भारत खुद को भले किसी महान प्राचीन ज्ञान-परंपरा का वारिस समझता हो पर उसके विश्वविद्यालयों की दशा चंद चमकदार अपवादों के बावजूद खस्ताहाल है। उच्चशिक्षा की हालत किसी मरणासन्न नदी जैसी है जिसपर पुल तो बहुत बड़ा बन गया है पर पानी सूखता जा रहा है। भारत अपने साथ ही यह झूठ बोल रहा है कि वह ज्ञान या ज्ञानियों का आदर करता है, जबकि सचाई इसके विपरीत है। आधुनिक युग में भारत ने जितना ज्ञान की अवहेलना और अनादर किया है, उतना शायद ही किसी देश ने किया होगा। हर तिमाही-छमाही आने वाली रिपोर्ट्स हमें शर्मिंदा करती हैं कि संसार के सर्वोच्च 100 विश्वविद्यालयों में भारत के किसी विश्वविद्यालय को नहीं रखा जा सका। पूरा शिक्षा-जगत डिग्रियों की खरीदफरोख्त में लगे विचित्र किस्म के अराजक और अपराधिक सौदेबाजियों से भरे बाजार में बदलता जा रहा है। यहां अपराधी, दलाल और कलंकित नेता अपने काले धन व डिजिटल मनी की समन्वित ताकत लेकर उतर पड़े हैं और हर तरह की कीमत की एवज में कागजी शिक्षा बेचने लगे हैं। इस बाजार में ‘नालेज’ और ‘डिग्री’ का संबंध छिन्नभिन्न हो चुका है। कमाल की बात यह है कि यह स्थिति हमें चिंतित नहीं करती।
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दूसरी ओर, उच्चशिक्षा अभी भी समाज की नब्बे फीसदी आबादी के लिए सपने सरीखी है। उच्चशिक्षा में जीईआर यानी दाखिले के अनुपात की गणना 18-23 आयुवर्ग के छात्रों को ध्यान में रखकर की जाती है और अभी भी भारत में केवल दस फीसदी लोग उच्चशिक्षा के संस्थानों के दरवाजे तक पहुंच पाते हैं। इसमें भी दलित व गरीब मुस्लिमों की हालत बेहद खराब है। दलितों में दो फीसदी से भी कम लोग उच्चशिक्षा प्राप्त कर पाते हैं तो मुस्लिमों में यह आंकड़ा केवल 2.1 फीसदी का है। भारत की ग्रामीण आबादी में केवल दो फीसदी लोग ही उच्च माध्यमिक शिक्षा के पार जा पाते हैं। ये आंकड़े भारत में उच्चशिक्षा की आम लोगों तक पहुंच की भयावह तस्वीर को प्रस्तुत करते हैं और दिखाते हैं कि हम जिन संस्थानों, बड़े कालेजों-विश्वविद्यालयों आदि को भारत के विकास के प्रमाण के रूप में पेश करने की इच्छा रखते हैं, वे देश की नब्बे फीसदी आबादी से बहुत दूर रहे हैं।पर आश्चर्य की बात यह है कि अपनी श्रेष्ठता को खोते, पाठ्यक्रमों की संरचना व नए समय की चुनौतियों से जूझ रहे विश्वविद्यालयों के संकट को हल करने के स्थान पर उनमें नई ‘कल्पित समस्याएं’ तलाश कर अब उन्हें हल करने का दावा किया जा रहा है। देशभक्ति व देशद्रोह का नया कानफोड़ू किस्म का ढोल पीटा जा रहा है जिसने विश्वविद्यालयों को आमजनों की निगाह में खलनायक सिद्ध करने की अथक कोशिशें मौजूद है। राजनीतिक विरोधों से निपटने के लिए देश में बची-खुची, सांस लेती और जीवित दिखती विश्वविद्यालयीन संस्कृति पर भी दनादन चोट की जा रही है। ‘कल्पित समस्या’ और ‘वास्तविक समस्या’ की दो श्रेणियां इस चालाकी से गढ़ दी गई हैं कि सरकार कल्पित समस्या को हल करती है ताकि उसे विश्वविद्यालयों की वास्तविक समस्या को हल करने की जवाबदेही का सामना न करना पड़े। इसीलिए नामीगिरामी विश्वविद्यालयों में देशभक्ति का भूत खड़ा किया गया है जिसे काबू में करने के लिए कुछ बदसूरत से दिखते और उतनी ही कुरूप बातें करते ओझाओं का गिरोह हांक दिया गया है। वैसे मनोविदों ने अहंकार को सबसे बड़ा प्रेत माना है जो सिर पर सवार होने के बाद व्यक्ति हो या सत्ता, दोनों को क्रूर, सनकी और स्वार्थी बना देता है। इसलिए जहां पर रिसर्च की घटती गुणवत्ता, फीस वृद्धि, सीट कटौती, हास्टलों की समस्या तथा अध्यापकों की बहाली आदि पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है, वहां पर देशभक्ति को लेकर बेहद अश्लील हो-हल्ला मचाया जा रहा है। धीरे-धीरे इस देशभक्ति को टैंक पर सवार कर दिया गया है। जेएनयू में, जिसका नीमअंधकार वाली उच्चशिक्षा में कुछ सकारात्मक अकादमिक योगदान रहा है, वहां फौजी टैंक को स्थापित करना केवल एक प्रतीक का मसला नहीं, बल्कि जेएनयू पर वर्तमान निजाम द्वारा अपनी विचारधारा को थोपने की खोखले व बीमार दर्प से भरी हरकत अधिक है। यह हरकत देश के बारे में बहुत सारे भावुकतापूर्ण विचारों से ढंकी जा रही है, पर उतनी स्पष्टता के साथ यह नजर आ रही है।
