्ते भी वर्मा के घर के साथ ऐसे ही है. 
 
बेल्हाम्मा में मेरा जाना वहा के कलंदर या दीवान लोगो के बीच हमारे काम के बदौलत हुआ. कलंदर समाज तमाशा और मदारी के खेल दिखाकर अपना भरण पोषण करते थे लेकिन मेनका जी के आशीर्वाद से उनका काम धंधा चौपट हो गया. कोई भी उनकी कला को देखेगा तो उनका मुरीद बन जायेगा. बांसुरी पर सिनेमा की पोपुलर धुनों को बजाकर सड़को में तमाशा लगाकर मजमा लगाने की उनकी कला भी मेरिट है. हमने मेरिट को अंग्रेजी और हिन्दी बाबु साहेबान की भाषा बनाया और जिसने  हमारे समाज में निकृष्ट लोगो को महत्त्व दिया और मेहनतकश समाज की तौहीन की. कलंदरो के पुश्तैनी धंधो पर आज के पूंजीवादी परयावारंणप्रेमियों के नजर लग चुकी है जो उन्हें पशुओ के प्रति  क्रूर बता रहे है. गाँव के आमिर अली बताते है के वो कैसे भालू बन्दर नचाकर अपना जीवन यापन करते है और आज वन विभाग ने उनके जानवरों को छीन लिया है जिससे उनके सामने आजीविका का संकट है. ‘ सर, एक भालू के बच्चे को पालने में बहुत समय और मेहनत का काम है, हम अपने बच्चों से ज्यादा उसे महत्त्व देते है क्योंकि वो ही हमारी आजीविका का साधन है. हम उसे क्यों मारेगे. एक भालू का बच्चा एक दिन में तीन किलो से ज्यादा आटे की रोटी खाता है. 
 
नट और कलंदर समाज के लोगो का जीवन आज के ‘मेरिट’ के पोषक शोषको के कारण खतरे में है. मुझे नहीं लगता के उनसे ज्यादा कोई सेक्युलर होगा जहा पिता का नाम गुलाम मोहम्मद, बीवी का नाम हसीना और बेटे के नाम मनोज कुमार. ऐसे बहुत कम उद्धहरण होंगे जहाँ लोग नमाज़ पढ़ते हों, रोजे रखते हो और नवरात्री के व्रत भी रखते हो. उनकी जिंदगी का फलसफा शायद बड़े विश्विद्यालयो में उनको डिफाइन करने वाले ‘विशेषज्ञो’ से बहुत ज्यादा सेक्युलर और लिबरल है. इसलिए ‘मेरिट वादियों ‘ के कारण हमारी कौमी खतरे में है क्योंकि उन्होंने हमारे जीवन की इन हकीकतो के जनता से दूर रखा.  हमारी कौमी एकता के लिए ऐसी मिसाले जरुरी है. 
 
राजनीती में बहुजन समाज के आन्दोलन के लिए अपनी जिंदगी देने के बावजूद बहुत से पसमांदा साथी यहाँ बताते हैं के उनकी हैसियत इन आन्दोलनों में मात्र एक अटैचमेंट की है. बहुजन नेतृत्व ने कभी भी पसमांदा मुस्लिम नेतृत्व को तरजीह नहीं दी और ना ही सामजिक और सांस्कृतिक तौर पर दोनों को एक लाने के प्रयास हुए. आज जब देश में पुरोहितवादी पूंजीवादी शक्तिया हावी है और हमारे इतिहास से खेल रही है, हमारा ये कर्त्तव्य है के ऐसे उदाहरण दुनिया के सामने रखे जिससे उत्पीडित समाज के सामने एक आशा का सन्देश जाए. हम भले ही सदियों तक लडे हो लेकिन हमारे आपस में काम करने और एक साथ लड़ने के भी बहुत से उदहारण है. जरुरत है उनको ढूंढकर लाने की और लोगो तक पहुचाने की.

 

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