भारतीय प्रधानमंत्री ने ‘पायलट प्रोजेक्ट’ वाला बयान देकर साबित किया कि घृणा से गढ़े गए स्वभाव की तुच्छता किसी भी क्षण की गंभीरता और किसी पद की गरिमा से बाधित नहीं होती.
पतन की कोई सीमा नहीं हो सकती, यह कल भारत के प्रधानमंत्री के बयान से एक बार फिर जाहिर हुआ है.
जब विज्ञान के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार देते वक्त उन्होंने यह कहा कि अभी तो पायलट प्रोजेक्ट पूरा हुआ है और असली काम अब शुरू होगा क्योंकि जो हुआ वह अभ्यास था, तब किसी भी संवेदनशील इंसान के मन में जो पहला भाव उठा वह घिन का है.
यह वक्तव्य तब दिया जा रहा था जब भारत का एक लड़ाकू पायलट पाकिस्तान की कैद में था और उसी समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का उसे रिहा करने का ऐलान आया था. इस घोषणा से पूरे देश ने राहत की सांस ली.
पाकिस्तान और दुनिया में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के इस कदम की सराहना होने लगी थी. भारतीय प्रधानमंत्री ने यह बयान देकर साबित किया कि घृणा से गढ़े गए स्वभाव की तुच्छता किसी भी क्षण की गंभीरता और किसी पद की गरिमा से बाधित नहीं होती.
भटनागर पुरस्कार के अवसर का इस्तेमाल एक फूहड़ व्यंजना के माध्यम से जंगबाजी को उकसावा देने के लिए किया जाए, यह अपने आप में वितृष्णा पैदा करता है. उसके आगे, यह प्रधानमंत्री की क्रूर बेहिसी का भी सबूत है क्योंकि पायलट शब्द उस समय सिर्फ अभिनन्दन से ही जुड़ा हुआ था.
भारत की युद्ध में रणनीतिक हार के मौके को जीत में बदलने की यह दयनीय कोशिश है जिसमें प्रधानमंत्री और उनके दल का साथ भारत का लगभग सारा मीडिया दे रहा है.
इमरान खान के इस कदम को पाकिस्तान को पीछे हटने को बाध्य कर देने की भारतीय बहादुरी बताया जा रहा है जो कि यह कतई नहीं है.
पिछले दो दिनों में भारतीय सरकारी नेतृत्व सोया हुआ पाया गया. बालाकोट में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई की पहली खबर भी दुनिया को पाकिस्तान ने दी. उसी तरह भारतीय लड़ाकू जहाज को गिराए जाने और एक पायलट को पकड़ लेने की खबर भी भारत की जनता को पाकिस्तान से मिली.
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान जब देश के लोगों की सांसें अटकी हुई थीं, इस देश के प्रधानमंत्री अलग-अलग जगह भारत के करदाता के पैसे पर अपने दल का चुनावी प्रचार कर रहे थे.
इसे सबने नोट किया है कि 1971 के बाद पहली बार वायुसेना के पाकिस्तान की सीमा पार करने की घटना के बाद इस सरकार ने देश को सीधे कुछ भी बताना ज़रूरी नहीं समझा.
यह खबर पहले से ही तत्पर मीडिया के द्वारा उड़ाई गई कि वायुसेना की बमबारी में तीन सौ दहशतगर्द मारे गए हैं. अल जज़ीरा और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संचार माध्यमों ने ठीक बालाकोट जाकर जो रिपोर्ट की, उसमें किसी के मारे जाने का कोई सबूत या किसी बड़े दहशतगर्द ठिकाने के तबाह होने का कोई चिह्न नहीं मिला.
पाकिस्तान के एक रिपोर्टर ने एक मरे हुए कौवे को दिखलाकर कहा कि एक मौत ज़रूर हुई है! फिर भारत की जनता को क्यों धोखे में रखा जा रहा रहा था?
क्यों भारतीय वायुसेना की साख का इस तरीके से इस्तेमाल करने की कोशिश हुई? आखिर वायुसेना ने तो इस तरह का कोई आधिकारिक बयान दिया नहीं था?
