हिंदू- मुस्लिम रिश्तों में प्रेम और घृणा साथ-साथ चलते रहे हैं

Written by Vibhuti Narain Rai | Published on: November 25, 2020
हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका उदभावना में पिछले दिनों छपे इस इंटरव्यू की काफ़ी चर्चा हुई है। यह भारत में बारह सौ वर्षों से अधिक समय से साथ-साथ रह रहे हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी रिश्तों को एक नये नज़रिए से देखने की कोशिश है। विभूति नारायण राय ने सीनियर पुलिस अफ़सर की हैसियत से भारतीय राज्य द्वारा मुसलमानों के साथ की जाने वाले ज़्यादतियों को नज़दीक से देखा है। अपनी अकादमिक दिलचस्पियों के चलते वे इतिहास में भी झाँकते हैं और इस सिलसिले में एक नयी बहस की शुरुआत करते दिखते हैं। यहां प्रस्तुत है उनका पूरा साक्षात्कार....



1. आपने 1980 के दशक में उपन्यास “शहर में कर्फ़्यू” लिखा था। उन दिनों जो हालात थे, आज आप उनमें क्या तब्दीली पाते हैं?

आपसे तय तो हुआ था कि हम भारतीय संदर्भ में सांप्रदायिक दंगों और उनके दौरान भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के बीच रिश्तों पर बात करेंगे। ख़ासतौर से हिंसा के दौरान राज्य के सबसे दृश्यमान अंग पुलिस द्वारा देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय मुसलमानों के साथ किया जाने वाला व्यवहार इस इंटरव्यू के केंद्र में होगा। पर मुझे लगता है कि पिछले सौ डेढ़ सौ सालों के दौरान आधुनिक अर्थों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हो रहे दंगों और उनके संदर्भ में राज्य की पक्षपाती भूमिका को समझना हो तो हमें काफ़ी पीछे से शुरू करना चाहिये।

भारतीय समाज एक जटिल यथार्थ है, उसे समझने के लिये हमें हज़ार वर्षों से अधिक साथ-साथ रह रहे हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी रिश्तों को समझना होगा। दुनिया के दो बड़े धर्मों के मानने वालों हिंदुओं और मुसलमानों ने इस लंबे संग-साथ के दौरान बहुत कुछ दुर्लभ रचा है। मनोहारी संगीत, अदभुत स्थापत्य, विलक्षण चित्रकला, दुर्लभ प्रदर्शन कलायें और अंदर तक तृप्त करने वाला पाक शास्त्र, बहुत कुछ ऐसा निर्मित हुआ इस संयोग से जिसने मानव जीवन को सुंदर बनाया। पर यह कहना सरलीकरण होगा कि इन दोनों बड़े धर्मों ने आपस में सिर्फ़ लेनदेन की है, सच्चाई यह है कि इनके मानने वाले आपस में लड़ते भिड़ते भी रहे हैं। इन लड़ाईयों का इतिहास भी अब 13 सौ साल पुराना हो गया है। दरअसल दोनोंं के बीच संघर्ष की गाथा कई अर्थों में निराली है। अमूमन यह संघर्ष धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक हर मोर्चे पर लड़ा गया है।

इतिहास में दर्ज हिंदू और मुस्लिम राजाओं के बीच सारे महत्वपूर्ण युद्धों में यह एक आम दृश्य होता था कि उभय पक्षों के सैनिकों में हिंदू और मुसलमान दोनों रहते। मुग़ल बादशाहों अकबर और औरंगज़ेब ने तो हिंदू राजाओं राणा प्रताप और शिवाजी के विरुद्ध अपनी सेनायें हिंदू सेनापतियों के नेतृत्व मे भेजीं।

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इस्लाम के आने के बाद वर्ण व्यवस्था की जकड़न वाले समाज का पहली बार समानता से बड़ा साक्षात्कार हो रहा था। लंबे समय से शिक्षा पर वर्चस्व के कारण सैद्धांतिकी निर्मित करने का एकाधिकार रखने वाले ब्राह्मण समझ नही पा रहे थे कि समानता के ख़िलाफ़ तर्क कैसे गढ़े जायें इसलिये, उन्होंने मुसलमानों को म्लेच्छ घोषित कर उनसे किसी तरह का संपर्क निषिद्ध कर दिया। शूद्र और अति शूद्र जातियों के लाखों लोगों को पहली बार मनुष्य की तरह जीने का अधिकार मिल रहा था और उन्होंने बड़ी संख्या में इस्लाम क़बूल कर लिया। यह तथ्य निर्विवाद है कि तलवार या पैसे से ज़्यादा सूफ़ियों के प्रभाव में धर्म परिवर्तन हुआ। इसी तरह इस्लाम भी अपनी दुनिया से बाहर किसी ऐसे धर्म से पहली बार टकरा रहा था जो न तो किसी आसमानी किताब का दावा करता था और न उसके पास कोई आख़िरी पैगंबर ही था। अभी तक इस्लाम की मुठभेड़ ईसाई और यहूदी धर्मों से हुई थी और इन तीनों के पास समान भूगोल और पुराण थे। उनसे संवाद के लिये तो उसने औज़ार गढ़ लिये पर एक ऐसे लचीले धर्म से, जो पेड़ पौधे या पशु पक्षियों तक की पूजा कर सकता था, संवाद करने के लिये भाषा गढ़ना उसके लिये भी मुश्किल था। मूर्ति पूजक हिंदुओं ने तो मुस्लिम क़ब्रों और मज़ारों को भी पूजना शुरू कर दिया। मेरी राय है कि अगर कहीं मोहम्मद साहब की तस्वीर या मूर्ति बनाने की इजाज़त होती तो हिंदू उनकी भी पूजा शुरू कर देता। यह एक रोचक लोकतंत्र था जो इतना समावेशी था कि किसी को भी अपना सकता था और ईसाइयों या मुसलमानों के पहले जितने लोग इसके संपर्क में आये सभी एक विराट हिंदू पहचान के अंग बन ही गये थे।

इस तरह इन दो बड़े धर्मों के बीच हज़ार वर्षों के दौरान बड़े दिलचस्प संबंध विकसित हुए। वे एक दूसरे के अग़ल बग़ल रहते थे और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में एक दूसरे पर इतने निर्भर थे कि तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद साथ रहना उनकी नियति जैसा था। पर वे, आम तौर से पूरी दुनिया में पड़ोसियों के बीच सबसे सहज रोटी और बेटी जैसे संबंध भी आपस में नही रखते थे। लगातार चलने वाले इन संघर्षों ने दोनों धर्मावलम्बियों के मध्य घृणा की हद तक पंहुचे अविश्वास की भावना भर दी थी। ख़ास तरह के पूर्वाग्रहों में दोनों गहरे डूबते उतराते रहते थे।

इन सब के बीच वे रचनात्मकता के क्षेत्र में ऐसा कुछ अदभुत रच रहे थे जिनका ऊपर ज़िक्र आया है और यही इन दोनों के बीच के सम्बन्धों को विशिष्ट बनाता है। इन दोनों ने मिलकर एक बड़ी ख़ूबसूरत भाषा का निर्माण किया जो दो लिपियों मे लिखी जाती है। यह खड़ी बोली थी जो फ़ारसी लिपि में लिखी जाकर उर्दू कहलाई और नागरी लिपि में यह हिंदी बनी। लिपियाँ अलग थीं पर व्याकरण एक। इसी कारण एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में यह जल्द ही संपर्क भाषा के रूप में व्यवहार मे आने लगी। फ़ौजी छावनियाँ, बाज़ार और कचहरियाँ इस भाषा को बरतने के मुख्य अड्डे थे। यह एक मिली जुली भाषा थी जिसमें अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली, फ़्रेंच, अंग्रेज़ी जैसी विदेशी भाषाओं के साथ साथ ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली या संस्कृत, मराठी समेत अनेक देशज भाषा / बोलियों के शब्द रच बस गये थे। पर यह साँझी भाषा भी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के मुसलसल चलने वाले शीत युद्धों से बच नही पायी।

अट्ठारवीं शताब्दी के अंत से शुरू होकर उन्नीसवीं शताब्दी में उरूज पर चढ़े मतरूकात नामक आंदोलन ने दृढ़ता से इस भाषा से, जिसे एक सामान्य स्वीकृत नाम उर्दू मिल गया था, ब्रज, अवधी या “भाखा” के शब्दों को निकाल देने का आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन के कर्ता धर्ता मानते थे कि सिर्फ़ अरबी और फ़ारसी के प्रयोग से ही उर्दू के इस्लामी चरित्र और भाषिक सौंदर्य को बचाया जा सकता है। मतरूकात का जवाब हिंदुओं ने मर्म पर प्रहार करके दिया। 2 मार्च 1898 को तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रदेश आगरा और अवध (नॉर्थ वेस्ट प्रॉविन्सेज़ ऑफ़ आगरा एंड अवध जो आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश बना) के लेफ़्टिनेंट गवर्नर मैकडानेल को इलाहाबाद में एक ज्ञापन दिया गया और अनुरोध किया गया कि वे कचहरियों में फ़ारसी लिपि के अलावा नागरी लिपि मे दरखास्तें देने की इजाज़त दें। इसी लेफ़्टिनेंट गवर्नर ने बिहार में अपनी तैनाती के दौरान वहाँ की अदालतों में नागरी लिपि के इस्तेमाल की इजाज़त दी थी। उस समय के इलाहाबाद हाईकोर्ट के वक़ील मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में आये प्रतिनिधिमंडल को आशा नहीं थी कि इतनी आसानी से उनकी माँग मान ली जायेगी। एक बार नागरी लिपि की इजाज़त मिलते ही खड़ी बोली हिंदू और मुसलमान में तकसीम हो गयी। नागरी में लिखी खड़ी बोली हिंदी और फ़ारसी लिपि मे लिखी खड़ी बोली उर्दू बन गयी ।