विश्वविद्यालय मनुष्य की सबसे सुंदर साकार कल्पनाओं में से होते हैं जिसमें सभी विचारों को व्यक्त होने देने का मुक्त आंगन उपलब्ध कराया जाता है। जेएनयू उस कल्पना को जीने वाला विश्वविद्यालय रहा है जिसकी स्थापना के लगभग 48 वर्ष हो गए हैं और कभी यह नहीं सोचा गया कि उसे देशभक्ति याद दिलाने के लिए वहां पर मृत, रिटायर्ड और बेजान फौजी टैंक को लाकर खड़ा कर दिया जाए। फौजी टैंक केवल सेना की कुर्बानियों का नहीं बल्कि अमानवीयता, हिंसा और बर्बर प्रतिशोधों का प्रतीक हो सकता है। वह केवल राष्ट्रीय गौरव नहीं बल्कि राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी का प्रतीक हो सकता है। सेना के प्रति भरपूर सम्मान का इस विचार से कोई अंतर्विरोध नहीं कि सेना ही किसी देश की प्रतिष्ठा, सम्मान या सुरक्षा का इकलौता प्रतीक नहीं हो सकती। दुनिया में कई देशों में हालात ऐसे रहे हैं कि नागरिकों को अपनी जानमाल की हिफाजत अपने ही देश की सेना से करनी पड़ रही है। अफ्रीकी देश सोमालिया में पिछले ही दिनों खबर आई थी कि वहां सूखाग्रस्त इलाकों में राशन के लिए नागरिकों पर सेना ने गोली चला दी जिसमें कई बेहद विपन्न लोग मारे गए। सीरिया में सबसे सबसे वहशियाना जुल्म वहां के टैंकों ने अपने ही लोगों के खिलाफ किए। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत में भी ऐसे संकट हैं। या भारत में कुछ ऐसा ही होने की संभावना है। अर्थ यह कि विश्व-इतिहास की घटनाओं से सबक लेते हुए सेना व नागरिक, दोनों को समय रहते एक-दूसरे की शक्ति व सीमा से परिचित होने की जरूरत पड़ती है। नागरिकों को देश की प्रोफेशनल नियम-कायदों से चलती अनुशासित सेना का सम्मान करना है तो राजसत्ता को भी सैन्यबल की धमकी देकर सत्ता व शासन से असहमति के जो अधिकार नागरिकों को मिले हैं, उन्हें कमजोर करने से बाज आना होगा। यह भूलना आत्मघाती होगा कि देश के सभी सार्वजनिक विश्वविद्यालय संवैधानिक कानूनों की शक्ति से बने हैं। विश्वविद्यालयों को संविधान से जो अधिकार मिले हैं, उन्हें धीरे-धीरे सैन्य या सत्ता के प्रतीकों की ताकत से कुंद, धारहीन या रस्मी बना देना देश की समूची अकादमिक संस्कृति के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
अंधराष्ट्रवाद के दौर में इस बात को याद दिलाना और जरूरी हो जाता है कि विश्वविद्यालयों के कैंपस कलम, किताबों, कोमल सपनों, सुंदर गीतों और उन्मुक्त उल्लास के लिए होते हैं। वे अपने अकादमिक कैलेंडर से बंधे होते हैं न कि सेना की ताकत याद दिलाने के एजेंडे से। राजसत्ता के सारे अच्छे-बुरे प्रतीकों के पास देश में विशाल भूभाग है और तरह-तरह के माध्यम हैं जहां पर उसकी शक्ति व कुर्बानी को याद दिलाने का काम अबाध जारी रह सकता है। वहां किसी ऐतराज का सवाल ही नहीं खड़ा होता। पर कैंपसों में छात्रों के विरुद्ध सैन्य प्रतीकों को खड़ा करने का पूरा विचार ही विश्वविद्यालय की बौद्धिक संस्कृति के विरुद्ध है जहां पीस स्टडीज या अहिंसा संबंधी पाठ्यक्रम कार्यक्रम चलाए जाते हैं और जहां युद्धविरोधी अभियानों का समर्थन किया जाता है। फौज, सरकार या पुलिस से स्वायत्त एक स्वतंत्र परिसर होता है जिसमें हर प्रकार की वैचारिक संस्कृति को फलने-फूलने का मौका दिया जा सकता है। पर जेएनयू के खिलाफ संघ परिवार के सतत अभियान ने विश्वविद्यालय की निरंतर घेराबंदी करने के लिए कोई मौका नहीं छोड़ा है जिसमें जेएनयू को हराने, विजित करने या समर्पण के लिए विवश कर देने वाले किले के रूप में देखा जा