बोलती लड़कियां, अपने अधिकारों के लिए लड़ती औरतें पितृसत्ता वाली सोच के लोगों को क्यों चुभती हैं?

Written by Mithun Prajapati | Published on: June 23, 2021
जून की भरी दोपहर में बाजार में लोग कम थे। चाय की दुकान जिसपर मैं बैठा अखबार को पलट रहा था वहां मेरे और चाय वाले के अलावा दो और व्यक्ति बैठे थे जो आपस मे बातें किये जा रहे थे। एक युवा लड़का भी था जो सचिन पायलट सा दिखता था। वह ठीक मेरी बगल में बेंच पर बैठा था। मैंने अखबार पलटे तो उसमें सरकार के विज्ञापन, गुणगान के अलावा खबरें भी थीं। एक मिनट में ही अखबार पलटकर मैं फ्री हो गया। बगल में बैठे सचिन पायलट से दिखने वाले युवक ने अखबार मुझसे लेते हुए पूछने वाले अंदाज में कहा- बड़े जल्दी पढ़ लिए ?



मैंने उसे बस मुस्कुराहट पेश कर जवाब दे दिया। कुछ देर शांति रही। मैंने फिर कहा- यह अखबार कम सरकार का मुखपत्र ज्यादा लगता है। 

उसने कहा- यहां एक ही अखबार आता है और मजबूरन इसमें से काम की खबरें छांटकर पढ़नी पड़ती हैं। 

चाय वाला जो हमारी बात सुन रहा था उसने कहा- भैया यहां यही सब पढ़ते हैं। अब चाय का धंधा है तो लोगों की पसंद के हिसाब से चलना पड़ता है। 

एक मोटरसाइकिल सड़क से आराम से गुजर रही थी। उसपर दो लोग बैठे थे। चलाने वाला अपनी लंबाई के अनुपात में कम वजन का था। पीछे बैठा व्यक्ति औसत लंबाई का था पर उसका वजन सौ के पार ही दिख रहा था। ऐसा लग रहा था कि कहीं मोटरसाइकिल जरा भी डिसबैलेंस हुई तो पलट जाएगी। पर ऐसा न हुआ। इन दोनों को जाते हुए देख जो दो व्यक्ति मेरे ठीक सामने बैठे थे उनमें से एक ने आवाज लगाई - हे..... 

मोटरसाइकिल की गति और स्लो हुई। चालक ने बुलाने वाले व्यति को देखकर उसे पहचान लिया था इसलिए ऐसा हुआ था। गाड़ी रुकी। चालक ने बड़े संभलने वाले अंदाज में गाड़ी को साइड में लगाया। पीछे बैठे व्यक्ति ने बड़ी मेहनत करके अपने को गाड़ी से नीचे उतारा। चलाने वाला भी उतरा और दोनों व्यक्ति इसी तरफ आने लगे जहां हम बैठे थे। बुलाने वाले व्यक्ति ने उनके पहुंचने से पहले ही सवाल दाग दिया- क्या हुआ मैटर का ? कहाँ तक पहुंचा मामला ? 

उस मोटे व्यक्ति ने थोड़ा गुस्से वाले अंदाज में गाली देते हुए कहा- अरे मादर.... ने नरक मचा रखा है। 

उसके ऐसा कहने से सबका ध्यान अब उसकी तरफ था। चाय वाला चाय में शक्कर मिलाते हुए उसे देख रहा था। बगल में बैठा लड़का जो सचिन पायलट सा दिखता था और ठीक वैसा ही चश्मा नाक पर रखता था जो अखबार पढ़ रहा था उसके शांतिनुमा बायो बबल में गाली ने खलल डाल दी थी। उसने उसे पढ़ना बन्द कर कान को इस तरफ़ केंद्रित कर दिया।
 
उस व्यक्ति ने बात में गाली इसलिए शामिल की कि बात में वजन पड़े। वे दोनों अब करीब आ गए थे। बुलाने वाले ने फिर पूछा- कहां तक पहुंचा मामला ? 