एक व्याकरण और साझी शब्द सम्पदा वाली खड़ी बोली संभवतः दुनिया की अकेली भाषा है जो दो लिपियों मे लिखी जाती है और दो नामों से जानी जाती है। मतरूकात आंदोलन का जवाब हिंदी वालों की तरफ़ से यूँ भी दिया गया कि सालों साल खड़ी बोली में कविता नहीं लिखी गयी। हिंदी आधुनिकता के जनक भारतेंदु हरिश्चन्द्र आमतौर से कविता ब्रज में और गद्य खड़ी बोली में लिखते थे। अगर उनकी चली होती तो संभवतः हिंदी दुनिया की अकेली भाषा होती जिसमें गद्य और पद्य का शब्द कोश अलग अलग होता। आज पढ़कर मनोरंजक लगेगा कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने अपनी एक विशेष बैठक में बाक़ायदा कवियों को खड़ी बोली में कविता लिखने की ‘अनुमति’ दी थी। यह तब जब सौदा, मीर, ग़ालिब या दाग़ जैसे श्रेष्ठ कवि खड़ी बोली में कालजयी शायरी कर रहे थे। 

1800 में पहली बार किसी शायर ने एक ज़ुबान के लिये उर्दू शब्द का इस्तेमाल किया –
खुदा रखे ज़ुबां हमने सुनी है मीरो मिर्ज़ा की 
कहें किस मुँह से हम ऐ मुसहबी उर्दू हमारी है


इसके पहले यह भाषा खड़ी बोली, दकनी, हिंदवी, उर्दू (लश्कर या छावनी की भाषा) या रेख़्ता जैसे कई नामों से जानी जाती थी। ग़ालिब तो अपने अंतिम समय तक ख़ुद को रेख़्ता का ही शायर कहते थे। कविता के लिये इससे सशक्त भाषा तत्कालीन उत्तर भारत में शायद ही कोई रही हो।

भारतेंदु या नागरी प्रचारिणी सभा का खड़ी बोली से परहेज़ काफ़ी हद तक साम्प्रदायिक हदों को छूता लगता है। भारतेंदु के जाने के बाद खड़ी बोली में कविता लिखी जाने लगी और कुछ ही दशकों में खड़ी बोली एक भाषा में तब्दील हो गयी और ब्रज भाषा से बोली बन गयी। भाषा विज्ञान में यह एक दिलचस्प अध्ययन का विषय रहा है कि कैसे एक बोली भाषा और एक भाषा बोली बन जाती है। यहाँ विस्तार से ज़िक्र करना प्रासंगिक नहीं होगा पर तथ्य यह है कि 1920 तक आते-आते नागरी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ी बोली ही हिंदी की पर्यायवाची बन गयी।

खड़ी बोली से हिंदी बनने की प्रक्रिया काफ़ी हद तक समावेशी थी। इस भाषा की शब्द सम्पदा में संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के अलावा बड़ी संख्या में अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मारवाड़ी जैसी बोलियों के शब्द जुड़े। अंतत: गद्य और पद्य दोनों खड़ी बोली में लिखे जाने लगे। पर अभी भी उस भाषा से परहेज़ बरक़रार था जिसमें अरबी, फ़ारसी, तुर्की या पुर्तगीज़ भाषाओं के शब्द थे। यह हिंदुओं का मतरूकात आंदोलन था जिसने बल दिया कि इन विदेशी भाषाओं के शब्द निकाल कर उनके स्थान पर संस्कृत स्रोत वाले तत्सम शब्दों का प्रयोग किया जाय। खड़ी बोली हिंदी कविता के पहले महत्वपूर्ण आंदोलन छायावाद की भाषा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत का यही समय था जब संस्कृत ठूँस कर एक नक़ली भाषा बनाई जा रही थी और तभी हिंदी हिंदू हिंदुस्तान का नारा भी सुनाई देने लगा था। वर्षों बाद जब प्रगतिशील आंदोलन मज़बूत हुआ तब जाकर संस्कृत को लेकर अतिरिक्त आग्रह ख़त्म हो सका और जनता के बीच बोली जाने वाली भाषा कविता की भाषा बन सकी।

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भाषा के प्रति आग्रह / दुराग्रह को हिंदी में शब्दकोशों की राजनीति से भी समझा जा सकता है। हिंदी का पहला बड़ा शब्दकोश उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में नागरिक प्रचारिणी सभा ने बनवाया था। मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि इसी के आस पास सभा ने ब्रज भाषा के साथ खड़ी बोली में भी कविता लिखने की ‘अनुमति’ दी थी, इसलिये यह स्वाभाविक है कि इस शब्द कोश में ब्रज के शब्दों की बहुतायत है। यह स्थिति धीरे धीरे बदलती है बाद के शब्द कोशों, यथा ज्ञानमंडल बनारस, साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद जैसे सांस्थानिक और फ़ादर कामिल बुल्के, हरदेव बाहरी जैसे व्यक्तिगत प्रयासों में ब्रज का अनुपात घटा और संस्कृत जनित तत्सम शब्द बढ़े।

संस्कृत के प्रति इस आग्रह का चरम डाक्टर रघुबीर के उस संपादकीय में मिलता है जो उनके नेतृत्व में भाषाशास्त्रियों के एक संपादक मंडल द्वारा निर्मित पारिभाषिक शब्दावली कोश के लिये लिखा गया था और जिसमें उन्होंने ठसके के साथ घोषित किया था कि हिंदी में तकनीकी और पारिभाषिक शब्दों का स्रोत तो सिर्फ़ संस्कृत ही हो सकती है। भारत सरकार ने हिंदी को राजभाषा घोषित कर दिया था और सरकारी कामकाज के लिये पारिभाषिक शब्द गढ़ने के लिये भाषा शास्त्रियों की कई कमेटियाँ बनाई गयीं थीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण नाम डाक्टर रघुबीर का है जिनकी राय उनके शब्दकोश की ऊपर उल्लिखित भूमिका में बड़ी स्पष्ट है। अपनी सोच के मुताबिक़ उन्होंने ऐसे क्लिष्ट तद्भव शब्दों की झड़ी लगा दी जिन्हें प्रयोग के लिये जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया। लौहपथ गामिनी या धूम्र दंडिका जैसे शब्द व्यवहार में तो क्या आते अलबत्ता उनका इस्तेमाल लतीफ़े गढ़ने के लिये ज़रूर हुआ। ख़ुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को कहना पड़ा कि आकाशवाणी से प्रसारित होने वाली ख़बरें उनकी समझ से परे होती हैं।

साहित्य में प्रगतिशील आन्दोलन के मज़बूत होने के साथ-साथ बोलचाल की भाषा के प्रति आग्रह बढ़ा। आज मीडिया – दोनों प्रिंट और इलेक्ट्रानिक– की भाषा यदि भारतेंदु युग या छायावाद के रचनाकार देखें तो शायद उन्हें विश्वास ही नहीं होगा कि कोई साहित्यिक कृति इतनी ‘भ्रष्ट’ भाषा में लिखी जा सकती है। इसी तरह आज पाकिस्तान में खड़ी बोली का अरबीकरण इस हद तक हो गया है कि उन्नीसवी और बीसवी सदी के पूर्वार्ध के लेखकों को उसे समझने और अपना मानने में दिक्कत ही होगी। मतरूकात आंदोलन जो अट्ठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दियों में नही कर सका, वह खड़ी बोली के दो मुल्कों में बँटते ही हो गया। पाकिस्तानी खड़ी बोली से संस्कृत, ब्रज, अवधी या मराठी जैसी भाषाओं / बोलियों के शब्द हटा दिये गये हैं और इब्ने इंशा जैसे गिने चुने गद्य लेखकों या फ़हमीदा रियाज़ जैसी शायरों की किन्हीं रचनाओं में इनका कोई शब्द आता है तो पाठकों का एक बड़ा तबक़ा चकित मुदित हो कर उन्हें दोहराता है पर ऐसे मौक़े कम ही आते हैं। एक उदाहरण बहुवचन या जमा का लें। 1947 में विभाजन के पहले के मस्जिदों, दफ़्तरों या काफ़िरों का प्रयोग अब मसाजिद, दफ़ातिर या कुफ़्फ़ार हो गया है। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाज बनाने वाले संविधान ने भारत में हिंदी को जनता के क़रीब आने में मदद की है।

इस समझ को विकसित करने के लिये किसी बड़े भाषाविद के प्रमाण की ज़रूरत नही है कि सिर्फ़ लिपि के फ़र्क़ ने खड़ी बोली को हिंदू हिंदी और मुसलमान उर्दू में बदल दिया है। बहुत से भाषाविदों की राय है कि यदि उर्दू नागरी लिपि में लिखी जाय तो इसकी पहुँच बढ़ जायेगी। मुझे नहीं लगता कि उर्दू भाषी इसे स्वीकार करेंगे। किसी भाषाशास्त्री ने सही ही कहा है कि लिपि को धर्म की ही तरह छोड़ना मुश्किल होता है। एक दिलचस्प स्थिति यह हो सकती है कि हिंदी और उर्दू रोमन लिपि में लिखी जाने लगे और उस पर हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को दिक्कत न होगी। एसएमएस या ईमेल में तो यह प्रयोग हो ही रहा है। हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार असग़र वजाहत ने रोमन के पक्ष में कुछ तर्क दिये हैं। यह लगभग वैसी ही रोचक स्थिति होगी जिसमें पिता को हिंदुओं ने कभी अब्बा और मुसलमानों ने पिता जी नहीं कहा पर पापा या डैडी संबोधन पर दोनों को गुरेज़ नही है, इसी तरह माँ को दोनों बिना किसी झिझक मम्मी कह सकते हैं।

