क्या संसद में पीठासीन अधिकारी पक्षपातपूर्ण हो गए हैं?

Written by रोहिन भट्ट | Published on: July 6, 2024
यह लेख यह विश्लेषण करने का प्रयास करता है कि किस प्रकार लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा सभापति अब अंपायर नहीं रह गए हैं, बल्कि वे अपने आप में राजनीतिक और कानूनी खिलाड़ी बन गए हैं, तथा पक्षपातपूर्ण तरीक़े से काम कर रहे हैं।



जब किंग चार्ल्स प्रथम ने हाउस ऑफ कॉमन्स के सभापति से मांग की कि 1640 के दशक के गृहयुद्ध के दौरान गिरफ्तारी के लिए पांच सदस्यों को पेश करें, तो सभापति लेंथॉल ने प्रसिद्ध रूप से घोषणा की, "महाराज, यह आपकी कृपा होगी कि मेरे पास इस जगह पर देखने के लिए न तो आंखें हैं, न ही बोलने के लिए जबान है, लेकिन यदि वह सदन मुझे निर्देश देने चाहे तो में उसे मानूंगा, जिसका मैं यहां सेवक हूं, और मैं विनम्रतापूर्वक महामहिम से क्षमा मांगता हूं कि मैं इसके अलावा कोई अन्य उत्तर नहीं दे सकता जो महामहिम मुझसे मांग रहे हैं।"

हाउस ऑफ कॉमन्स के स्पीकर इतने आज़ाद थे कि 1394 और 1535 के बीच, इंग्लैंड के किंग ने सात स्पीकरों का सिर कलम कर दिया था, संभवतः इसलिए क्योंकि उन्होंने किंग को नाराज़ कर दिया था। इसने पूरे राष्ट्रमंडल में वेस्टमिंस्टर संसदों में स्पीकरों की आधुनिक संस्थाओं की भूमिका के लिए माहौल तैयार किया।

भारत में, लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति को गैर-पक्षपाती माना जाता था, जिन्हें संसद सदस्यों के अधिकारों का रक्षक करने वाला माना जाता था।

यह लेख यह विश्लेषण करने का प्रयास करता है कि किस प्रकार लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति अब अंपायर नहीं रह गए हैं, बल्कि वे अपने आप में राजनीतिक और कानूनी खिलाड़ी बन गए हैं, जो पक्षपातपूर्ण तरीके से काम कर रहे हैं।

मनी बिलों को प्रमाणित करने, शिष्टाचार बनाए रखने और सदस्यों को अयोग्य ठहराने में अध्यक्ष की भूमिका पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन मैं संसद के अंदर और बाहर विपक्ष को दबाने में अध्यक्ष और सभापति की अक्सर अनदेखी की जाने वाली भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।

अध्यक्ष और सभापति की भूमिका का एक अनदेखा पहलू यह है कि वे कार्यवाही के रिकॉर्ड के मामले में अंतिम निर्णायक होते हैं: एक या दो महीने के बाद, संसदीय रिपोर्टों के ज़रिए शब्दशः रिकॉर्ड प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

हालांकि, अगर स्पीकर और चेयरमैन को लगता है कि यह असंसदीय है, तो वे रिकॉर्ड से उसे हटा सकते हैं। ऐतिहासिक संशोधनवादी होने की कोशिश में, स्पीकर और चेयरमैन ने अक्सर निर्देश दिया है कि जो मामले सत्ताधारियों के लिए असुविधाजनक हैं, उन्हें रिकॉर्ड नहीं किया जाना चाहिए।

उदाहरण के लिए, सोमवार, 1 जुलाई को, राज्य सभा के सभापति ने निर्देश दिया था कि प्रधानमंत्री की टिप्पणियों जैसे “मुजरा” आदि शब्द का इस्तेमाल शामिल है, विपक्ष ने जब इस पर आपत्ति जताई तो स्पीकर ने रिकॉर्ड न करने का आदेश दिया। यह न केवल स्पीकर पद का बल्कि संसदीय बल्कि इतिहास का भी एक अपमान है।