रहा है। जादवपुर यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी और टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज पर भी वक्र निगाह है। भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि किसी विश्वविद्यालय को इस प्रकार से सरकार के हाथों सीधी प्रताड़ना को अपने शरीर पर झेलना पड़ रहा है। पर यह हो तो रहा है। वह भी पूरी निर्लज्जता के साथ। उसे युद्ध के मैदान और दुश्मन-क्षेत्र की तरह प्रस्तुत किए जाने के अपमान को सहना पड़ रहा है। इस अभूतपूर्व सनक के कारण केवल जेएनयू नहीं बल्कि देश के समस्त बौद्धिक वर्ग को पीड़ा हो रही है जिसने इस देश में ऊंचे दर्जे की यूनिवर्सिटियों की कल्पना की थी, पर जिसे अभी पूरा होना बाकी है।
इतिहास बताता है कि विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए भी इतिहास के कई चरणों से गुजरना पड़ा है। पुराने विश्वविद्यालय जैसे पेरिस, आक्सफोर्ड, कैंब्रिज आदि 19वीं सदी के आरंभ तक चर्च से नियंत्रित होते थे और वहां क्या लिखा अथवा कहा जा रहा है, इस पर निगरानी रखी जाती थी। विश्वविद्यालयों की दशा पर काम करने वाले समाजशास्त्री आंद्रे बेते ने अपनी किताब ‘यूनिवर्सिटीज एट द क्रासरोड्स’ में लिखा है- यूनिवर्सिटियों को स्वयं को धार्मिक नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए काफी समय लगा जबकि यूरोपीय प्रबोधन काल के प्रभाव से यूनिवर्सिटियों के बाहर बनी संस्थाएं व विचार-संगठन सहज ही इस वैचारिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकते थे। यूनिवर्सिटियों के इतिहास पर लिखते समय आंद्रे बेते ने लगभग निराशाजनक ढंग से यह भी लिखा है कि भारत के विश्वविद्यालयों की बात तो दूर, इस बात में संदेह है कि 21वीं सदी के किसी भी विश्वविद्यालय में, यहां तक कि आक्सफोर्ड अथवा कैंब्रिज में भी मुक्त बौद्धिक जीवन को फिर से उत्पन्न करना पाना कभी संभव हो सकेगा। ज्यादा खतरा शायद यह है कि विश्वविद्यालयों को स्वायत्त व स्वतंत्र मानने से अफसरशाही का परहेज और बढ़ जाए और वे देश के राजनीतिक माहौल का ही धूलधूसरित, दागदार आईना बनकर रह जाएं।
इसमे कोई संदेह नहीं कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वालों में राष्ट्र व राष्ट्रीयता का बोध हो और वे अपने ज्ञान को समाजोपयोगी ढंग से विकसित करें। राष्ट्र से प्रेम करना मनुष्य को संकीर्णताओं से मुक्ति की तरफ भी ले जाता है। पर उन्हें यह भी अधिकार मिलना चाहिए कि वे देश, राष्ट्र या राष्ट्रवाद को मौलिक नजरिए से देखें और देशभक्ति की सरकारी समझ से संचालित होने से खुला व स्पष्ट इनकार भी व्यक्त कर सकें। यह बिलकुल जरूरी नहीं होता कि देशभक्ति के बारे में सरकार जिस ढंग से सोच रही हो, वही एकमात्र सही ढंग की देशभक्ति हो। देशभक्ति पूरी तरह से सिद्ध, प्रमाण से परे या शाश्वत धारणा नहीं हो सकती है। वह बहुत सारी सापेक्षता और परिस्थितिजन्य कारणों से बंधी होती है। किसान की आत्महत्या को लेकर बेचैन नौजवान विद्यार्थी भी उतना ही देशभक्त है, जितना सेना के जवान की कुर्बानी पर चिंतित नौजवान। दोनों को अपने नजरिये से खुद को देशभक्त मानने का अधिकार है और किसी भी बाहरी सत्ता को अपने बारे में उसकी धारणा को खंडित कर देने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। खासतौर पर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को तो यह जानने व समझने का पूरा हक है कि देशभक्ति की कितनी विविधतापूर्ण अभिव्यक्तियां हो सकती हैं। उन्हें इस बात पर सरकारों से बहस करने का भी हक है कि देशप्रेम केवल दब्बूपन के भाव से सरकार के प्रति आज्ञाकारी होते जाना नहीं है। सरकार की अवज्ञा करना भी देशभक्ति हो सकती है। इसी तरह विश्वविद्यालयों की संरचना में उन्हें इस विचार पर कायम रहने का अधिकार होना चाहिए कि देशप्रेम केवल सेना, शक्ति प्रदर्शन, अस्त्र