एक नई भाषा की निर्मिति में हिंदू मुस्लिम रिश्तों ने क्या रोल अदा किया इसे समझने में एक ऐसे बड़े लेखक का ज़िक्र सहायक होगा जिसे दोनों लिपियों की खड़ी बोली अपना महत्वपूर्ण लेखक मानती हैं। इस महान लेखक का नाम प्रेमचंद है जिन्होंने अपने लिखने की शुरुआत फ़ारसी लिपि में की थी और आज भी उर्दू साहित्य के बहुत से इतिहासकार उन्हें आधुनिक उर्दू कथा साहित्य का जनक मानते हैं। फिर क्यों कुछ ही वर्षों में प्रेमचंद ने फ़ारसी छोड़ कर नागरी में पहले छपना शुरू कर दिया? यद्यपि बहुत सी रचनाओं को उन्होंने दोनों लिपियों में ख़ुद ही लिखा है और उनकी कालजयी कहानी कफ़न इसका बड़ा उदाहरण है जिसे उन्होंने मरने के एक साल पहले ही लिखा था, पर कुल मिलाकर लेखक वे हिंदी के ही कहलाये। मूल नाम धनपत राय का पहला कहानी संग्रह 1908 में सोज़े वतन के नाम से उर्दू में छपा। उल्लेखनीय है कि पाँच कहानियों के इस संग्रह के पहले उनके चार उपन्यास उर्दू में आ चुके थे। उन दिनों वे नवाब राय के नाम से लिखते थे। हिंदी में तब तक उनकी कोई पुस्तक नहीं छपी थी। वे सरकारी मुलाज़िम थे और सोज़े वतन को राजद्रोहात्मक मानकर, उसके छपने के बाद उन्हें बुलाकर अंग्रेज़ कलेक्टर ने डाँट पिलाई और हुकूमत ने छपी प्रतियाँ ज़ब्त कर लीं और इसी के साथ दो चीज़ें हुईं – पहली तो नवाब राय अब प्रेमचंद बन गये और दूसरी वे उर्दू छोड़ हिंदी में लिखने लगे।

उर्दू के कुछ लेखकों द्वारा उनपर एक आरोप यह लगाया गया कि उन्होंने पैसे के लिये भाषा बदली। हिंदी एक बड़ी भाषा थी और ख़ुद प्रेमचंद के शब्दों में “मैं हिंदी में इसलिये नहीं कहने ( लिखने ) लगा कि हिंदी वालों ने मुझ पर सोने की थैलियाँ निसार कर दीं…..” पर इस तथ्य का उन्होंने तथा उनके पुत्र और जीवनीकार अमृत राय ने कई जगह उल्लेख किया है कि उर्दू में शुरुआती दौर में छपी ज़्यादातर किताबें उनके अपने पैसे से छपी थीं। दया नारायण निगम को 25अक्टूबर 1919 को लिखे गये पत्र में उल्लेख है “हिंदी में पब्लिशर ख़ूब हैं। किताब की इशाअत (प्रकाशन) में कोई रुकावट नही होती।” उनके तमाम पत्र इस तथ्य को रेखांकित करते हैं।“ प्रेमबतीसी और प्रेमचालीसी के प्रकाशन के लिये प्रेमचंद ने स्वयं जेब से पैसे ख़र्च किये और हिंदी में प्रकाशक घर पर आकर दे जाते थे और चक्कर लगाते थे” (अली अहमद फ़ातमी को उर्दू मासिक सुहेल (गया) के लिये दिये गये इंटरव्यू में अमृत राय पर इतना सरलीकरण भी ठीक नही है कि हम मान लें कि सिर्फ़ आर्थिक कारणों से प्रेमचंद उर्दू छोड़ कर हिंदी में आये थे।
 
हमारे अध्ययन के लिये आवश्यक है कि हम इसकी भी पड़ताल कर लें कि क्या लेखन के माध्यम का यह बदलाव ‘मुसलमान’ उर्दू से ‘हिंदू’हिंदी में तो नहीं था? यह एक बड़ा संवेदनशील मुद्दा है और इससे पूरे जीवन हिंदू – मुस्लिम एकता के लिये लिखने वाले प्रेमचंद को सांप्रदायिक ठहराया जा सकता है जो प्रेमचंद के साथ बड़ी ज़्यादती होगी। उनका लेखन इस बात का गवाह है कि वे जीवन भर हिंदू मुस्लिम एकता के हामी थे और आज़ादी की लड़ाई में दोनों की संयुक्त भागीदारी को रेखांकित करते रहे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने अंत तक उर्दू में लिखना बंद नहीं किया। मृत्यु से एक वर्ष पूर्व 1935 में दिल्ली की ज़ामिया मिल्लिया इस्लामिया की पत्रिका के लिये अपनी कालजयी कहानी कफ़न उन्होंने उर्दू में पहले लिखी। बाद मे ख़ुद ही बहुत थोड़े से फ़र्क़ के साथ उसका हिंदी संस्करण भी तैयार किया। यह कोई संयोग नहीं था कि जीवन के अंतिम वर्ष 1936 में लख़नऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में उनका अध्यक्षीय भाषण उर्दू में ही हुआ था। ऐसा कैसे हो सकता था कि सिर्फ़ पैसे के कारण प्रेमचंद ने उर्दू छोड़ कर अपनी मुख्य पहचान हिंदी लेखक की बना ली हो।

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उनके तमाम पत्र, संस्मरण और पुत्र जीवनीकार अमृत राय की टिप्पणियाँ स्पष्ट करती हैं कि ‘हिंदू’ प्रेमचंद को ‘मुस्लिम’ उर्दू में वह सम्मान नही मिला जिसके वे हक़दार थे। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को 1 सितंबर 1915 को लिखे पत्र में प्रेमचंद की तडप दिखती है, “उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फ़ैज़ हुआ है जो मुझे हो जायेगा।” अली अहमद फ़ातमी को उर्दू मासिक सुहेल (गया) के लिये दिये गये इंटरव्यू में अमृत राय ने इस दर्द को समझने की कोशिश करते हुये कहा कि “हो सकता है कोई बात उनके दिल को बुरी लगी हो।………… अब हमारे पास कोई ऐसी मशीन नही है, कोई साधन नही है कि (हम समझ सकें) मुंशी जी की क़लम से ये वाक्य क्यों निकला और कहाँ से आया।” यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। यह हज़ार सालों के सम्बंधों की उसी विशिष्टता की ही परिणति थी जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया था। वे अलग अलग स्थानों पर ग़ैर मुस्लिम लेखक होने के कारण अपनी उपेक्षा की शिकायत करते रहते हैं। उन्हें दुःख है कि कर्बला पर नाटक लिखने पर उनकी प्रशंसा के स्थान पर उनकी भर्त्सना की जा रही है और वे चिढ़ कर कहते हैं, “अगर मुसलमानों को यह भी मंज़ूर नही है कि किसी हिंदू की ज़बानो–ओ–क़लम से उनके किसी मज़हबी पेशवा या इमाम की मदहसराई (स्तुति) भी हो तो मैं इसके लिये मुसिर (आग्रही) नही हूँ।” मौलाना शिबली के इस कथन कि, “भारत में आठ करोड़ मुसलमान बसते हैं, लेकिन इनमें दम नहीं कि इस काफ़िर से उर्दू ज़बान छीन लें”, पर स्वाभाविक रूप से उन्हें चोट पहुँचती है। धीरे धीरे वे मुख्य रूप से हिंदी के लेखक कहलाने लगते हैं बावजूद इसके कि मरते दम तक उर्दू में लिखना बंद नही करते। उर्दू से अपने प्रेम के कारण ही प्रेमचंद सारे अपमान और उपेक्षा के बावजूद कह सके, “मुसलमान चाहें तो बँटवारा कर लें, मुसलमान मुसलमानों के लिये लिखें और हिंदू हिंदुओं के लिये, लेकिन यह नहीं हो सकता कि हिंदू उर्दू लिखने – पढ़ने से किनारा कर लें और मुसलमानों की लिखी किताबों से संतोष कर लें।”

कुछ मुसलमान आलोचकों ने प्रेमचंद के उर्दू से हिंदी में जाने को साम्प्रदायिक फ़ैसला कहा है और कुछ ने तो इसकी जड़ें उनके आर्य समाज से जुड़ाव में तलाशी हैं। प्रेमचंद के साहित्य और जीवन के गंभीर शोधार्थियों के लिये इससे हास्यास्पद और कुछ नही हो सकता। मैंने ऊपर निवेदन किया ही है कि उनका सारा लेखन हिंदू मुस्लिम एकता और आज़ादी की लड़ाई में इन दोनों की साझी भागीदारी को रेखांकित करता दिखता है। अली अहमद फ़ातमी को दिये इंटरव्यू में अमृतराय ने कहा भी है कि आर्य समाजी होने के बावजूद प्रेमचंद ने शुद्धि आंदोलन का विरोध किया था। दरअसल प्रेमचंद को उर्दू में उचित सम्मान न मिलने, कुछ मुसलमान उर्दू लेखकों द्वारा उनकी उपेक्षा या चिढ़कर उनका यह कहना कि, “उर्दू नवीसी में किस हिंदू को फ़ैज़ हुआ है जो मुझे हो जायेगा”, वस्तुत: हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हज़ार साल साथ रहने के दौरान पनपे प्रेम और घृणा पर आधारित संबंधों की ही अभिव्यक्ति है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है।

