सबसे पहले ये समझना आवश्यक है कि, स्वाधीनता दिवस, या आज़ादी का दिन क्यों मनाया जाता है? आखिर ऐसा क्या था जिस से आज़ादी पाने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों को सदियों संघर्ष करना पड़ा? जबतक हम ये नहीं समझेंगे, तब तक पंद्रह अगस्त का महत्व नहीं समझ सकते हैं.
लोग कहते हैं अंग्रेज़ों से आजादी मिल गई, परन्तु अंग्रेज़ों के समय में क्या बुरा था जो समाप्त हो गया? उस समय भी रेलवे, पोस्ट ऑफिस, बैंक, पुलिस, कारखाने, उद्योग, शासन, प्रशासन, न्यायलय, कानून सबकुछ तो था! तो फिर किस आज़ादी के लिए संघर्ष हो रहा था?
तो समझ लीजिये,
1. उस समय राजतंत्र था, यानी राजा-रानी का शासन था, वही सबकुछ निर्णय करते थे, आम आदमी केवल प्रजा थी, शासन में उनकी किसी भी प्रकार की भागीदारी नहीं थी. इसलिए जो आदेश होता था, उसका पालन करना पड़ता था, चाहे वह उनके विरुद्ध ही क्यों न हो.
2. राजा, महाराजा, ज़मीनदार और नवाब लोग अंग्रेज़ों के लिए काम करते थे, और मुनाफे का थोड़ा हिस्सा उन्हें भी मिलता था. किसानो से खेती करवाई जाती थी, परन्तु किसान की अपनी जमीन नहीं होती थी, और उनसे लगान भी लिया जाता था.
3. सारे कमाई के साधन, उद्योग, जमीन, खेत, सबकुछ अंग्रेजों के राजा महाराजा नवाब और ज़मींदारों के ही हाथ में था, जो उच्च जाति के हुआ करते थे. निचली जाति, दलित, आदिवासी, मूलनिवासी, बहुजन इत्यादि केवल मजदूरी के इस्तेमाल किए जाते थे.
4. जंगलों में रहने वाले, वन निवासियों का भी जंगल पर कोई अधिकार नहीं था, वन विभाग के नाम पर सरकार ने उनसे सारे जंगल छीन लिए थे, वहाँ की लकड़ी और वन-सम्पदा, खनिज इत्यादि ठेके पर देकर धड़ल्ले से लूट मची हुई थी. देश विदेश में यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को बेच कर, लन्दन का खज़ाना भरा जा रहा था.
5. अपने अधिकार की बात करने वालों पर देशद्रोह (सिडीशन) का केस कर के उन्हें जेल में बंद कर दिया जाता था, या फँसी दे दी जाती थी.
6. तो कुल मिलाकर पैसेवालों की चांदी थी, आम जनता केवल अमीरों को, और भी अमीर बनाने के लिए काम करते थे.
7. आम जनता को बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम हुआ था, जिसमे लाखों लोगों ने 1857 से लेकर 1948 तक क़ुर्बानियां दी थीं.
8. बराबरी का मतलब था सम्पूर्ण बराबरी, महिला और पुरुष को बराबर के अधिकार, जातिप्रथा पर रोक लगाकर सभी नागरिक को एक समान अधिकार, सरकार बनाने में सभी नागरिकों की भागीदारी, एक व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार। अमीर-गरीब को एक समान अधिकार, सबको बराबरी का इन्साफ, किसानो को उनकी जमीन पर मालिकाना हक़, आदिवासी को उनके क्षेत्र पर अधिकार, बुनकर और मज़दूरों को उनके काम की सही आमदनी या सही पगार पाने का अधिकार, सबको पढ़ने, लिखने, अस्पताल, स्वास्थ्य, घर, रोटी, रोज़ी, और इज़्ज़त से रहने का अधिकार।
9. इन सारे अधिकार और कर्तव्यों को एक जगह लिखा गया है, जिसे हम संविधान कहते है, जो आज़ादी के दो साल बाद छब्बीस जनवरी 1950 को लागू किया गया था.
