पितृसत्ता, सिर्फ पुरुषों द्वारा महिलाओं के खिलाफ की गई यौन हिंसा भर नहीं है बल्कि एक ऐसी व्यवस्था है जो महिलाओं के जीवन के हर पहलू को नियंत्रित करती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक। यहां तक कि उनकी कोख तक को नियंत्रित करती है। लेकिन पितृसत्ता का प्रभाव इतना भर नहीं है। इसमें हर कोई अपने से कम ताकतवर का उत्पीड़न और शोषण करता है। उसे कमतरी का अहसास कराता है। इसमें धर्म, जाति, रंग, वर्ग, संपत्ति, तकनीक, समाज और विचारधारा के साथ रूढ़िवादी परम्पराओं और मान्यताओं, सभी स्तरों पर किए जाने वाला नियंत्रण शामिल हैं।
कुछ यूं समझें कि शादी में लड़के व लड़की के पिता दोनों पुरुष हैं लेकिन लड़की के पिता के बरक्स लड़के के पिता का रूआब देखते ही बनता है जो पितृसत्ता को लेकर नायाब समझ पैदा करता है। यही नहीं, पितृसत्ता की महत्ता इससे भी समझी जा सकती हैं कि आरएसएस (संघ), भाजपा का पितृ-संगठन है। वैसे भी, परिवार पितृसत्ता की बुनियादी संस्था है लेकिन असल पितृसत्ता, राजसत्ता (सरकार) में केंद्रित होती है। किसी ने खूब ही कहा हैं कि सरकार, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का असल हेडक्वार्टर होती है।
अब जब राजनीतिक सत्ता इस चरम पर है कि देश में हर प्रभुत्वशाली विचार सत्ता के लिए है। सत्ता का मतलब मुनाफा है। कारपोरेट हो या मीडिया। अदालत हो या औद्योगिक घराने। ब्यूरोक्रेसी, क्रोनी कैपटलिज्म या माफिया। संगठित व असंगठित। सभी को सत्ता के इशारे पर चलना है। संसाधनों की लूट यानि मुनाफा राजनीतिक (पितृ) सत्ता से तालमेल बैठाकर ही संभव है। हालांकि शुरुआत में समाज मातृसत्ता केंद्रित ही होता था। 'वोल्गा से गंगा' में राहुल सांकृत्यायन इसका बखूबी वर्णन करते हैं। जो धीरे-धीरे पितृसत्तात्मक (ताकत केंद्रित) होता चला गया और अंततः राजसत्ता में तब्दील हो गया। उसी का आलम है कि जल, जंगल, जमीन के संविधान प्रदत्त सामूहिक अधिकारों तक पर सत्ता काबिज हो जा रही है। देश की 30% जमीन पर सरकार का कब्ज़ा है और करोड़ों की आदिवासी-दलित आबादी पितृसत्ता रूपी सरकार के निर्मम डंडे से हांके जाने को मजबूर हैं। बेबस हैं।
पितृसत्ता आधारित इस निर्मम व्यवस्था को चुनौती दी है सोनभद्र उप्र के सुदूर स्थित 'धूमा' गांव की एक आदिवासी राजकुमारी ने। राजकुमारी पढ़ना लिखना नहीं जानती हैं लेकिन इतना जानती है कि पितृसत्ता को खत्म किए बिना शोषण बंद नहीं होगा और हक के लिए लड़ाई लड़ने की जरूरत है। अपने अनुभवों के थपेड़ों से सीखी राजकुमारी कहती है कि लड़ने के लिए जुड़ने (एकजुटता) की जरूरत है। तभी वह जल, जंगल जमीन का अपना (आदिवासी महिलाओं का) हक पा सकती है।
वह कहती हैं कि जंगल उन्हीं की बदौलत हरा-भरा है और बचा है, न कि पितृसत्ता (वन विभाग, प्रशासन और सरकार) जंगल बचाया है। राजकुमारी सीधे कहती हैं कि वो एक माई (मां) हैं और धरती (जमीन) भी माई। इसमें पितृसत्ता कहां से आईं। राजकुमारी लालची पितृसत्तात्मक व्यवस्था के साथ सरकार की नीतियों की भी पोल खोल दे रहीं हैं। बल्कि इसके उलट, आत्मनिर्भरता का पाठ भी पढ़ाती हैं।