हिंदू–मुस्लिम रिश्तों को समझने में जानबूझकर मैंने दो लिपियों में लिखी जाने वाली खड़ी बोली और उसके एक बड़े लेखक प्रेमचंद का ज़िक्र किया है। ये दोनों दुनिया के दो बड़े धर्मों के अनुयाइयों द्वारा मिलकर हासिल की गयी रचनात्मक उपलब्धियों और इन सब के बावजूद सम्बन्धों मे निरंतर बनी रहनेवाली एक ख़ास तरह तल्ख़ी की तरफ़ इशारा करते हैं।
 
इन जटिल रिश्तों की पेंचीदगियों को समझने के सिलसिले में एक दूसरे के बारे में उनकी भाषाओं में छिपी दुर्भावनाओं को देखना रोचक होगा। आमतौर से बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक हिंदुओं के बीच मुसलमानों के लिये म्लेच्छ या मलिच्छ शब्द का इस्तेमाल होता था और इसका उन दिनों का प्रचलित सामान्य अर्थ था गंदा या साफ़ सफ़ाई से परहेज़ करने वाला। हिंदू घरों में बच्चों की मुसलमानों को लेकर यही समझ विकसित होती थी। वैदिक संस्कृत में म्लेच्छ शब्द का मुख्य अर्थ था अस्पष्ट उच्चारण के साथ संस्कृत बोलने वाला। अन्य अर्थ थे– विदेशी, बर्बर या अनार्य आदि (सर मोनियर विलियम्स द्वारा संपादित संस्कृत - इंग्लिश शब्दकोश, प्रथम संस्करण 1899)। बाद में मुसलमानों के लिये प्रयुक्त होने पर इसका उपरोक्त वर्णित अर्थ ही रह गया और आज भी, पहले से कम ही सही, किसी मुसलमान को लेकर जो दुर्भावनाएँ हिंदू मन में हैं उनका बड़ा हिस्सा व्यक्तिगत साफ़ सफ़ाई को लेकर ही है।

आम तौर से हिंदू शब्द की उत्पत्ति को लेकर समझ बनी है कि यह शब्द सिंधु नदी के तट पर रहने वाले निवासियों के लिये पहली बार इस्लाम धर्मावलम्बियों द्वारा प्रयोग में आया। इसे प्रयोग में लाने का कारण यह बताया गया कि अरबी और फ़ारसी लिपियों मे स का उच्चारण ह होता है इसलिये इन भाषा भाषियों के लिये सिंधु को हिन्दु कहना स्वाभाविक था और यही कारण था कि उन्होंने सिंधु नदी के तट पर रहने वालों को हिंदू कहा। पर फ़ारसी और तुर्की के शब्दकोशों में हिंदू शब्द के जो अर्थ दिये गये हैं उनका तो तालमेल इस समझ से नहीं बैठता।

1964 में लख़नऊ से प्रकाशित फ़ारसी के शब्दकोश लुगत ए किश्वरी में हिंदू शब्द का अर्थ है – चोर, रहजन, ग़ुलाम, काले रंग वाला इत्यादि। शब्दकोश उर्दू फ़ीरोज़ उल लुगात (संस्करण 1987), जो उर्दू का एक प्रामाणिक शब्दकोश माना जाता है, ने थोड़ी रियायत     की। उसने उर्दू में तो हिंदू शब्द का मतलब दिया है हिंदुस्तान का बाशिंदा, हिंदुस्तानी, हिंदी, माशूक़ के रूखसार का तिल, खाले सियाह, ज़ुल्फ़े माशूक़ पर साथ में यह भी उल्लेख किया है कि तुर्की भाषा में इस शब्द का मतलब है चोर, लुटेरा, रहजन और फ़ारसी में इसका अर्थ है ग़ुलाम, आज्ञाकारी सेवक, सियाह फ़ाम (काले रंग वाला) आदि। ये सारे अर्थ आज छपने वाले संस्करणों में भी उपलब्ध हैं। 

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यदि हम यह मान लें कि फ़ारसी और तुर्की भाषाओं में हिंदू शब्द और उसके अर्थ उनके भारतीय भूभाग में प्रवेश के पहले से ही प्रचलित थे तो फिर सिंधु से हिंदू बनने वाली अवधारणा ग़लत है और भारत में आने के बाद अगर ये अर्थ इन भाषाओं के अंग बने तो निश्चित ही इनका संबंध हिंदुओं और मुसलमानों के साथ साथ रहने और उनके बीच पल रही प्रेम और घृणा से उपजी उन दुर्भावनाओं से है जिनका ऊपर ज़िक्र आया है ।

इस लम्बी चौड़ी भूमिका के बाद आख़ीर में आपके प्रश्न की तरफ़ वापस आता हूँ। शहर में कर्फ़्यू 1980 के दशक में लिखी गयी थी, तब से हालात और बिगड़े हैं। उन्हीं दिनों उरूज पर पहुँचे रामजन्म भूमि आंदोलन ने भारतीय समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बहुत तेज़ कर दिया है और उस आंदोलन के फलस्वरूप जो राजनैतिक परिवर्तन हुए उनके फलस्वरूप भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते अधिक ख़राब ही हुए हैं।


2. आपने वर्षों पहले एक फ़ेलोशिप के तहत काम करते हुये पाया था कि  दंगों में मरने वालों में ज़्यादातर मुसलमान होते हैं। फिर भी उन्हीं की गिरफ़्तारियाँ भी अधिक होती हैं, उन्हीं के घरों की तलाशियाँ भी अधिक होती हैं और उन्हीं के इलाक़ों मे कर्फ़्यू भी अधिक सख़्ती से लगाया जाता है।

मैंने ऊपर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बने रिश्तों में जिन अन्तर्विरोधों का ज़िक्र किया है उन्ही की उपज वह समझ है जिस के आधार पर वे एक दूसरे के बारे मे राय बनाते हैं। मसलन एक औसत हिंदू अपने मुस्लिम पड़ोसी के बारे में क्या सोचता है? उसकी नज़र में मुसलमान अमूमन गंदा होता है, नहाता नहीं है, आदतन धोखेबाज़ है, उसकी बात पर यक़ीन नही किया जा सकता और अब पाकिस्तान बन जाने के बाद तो वह ‘देशद्रोही’ और ‘पाकिस्तानी’ भी हो गया है। मुसलमानों के बारे में दुराग्रह हिंदुओं का एकाधिकार नहीं है, मुसलमान भी हिंदुओं के बारे में ऐसे ही दुराग्रह रखते हैं। एक हिंदू परिवार में पैदा होने वाला बच्चा हिंदू मुस्लिम दंगों को लेकर कैसे सोचता है? दंगों की ख़बरें पढ़ / सुनकर दो चीज़ें एकदम से उसके मन में आती हैं – एक तो दंगा मुसलमानों ने शुरू किया होगा और दूसरा उसमे ज़्यादातर हिंदू मरे होंगे। लगभग इसी तरह की राय मुस्लिम भी रखते हैं – शुरुआत हिंदुओ ने की होगी और जानमाल का नुक़सान मुसलमानों का हुआ होगा। मैं जब हाशिमपुरा पर केंद्रित अपनी किताब पर काम कर रहा था, मैंने दंगे के महीने मई 1987 के दौरान मेरठ से छपने वाले हिंदी और उर्दू के अख़बारों का अध्ययन किया तो दोनों समुदायों के बीच मौजूद अंतर्विरोधों को दिलचस्प रिपोर्टिंग के ज़रिये समझने का मौक़ा मिला। मैंने पाया कि एक ही घटना की रिपोर्टिंग दोनों भाषाओं में इतनी भिन्न होती थी कि यह अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल था कि हम एक ही घटना के बारे मे पढ़ रहे हैं। हाशिमपुरा से 42 मुसलमानों को पीएसी अपने ट्रक में भर कर लाई और ग़ाज़ियाबाद की सीमा के अंतर्गत दो स्थानों पर उन्हें मार दिया। देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर इतनी जघन्य घटना घट गयी और मेरठ से छपने वाले हिंदी के दो राष्ट्रीय दैनिकों ने इस की ग़लत रिपोर्टिंग की और उनका पूरा प्रयास इस वारदात की गंभीरता को छिपाने में रहा।

मैंने अपनी फ़ेलोशिप के दौरान दंगों की शुरुआत और उसमें होने वाले नुक़सान की अवधारणा को जाँचने की कोशिश की। अकसर विवरणों में इतनी भिन्नता होती है और सरकारी दस्तावेज़ों को भी पूरी तरह से वस्तुपरक नही कहा जा सकता, इस लिये ज़्यादातर दंगों के बारे में यह पूरे निश्चय से नही कहा सकता कि उनकी शुरुआत किस ने की पर दंगों में कौन अधिक मरा इसका पता लगाना मुश्किल नही है। फ़ेलोशिप में आज़ादी के बाद के पहले बड़े साम्प्रदायिक दंगे 1961 के जबलपुर से लेकर 1994 तक लगभग सभी उल्लेखनीय दंगों को मैंने अपने अध्ययन में सम्मिलित किया था। मैंने सिर्फ़ सरकारी स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं पर यक़ीन किया। इनमें केंद्रीय गृह मंत्रालय या राज्यों के गृह विभागों, विभिन्न दंगों की जाँच के लिये नियुक्त न्यायिक आयोगों के आंकड़ों, मानवाधिकार या अल्पसंख्यक आयोगों के रिकार्ड या कई मामलों मे स्थानीय पुलिस थानों मे उपलब्ध आँकड़े सम्मिलित थे। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि लगभग सभी दंगों में मरने वालों में अधिक मुसलमान थे बल्कि ज़्यादातर में तो दो तिहाई से अधिक वे ही थे। इसके बावजूद दंगों के दौरान, शुरू होने के पहले या ख़त्म होने के बाद राज्य ने जो कार्यवाही की वह भी आमतौर से मुसलमानों के विरुद्ध ही हुई। यही बाद के दंगों में होता चला आ रहा है। अर्थात दंगा शुरू होने से पहले निरोधात्मक कार्यवाही मुख्यतः उन्हीं के ख़िलाफ़ होती है, दंगों के दौरान अधिकतर तलाशियों और गिरफ़्तारियों के शिकार भी वे ही होते हैं और दंगों के बाद मुक़दमों तथा मुआवजों के मामलों मे भी उनके ही साथ अन्याय होता है। पुलिस कंट्रोल रूम में होने वाली बातचीत में आप ‘हम’ और ‘वे’सुनना मेरे अपने अनुभव मे एक सामान्य सी बात है।