संसद में यह हास्यास्पद है कि विपक्ष के भाषणों को हटा दिया जाता है, लेकिन जब रमेश बिधुड़ी ने उसी संसद में सांसद दानिश अली के खिलाफ सांप्रदायिक गाली का इस्तेमाल किया, तो उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।

ऐसा नहीं है कि कार्यवाही के रिकार्ड मिटा दिए जाते हैं, बल्कि विपक्षी नेताओं के माइक्रोफोन भी बंद कर दिए जाते हैं या लगातार उन्हें बाधित किया जाता है, जबकि सत्ता पक्ष की ओर से भाषणबाजी बेरोकटोक जारी रहती है।

मैं सरकार को अभिव्यक्ति की आज़ादी देने से इनकार नहीं करता, बल्कि सिर्फ यह तर्क देता हूं कि विपक्ष को भी यही अधिकार दिया जाना चाहिए।

इसी तरह कोविड प्रतिबंधों की आड़ में, स्पीकर के आदेश के तहत अखबारों और डिजिटल मीडिया के पत्रकारों को अभी भी संसद में प्रवेश की अनुमति नहीं दी है। यह एक बेलगाम, मनमानी शक्ति है जिसके खिलाफ कोई समीक्षा या अपील नहीं है। नतीजतन, हमारे पास इस पर विलाप करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।

स्पीकर सदन के परिसर का सर्वोच्च संरक्षक भी होता है। ओम बिरला के कार्यकाल में हमने दो बड़े ऐसे काम देखे हैं जो संविधान विरोधी हैं।

सबसे पहले, लोकसभा कक्ष के अंदर सेंगोल, एक राजसी शक्ति का प्रवेश हुआ। हम कोई राजशाही नहीं हैं, और अपने सदस्यों को चुनने वाले सदन के परिसर के अंदर ऐसा कोई प्रतीक नहीं होना चाहिए।

दूसरा, डॉ. बी.आर. अंबेडकर, एम.के. गांधी और शिवाजी की मूर्तियों को उनके प्रमुख स्थानों से हटाकर अन्य स्थानों पर स्थापित करना था।

संसदीय संपदा के संरक्षक के रूप में अपनी शक्ति का प्रयोग करके इन कानूनों से ध्यान हटा दिया गया, जो विपक्ष के लिए शक्तियों के अक्सर मनमाने प्रयोग के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का एक मंच बन गया, जैसे कि संसद सदस्यों द्वारा वहां डेरा डालना या नारे लगाना।

यद्यपि यह सत्ता का अवैध प्रयोग नहीं है, फिर भी यह निश्चित रूप से अनुचित प्रयोग है जिसका उद्देश्य सदनों के बाहर विपक्ष को दबाना है।

स्पीकर नीलम संजीव रेड्डी ने 6 अप्रैल, 1968 को पीठासीन अधिकारियों के उभरते सम्मेलन में बोलते हुए कहा कि अध्यक्ष (और विस्तार से सभापति) सदन को दरकिनार करने या सदन की शक्तियों और कार्यों को खुद अपने अधिकार में लेने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं ले सकते हैं।

आज, ऐसा लगता है कि हम इन बुद्धिमानी भरे शब्दों को भूल गए हैं। स्पीकर ओम बिरला ने स्पीकर चुने जाने के बाद सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) पार्टी और आपातकाल के खिलाफ़ एक भाषण पढ़ा था।

मैं कांग्रेस का समर्थन नहीं करता, न ही आपातकाल का बचाव किया जा सकता है: लेकिन एक बात स्पष्ट है, स्पीकर बिड़ला और चेयरमैन जगदीप धनखड़ पक्षपातपूर्ण बने रहेंगे, लेकिन क्या कोई यह उम्मीद कर सकता है कि वे अपने पदों के संवैधानिक महत्व को समझेंगे, अपनी पक्षपातपूर्ण राजनीति बंद करेंगे, और खुद को याद दिलाएंगे कि वे राजनीतिक रूप से पक्षपातपूर्ण खिलाड़ी नहीं बल्कि अंपायर हैं।

(रोहिन भट्ट भारत के सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

अनुवाद: न्यूजक्लिक के लिए महेश कुमार

साभार: द लीफ़लेट

बाकी ख़बरें