मोटे व्यक्ति ने फिर उसी अंदाज में कहा- अरे वो हरामजादी थाने तक ले गई मामला। कल सब इकट्ठा हुए थे। वह आने को तैयार ही नहीं हो रही है। 

मेरे सामने बैठे व्यक्ति ने थोड़ा मुंह बिचकाते हुए चिंता वाले लहजे में कहा- आजकल की औरतों को न जाने क्या हो गया है। पहले पति, सास, ससुर कितना भी कूट दें, गाली दे दें पर मजाल है पलटकर जवाब दे दें। पर ये आजकल की लड़कियां, औरतें जरा सा कुछ हुआ नहीं कि लड़ बैठती हैं। 

बगल में बैठे व्यति ने हां में हां मिलते हुए बात आगे ऐसे बढ़ाई जैसे पहला वाला व्यक्ति ही बोल रहा हो। उसने कहा- सब पढ़ाई लिखाई का असर है। ये न सास को सास समझती हैं, न ससुर को ससुर। न जाने कहाँ जा रहा है समाज।
 
जिसने आवाज देकर मोटरसाइकिल वालों को बुलाया था उसने उन दोनों से चाय के लिए पूछा। पर दोनों ने जल्दी में होने का कारण बताकर कहा कि अब चलते हैं बच्चे ट्यूशन गए हैं उनको वापस लाना है। बगल वाले व्यति ने चुटकी लेते हुए कहा- क्या करोगे पढ़ाकर ? जहां जाएंगी पढ़कर सब वहीं नाक कटाएंगी। 

एक ठहाका गूंजा वहां। ठहाका लगाने वालों में आये हुए दोनों व्यक्ति, सामने बैठे दोनों लोग और दबी मुस्कान के साथ चाय वाला भी शामिल था। मेरे बगल में बैठा लड़का मुझे देख मामले को समझने का प्रयास कर रहा था।  आये हुए दोनों लोग चले गए। 

सामने बैठे दोनों व्यक्तिओं में से एक ने जो मोटरसाइकिल वाले को आवाज देकर बुलाया था उसने चाय वाले से चाय के लिए कहा। इसके बाद वह हम दोनों की तरफ देखते हुए कहने लगा- एक बात बताओ भैया, अगर तुम्हारे घर की औरत पड़ोसियों से बात करेगी जिससे तुम्हारा झगड़ा है तो तुमसे बर्दास्त होगा ? 

हम दोनों के कुछ कहने से पहले ही उनके साथ बगल में बैठा व्यक्ति बोल पड़ा- मैं तो जान से मार डालूं, तुम बर्दाश्त की बात कर रहे हो ? 

यह बात उसने पूरे गुस्से में कही थी। उसे देखकर जरा भी संशय न था कि वह ऐसा नहीं कर सकता। 
सामने वाले व्यक्ति ने कहा- तुम चुप बैठो यार। भैया तुम बताओ ? क्या तुम्हें बर्दास्त होगा ?
 
मेरे बगल में बैठे लड़के ने कहा- इस बात पर निर्भर करता है कि मेरा झगड़ा किस बात को लेकर है ? क्या यह सिर्फ व्यक्तिगत झगड़ा है या पूरे परिवार का है ?

सामने बैठे व्यक्ति ने कहा- बड़े वाहियात हो यार। परिवार जैसा कुछ होता है कि नहीं ? 

मैंने पूछा- आखिर मामला क्या है ? 
उस सामने बैठे सज्जन ने बताता - अभी जो भाई साहब आये थे उनकी भाभी मायके चली गईं सिर्फ इस बात पर की उनके पिता जी थोड़ा मार दिए थे ? 

मैंने प्रश्न किया- मार क्यों दिए थे ? 

वे बोले- अरे यार फिर वही बात... जिससे तुम्हारा झगड़ा है, घर का सदस्य उससे बात करेगा तो तुम्हें कैसा लगेगा ? 