एक औसत पुलिसकर्मी 18 से 25 साल की उम्र तक सेवा का अंग बन जाता है और यह काफ़ी हद तक आसानी से प्रभावित हो सकने वाली उम्र होती है। वह अपने साथ भारतीय समाज के अंदर काफ़ी गहरे पैठे पूर्वाग्रहों को अपने साथ लेकर सेवा में प्रवेश करता है। उसे बचपन से सिखाया गया है कि मुसलमान स्वभाव से ही हिंसक होता है, वह धूर्त और अविश्वसनीय भी है और ऊपर से तुर्रा यह कि अपने घरों में चाक़ू, छुरे, बंदूक़, पिस्तौल रखता है। इसके बरक्स हिंदू तो स्वभाव से ही उदार, अहिंसक और धर्मभीरू होता है। वह चींटी को भी आटा खिलाता है किसी मनुष्य की जान क्या लेगा? इन पुष्ट धारणाओं के साथ पुलिस का अंग बनने वाले ये नौजवान स्वाभाविक ही है कि अपने मन में बहुत स्पष्ट हैं कि दंगा‘क्रूर’मुसलमान शुरू करता है और उसमें नुक़सान ‘धर्म भीरू’ हिंदुओं का होता है। इसलिये जब उसे दंगों को सख़्ती से कुचलने का आदेश मिलता है तो उसका मस्तिष्क एक सरल सा संदेश गृहण करता है कि मुसलमानों के साथ सख़्ती करो क्योंकि इसमें तो उसे कोई शक है ही नहीं कि दंगा मुसलमानों ने ही शुरू किया होगा। मेरठ का हाशिमपुरा कांड इसी मानसिकता की उपज है जहाँ पूरी तरह से आश्वस्त कि मेरठ ‘मिनी पाकिस्तान’ बन गया है और मेरठ को क़ाबू करने के लिये सख़्ती करनी होगी, स्वाभाविक था कि इस सख़्ती का मतलब मुसलमानों से सख़्ती से लिया गया। नतीजा यह निकला कि पीएसी ने बयालीस मुसलमानों को उनके घरों से उठाया और उन्हें ग़ाज़ियाबाद की दो नहरों के किनारे उतार कर मार दिया। यही मानसिकता दूसरे दंगों में भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा पुलिस कार्यवाही के लिये ज़िम्मेदार होती है।

इसी मानसिकता के तहत जब दंगों के ज़िम्मेदारों के ख़िलाफ़ कार्यवाही का सिलसिला शुरू होता है तो ठीकरा मुसलमानों के सर पर ही टूटता है। उन दंगो में भी जहाँ नुक़सान सिर्फ़ या ज़्यादातर मुसलमानों का हुआ होता है वहाँ भी गिरफ़्तारियाँ ज़्यादातर उनकी हुईं, उन्हीं के घरों की तलाशियाँ ली गयीं और मुक़दमे भी उन्ही पर चले। दंगा प्रबंधन से जुड़े लोगों की समझ बड़ी स्पष्ट है कि दंगे ‘हिंसक’ मुसलमान शुरू करते हैं और स्वभाव से ‘अहिंसक’ हिंदू इनमें शिकार होता है। इसलिये स्वाभाविक है कि कार्यवाही की मार मुसलमान झेलते हैं। यह मानसिकता उन्हीं संबंधों की उपज है जो पिछले हज़ार वर्षों के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विकसित हुई है।

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1947 में देश का विभाजन इस स्थापना के आधार पर हुआ था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और साथ नहीं रह सकते। भारत के तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व ने इसे मानने से इंकार कर दिया था। यह एक बड़ा फ़ैसला था क्योंकि यह फ़ैसला उस कत्लो गारत के बावजूद लिया गया था जो विभाजन के दौरान हुआ और जिसकी वजह से एक करोड़ से अधिक लोगों को विस्थापन या प्रियजनों से हमेशा के लिये बिछड़ने का दर्द झेलना पड़ा था। उन परिस्थितियों में जब देश दो क़ौमी नज़रिए के आधार पर विभक्त हुआ था, बग़ल में एक धर्माधारित इस्लामी गणराज्य बन गया था, देश में सांप्रदायिक उन्माद अपने चरम पर था; यह बड़ा आसान और स्वाभाविक होता कि भारत एक हिंदू राज बन जाता। पर यह नही हो पाया सिर्फ़ उस फ़र्क़ से जो मुस्लिम लीग और कांग्रेस के नेतृत्व के बीच था। 

मुस्लिम लीग का नेतृत्व सामंती और ताल्लुकेदार पृष्ठभूमि से आता था, उसका आम जनता से कोई रिश्ता नहीं था और मज़हबी कठमुल्ला राजनीति वैधता हासिल करने के लिये उसकी मजबूरी थी। इनके बरक्स कांग्रेस नेतृत्व की पृष्ठभूमि बड़ी दिलचस्प थी। यह पार्टी एक ढीले ढाले मंच जैसी थी। उसमें हिंदू महासभाई भी थे, कम्युनिस्ट भी थे, सोशलिस्ट भी थे और केंद्र में गांधीवादी थे जो बहुत सी अमूर्त धारणाओं में यक़ीन रखते थे। यही कारण था कि विभाजन के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार का एक बड़ा मुस्लिम नेतृत्व जो पाकिस्तान आंदोलन की रीढ़ था, रातोंरात कांग्रेस में शामिल हो गया। कांग्रेसी नेतृत्व में महत्वपूर्ण हैसियत वाले अधिकतर नेता विलायत से पढ़कर आये थे और एक उदार और आधुनिक लोकतंत्र से प्रभावित थे। यह लोकतंत्र इस अर्थ में तो औपनिवेशिक था कि इसने देशी उद्योग धंधों को नष्ट कर लूट के धन से ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को समृद्ध किया या अपनी लड़ाई में दुनिया भर भारतीय सैनिकों को लड़ाता रहा पर यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे शासकों ने ही पहली बार देश में एक ऐसी उदार सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था की थी जो धर्म से कुछ दूरी रखकर विवेक और तर्क को तरजीह देती थी और इस आधुनिक शिक्षा ने गांधी, नेहरु से लेकर दूसरे प्रतिभा शाली भारतीयों को न सिर्फ़ औपनिवेशी अर्थशास्त्र और राजनीति को समझने की दृष्टि दी बल्कि उन्हें उपनिवेशवाद से लड़ने में मदद भी की। इन विलायत पलट लोगों में ज़्यादातर ने भारत में लौटकर कांग्रेस को एक उदार लोकतांत्रिक नेतृत्व प्रदान किया। इसी नेतृत्व ने 1947  के रक्तरंजित बंटवारे के दौरान भी भारत को हिंदू राज न बनाकर एक धर्म निरपेक्ष भारत बनाने का निर्णय लिया था।

रामचन्द्र गुहा ने अपनी किताब इंडिया आफ़्टर गांधी में विस्तार से लिखा है कि 1950 में एक धर्मनिरपेक्ष संविधान लागू कराने के बाद कैसे जवाहर लाल नेहरू ने उसे जनता से स्वीकृति दिलाई। नये संविधान के अनुसार 1952 में पहला आम चुनाव होना था जो एक तरह से धर्मनिरपेक्षता पर जनमत संग्रह भी होता। हमें याद रखना चाहिये कि 1950 के समाप्त होते होते महात्मा गांधी और सरदार पटेल इस दुनिया में नही रह गये थे नेहरू अकेले ऐसे जन नेता थे जिनके कंधों पर जनता का समर्थन हासिल करने की ज़िम्मेदारी थी। 1951 का वर्ष चुनाव प्रचारों का वर्ष था और साल भर के दौरान नेहरू ने लगभग तीन सौ जन सभाएँ कीं। उन दिनों की यातायात की दुशवारियों को देखते हुये समझा जा सकता है कि कितना मुश्किल रहा होगा प्रधानमंत्री का इस विविधतापूर्ण उप महाद्वीप का चक्कर लगाना। वे  सड़कों के रास्ते गये, रेलवे का इस्तेमाल किया, हवाई मार्ग़ों से सफ़र किया और कुछ दुर्गम इलाक़ों में तो स्टीमर से भी पहुँचे। इस से भी दुष्कर था भाषिक विविधताओं वाले इस मुल्क में जहाँ साक्षरता का प्रतिशत बहुत ही कम था, जनता को यह समझाना कि धर्म निरपेक्षता क्यों उनके और देश की एकता के लिये ज़रूरी है। इन चुनावों के पहले ही हिंदुत्व के समर्थक तीन राजनैतिक दल क़ायम हो चुके थे। इनमें सबसे पुराना दल था हिंदू महासभा जो 1915 में अस्तित्व में आया था, उसके बाद 1948 में रामराज्य परिषद की स्थापना हुई और इन सबसे अलग 1950 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के फ़्रंटल संघठन के रूप में आज की भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ की स्थापना भी हो गयी थी। तीनों ने अलग अलग चुनाव चिन्हों पर चुनाव ज़रूर लड़ा पर उनका उद्देश्य एक ही था – नव स्वतंत्र भारत में हिंदू पद पादशाही की स्थापना करना। परिणामों ने संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर मोहर लगा दी। पहला स्थान हासिल करने वाली कांग्रेस को 364 और दूसरे स्थान पर खड़ी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 16 सीटें मिलीं। हिंदू राज की हामी तीनों पार्टियाँ मिला कर भी सिर्फ़ 9 स्थान हासिल कर सकीं। इस तरह संविधान तो धर्मनिरपेक्ष बन गया पर क्या वास्तव में देश धर्मनिरपेक्ष बन सका?