शस्त्र, टैंक-मशीनगन नहीं है। दुनिया में कई स्थानों पर अधिनायकवादी सत्ताएं रही हैं जिन्होंने भ्रष्ट हथियार सौदों के बल पर जो सैन्यबल खड़ा किया, उसके प्रति निष्ठा को देशप्रेम साबित करने की चेष्टाएं की हैं और सौभाग्य से वे चेष्टाएं पराजित होती रही हैं। दुनिया के कई देशों ने खासतौर पर यूरोपीय देशों ने, जिन्होंने गंभीर युद्ध झेले हैं, वे मानते हैं कि सेना का सम्मान तभी बेहतर ढंग से हो सकता है जब वह सामान्य नागरिक जीवन से दूरी बनाकर रखे। युद्ध व सेना के प्रति जनसामान्य का मनोविज्ञान बड़ा पेचीदा होता है। वह सुरक्षित दूरी से ही इन चीजों के प्रति उत्सुकता दिखा सकता है और इनका सम्मान कर सकता है। जब वे सक्रिय रूप में उसकी आजादी के लिए खतरा पैदा करने लगती हैं तब वे अपना सम्मान भी खो देती हैं।
कट्टरपंथियों की बकवास को छोड़ें तो जिन्हें थोड़ा भी देशभक्ति की भारतीय अवधारणा के बारे में जानकारी है वे जानते हैं कि पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में देशप्रेम व देशभक्ति का सीधा संबंध केवल सैन्यबल की सराहना से नहीं था। गांधी ने सादगी, खादी और अहिंसा को भी देशप्रेम माना था। हिंद स्वराज में गांधी का मत था कि भारत ने अपनी आजादी तलवार-बंदूक के कारण नहीं गंवाई है बल्कि उसने बुरी व्यापार नीति के कारण स्वयं को खुद ही अंग्रेजों का गुलाम बना दिया। यानी गांधी ने शस्त्रबल के विभिन्न प्रतीकों को देशप्रेम से पूरी तरह अलग कर दिया था। भारतीयों के साहस-शौर्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त गांधी ने हथियार-बल और आत्मबल में हमेशा आत्मबल को ज्यादा वरीयता प्रदान की। खुद को देशभक्ति की संकीर्ण सीमा से ऊपर मानने वाले रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘भीतर के आकाश से ओतप्रोत सत्य’ की खोज के लिए शिक्षा में प्रयोगों को देशप्रेम का नाम दिया और 1907 में शांतिनिकेतन की स्थापना की। भीमराव अंबेडकर ने देशप्रेम को जातिमुक्त समाज की कल्पना से जोड़कर देखा था। एनिहिलेशन आफ कास्ट (1936) में उन्होंने लिखा था कि हिंदुओं की देशभक्ति का कोई मतलब नहीं क्योंकि उनमें सैकड़ों जाति-विभाजन के कारण सामूहिकता नहीं है। वे बिल में रहने वाले चूहों की तरह हैं जो किसी के संपर्क में नहीं आना चाहते। उन्होंने भारत को ‘असंगठित लोगों की भीड़’ के रूप में देखा था जहां देशभक्ति तभी सार्थक हो सकती है जब जाति के ढांचे से समाज पूर्णतया मुक्त हो सके। साफ है कि जिन विजनरी नेताओं ने भारतीय राष्ट्रवाद को गढ़ा, उसे विकसित किया और उसे देश-समाज की आलोचना के लिए समर्थ बनाया, लगभग वे सभी हथियार-पूजा को राष्ट्र की उपासना नहीं मानते थे।
हथियार पूजा पिछड़े कबीलाई-सामंती समाजों, अधिनायकवादी सत्ता या फिर शस्त्र के सौदागरों की प्रवृत्ति रही है। कोई भी आधुनिक समाज टैंक और गोले-बारूद की ताकत पर मुग्ध होने के स्थान पर ज्ञान-विज्ञान, सद्भाव और सहयोग के मूल्यों पर मुग्ध होना ज्यादा पसंद करता है। देश के विश्वविद्यालयों को भी ज्ञान, शांति व अहिंसा के ही मूल्यों की नींव पर खड़ा होना पड़ेगा। दुनिया में हथियारों की दौड़, नरसंहारों, युद्धवादी अभियानों के खिलाफ विश्वविद्यालयीन परिवेश में ही खुली चर्चा हो सकती है। ऐसी चर्चाएं, बहसें व विमर्श केवल बचे ही न रहें बल्कि वे देश के बौद्धिक जीवन को प्रभावित कर सकें। इसके लिए जरूरी है कि विश्वविद्यालयों की दीवारें इतनी मजबूत हों कि ज्योतिषियों, जनरलों, अफसरों व बड़बोले पत्रकारो के साझे हमले उन दीवारों से टकराकर चकनाचूर हो जाएं। ज्ञान की शक्ति किसी भी खर्चीले आयातित हथियार की प्रतीकात्मक शक्ति से कई गुना भव्य और आकर्षक रूप में हमारे सामने आ सके।
वैभव सिंह अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापक हैं. vaibhavjnu@gmail.com पर उनसे समपर्क किया जा सकता है.