10. वैसे लिस्ट बहुत लम्बी है, इसलिए उक्त उदाहरण से समझा जा सकता है कि आज़ादी किस लिए ज़रूरी थी.
अब समझना ये है, कि हमलोगों के पुरखों ने जिस आज़ादी के लिए संघर्ष किया था, क्या हमें वैसी आज़ादी मिल पाई है?
क्या जाति प्रथा बंद हुई है? क्या किसानों को जमीन मिली है? क्या अमीरों द्वारा गरीबों का शोषण बंद हुआ है? क्या भारत की प्राकृतिक सम्पदा की लूट बंद हुई है? क्या महिलाओं और पुरुष में बराबरी हुई है? क्या मज़दूरों को सही वेतन मिल रहा है? क्या किसानों को उनकी मेहनत के जितना उपज का मूल्य मिल रहा है?
तो आपको बता दें, कि आज़ादी के दशकों बाद 2006 में जाकर वन संरक्षण अधिनियम पारित हुआ है, जिस से स्थानीय लोगों को भूमि पर अधिकार मिला, और आज भी अधिकतर वन विभाग ने ये अधिकार स्थानीय लोगों को पूरी तरह से नहीं दिया है. 2005 में जाकर हिन्दू महिलाओं को अपने परिवार की संपत्ति और जमीन में हिस्सा मिलने का का कानून पारित हुआ है. पितृसत्ता आज भी सक्रीय है, और आज़ादी के 74 वर्ष के बाद भी, सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं को संपत्ति के अधिकार का मुद्दा पिछले सप्ताह भी उठाया गया था, और स्वाभाग्यवश न्यायलय ने महिलाओं के अधिकार को माना।
लोग आज भी जाति के प्रति भेदभाव रखते हैं, आज भी अपने ही देश के नागरिकों को किसी न किसी बहाने मार डालने की परंपरा कायम है. आज भी गिने चुने उद्योगपति पूरे देश के उद्योग पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं, सरकारी कंपनी को बेच बेच कर उसका निजीकरण हो रहा है, और आज भी अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाने वालों को अंग्रेज़ों बनाए गए 'देशद्रोह (सिडीशन)' वाले कानून के तहत जेल में डाल दिया जा रहा है, आज सैकड़ों बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र छात्राएं, मज़दूर, आदिवासी, किसान जेल में केवल इसलिए बंद हैं, कि उन्होंने आज़ादी को लागू करने की, संविधान में दिए अधिकारों की बातें उठाई हैं.
आज भी सरकार पुलिस का दुरुपयोग कर रही है, कैमरे के सामने पुलिस वाले बेगुनाह लोगों को मार डालते हैं और न्यायालय उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करता है, परन्तु सोशल मीडिया पर छोटी सी आलोचना कर देने पर, सुप्रीम कोर्ट स्वयं कार्यवाही कर के, लोगों को डराने धमकाने का काम कर रहा है.
जब ये सब देखते हैं, तो लगता है कि विदेशी अँग्रेज़ तो चले गए, मगर अब देसी अँग्रेज़ वही काम कर रहे हैं, जिसके विरुद्ध स्वतंत्र संग्राम हुआ था.
कोरोना संकट के समय भूखे प्यासे गरीब मज़दूर पैदल जाते हुए मर रहे हैं, और अमीरों के लिए हवाई जहाज की सुविधा दी जा रही है. आज कोई गरीब को कोविड-19 हो जाए तो वह राम भरोसे जीता या मरता है, अमीरों के लिए फाइव स्टार अस्पताल सेवा में हाज़िर है. आज भी दलित, बहुजन, आदिवासी, किसान, अल्पसंख्यक ही देश में मेहनत का काम कर रहे हैं, मगर सरकार अधिकतर नीति केवल अमीरों के फायदे के लिए ही बना रही है. सरकारी बैंक अमीरों को दिए गए अरबों रुपियों के उधार को माफ़ कर देते हैं, और किसानों का ये हाल है, कि उधार वापस न करने की स्थिति में हर दिन आत्महत्या कर रहे हैं.