मज़ा या विडंबना यह है कि यह सवाल करते ही प्रधानमंत्री के अनुचर शोर मचाने लगे कि इस तरह के सवालों से पाकिस्तान को फायदा होता है. क्या सच जानने का अधिकार जनता का नहीं है? वायुसेना की कार्रवाई एक बड़ा कदम थी. पूरी दुनिया में इस पर चिंता जाहिर की गई.
भारत के इस कदम का समर्थन किसी ने नहीं किया, लेकिन प्रधानमंत्री ने उसी समय राजस्थान के चुरू में इस अत्यंत संकटपूर्ण क्षण में गर्दन मटकाते, मुस्कराते हुए यह कहकर सस्ती फिकरेबाजी की कि आज लोगों का मिजाज़ बदला बदला नज़र आ रहा है. कुछ ऐसी ही बात तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी उन्होंने कही थी.
जिस समय भारत में लोग मिठाइयां खा रहे थे, उसका एक लड़ाकू पायलट पाकिस्तान की गिरफ्त में जा रहा था. भारत के लोगों को यह बात भी पाकिस्तान से मालूम हुई. लेकिन इस क्षण लगातार बोलनेवाले प्रधानमंत्री ने चुप्पी साध ली.
इस पूरे दौर में जब भारत के प्रधानमंत्री भारत की जनता से नहीं, अपने दल के कार्यकर्ताओं से ही बात कर रहे थे, तब पाकिस्तान का प्रधानमंत्री अपने देश को संबोधित कर रहा था. जब भारत के प्रधानमंत्री युद्धोन्माद उकसा रहे थे, तब इमरान खान अमन की अपील कर रहे थे.
ज़रूर उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव होगा लेकिन यह तो इतिहास में दर्ज हो गया कि इस समय भारत के नेतृत्व ने शांति की भाषा का स्वागत नहीं किया. भारतीय पायलट को रिहा करने का कदम उठाकर इमरान खान ने एक बड़ी राजनयिक बढ़त हासिल कर ली है.
इसे भारत का मीडिया इस तरह पेश कर रहा है मानो पाकिस्तान भारत के पराक्रम से डर कर पीछे हट रहा है. राष्ट्रवादी नशे में भी हमें इस तथ्य को याद रखना चाहिए कि यह ‘समझौतावादी’ कदम इमरान खान ने यह साबित करने के बाद उठाया कि अगर भारत के जहाज पाकिस्तान की सीमा पार कर सकते हैं तो पाकिस्तान भी उलट कर यह कर सकता है.
बल्कि भारतीय जहाज को मार गिराने और उसके एक लड़ाकू पायलट को पकड़कर अपनी सैन्य रणनीतिक कुशलता का प्रमाण भी उन्होंने अपनी जनता और दुनिया के सामने दे दिया. इसमें यह इशारा था कि अगर जंग छिड़ी तो वह एकतरफा न होगी और महंगी भी होगी, दोनों पक्षों के लिए.
इमरान खान के पहले राष्ट्रीय संदेश और फिर संसद में बयान की इस दरम्यान भारत के प्रधानमंत्री के वक्तव्यों से तुलना स्वाभाविक है. और उसमें इमरान ऊंची सतह पर हैं.
उन्होंने भाषा की उदात्त शक्ति का प्रयोग किया जब यह कहा कि युद्ध का अंत तय करना शुरू करने वाले के बस में न होगा. इससे पाकिस्तान का आतंकवादी समूहों को पालने और उन्हें शह देने का पाप धुलता नहीं लेकिन इस बयान से एक संकटपूर्ण क्षण में संकीर्ण राष्ट्रवादी प्रलोभन का संवरण करने का संयम और साहस तो दिखता ही है.
यह अवसर हम सब के लिए होश बनाए रखने का और हर सरकारी कदम की सख्त पड़ताल का है. क्या हमारी सेना का इस्तेमाल एक राजनीतिक दल के हितों के लिए किया जा रहा है?
क्या हर मोर्चे पर विफल रहने के बाद राष्ट्रवाद का कवच कुंडल पहनकर, सेना को आगे रखकर शासक दल अगला चुनावी युद्ध लड़ेगा? और क्या हम ऐसा होते देखते रहेंगे क्योंकि हम पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप लगने का खतरा है?