राजकुमारी कहती हैं कि पितृसत्ता बोल रही हैं कि ना नैहहर (मायके) में उनका कुछ हैं और ना ससुराल में। पटवारी जमीन नापता हैं। कहता हैं कि जमीन का मालिकाना अधिकार उनके नाम पर नहीं लिखा जा सकता हैं पुरूष के नाम पर ही लिखा जाएगा। इससे हतप्रभ राजकुमारी पूछती हैं कि वह माई, धरती भी माई। जमीन उनकी। जंगल उनका। देखभाल वहीं करतीं हैं। ऐसे में पितृसत्ता कहां से आईं। कहा वह मालिकाना हक नहीं छोड़ेंगी। लेकर रहेंगी। थाने और कोर्ट कचहरी हर जगह लड़ेंगी, लेकिन अपना हक (जमीन) लेकर रहेंगी।
लॉक डाउन में गरीबों को 5 किलो अनाज की केंद्र की इमदाद को एकदम नाकाफी बताते हुए राजकुमारी कहती हैं कि मोदीजी नोटबंदी, मुंहबंदी, देशबंदी किया लेकिन उन्हें उनका हक (वनाधिकार) भी आपको लिखना (देना) चाहिए। लिखा। कहा 5 किलो में थोड़े कुछ होता है। उन्हें भी सारी चीजें चाहिए। वो भी माई है। धरती पर जन्मी सभी माई को हक़ चाही। वो पैसा व नौकरी नहीं मांग रही हैं लेकिन उन्हें उनका मालिकाना हक (वनाधिकार) तो चाहिए। जमीन चाहिए जिसमें वह अपने हाथ से बिन खाद के (जैविक अनाज) पैदा कर सके। अपने हाथ से बीज डाले। खुद पानी दे। काटे। खाई। अपने हाथ कमाई से जी संतोषी (मन खुश) होई। खून बढ़ी। बच्चों की लिखाई पढ़ाई आगे बढ़ी।
यही नहीं, आत्मनिर्भरता की बड़ी सीख देते हुए राजकुमारी कहती हैं कि दूसरों की पढ़ाई, दूसरों के ज्ञान, दूसरों के हाथ और दूसरों की बुद्धि से काम नहीं चलने वाला है। कहा कानून है। व्यक्तिगत और सामूहिक दावे फार्म भर दिए हैं। हक लेकर रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं। चाहे कोई भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े। राजकुमारी सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाती है कि सरकार एक तरफ कह रहीं मालिकाना हक मिलेंगे, दूसरी तरफ छीन रही है। समझ नहीं आ रहा कि क्या कर रही है लेकिन कोई सरकार हो, वह हक नहीं छोड़ेंगी।
राजकुमारी खुद न सिर्फ संघर्ष के मर्म को जानती व समझती हैं बल्कि बखूबी समझाती भी हैं। वह कहती हैं कि पितृसत्ता में महिलाओं का मान-सम्मान नहीं है। कहा वह पहले थाने जाती थी तो जमीन पर बैठना पड़ता था। जबकि बड़े लोगो को कुर्सी व चाय-पानी मिलता था। फर्जी मुकदमे लगाकर जेल भेज दिया जाता हैं लेकिन लड़ते लड़ते संघर्ष का नतीजा हैं कि अब थाने में कुर्सी भी मिलती हैं नमस्कारी भी। राजकुमारी भरोसा जगाती हुए कहती हैं कि इतनी आजादी आईं हैं तो आगे भी हक लेकर रहेंगे। लड़ेंगे और जीतेंगे।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि संविधान में जल, जंगल व जमीन के सामूहिक संसाधनों पर समुदायों का हक है। संविधान का अनुच्छेद 39-बी कहता हैं कि सामूहिक संपदा का इस्तेमाल नागरिकों के कल्याण के लिए होना चाहिए, व्यवसायीकरण नहीं। इसके उलट आज भी करीब 30% जमीनों पर सरकार (पीडब्लूडी, सिंचाई, वन, रेल व डिफेंस आदि) का कब्ज़ा हैं। जो गलत है। समुदायों को उनका हक मिलना चाहिए। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ राजकुमारी संघर्ष का पर्याय बन उभरीं हैं तो देर सबेर जीत भी निश्चित है।