Courtesy: kafila.online
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दूसरी ओर, उच्चशिक्षा अभी भी समाज की नब्बे फीसदी आबादी के लिए सपने सरीखी है। उच्चशिक्षा में जीईआर यानी दाखिले के अनुपात की गणना 18-23 आयुवर्ग के छात्रों को ध्यान में रखकर की जाती है और अभी भी भारत में केवल दस फीसदी लोग उच्चशिक्षा के संस्थानों के दरवाजे तक पहुंच पाते हैं। इसमें भी दलित व गरीब मुस्लिमों की हालत बेहद खराब है। दलितों में दो फीसदी से भी कम लोग उच्चशिक्षा प्राप्त कर पाते हैं तो मुस्लिमों में यह आंकड़ा केवल 2.1 फीसदी का है। भारत की ग्रामीण आबादी में केवल दो फीसदी लोग ही उच्च माध्यमिक शिक्षा के पार जा पाते हैं। ये आंकड़े भारत में उच्चशिक्षा की आम लोगों तक पहुंच की भयावह तस्वीर को प्रस्तुत करते हैं और दिखाते हैं कि हम जिन संस्थानों, बड़े कालेजों-विश्वविद्यालयों आदि को भारत के विकास के प्रमाण के रूप में पेश करने की इच्छा रखते हैं, वे देश की नब्बे फीसदी आबादी से बहुत दूर रहे हैं।पर आश्चर्य की बात यह है कि अपनी श्रेष्ठता को खोते, पाठ्यक्रमों की संरचना व नए समय की चुनौतियों से जूझ रहे विश्वविद्यालयों के संकट को हल करने के स्थान पर उनमें नई ‘कल्पित समस्याएं’ तलाश कर अब उन्हें हल करने का दावा किया जा रहा है। देशभक्ति व देशद्रोह का नया कानफोड़ू किस्म का ढोल पीटा जा रहा है जिसने विश्वविद्यालयों को आमजनों की निगाह में खलनायक सिद्ध करने की अथक कोशिशें मौजूद है। राजनीतिक विरोधों से निपटने के लिए देश में बची-खुची, सांस लेती और जीवित दिखती विश्वविद्यालयीन संस्कृति पर भी दनादन चोट की जा रही है। ‘कल्पित समस्या’ और ‘वास्तविक समस्या’ की दो श्रेणियां इस चालाकी से गढ़ दी गई हैं कि सरकार कल्पित समस्या को हल करती है ताकि उसे विश्वविद्यालयों की वास्तविक समस्या को हल करने की जवाबदेही का सामना न करना पड़े। इसीलिए नामीगिरामी विश्वविद्यालयों में देशभक्ति का भूत खड़ा किया गया है जिसे काबू में करने के लिए कुछ बदसूरत से दिखते और उतनी ही कुरूप बातें करते ओझाओं का गिरोह हांक दिया गया है। वैसे मनोविदों ने अहंकार को सबसे बड़ा प्रेत माना है जो सिर पर सवार होने के बाद व्यक्ति हो या सत्ता, दोनों को क्रूर, सनकी और स्वार्थी बना देता है। इसलिए जहां पर रिसर्च की घटती गुणवत्ता, फीस वृद्धि, सीट कटौती, हास्टलों की समस्या तथा अध्यापकों की बहाली आदि पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है, वहां पर देशभक्ति को लेकर बेहद अश्लील हो-हल्ला मचाया जा रहा है। धीरे-धीरे इस देशभक्ति को टैंक पर सवार कर दिया गया है। जेएनयू में, जिसका नीमअंधकार वाली उच्चशिक्षा में कुछ सकारात्मक अकादमिक योगदान रहा है, वहां फौजी टैंक को स्थापित करना केवल एक प्रतीक का मसला नहीं, बल्कि जेएनयू पर वर्तमान निजाम द्वारा अपनी विचारधारा को थोपने की खोखले व बीमार दर्प से भरी हरकत अधिक है। यह हरकत देश के बारे में बहुत सारे भावुकतापूर्ण विचारों से ढंकी जा रही है, पर उतनी स्पष्टता के साथ यह नजर आ रही है।