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं.)
साभार- द वायर
पतन की कोई सीमा नहीं हो सकती, यह कल भारत के प्रधानमंत्री के बयान से एक बार फिर जाहिर हुआ है.
जब विज्ञान के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार देते वक्त उन्होंने यह कहा कि अभी तो पायलट प्रोजेक्ट पूरा हुआ है और असली काम अब शुरू होगा क्योंकि जो हुआ वह अभ्यास था, तब किसी भी संवेदनशील इंसान के मन में जो पहला भाव उठा वह घिन का है.
यह वक्तव्य तब दिया जा रहा था जब भारत का एक लड़ाकू पायलट पाकिस्तान की कैद में था और उसी समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का उसे रिहा करने का ऐलान आया था. इस घोषणा से पूरे देश ने राहत की सांस ली.
पाकिस्तान और दुनिया में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के इस कदम की सराहना होने लगी थी. भारतीय प्रधानमंत्री ने यह बयान देकर साबित किया कि घृणा से गढ़े गए स्वभाव की तुच्छता किसी भी क्षण की गंभीरता और किसी पद की गरिमा से बाधित नहीं होती.
भटनागर पुरस्कार के अवसर का इस्तेमाल एक फूहड़ व्यंजना के माध्यम से जंगबाजी को उकसावा देने के लिए किया जाए, यह अपने आप में वितृष्णा पैदा करता है. उसके आगे, यह प्रधानमंत्री की क्रूर बेहिसी का भी सबूत है क्योंकि पायलट शब्द उस समय सिर्फ अभिनन्दन से ही जुड़ा हुआ था.
भारत की युद्ध में रणनीतिक हार के मौके को जीत में बदलने की यह दयनीय कोशिश है जिसमें प्रधानमंत्री और उनके दल का साथ भारत का लगभग सारा मीडिया दे रहा है.
इमरान खान के इस कदम को पाकिस्तान को पीछे हटने को बाध्य कर देने की भारतीय बहादुरी बताया जा रहा है जो कि यह कतई नहीं है.
पिछले दो दिनों में भारतीय सरकारी नेतृत्व सोया हुआ पाया गया. बालाकोट में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई की पहली खबर भी दुनिया को पाकिस्तान ने दी. उसी तरह भारतीय लड़ाकू जहाज को गिराए जाने और एक पायलट को पकड़ लेने की खबर भी भारत की जनता को पाकिस्तान से मिली.
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान जब देश के लोगों की सांसें अटकी हुई थीं, इस देश के प्रधानमंत्री अलग-अलग जगह भारत के करदाता के पैसे पर अपने दल का चुनावी प्रचार कर रहे थे.
इसे सबने नोट किया है कि 1971 के बाद पहली बार वायुसेना के पाकिस्तान की सीमा पार करने की घटना के बाद इस सरकार ने देश को सीधे कुछ भी बताना ज़रूरी नहीं समझा.
यह खबर पहले से ही तत्पर मीडिया के द्वारा उड़ाई गई कि वायुसेना की बमबारी में तीन सौ दहशतगर्द मारे गए हैं. अल जज़ीरा और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संचार माध्यमों ने ठीक बालाकोट जाकर जो रिपोर्ट की, उसमें किसी के मारे जाने का कोई सबूत या किसी बड़े दहशतगर्द ठिकाने के तबाह होने का कोई चिह्न नहीं मिला.
पाकिस्तान के एक रिपोर्टर ने एक मरे हुए कौवे को दिखलाकर कहा कि एक मौत ज़रूर हुई है! फिर भारत की जनता को क्यों धोखे में रखा जा रहा रहा था?
क्यों भारतीय वायुसेना की साख का इस तरीके से इस्तेमाल करने की कोशिश हुई? आखिर वायुसेना ने तो इस तरह का कोई आधिकारिक बयान दिया नहीं था?
मज़ा या विडंबना यह है कि यह सवाल करते ही प्रधानमंत्री के अनुचर शोर मचाने लगे कि इस तरह के सवालों से पाकिस्तान को फायदा होता है. क्या सच जानने का अधिकार जनता का नहीं है? वायुसेना की कार्रवाई एक बड़ा कदम थी. पूरी दुनिया में इस पर चिंता जाहिर की गई.