कुछ यूं समझें कि शादी में लड़के व लड़की के पिता दोनों पुरुष हैं लेकिन लड़की के पिता के बरक्स लड़के के पिता का रूआब देखते ही बनता है जो पितृसत्ता को लेकर नायाब समझ पैदा करता है। यही नहीं, पितृसत्ता की महत्ता इससे भी समझी जा सकती हैं कि आरएसएस (संघ), भाजपा का पितृ-संगठन है। वैसे भी, परिवार पितृसत्ता की बुनियादी संस्था है लेकिन असल पितृसत्ता, राजसत्ता (सरकार) में केंद्रित होती है। किसी ने खूब ही कहा हैं कि सरकार, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का असल हेडक्वार्टर होती है।
अब जब राजनीतिक सत्ता इस चरम पर है कि देश में हर प्रभुत्वशाली विचार सत्ता के लिए है। सत्ता का मतलब मुनाफा है। कारपोरेट हो या मीडिया। अदालत हो या औद्योगिक घराने। ब्यूरोक्रेसी, क्रोनी कैपटलिज्म या माफिया। संगठित व असंगठित। सभी को सत्ता के इशारे पर चलना है। संसाधनों की लूट यानि मुनाफा राजनीतिक (पितृ) सत्ता से तालमेल बैठाकर ही संभव है। हालांकि शुरुआत में समाज मातृसत्ता केंद्रित ही होता था। 'वोल्गा से गंगा' में राहुल सांकृत्यायन इसका बखूबी वर्णन करते हैं। जो धीरे-धीरे पितृसत्तात्मक (ताकत केंद्रित) होता चला गया और अंततः राजसत्ता में तब्दील हो गया। उसी का आलम है कि जल, जंगल, जमीन के संविधान प्रदत्त सामूहिक अधिकारों तक पर सत्ता काबिज हो जा रही है। देश की 30% जमीन पर सरकार का कब्ज़ा है और करोड़ों की आदिवासी-दलित आबादी पितृसत्ता रूपी सरकार के निर्मम डंडे से हांके जाने को मजबूर हैं। बेबस हैं।
पितृसत्ता आधारित इस निर्मम व्यवस्था को चुनौती दी है सोनभद्र उप्र के सुदूर स्थित 'धूमा' गांव की एक आदिवासी राजकुमारी ने। राजकुमारी पढ़ना लिखना नहीं जानती हैं लेकिन इतना जानती है कि पितृसत्ता को खत्म किए बिना शोषण बंद नहीं होगा और हक के लिए लड़ाई लड़ने की जरूरत है। अपने अनुभवों के थपेड़ों से सीखी राजकुमारी कहती है कि लड़ने के लिए जुड़ने (एकजुटता) की जरूरत है। तभी वह जल, जंगल जमीन का अपना (आदिवासी महिलाओं का) हक पा सकती है।
वह कहती हैं कि जंगल उन्हीं की बदौलत हरा-भरा है और बचा है, न कि पितृसत्ता (वन विभाग, प्रशासन और सरकार) जंगल बचाया है। राजकुमारी सीधे कहती हैं कि वो एक माई (मां) हैं और धरती (जमीन) भी माई। इसमें पितृसत्ता कहां से आईं। राजकुमारी लालची पितृसत्तात्मक व्यवस्था के साथ सरकार की नीतियों की भी पोल खोल दे रहीं हैं। बल्कि इसके उलट, आत्मनिर्भरता का पाठ भी पढ़ाती हैं।