विश्वविद्यालय मनुष्य की सबसे सुंदर साकार कल्पनाओं में से होते हैं जिसमें सभी विचारों को व्यक्त होने देने का मुक्त आंगन उपलब्ध कराया जाता है। जेएनयू उस कल्पना को जीने वाला विश्वविद्यालय रहा है जिसकी स्थापना के लगभग 48 वर्ष हो गए हैं और कभी यह नहीं सोचा गया कि उसे देशभक्ति याद दिलाने के लिए वहां पर मृत, रिटायर्ड और बेजान फौजी टैंक को लाकर खड़ा कर दिया जाए। फौजी टैंक केवल सेना की कुर्बानियों का नहीं बल्कि अमानवीयता, हिंसा और बर्बर प्रतिशोधों का प्रतीक हो सकता है। वह केवल राष्ट्रीय गौरव नहीं बल्कि राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी का प्रतीक हो सकता है। सेना के प्रति भरपूर सम्मान का इस विचार से कोई अंतर्विरोध नहीं कि सेना ही किसी देश की प्रतिष्ठा, सम्मान या सुरक्षा का इकलौता प्रतीक नहीं हो सकती। दुनिया में कई देशों में हालात ऐसे रहे हैं कि नागरिकों को अपनी जानमाल की हिफाजत अपने ही देश की सेना से करनी पड़ रही है। अफ्रीकी देश सोमालिया में पिछले ही दिनों खबर आई थी कि वहां सूखाग्रस्त इलाकों में राशन के लिए नागरिकों पर सेना ने गोली चला दी जिसमें कई बेहद विपन्न लोग मारे गए। सीरिया में सबसे सबसे वहशियाना जुल्म वहां के टैंकों ने अपने ही लोगों के खिलाफ किए। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत में भी ऐसे संकट हैं। या भारत में कुछ ऐसा ही होने की संभावना है। अर्थ यह कि विश्व-इतिहास की घटनाओं से सबक लेते हुए सेना व नागरिक, दोनों को समय रहते एक-दूसरे की शक्ति व सीमा से परिचित होने की जरूरत पड़ती है। नागरिकों को देश की प्रोफेशनल नियम-कायदों से चलती अनुशासित सेना का सम्मान करना है तो राजसत्ता को भी सैन्यबल की धमकी देकर सत्ता व शासन से असहमति के जो अधिकार नागरिकों को मिले हैं, उन्हें कमजोर करने से बाज आना होगा। यह भूलना आत्मघाती होगा कि देश के सभी सार्वजनिक विश्वविद्यालय संवैधानिक कानूनों की शक्ति से बने हैं। विश्वविद्यालयों को संविधान से जो अधिकार मिले हैं, उन्हें धीरे-धीरे सैन्य या सत्ता के प्रतीकों की ताकत से कुंद, धारहीन या रस्मी बना देना देश की समूची अकादमिक संस्कृति के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
अंधराष्ट्रवाद के दौर में इस बात को याद दिलाना और जरूरी हो जाता है कि विश्वविद्यालयों के कैंपस कलम, किताबों, कोमल सपनों, सुंदर गीतों और उन्मुक्त उल्लास के लिए होते हैं। वे अपने अकादमिक कैलेंडर से बंधे होते हैं न कि सेना की ताकत याद दिलाने के एजेंडे से। राजसत्ता के सारे अच्छे-बुरे प्रतीकों के पास देश में विशाल भूभाग है और तरह-तरह के माध्यम हैं जहां पर उसकी शक्ति व कुर्बानी को याद दिलाने का काम अबाध जारी रह सकता है। वहां किसी ऐतराज का सवाल ही नहीं खड़ा होता। पर कैंपसों में छात्रों के विरुद्ध सैन्य प्रतीकों को खड़ा करने का पूरा विचार ही विश्वविद्यालय की बौद्धिक संस्कृति के विरुद्ध है जहां पीस स्टडीज या अहिंसा संबंधी पाठ्यक्रम कार्यक्रम चलाए जाते हैं और जहां युद्धविरोधी अभियानों का समर्थन किया जाता है। फौज, सरकार या पुलिस से स्वायत्त एक स्वतंत्र परिसर होता है जिसमें हर प्रकार की वैचारिक संस्कृति को फलने-फूलने का मौका दिया जा सकता है। पर जेएनयू के खिलाफ संघ परिवार के सतत अभियान ने विश्वविद्यालय की निरंतर घेराबंदी करने के लिए कोई मौका नहीं छोड़ा है जिसमें जेएनयू को हराने, विजित करने या समर्पण के लिए विवश कर देने वाले किले के रूप में देखा जा रहा है। जादवपुर यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी और टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज पर भी वक्र निगाह है। भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि किसी विश्वविद्यालय को इस प्रकार से सरकार के हाथों सीधी प्रताड़ना को अपने शरीर पर झेलना पड़ रहा है। पर यह हो तो रहा है। वह भी पूरी निर्लज्जता के साथ। उसे युद्ध के मैदान और दुश्मन-क्षेत्र की तरह प्रस्तुत किए जाने के अपमान को सहना पड़ रहा है। इस अभूतपूर्व सनक के कारण केवल जेएनयू नहीं बल्कि देश के समस्त बौद्धिक वर्ग को पीड़ा हो रही है जिसने इस देश में ऊंचे दर्जे की यूनिवर्सिटियों की कल्पना की थी, पर जिसे अभी पूरा होना बाकी है।