भारत के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में आज़ादी के बाद जो कुछ घटा उसका अध्ययन इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने में सबसे अधिक मदद गार होगा। उत्तर प्रदेश का अध्ययन हिंदू- मुस्लिम रिश्तों को समझने के लिये इस अर्थ में भी आवश्यक है कि अविभाजित भारत के बंगाल या पंजाब के अलावा यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ (आम ज़ुबान में यूपी या आज का उत्तर प्रदेश) और बिहार ही मुस्लिम रचनात्मकता के सबसे बड़े केंद्र रहे हैं। 1947 का विभाजन एक अर्थ में तो बंगाल और पंजाब का ही विभाजन था। पाकिस्तान का भाग बने सिंध और पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत (आम ज़ुबान में फ़्रंटियर) पूरे के पूरे पाकिस्तान में गये और यूपी या बिहार जहाँ से मुस्लिम लीग के नेतृत्व का बड़ा हिस्सा आता था, पूरे के पूरे भारत में रह गये। इनमें से यूपी जो पाकिस्तान आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा था, हिंदू साम्प्रदायिकता के उभार का बड़ा केंद्र बना।

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दिल्ली में नेहरू जैसा राष्ट्रीय नेतृत्व एक धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाने का प्रयास कर रहा था, वहीं यूनाइटेड प्रविंसेज के नेता गोविंद वल्लभ पंत क्या सोच रहे थे, यह जानना बड़ा दिलचस्प होगा। दो उदाहरण ही काफ़ी हैं। आज़ादी के फ़ौरन बाद यह समस्या आयी कि यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ का नया नाम क्या रखा जाय और पंत जी की अगुवाई वाली असेंबली ने नाम सुझाया ‘आर्यावर्त’! जवाहर लाल नेहरू की झिड़की के बाद नया नाम रखा गया उत्तर प्रदेश, इससे पुराना संक्षिप्त रूप यूपी बच भी गया। उनका दूसरा बड़ा कारनामा अयोध्या के बाबरी मस्जिद– राम जन्मभूमि विवाद को एक ऐसे नासूर के रूप में जीवित कर देना था जो अगले 70 सालों तक रिसता रहा और जिसने एक घटना के रूप में देश के धर्म निरपेक्ष ढाँचे को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचाया। सरदार पटेल और पंडित नेहरू के व्यक्तिगत निर्देशों के बावजूद यूपी के तत्कालीन प्रीमियर (मुख्यमंत्री को उन दिनों इसी नाम से पुकारा जाता था) गोविंद बल्लभ पंत ने मस्जिद परिसर में बल पूर्वक रखी गयी मूर्ति नही हटवाई और अब तो सब कुछ इतिहास का भाग है। इस मानसिकता से जो पाठ्यपुस्तकें तत्कालीन उत्तर प्रदेश में लिखी गयीं वे किसी भी तरह से एक आधुनिक और धर्म निरपेक्ष मन बनाने में समर्थ नही थीं। लखनऊ की शिक्षाविद रूपरेखा वर्मा ने विस्तार से अध्ययन किया है कि कैसे बच्चों को पढ़ाई जाने वाली ये पाठ्य पुस्तकें उनके मन में स्त्रियों, दलितों और मुसलमानों की ख़राब छवि गढ़ती थीं।

उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति कमोबेश सभी राज्यों में थी। एक तरफ़ तो हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता की बातें कर रहा था और दूसरी तरफ़ शिक्षा, जो राज्यों के अधीन थी, एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रही थी जो अवैज्ञानिक और असहिष्णु थी। उर्दू का धीरे धीरे नामो निशान मिटा दिया गया। सरकारी नौकरियों ख़ास तौर से पुलिस में अपनी आबादी के मुक़ाबले मुसलमानों का प्रतिशत बहुत कम रह गया। इस तरह हम कह सकते हैं कि ऊपर से चमचमाती दिखती इमारत की नींव बड़ी कमज़ोर थी। 

उपरोक्त अंतर्विरोधों के नतीजे बड़े साफ़ रहे। 1961 में दंगो का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया। विभाजन के बाद पहला बड़ा सांप्रदायिक दंगा जबलपुर में हुआ और उसके बाद तो हर साल छोटे बड़े दंगे देश के अलग अलग हिस्सो में होते रहे हैं। सांप्रदायिक हिंसा की हर घटना मे एक तथ्य सामान्य रूप से प्रकाश मे आता है । हर दंगे के बाद अल्पसंख्यकों ने पुलिस पर ज़्यादती और पक्षपात के आरोप लगाये हैं। ऊपर जिस फ़ेलोशिप का ज़िक्र आया है, वह मुझे राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद ने दी थी और इसके तहत मुझे हिंदू मुस्लिम संघर्षों के दौरान पुलिस की निष्पक्षता की अवधारणा पर काम करना था। इस काम के सिलसिले में मुझे देश के दस बड़े दंगों का नज़दीक से अध्ययन करने का मौक़ा मिला था। मैं यह देख कर चकित रह गया कि बिना किसी अपवाद के हर दंगे में ज़्यादा नुक़सान मुसलमानों का हुआ था, वे ही अधिक मारे गये, उन्हीं की संपत्ति लूटी या जलाई गयी और उस पर विडंबना यह कि पुलिस की कार्यवाही का दंश भी अधिकतर उन्हीं को झेलना पड़ा। उन्हीं की अधिक गिरफ़्तारियाँ हुईं, ज़्यादातर उन्हीं के घरों की तलाशियाँ ली गयीं और न्यायिक प्रक्रिया भी उन्हीं के खिलाफ गयी।

मैंने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि जहाँ दंगों के दौरान हिंदुओं के मन में एक औसत पुलिसकर्मी की छवि रक्षक मित्र की बनती है वहीं एक दंगा पीड़ित मुसलमान आम तौर से उसे अपना शत्रु मानता है। अध्ययन के दौरान मेरे इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या दंगों के दौरान जब उनकी जान माल ख़तरे मे हो तो वे मदद माँगने के लिये पुलिस के पास जाना चाहेंगे, लगभग शत प्रतिशत मुसलमानों ने नहीं में उत्तर दिया। यह प्रतिक्रिया उनके ज़मीनी अनुभवों पर ही आधारित थी और एक ख़तरनाक संभावना की तरफ़ इंगित कर रही थी। पुलिस पर अविश्वास भारतीय राज्य पर अविश्वास जैसा है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा के दौरान शुरुआत में तो पुलिस ही भारतीय राज्य होती है। एक बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के भारतीय राज्य पर अविश्वास के क्या नतीजे निकलेंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।


3. अभी हाल में बीबीसी ने एक वीडियो ज़ारी किया है जिसमें दिखाया है कि पुलिस ख़ुद भीड़ के साथ मुसलमानों पर पत्थर मार रही है। फिर उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है।

इस वीडियो से मुझे तो कोई आश्चर्य नही हुआ। मैंने ऊपर निवेदन किया है कि सांप्रदायिक दंगों के दौरान हिंदू पुलिस को अपना मित्र और संरक्षक मानते हैं और इसके बरक्स मुसलमानों के मन में उनकी छवि शत्रु जैसी है। ये दोनों प्रतिक्रियाएँ ठोस ज़मीनी यथार्थ की उपज है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि दंगा शुरू तो हिंदू और मुसलमान के बीच होता है पर जल्द ही पुलिस, जिसका काम दोनों के बीच झगड़ा रोकना होना चाहिये, ख़ुद भी एक पक्ष बन जाती है। फिर झगड़ा हिंदू बनाम मुस्लिम नहीं वरन हिंदू+पुलिस बनाम मुस्लिम हो जाता है। बीबीसी के इस वीडियो में भी पुलिस के साथ नागरिकों की एक भीड़ है और सामने मुसलमानों का जमावड़ा है और दोनों पक्ष एक दूसरे पर पथराव कर रहे हैं। दंगों के दौरान मुझे अक्सर हिंदुओं के मोहल्ले मे सुनने को मिला है कि अगर पुलिस उनकी मदद के लिये न आ जाय तो मुसलमान उनका जीना हराम कर देंगे। यह उसी धारणा का विस्तार है जिसके तहत हिंदू तो स्वभाव से ही उदार और सहिष्णु होता है और चींटियों को भी आटा खिलाता है जब कि मुसलमान तो होता ही है क्रूर और हिंसक। इस धारणा के मुताबिक़ पुलिस उनकी मित्र होती है और उनकी रक्षा करती है। इसी धारणा के अनुरूप वे और पुलिस मिलकर मुसलमानों का ‘मुक़ाबला’ करते हैं। आप दंगों के दौरान अक्सर पायेंगे कि देर तक ड्यूटी करने के बाद पुलिस कर्मी हिंदू मोहल्लों में आराम करते हैं और हिंदू घरों से उनके लिये चाय पानी का इंतज़ाम होता है। इसके बरक्स मुस्लिम इलाक़े पुलिस के लिये किसी ‘शत्रु क्षेत्र’ जैसे बन जाते हैं जहाँ इक्का दुक्का पुलिसवाले जाने से डरते हैं। 