हमें ख़ुशी तो है कि हम अंग्रेज़ों से आज़ाद हो चुके हैं, परन्तु असली ख़ुशी तब होगी जब संविधान में लिखे सारे अधिकार सही मायनों में आम लोगों को मिल जाएँ, और जबतक ऐसा नहीं होगा, संघर्ष जारी रहेगा.
लोग कहते हैं अंग्रेज़ों से आजादी मिल गई, परन्तु अंग्रेज़ों के समय में क्या बुरा था जो समाप्त हो गया? उस समय भी रेलवे, पोस्ट ऑफिस, बैंक, पुलिस, कारखाने, उद्योग, शासन, प्रशासन, न्यायलय, कानून सबकुछ तो था! तो फिर किस आज़ादी के लिए संघर्ष हो रहा था?
तो समझ लीजिये,
1. उस समय राजतंत्र था, यानी राजा-रानी का शासन था, वही सबकुछ निर्णय करते थे, आम आदमी केवल प्रजा थी, शासन में उनकी किसी भी प्रकार की भागीदारी नहीं थी. इसलिए जो आदेश होता था, उसका पालन करना पड़ता था, चाहे वह उनके विरुद्ध ही क्यों न हो.
2. राजा, महाराजा, ज़मीनदार और नवाब लोग अंग्रेज़ों के लिए काम करते थे, और मुनाफे का थोड़ा हिस्सा उन्हें भी मिलता था. किसानो से खेती करवाई जाती थी, परन्तु किसान की अपनी जमीन नहीं होती थी, और उनसे लगान भी लिया जाता था.
3. सारे कमाई के साधन, उद्योग, जमीन, खेत, सबकुछ अंग्रेजों के राजा महाराजा नवाब और ज़मींदारों के ही हाथ में था, जो उच्च जाति के हुआ करते थे. निचली जाति, दलित, आदिवासी, मूलनिवासी, बहुजन इत्यादि केवल मजदूरी के इस्तेमाल किए जाते थे.
4. जंगलों में रहने वाले, वन निवासियों का भी जंगल पर कोई अधिकार नहीं था, वन विभाग के नाम पर सरकार ने उनसे सारे जंगल छीन लिए थे, वहाँ की लकड़ी और वन-सम्पदा, खनिज इत्यादि ठेके पर देकर धड़ल्ले से लूट मची हुई थी. देश विदेश में यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को बेच कर, लन्दन का खज़ाना भरा जा रहा था.
5. अपने अधिकार की बात करने वालों पर देशद्रोह (सिडीशन) का केस कर के उन्हें जेल में बंद कर दिया जाता था, या फँसी दे दी जाती थी.
6. तो कुल मिलाकर पैसेवालों की चांदी थी, आम जनता केवल अमीरों को, और भी अमीर बनाने के लिए काम करते थे.
7. आम जनता को बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम हुआ था, जिसमे लाखों लोगों ने 1857 से लेकर 1948 तक क़ुर्बानियां दी थीं.
8. बराबरी का मतलब था सम्पूर्ण बराबरी, महिला और पुरुष को बराबर के अधिकार, जातिप्रथा पर रोक लगाकर सभी नागरिक को एक समान अधिकार, सरकार बनाने में सभी नागरिकों की भागीदारी, एक व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार। अमीर-गरीब को एक समान अधिकार, सबको बराबरी का इन्साफ, किसानो को उनकी जमीन पर मालिकाना हक़, आदिवासी को उनके क्षेत्र पर अधिकार, बुनकर और मज़दूरों को उनके काम की सही आमदनी या सही पगार पाने का अधिकार, सबको पढ़ने, लिखने, अस्पताल, स्वास्थ्य, घर, रोटी, रोज़ी, और इज़्ज़त से रहने का अधिकार।
9. इन सारे अधिकार और कर्तव्यों को एक जगह लिखा गया है, जिसे हम संविधान कहते है, जो आज़ादी के दो साल बाद छब्बीस जनवरी 1950 को लागू किया गया था.
10. वैसे लिस्ट बहुत लम्बी है, इसलिए उक्त उदाहरण से समझा जा सकता है कि आज़ादी किस लिए ज़रूरी थी.
अब समझना ये है, कि हमलोगों के पुरखों ने जिस आज़ादी के लिए संघर्ष किया था, क्या हमें वैसी आज़ादी मिल पाई है?