मैंने भी वही बात दोहरा दी जो सचिन पायलट नुमा व्यक्ति ने कही थी। मैंने उसमें जोड़ते हुए कहा- किसी से किसी का मिलना यह तो व्यक्तिगत बात है न ? हां उनके ससुर का झगड़ा था तो देखना यह था कि आखिर झगड़ा किस बात पर था ? फिर भी किसी को मारना, किसी पर हाथ उठाना, एक महिला पर हाथ उठाना बहुत गलत है। सीधे तौर पर ससुर को माफी मांगनी चाहिए और भविष्य में ऐसा नहीं होगा की गारंटी देकर उन्हें वापस बुलाएं तो मामला सुलझ सकता है। 

सामने बैठा व्यक्ति आग बबूला हो गया। बोला- मर्द का बच्चा एक औरत से कभी माफी नहीं मांगता। वह आये चाहे जाए। 
ऐसा कहते हुए बिना चाय पिये वे दोनों उठे और चले गए। 

मेरे बगल में बैठे लड़के ने कहा- आपने सही कहा, माफी मांग लें और भविष्य में ऐसा न करने की गारंटी दें तो मामला सुलझ सकता है। अब वह दौर तो है नहीं कि कोई किसी को पीट ले। लोग अपने अधिकार को लेकर जागरूक हो रहे हैं। सबके अपने व्यक्तिगत अधिकार हैं। 

ऐसा कहकर वह लड़का  चाय पीते हुए अखबार अखबार में खो गया।

मैं बैठे चाय सुड़कते सोचने लगा- किसी के बेसिक व्यक्तिगत अधिकार क्या - क्या हो सकते हैं ?  अपनी पसंद का भोजन, पसंद के कपड़े, अपने दोस्त चुनना, पसंद के लोगों से मिलना, अपनी पसंद की जगह घूमना, गाने सुनना या वह हर चीज जिससे दूसरे के व्यक्तिगत अधिकार प्रभावित न हों। पर समाज में हो क्या रहा है। ठीक इसके विपरीत। महिलाओं के साथ तो स्थितियां भयानक हैं। अच्छी खासी पढ़ी लिखी लड़कियां  बिना मर्जी के ब्याह दी जाती हैं। शादी के बाद सीधे घूंघट में कैद। पढ़े लिखे समझदार परिवारों में यह सब होता है। न कोई इसपर बोलने वाला, न इस विषय ओर सोचने वाला। कितने ही घर मैं गाँवों में ऐसे जानता हूँ जो अपने को इज्जतदार महज इसलिए समझते हैं कि उनके घर की महिलाएं के दस-बीस साल बाद भी घूंघट करती हैं, घर से बाहर नहीं निकलतीं। जिस बात पर शर्म आनी चाहिए उसे लोग गर्व की बात मान बैठे हैं। 

कितने ही लोगों को मैं जानता हूँ जिन्होंने बेटियों की पढ़ाई महज इसलिए छुड़ा दी कि शादी के वक्त अपनी जाति में इतना पढ़ा लिखा लड़का नहीं मिलेगा। 

दूसरी तरफ समाज के पुरुष हैं जो अपने को जातिवादी, धार्मिक, पूजापाठ करने को ही अपनी श्रेष्ठतम उपलब्धि मानते हुए गर्व करते रहते हैं। अपने अधिकारों के लिए लड़ती बोलती लड़कियां, औरतें उन्हें चुभती हैं। पुरुष दिनभर लेटे लेटे खाट तोड़े, ताश खेले, दहेज में मिली स्कूटर ले चार राउंड बाजार के अनायास लगा आये कोई बात नहीं। पर घर की महिला सारे काम निपटा कर जरा सा पड़ोस के व्यक्ति से बोल बतिया ले तो इन्हें बुरा लग जाता है। इनका मानना होता है जिनसे इनका झगड़ा है उनसे कोई बात न करे। सबकुछ यह ही तय करेंगे दूसरे का पुरुष जो हैं। कोई इनकी न सुनेगा तो ये मारने पीटने पर उतारू हो जाएंगे, हत्या तक कर देने को सही ठहराएंगे वह भी बिना झिझक के। पर यह कबतक चलेगा, महिलाएं अपने अधिकारों को समझने लगी हैं। बोलने लगी हैं। कोई उनके साथ न खड़ा हो तो संवैधानिक तरीके से पुलिस का सहारा लेने लगी हैं। यह सब इस बात का प्रतीक है कि आने वाले वक्त में पितृसत्ता ढहेगी। वक्त लगेगा पर यह होगा। 

यही सब सोचते मैंने खाली कुल्हड़ दूर रखे डिब्बे में फेंका जो ठीक बीच में जाकर गिरा। जो बहुत देर के बाद चेहरे पर खुशी लाने के लिए पर्याप्त था।

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