भारत के इस कदम का समर्थन किसी ने नहीं किया, लेकिन प्रधानमंत्री ने उसी समय राजस्थान के चुरू में इस अत्यंत संकटपूर्ण क्षण में गर्दन मटकाते, मुस्कराते हुए यह कहकर सस्ती फिकरेबाजी की कि आज लोगों का मिजाज़ बदला बदला नज़र आ रहा है. कुछ ऐसी ही बात तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी उन्होंने कही थी.
जिस समय भारत में लोग मिठाइयां खा रहे थे, उसका एक लड़ाकू पायलट पाकिस्तान की गिरफ्त में जा रहा था. भारत के लोगों को यह बात भी पाकिस्तान से मालूम हुई. लेकिन इस क्षण लगातार बोलनेवाले प्रधानमंत्री ने चुप्पी साध ली.
इस पूरे दौर में जब भारत के प्रधानमंत्री भारत की जनता से नहीं, अपने दल के कार्यकर्ताओं से ही बात कर रहे थे, तब पाकिस्तान का प्रधानमंत्री अपने देश को संबोधित कर रहा था. जब भारत के प्रधानमंत्री युद्धोन्माद उकसा रहे थे, तब इमरान खान अमन की अपील कर रहे थे.
ज़रूर उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव होगा लेकिन यह तो इतिहास में दर्ज हो गया कि इस समय भारत के नेतृत्व ने शांति की भाषा का स्वागत नहीं किया. भारतीय पायलट को रिहा करने का कदम उठाकर इमरान खान ने एक बड़ी राजनयिक बढ़त हासिल कर ली है.
इसे भारत का मीडिया इस तरह पेश कर रहा है मानो पाकिस्तान भारत के पराक्रम से डर कर पीछे हट रहा है. राष्ट्रवादी नशे में भी हमें इस तथ्य को याद रखना चाहिए कि यह ‘समझौतावादी’ कदम इमरान खान ने यह साबित करने के बाद उठाया कि अगर भारत के जहाज पाकिस्तान की सीमा पार कर सकते हैं तो पाकिस्तान भी उलट कर यह कर सकता है.
बल्कि भारतीय जहाज को मार गिराने और उसके एक लड़ाकू पायलट को पकड़कर अपनी सैन्य रणनीतिक कुशलता का प्रमाण भी उन्होंने अपनी जनता और दुनिया के सामने दे दिया. इसमें यह इशारा था कि अगर जंग छिड़ी तो वह एकतरफा न होगी और महंगी भी होगी, दोनों पक्षों के लिए.
इमरान खान के पहले राष्ट्रीय संदेश और फिर संसद में बयान की इस दरम्यान भारत के प्रधानमंत्री के वक्तव्यों से तुलना स्वाभाविक है. और उसमें इमरान ऊंची सतह पर हैं.
उन्होंने भाषा की उदात्त शक्ति का प्रयोग किया जब यह कहा कि युद्ध का अंत तय करना शुरू करने वाले के बस में न होगा. इससे पाकिस्तान का आतंकवादी समूहों को पालने और उन्हें शह देने का पाप धुलता नहीं लेकिन इस बयान से एक संकटपूर्ण क्षण में संकीर्ण राष्ट्रवादी प्रलोभन का संवरण करने का संयम और साहस तो दिखता ही है.
यह अवसर हम सब के लिए होश बनाए रखने का और हर सरकारी कदम की सख्त पड़ताल का है. क्या हमारी सेना का इस्तेमाल एक राजनीतिक दल के हितों के लिए किया जा रहा है?
क्या हर मोर्चे पर विफल रहने के बाद राष्ट्रवाद का कवच कुंडल पहनकर, सेना को आगे रखकर शासक दल अगला चुनावी युद्ध लड़ेगा? और क्या हम ऐसा होते देखते रहेंगे क्योंकि हम पर राष्ट्रद्रोही होने का आरोप लगने का खतरा है?
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं.)
साभार- द वायर