4. जिन पुलिस अफ़सरों ने दंगों में ग़लत भूमिका निभाई, उन्हें कोई सज़ा नहीं दी जाती है जबकि गुजरात में जिन्होंने मुसलमानों को बचाने की कोशिश की, उन्हें सज़ा दी गई।

सही है, आमतौर से बहुत कम मौक़ों पर दोषी पुलिस अफ़सरों को सज़ा दी जाती है। कुछ तो बहुत बड़े मामले हैं जैसे 1984 का सिख नरसंहार, 1992 का बाबरी मस्जिद का ध्वंस या 2002 के भीषण दंगे, इनमें शायद ही किसी को सज़ा मिली है और अगर मिली भी है तो बहुत कम लोगों को सिर्फ़ अपवाद स्वरूप। मैं जब अपनी फ़ेलोशिप पर काम कर रहा था तो बहुत ढूँढने पर मुझे भागलपुर (2002) के इकतरफ़ा दंगों में, जिनमें कुछ ही दिनों में कई सौ मुसलमान मारे गये थे, बड़ी मुश्किल से एक असिसटेंट सब इंस्पेक्टर ऐसा मिला जिसे सज़ा मिली थी। मेरठ (1987) में हाशिमपुरा मामले में सबसे वरिष्ठ अधिकारी जिसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चला, एक सब इंस्पेक्टर था। यह बात अकल्पनीय है कि इतने जूनियर अधिकारी के आदेश पर उसके अधीनस्थ 42 मुसलमानों को पकड़ कर गोली मार देंगे। आज़ादी के बाद के इस सबसे बड़े हिरासती हत्याकांड के ज़िम्मेदार वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ कुछ नही हुआ। ऐसा दो कारणों से संभव हो पाता है– एक तो पुलिस तंत्र के अंदर ऐसे संस्थाबद्ध प्रावधानों का अभाव है जिनसे साफ़ साफ़ दोषी दिख सकने वाले पुलिसकर्मियों को भी निश्चित रूप से दंडित किया जा सके और दूसरा कारण तो वही है जिसका मैं ऊपर वर्णन कर चुका हूँ। एक धर्म निरपेक्ष संविधान के बावजूद राज्य की दूसरी संस्थाएँ जिनमें शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण थी, अपने नागरिकों को आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिये बहुत सक्रिय नही दिखती। कई बार तो राज्य की देह भाषा ही ख़ुद संविधान की मूल भावनाओं के ख़िलाफ़ खड़ी दिखती है। बाबरी मस्जिद से जुड़ी 1984 और 1992 की घटनाओं में राज्य की भूमिका एक संदिग्ध की है।


5. क्या पुलिस को स्वायत्त संस्था बनाया जा सकता है ? 

नहीं ,एक लोकतंत्र में पुलिस के लिये किसी स्वतंत्र भूमिका की कल्पना नहीं की जा सकती। उसे राजनीतिक जकड़न से निकाल कुछ हद तक स्वायत्त बनाने की सोच सकते हैं पर वह संविधान और क़ानून क़ायदे की आधीनता में काम करे, इसके लिये प्रयास किये जाने चाहिये। सबसे अधिक आवश्यकता भारतीय पुलिस को एक ऐसी संस्था बनाने की है जो सभ्य और जनता की मित्र हो।

6. उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों के बाद पुलिस एफआईआर ठीक से नहीं लिख रही। मुस्लिम औरतें मीडिया को इंटरव्यू दे रहीं हैं कि जो लोग उनके घरों को आग लगा रहे थे उनके नाम वे जानती थीं। तब पुलिस सलाह देती है कि अगर नाम बतलाओगी तो एफआईआर नहीं लिखेंगे। पुलिस सलाह देती है कि “अज्ञात लोगों ने आग लगाई” लिखवाइए तो एफआईआर लिखेंगे।

इस प्रश्न का उत्तर मैं ऊपर विस्तार से दे ही चुका हूँ। पुलिस आम तौर से एक धर्म निरपेक्ष संस्था न रह कर ऐसे मौक़ों पर हिंदू पुलिस बन जाती है और दिल्ली में भी यही हुआ है।

7. केजरीवाल ने लगता है बहुसंख्यकवाद के आगे घुटने टेक दिये हैं। उनके कार्यकर्ता ज़मीन पर कम दिखायी दे रहे हैं। केजरीवाल का सिद्धांत है कि चुनाव जीतना है, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े। आपकी क्या राय है? 

केजरीवाल एक चतुर चालाक राजनीतिज्ञ हैं और चुनाव जीतने का गुर जानते हैं और उसके लिये कोई भी समझौता किसी से भी कर सकते हैं। इस बार का चुनाव तो उन्होंने अपने लोकलुभावन कार्यक्रमों की वजह से जीता था। बीजेपी ने चुनावों को हिंदू– मुसलमान करने की बहुत कोशिश की पर केजरीवाल का पानी, बिजली, स्लम सुधार जैसे कार्यक्रम उस पर भारी पड़े।

8. वाम का आर्थिक एजेंडा, लगता है कि आम आदमी पार्टी ने हथिया लिया है। बिजली, पानी, शिक्षा सड़क इत्यादि। वाम को अब क्या करना चाहिए जबकि एक तरफ़ भाजपा है, जो जनता को polarise कर रही है, सेकूलर एजेंडा सभी अन्य पार्टियाँ भी धीरे-धीरे छोड़ रहीं हैं। थर्ड फ़्रंट असम्भव हो चुका है।

वाम ने संघर्ष करना छोड़ दिया है इसलिये अप्रासंगिक हो गया है। मुझे लगता है कि कुछ दिनों तक उसे चुनावों को भूलकर जनता के बीच जाकर काम करना चाहिये। जनता की मुश्किलें बढ़ी हैं और वाम के सामने एक बड़ी चुनौती जनता को गोलबंद करने की होनी चाहिये। यह सही समय है जब मुख्यधारा की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को एक होने के बारे मे गंभीरता से सोचना चाहिये।


9. दिल्ली के दंगों, व नागरिकता संशोधन नियम की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ क्या हैं। कई देश मानवाधिकारों के हनन की बात कर रहे हैं?

इन सबसे भारत की छवि को बहुत डेंट लगा है। दुनिया भर में हमारी थू थू हुई है। अब बहुत से लोगों को भारत एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक समाज नही लगता। साथ ही सीएए के ख़िलाफ़ चले आंदोलन को जिस तरह से कुचला गया उससे हमारा मनवाधिकारों के सम्मान का ट्रैक रिकार्ड बहुत धूमिल हुआ है।


10. क्या आपको कभी यह लगता है कि तीन-तलाक़, यूनीफ़ार्म सिविल कोड इत्यादि मुद्दों पर मुसलमानों को ख़ुद भी पहल करनी चाहिए और उन्हें मुल्लाओं के चंगुल से बाहर निकलना चाहिए। शाहबानो मामले में जब आप देश के क़ानून को न मानकर personnel law का हवाला दोगे, तो अब आपके पास अयोध्या के फ़ैसले पर नैतिक बल कहाँ बचा है कि आप इस फ़ैसले का विरोध करें? 

बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। ज़ामिया मिल्लिया इस्लामिया के पूर्व कुलपति प्रो मुशीरुल हसन ने कहा था कि भारत के ज़्यादातर मुसलमान धर्मनिरपेक्ष राज्य के हामी हैं इसलिये नहीं कि वे धर्मनिरपेक्षता में यक़ीन करते हैं बल्कि इसलिये कि धर्मनिरपेक्ष भारत का उलट हिंदू राज है और स्वाभाविक है कि मुसलमान इस संभावना से डरते हैं। यह पूरी दुनिया में मुसलमानों की समस्या है। जिन मुल्कों में वे अल्पसंख्यक हैं वहाँ वे चाहते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष निज़ाम हो जिसमें उन्हें वे सभी हक़ हकूक मिलें जो वहाँ बहुसंख्यक समुदाय को हासिल है, पर जहाँ वे बहुसंख्यक हैं वहाँ के अल्पसंख्यकों को अपने बराबर के अधिकार देने के लिये राज़ी नहीं होते। दुनिया में पचास से अधिक इस्लामी मुल्क हैं और उनमें आधे दर्जन मुश्किल से ऐसे होंगे जिनमें अल्पसंख्यकों को कुछ सम्मानजनक हैसियत हासिल है। इनमें भी बराबरी की बात करना फ़िज़ूल है। फ़िलीस्तीन के मुसलमानों के साथ ज़्यादती पर आंदोलन करने वाले भारतीय मुसलमानों ने कभी भी पाकिस्तान के अहमदिया मुसलमानों या हिंदुओं के साथ भेदभाव का मसला नही उठाया। हमें यह मानना होगा कि धर्मनिरपेक्षता सिर्फ़ भारत के लिये महत्वपूर्ण नही है बल्कि पाकिस्तान, सउदी अरब और ईरान को भी धर्मनिरपेक्ष होना चाहिये। दुनिया के हर मुल्क में अल्पसंख्यकों के अधिकार बुनियादी मानवाधिकार होने चाहिये।


11. क्या आपको लगता है कि वाम को विभाजन के मुद्दे को जनता के बीच ले जाना चाहिए था? पाकिस्तान क्यों बना, गांधी की भूमिका इत्यादि। प्रायः हिंदू जनता मानती है कि मुसलमानों को जब एक देश दे दिया गया तो उन्हें वहाँ चले जाना चाहिए था। उनका कहना है कि जब इतने मुस्लिम राष्ट्र हैं तो एक हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं?