इतिहास बताता है कि विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए भी इतिहास के कई चरणों से गुजरना पड़ा है। पुराने विश्वविद्यालय जैसे पेरिस, आक्सफोर्ड, कैंब्रिज आदि 19वीं सदी के आरंभ तक चर्च से नियंत्रित होते थे और वहां क्या लिखा अथवा कहा जा रहा है, इस पर निगरानी रखी जाती थी। विश्वविद्यालयों की दशा पर काम करने वाले समाजशास्त्री आंद्रे बेते ने अपनी किताब ‘यूनिवर्सिटीज एट द क्रासरोड्स’ में लिखा है- यूनिवर्सिटियों को स्वयं को धार्मिक नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए काफी समय लगा जबकि यूरोपीय प्रबोधन काल के प्रभाव से यूनिवर्सिटियों के बाहर बनी संस्थाएं व विचार-संगठन सहज ही इस वैचारिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकते थे। यूनिवर्सिटियों के इतिहास पर लिखते समय आंद्रे बेते ने लगभग निराशाजनक ढंग से यह भी लिखा है कि भारत के विश्वविद्यालयों की बात तो दूर, इस बात में संदेह है कि 21वीं सदी के किसी भी विश्वविद्यालय में, यहां तक कि आक्सफोर्ड अथवा कैंब्रिज में भी मुक्त बौद्धिक जीवन को फिर से उत्पन्न करना पाना कभी संभव हो सकेगा। ज्यादा खतरा शायद यह है कि विश्वविद्यालयों को स्वायत्त व स्वतंत्र मानने से अफसरशाही का परहेज और बढ़ जाए और वे देश के राजनीतिक माहौल का ही धूलधूसरित, दागदार आईना बनकर रह जाएं।
इसमे कोई संदेह नहीं कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वालों में राष्ट्र व राष्ट्रीयता का बोध हो और वे अपने ज्ञान को समाजोपयोगी ढंग से विकसित करें। राष्ट्र से प्रेम करना मनुष्य को संकीर्णताओं से मुक्ति की तरफ भी ले जाता है। पर उन्हें यह भी अधिकार मिलना चाहिए कि वे देश, राष्ट्र या राष्ट्रवाद को मौलिक नजरिए से देखें और देशभक्ति की सरकारी समझ से संचालित होने से खुला व स्पष्ट इनकार भी व्यक्त कर सकें। यह बिलकुल जरूरी नहीं होता कि देशभक्ति के बारे में सरकार जिस ढंग से सोच रही हो, वही एकमात्र सही ढंग की देशभक्ति हो। देशभक्ति पूरी तरह से सिद्ध, प्रमाण से परे या शाश्वत धारणा नहीं हो सकती है। वह बहुत सारी सापेक्षता और परिस्थितिजन्य कारणों से बंधी होती है। किसान की आत्महत्या को लेकर बेचैन नौजवान विद्यार्थी भी उतना ही देशभक्त है, जितना सेना के जवान की कुर्बानी पर चिंतित नौजवान। दोनों को अपने नजरिये से खुद को देशभक्त मानने का अधिकार है और किसी भी बाहरी सत्ता को अपने बारे में उसकी धारणा को खंडित कर देने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। खासतौर पर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को तो यह जानने व समझने का पूरा हक है कि देशभक्ति की कितनी विविधतापूर्ण अभिव्यक्तियां हो सकती हैं। उन्हें इस बात पर सरकारों से बहस करने का भी हक है कि देशप्रेम केवल दब्बूपन के भाव से सरकार के प्रति आज्ञाकारी होते जाना नहीं है। सरकार की अवज्ञा करना भी देशभक्ति हो सकती है। इसी तरह विश्वविद्यालयों की संरचना में उन्हें इस विचार पर कायम रहने का अधिकार होना चाहिए कि देशप्रेम केवल सेना, शक्ति प्रदर्शन, अस्त्र शस्त्र, टैंक-मशीनगन नहीं है। दुनिया में कई स्थानों पर अधिनायकवादी सत्ताएं रही हैं जिन्होंने भ्रष्ट हथियार सौदों के बल पर जो सैन्यबल खड़ा किया, उसके प्रति निष्ठा को देशप्रेम साबित करने की चेष्टाएं की हैं और सौभाग्य से वे चेष्टाएं पराजित होती रही हैं। दुनिया के कई देशों ने खासतौर पर यूरोपीय देशों ने, जिन्होंने गंभीर युद्ध झेले हैं, वे मानते हैं कि सेना का सम्मान तभी बेहतर ढंग से हो सकता है जब वह सामान्य नागरिक जीवन से दूरी बनाकर रखे। युद्ध व सेना के प्रति जनसामान्य का मनोविज्ञान बड़ा पेचीदा होता है। वह सुरक्षित दूरी से ही इन चीजों के प्रति उत्सुकता दिखा सकता है और इनका सम्मान कर सकता है। जब वे सक्रिय रूप में उसकी आजादी के लिए खतरा पैदा करने लगती हैं तब वे अपना सम्मान भी खो देती हैं।