क्या जाति प्रथा बंद हुई है? क्या किसानों को जमीन मिली है? क्या अमीरों द्वारा गरीबों का शोषण बंद हुआ है? क्या भारत की प्राकृतिक सम्पदा की लूट बंद हुई है? क्या महिलाओं और पुरुष में बराबरी हुई है? क्या मज़दूरों को सही वेतन मिल रहा है? क्या किसानों को उनकी मेहनत के जितना उपज का मूल्य मिल रहा है?
तो आपको बता दें, कि आज़ादी के दशकों बाद 2006 में जाकर वन संरक्षण अधिनियम पारित हुआ है, जिस से स्थानीय लोगों को भूमि पर अधिकार मिला, और आज भी अधिकतर वन विभाग ने ये अधिकार स्थानीय लोगों को पूरी तरह से नहीं दिया है. 2005 में जाकर हिन्दू महिलाओं को अपने परिवार की संपत्ति और जमीन में हिस्सा मिलने का का कानून पारित हुआ है. पितृसत्ता आज भी सक्रीय है, और आज़ादी के 74 वर्ष के बाद भी, सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं को संपत्ति के अधिकार का मुद्दा पिछले सप्ताह भी उठाया गया था, और स्वाभाग्यवश न्यायलय ने महिलाओं के अधिकार को माना।
लोग आज भी जाति के प्रति भेदभाव रखते हैं, आज भी अपने ही देश के नागरिकों को किसी न किसी बहाने मार डालने की परंपरा कायम है. आज भी गिने चुने उद्योगपति पूरे देश के उद्योग पर कब्ज़ा जमाए हुए हैं, सरकारी कंपनी को बेच बेच कर उसका निजीकरण हो रहा है, और आज भी अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाने वालों को अंग्रेज़ों बनाए गए 'देशद्रोह (सिडीशन)' वाले कानून के तहत जेल में डाल दिया जा रहा है, आज सैकड़ों बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र छात्राएं, मज़दूर, आदिवासी, किसान जेल में केवल इसलिए बंद हैं, कि उन्होंने आज़ादी को लागू करने की, संविधान में दिए अधिकारों की बातें उठाई हैं.
आज भी सरकार पुलिस का दुरुपयोग कर रही है, कैमरे के सामने पुलिस वाले बेगुनाह लोगों को मार डालते हैं और न्यायालय उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करता है, परन्तु सोशल मीडिया पर छोटी सी आलोचना कर देने पर, सुप्रीम कोर्ट स्वयं कार्यवाही कर के, लोगों को डराने धमकाने का काम कर रहा है.
जब ये सब देखते हैं, तो लगता है कि विदेशी अँग्रेज़ तो चले गए, मगर अब देसी अँग्रेज़ वही काम कर रहे हैं, जिसके विरुद्ध स्वतंत्र संग्राम हुआ था.
कोरोना संकट के समय भूखे प्यासे गरीब मज़दूर पैदल जाते हुए मर रहे हैं, और अमीरों के लिए हवाई जहाज की सुविधा दी जा रही है. आज कोई गरीब को कोविड-19 हो जाए तो वह राम भरोसे जीता या मरता है, अमीरों के लिए फाइव स्टार अस्पताल सेवा में हाज़िर है. आज भी दलित, बहुजन, आदिवासी, किसान, अल्पसंख्यक ही देश में मेहनत का काम कर रहे हैं, मगर सरकार अधिकतर नीति केवल अमीरों के फायदे के लिए ही बना रही है. सरकारी बैंक अमीरों को दिए गए अरबों रुपियों के उधार को माफ़ कर देते हैं, और किसानों का ये हाल है, कि उधार वापस न करने की स्थिति में हर दिन आत्महत्या कर रहे हैं.
हमें ख़ुशी तो है कि हम अंग्रेज़ों से आज़ाद हो चुके हैं, परन्तु असली ख़ुशी तब होगी जब संविधान में लिखे सारे अधिकार सही मायनों में आम लोगों को मिल जाएँ, और जबतक ऐसा नहीं होगा, संघर्ष जारी रहेगा.