राजकुमारी कहती हैं कि पितृसत्ता बोल रही हैं कि ना नैहहर (मायके) में उनका कुछ हैं और ना ससुराल में। पटवारी जमीन नापता हैं। कहता हैं कि जमीन का मालिकाना अधिकार उनके नाम पर नहीं लिखा जा सकता हैं पुरूष के नाम पर ही लिखा जाएगा। इससे हतप्रभ राजकुमारी पूछती हैं कि वह माई, धरती भी माई। जमीन उनकी। जंगल उनका। देखभाल वहीं करतीं हैं। ऐसे में पितृसत्ता कहां से आईं। कहा वह मालिकाना हक नहीं छोड़ेंगी। लेकर रहेंगी। थाने और कोर्ट कचहरी हर जगह लड़ेंगी, लेकिन अपना हक (जमीन) लेकर रहेंगी।
लॉक डाउन में गरीबों को 5 किलो अनाज की केंद्र की इमदाद को एकदम नाकाफी बताते हुए राजकुमारी कहती हैं कि मोदीजी नोटबंदी, मुंहबंदी, देशबंदी किया लेकिन उन्हें उनका हक (वनाधिकार) भी आपको लिखना (देना) चाहिए। लिखा। कहा 5 किलो में थोड़े कुछ होता है। उन्हें भी सारी चीजें चाहिए। वो भी माई है। धरती पर जन्मी सभी माई को हक़ चाही। वो पैसा व नौकरी नहीं मांग रही हैं लेकिन उन्हें उनका मालिकाना हक (वनाधिकार) तो चाहिए। जमीन चाहिए जिसमें वह अपने हाथ से बिन खाद के (जैविक अनाज) पैदा कर सके। अपने हाथ से बीज डाले। खुद पानी दे। काटे। खाई। अपने हाथ कमाई से जी संतोषी (मन खुश) होई। खून बढ़ी। बच्चों की लिखाई पढ़ाई आगे बढ़ी।
यही नहीं, आत्मनिर्भरता की बड़ी सीख देते हुए राजकुमारी कहती हैं कि दूसरों की पढ़ाई, दूसरों के ज्ञान, दूसरों के हाथ और दूसरों की बुद्धि से काम नहीं चलने वाला है। कहा कानून है। व्यक्तिगत और सामूहिक दावे फार्म भर दिए हैं। हक लेकर रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं। चाहे कोई भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े। राजकुमारी सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाती है कि सरकार एक तरफ कह रहीं मालिकाना हक मिलेंगे, दूसरी तरफ छीन रही है। समझ नहीं आ रहा कि क्या कर रही है लेकिन कोई सरकार हो, वह हक नहीं छोड़ेंगी।
राजकुमारी खुद न सिर्फ संघर्ष के मर्म को जानती व समझती हैं बल्कि बखूबी समझाती भी हैं। वह कहती हैं कि पितृसत्ता में महिलाओं का मान-सम्मान नहीं है। कहा वह पहले थाने जाती थी तो जमीन पर बैठना पड़ता था। जबकि बड़े लोगो को कुर्सी व चाय-पानी मिलता था। फर्जी मुकदमे लगाकर जेल भेज दिया जाता हैं लेकिन लड़ते लड़ते संघर्ष का नतीजा हैं कि अब थाने में कुर्सी भी मिलती हैं नमस्कारी भी। राजकुमारी भरोसा जगाती हुए कहती हैं कि इतनी आजादी आईं हैं तो आगे भी हक लेकर रहेंगे। लड़ेंगे और जीतेंगे।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि संविधान में जल, जंगल व जमीन के सामूहिक संसाधनों पर समुदायों का हक है। संविधान का अनुच्छेद 39-बी कहता हैं कि सामूहिक संपदा का इस्तेमाल नागरिकों के कल्याण के लिए होना चाहिए, व्यवसायीकरण नहीं। इसके उलट आज भी करीब 30% जमीनों पर सरकार (पीडब्लूडी, सिंचाई, वन, रेल व डिफेंस आदि) का कब्ज़ा हैं। जो गलत है। समुदायों को उनका हक मिलना चाहिए। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ राजकुमारी संघर्ष का पर्याय बन उभरीं हैं तो देर सबेर जीत भी निश्चित है।