कट्टरपंथियों की बकवास को छोड़ें तो जिन्हें थोड़ा भी देशभक्ति की भारतीय अवधारणा के बारे में जानकारी है वे जानते हैं कि पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में देशप्रेम व देशभक्ति का सीधा संबंध केवल सैन्यबल की सराहना से नहीं था। गांधी ने सादगी, खादी और अहिंसा को भी देशप्रेम माना था। हिंद स्वराज में गांधी का मत था कि भारत ने अपनी आजादी तलवार-बंदूक के कारण नहीं गंवाई है बल्कि उसने बुरी व्यापार नीति के कारण स्वयं को खुद ही अंग्रेजों का गुलाम बना दिया। यानी गांधी ने शस्त्रबल के विभिन्न प्रतीकों को देशप्रेम से पूरी तरह अलग कर दिया था। भारतीयों के साहस-शौर्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त गांधी ने हथियार-बल और आत्मबल में हमेशा आत्मबल को ज्यादा वरीयता प्रदान की। खुद को देशभक्ति की संकीर्ण सीमा से ऊपर मानने वाले रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘भीतर के आकाश से ओतप्रोत सत्य’ की खोज के लिए शिक्षा में प्रयोगों को देशप्रेम का नाम दिया और 1907 में शांतिनिकेतन की स्थापना की। भीमराव अंबेडकर ने देशप्रेम को जातिमुक्त समाज की कल्पना से जोड़कर देखा था। एनिहिलेशन आफ कास्ट (1936) में उन्होंने लिखा था कि हिंदुओं की देशभक्ति का कोई मतलब नहीं क्योंकि उनमें सैकड़ों जाति-विभाजन के कारण सामूहिकता नहीं है। वे बिल में रहने वाले चूहों की तरह हैं जो किसी के संपर्क में नहीं आना चाहते। उन्होंने भारत को ‘असंगठित लोगों की भीड़’ के रूप में देखा था जहां देशभक्ति तभी सार्थक हो सकती है जब जाति के ढांचे से समाज पूर्णतया मुक्त हो सके। साफ है कि जिन विजनरी नेताओं ने भारतीय राष्ट्रवाद को गढ़ा, उसे विकसित किया और उसे देश-समाज की आलोचना के लिए समर्थ बनाया, लगभग वे सभी हथियार-पूजा को राष्ट्र की उपासना नहीं मानते थे।
हथियार पूजा पिछड़े कबीलाई-सामंती समाजों, अधिनायकवादी सत्ता या फिर शस्त्र के सौदागरों की प्रवृत्ति रही है। कोई भी आधुनिक समाज टैंक और गोले-बारूद की ताकत पर मुग्ध होने के स्थान पर ज्ञान-विज्ञान, सद्भाव और सहयोग के मूल्यों पर मुग्ध होना ज्यादा पसंद करता है। देश के विश्वविद्यालयों को भी ज्ञान, शांति व अहिंसा के ही मूल्यों की नींव पर खड़ा होना पड़ेगा। दुनिया में हथियारों की दौड़, नरसंहारों, युद्धवादी अभियानों के खिलाफ विश्वविद्यालयीन परिवेश में ही खुली चर्चा हो सकती है। ऐसी चर्चाएं, बहसें व विमर्श केवल बचे ही न रहें बल्कि वे देश के बौद्धिक जीवन को प्रभावित कर सकें। इसके लिए जरूरी है कि विश्वविद्यालयों की दीवारें इतनी मजबूत हों कि ज्योतिषियों, जनरलों, अफसरों व बड़बोले पत्रकारो के साझे हमले उन दीवारों से टकराकर चकनाचूर हो जाएं। ज्ञान की शक्ति किसी भी खर्चीले आयातित हथियार की प्रतीकात्मक शक्ति से कई गुना भव्य और आकर्षक रूप में हमारे सामने आ सके।
वैभव सिंह अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापक हैं. vaibhavjnu@gmail.com पर उनसे समपर्क किया जा सकता है.
Courtesy: kafila.online
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