विभाजन का मुद्दा बड़ा संवेदनशील है। वाम को इसे लेकर सही समझ पैदा करने की कोशिश करनी चाहिये। पहली बात तो हमें यह समझनी चाहिये कि दो राष्ट्रों के सिद्धांत के लिये ज़िम्मेदार सिर्फ़ मुसलमान नही हैं। जैसा मैंने पहले ही निवेदन किया है कि इन दोनों धर्मावलम्बियों के बीच प्रेम और घृणा के संबंध निरंतर बने रहे। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों ने अलग अलग समय पर घोषित किया है कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं और साथ नहीं रह सकते। लाला लाजपत राय ने तो मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की औपचारिक माँग के बहुत पहले ही पाकिस्तान का एक नक़्शा भी प्रस्तावित कर दिया था और यह आज के पाकिस्तान की हूबहू कापी है। सर सैय्यद अहमद खान, लोकमान्य तिलक, इक़बाल या सावरकर– सभी के लिखे में आपको ऐसा मिल जाएगा जो दो राष्ट्रों की अवधारणा को पुष्ट करता दिखेगा। पर इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि दोनों के मध्य एकता के बीज भी पूरे मध्य काल में बिखरे हुए हैं। भक्ति काल की रचनाओं और 1857 के संघर्ष में हम इन्हें तलाश सकते हैं। हज़ार साल के साथ में न तो ये सिर्फ़ लड़ते रहे और न ही सिर्फ़ लाड़ प्यार करते रहे। ये दोनों तरह की गतिविधियों में मुबतिला रहे। नतीजे में इन्होंने एक तरफ़ तो मिलजुल कर संगीत, स्थापत्य या अन्य कलाओं में रचनात्मकता का शिखर हासिल किया और दूसरी तरफ़ लड़ झगड़ कर एक रक्त रंजित बँटवारा करा बैठे। वाम के बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वे इतिहास और हिंदू मुस्लिम रिश्तों की वस्तुपरक़  समझ जनता में पैदा करें जो सिर्फ़ वे ही कर सकते हैं। इसके लिये उन्हें दोनों की कट्टरता और धर्मांधता पर बराबरी से हमला करना चाहिये। 


12. आप बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक संप्रदायिकता में किसे अधिक ख़तरनाक समझते हैं?

दोनों समान ख़तरनाक हैं। भारत जैसी परिस्थिति में बहुसंख्यक की सांप्रदायिकता ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि यह राज्य सत्ता पर क़ब्ज़ा कर सकती है। हाल में यह हुआ भी, राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान (1970–1990) में देश में ज़बर्दस्त सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ और नतीजा हमारे सामने है। बहुसंख्यक सांप्रदायिकता राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेने के बाद उन सारी संस्थाओं को एक-एक कर नष्ट करने लगती है जो उसके रास्ते में रुकावट बन सकती हैं। इधर कुछ वर्षों में हमारे देश में न्यायपालिका, प्रेस, विश्वविद्यालयों का क्या हाल हुआ है, यह किसी से छिपा नही है। पर इसका मतलब यह नही है कि अल्पसंख्यक, भारत के संदर्भ में मुस्लिम, संप्रदायिकता को नज़रंदाज़ कर दिया जाय। मुस्लिम सांप्रदायिकता अपने बीच के ही कमज़ोरों यथा औरतों, शियों या अहमदियों को नुक़सान पहुँचाती है। 
दुर्भाग्य से वामपंथी, उदारवादी या धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं की बड़ी तादाद रेडिकल इस्लाम पर प्रहार करने से बचती है। वे हिंदू कट्टरता पर तो जोर शोर से हमला करते हैं पर जैसे ही मुस्लिम कट्टरता का प्रसंग आता है, आँखे मूँद लेते हैं। इस तरह वे ख़ुद को तो संदिग्ध बनाते ही हैं, मुसलमानों के बीच के उदार अंश को असहाय छोड़ देते हैं। पश्चिम में मुसलमानों के बीच के प्रगतिशील तबक़ों को वहाँ के लेफ़्ट और लिबरल से यही शिकायत है। हमें स्पष्ट करना होगा कि धर्म निरपेक्षता सिर्फ़ उन्हीं मुल्कों के लिये ज़रूरी नहीं है जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं मसलन भारत या पश्चिम बल्कि उन देशों को भी जिनमें वे बहुसंख्यक हैं, धर्मनिरपेक्ष होना चाहिये। भारतीय मुसलमानों के इस पाखंड को आप क्या कहेंगे कि जो सोफ़िया हागिया के मुद्दे पर कट्टर पंथी एरदोगान का समर्थन करते हैं और हूबहू वैसे ही राम जन्मभूमि मामले में हिंदुत्ववादियों का विरोध। जिस तरह दुनिया के किसी सुदूर हिस्से में छपी किसी किताब या कार्टून पर वे भारत में सड़कों पर निकल आते हैं उसी तरह इस्लामी मुल्कों में ईसाइयों, यहूदियों, अहमदियों या हिंदुओं के साथ होने वाले भेदभाव पर क्यों कभी आंदोलित नहीं होते? कट्टरपंथी ज़ाकिर नायक की भारतीय मुसलमानों के एक बड़े तबके के बीच लोकप्रियता को कैसे लिया जाना चाहिये जो अपने कार्यक्रमों मे खुले आम कहता है कि किसी इस्लामी मुल्क में काफ़िरों को अपने सार्वजनिक पूजा स्थल बनाने का अधिकार नहीं मिलना चाहिये जबकि मुसलमानों को पूरी दुनिया में मस्जिदें बनाने और वहाँ से अपने धर्म प्रचार की छूट होनी चाहिये।


13. प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में जाकर राम मंदिर निर्माण की शुरुआत की। इस कार्यक्रम में आरएसएस के प्रमुख विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। आप इस परिघटना को कैसे देखते हैं?

5 अगस्त को जो कुछ हुआ वह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण था, इसलिये भी कि मंदिर के निर्माण की शुरुआत के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री स्वयं मौजूद थे और और पूरे राजकीय ठाट बाट से पूरे कार्यक्रम को दिखाया गया। सबसे चिंताजनक इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक की उपस्थिति को दिया गया महत्व था। लगा कि किसी विराट हिंदू मंदिर का नही भविष्य के हिंदू राष्ट्र की नीव रखी जा रही है। मैंने ऊपर हज़ार साल के हिंदू मुस्लिम रिश्तों का ज़िक्र किया है जिसमें प्रेम और घृणा दोनों निहित हैं। साथ साथ रहने, आधुनिक शिक्षा और समान आर्थिक हितों से घृणा का क्षेत्र सिकुड़ता है और इस भावना को बल मिलता है कि जब साथ ही रहना है तो मिल जुल कर क्यों न रहा जाय? आज़ादी के बाद के प्रारम्भिक वर्षों में तेज़ी से ऐसी स्थितियाँ निर्मित हो रहीं थीं जिनमें दोनों के बीच फ़ासला घटता और संघर्ष के मुक़ाबले सहयोग के क्षेत्रों का विस्तार होता। दुर्भाग्य से ऐसा लंबे समय तक चल नही पाया। 1961 के बाद होने वाले सांप्रदायिक दंगों, उनमें राज्य के पक्षपातपूर्ण व्यवहार, अस्सी और नब्बे के दशक का मंदिर आंदोलन और अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर चलने वाला रेडिकल इस्लाम मूवमेंट - या इनसे मिलती जुलती घटनाओं ने इस प्रवृत्ति को कुन्द कर दिया है। और अब मंदिर निर्माण की शुरुआत से तो मिली जुली रचनात्मकता की सम्भावनाओं को दशकों पीछे ढकेल दिया है।

एक बात हिंदुओं को याद रखनी होगी कि धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाकर हमने मुसलमानों या ईसाइयों पर एहसान नही किया है, अगर किसी पर एहसान किया है तो सिर्फ़ ख़ुद पर। कल्पना कीजिये कि 1952 के चुनावों में हिंदुत्व की पार्टियाँ जीत गयी होतीं और देश एक हिंदू राष्ट्र बना होता तो क्या होता? मनुस्मृति हमारा संविधान होता और हमारे बीच के दलित, पिछड़े और औरतें जानवरों से भी बदतर जीवन जीने को अभिशप्त होते। इस्लाम के नाम पर बना पाकिस्तान 25  साल में ही टूट गया, भारत एक हिंदू राष्ट्र बनता तो उससे भी कम समय में कई टुकड़ों मे बँट जाता। भाषा और खान-पान से जुड़े विवाद ही हमें तोड़ने के लिये पर्याप्त थे। यह तो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता थी जिसने विवादों को मिल बैठ कर सुलझाने की सलाहियत हमें दी और हम सात दशकों से अधिक एक राष्ट्र राज्य बने हुए हैं।  

रामजन्म भूमि पर अदालती फ़ैसले या मंदिर निर्माण को हिंदुओं की विजय और मुसलमानों की हार के रूप मे प्रस्तुत करने से एक मिली जुली संस्कृति के निर्माण की संभावनायें क्षीण हुई हैं।

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