गुजरात कत्लेआम (2002), भारत में अल्पसंख्यक-विरोधी हिंसा के सबसे वीभत्स और भयावह अध्यायों में से एक है.
इस घटना ने हिंसा और नफरत भड़काई और साम्प्रदायिक आधार पर लोगों के अपने मोहल्लों में सिमटने की प्रवृत्ति में तेजी से इजाफा किया. इस हिंसा के बहुत पहले से गुजरात को हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला बताया जा रहा था. गोधरा में ट्रेन आगजनी के बहाने गुजरात में जो खून-खराबा हुआ उसमें एक हजार से अधिक लोग मारे गए. ‘तहलका' के आशीष खैतान द्वारा किए गए स्टिंग आपरेशन के दौरान बाबू बजरंगी ने कहा कि उसे लोगों की जान लेने के लिए तीन दिन का वक्त दिया गया था और यह भी कि लोगों को मारते समय उसे ऐसा लग रहा था मानो वह महाराणा प्रताप है. जनरल जमीरउद्दीन शाह ने बताया कि सेना की टुकड़ियों को कई घंटों तक दंगाईयों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करने दी गई. बाबू बजरंगी जैसे लोगों को अलग-अलग आधारों पर जमानत मिल चुकी है. माया कोडनानी, जिसे हिंसा भड़काने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, भी जमानत पर बाहर है. परंतु तीस्ता सीतलवाड जेल में हैं.
न्यायमूर्ति सावंत की अध्यक्षता वाला जन न्यायाधिकरण इस नतीजे पर पहुंचा था कि गुजरात में जो कुछ हुआ उसे राज्य का समर्थन हासिल था. गुजरात के दंगा पीड़ितों से संबंधित जिन प्रकरणों में सबसे पहले न्याय मिला, उनमें बिलकीस बानो प्रकरण शामिल था. वे और उनका परिवार अपनी जान बचाने के लिए खेतों में छिप गए थे. परंतु खून की प्यासी भीड़ ने उन्हें ढूंढ़ निकाला. बिलकीस, उनकी बहन और उनकी मां के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. इस निहायत बर्बर हमले में बिलकीस के परिवार के 7 सदस्य मारे गए. बिलकीस, जिन्हें 5 माह का गर्भ था, को मरा समझकर छोड़ दिया गया.
सौभाग्य से बिलकीस की जान बच गई. जब उन्हें होश आया तब उनके तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. उन्होंने बहुत हिम्मत से अपने और अपने परिवारजनों के लिए न्याय प्राप्त करने की लड़ाई शुरू की. इस काम में अनेक प्रतिबद्ध और समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उनकी मदद की. इसके नतीजे में एक लंबी और कठिन लड़ाई के बाद सन् 2008 में 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. इनमें से एक हत्यारे और बलात्कारी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अपनी सजा में छूट की मांग की. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गुजरात सरकार से निर्णय लेने को कहा. अदालत यह भूल गई कि मामले को गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित इसलिए ही किया गया था क्योंकि गुजरात में बिलकीस बानो को न्याय मिलने की जरा भी संभावना नहीं थी.
फिर, 15 अगस्त 2022 को जब प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से नारी शक्ति का गुणगान कर रहे थे उसी दिन इन 11 बलात्कारियों और हत्यारों को जेल से रिहा कर दिया गया. उनका शानदार स्वागत हुआ, उन्हें मालाएं पहनाईं गईं और मिठाई बांटी गई.
इसके पहले भी कारावास की उनकी अवधि के दौरान उन्हें अनेक बार पेरोल दी गई. पेरोल के दौरान वे उनके खिलाफ गवाही देनें वालों को धमकाते थे. बिलकीस बानो पूरी तरह से टूट गईं हैं. जिस इलाके में वे रहती हैं वहां के मुसलमान इस डर से वहां से पलायन कर रहे हैं कि उनके खिलाफ हिंसा हो सकती है. व्याख्याकारों का कहना है कि इस मामले में उच्चतम न्यायालय और गुजरात सरकार दोनों के निर्णय मानवीयता और कानून के खिलाफ हैं.
व्यवस्था के इस प्रतिगामी कदम का नागरिक समाज ने कड़ा प्रतिरोध किया है. कहने की जरूरत नहीं कि हमारी व्यवस्था में भाजपा और संघ से सहानुभूति रखने वालों का खासा प्रतिशत है. कांग्रेस ने इस निर्णय की आलोचना की है. ऐसा लगता है कि भाजपा ने यह निर्णय समाज को साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकृत करने के लिए लिया है और उसे उम्मीद है कि ध्रुवीकरण का फायदा उसे गुजरात में इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में मिलेगा.
गोदी मीडिया ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है. अपने ‘मन की बात' तक से देश को परिचित करवाने वाले हमारे प्रधानमंत्री भी चुप हैं. परंतु इसके साथ ही भाजपा के शांताकुमार और खुशबू सुंदर ने इसका कड़ा विरोध किया. इनके अलावा इस शर्मनाक निर्णय की भाजपा में कोई चर्चा नहीं हो रही है. कई महिला और मानवाधिकार संगठनों ने भी आवाज उठाई है परंतु सरकार पर इसका कोई असर पड़ रहा हो ऐसा नहीं लगता.
सेवानिवृत्त नौकरशाहों की संस्था कांस्टिीटयूशनल कंडक्ड गु्रप ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना करते हुए यह मांग की है कि उसे पलटा जाए और दोषियों को फिर से जेल भेजा जाए. हजारों लोगों ने एक याचिका पर हस्ताक्षर कर उच्चतम न्यायालय और गुजरात सरकार के निर्णय की आलोचना की है.
अन्यों के अतिरिक्त महुआ मोईत्रा, सुभाषिणी अली, रेवती लाल एवं रूपरेखा वर्मा ने महिलाओं के इस अपमान पर दुःख और खेद व्यक्त किया है. इस घटनाक्रम का सबसे दुःखद पहलू है दोषियों का फूलमालाओं और मिठाईयों के साथ स्वागत. यह उन पितृसत्तात्मक मूल्यों को अभिव्यक्त करता है जो हिन्दुत्व सहित सभी साम्प्रदायिक विचारधाराओं के अभिन्न अंग होते हैं. सभी धार्मिक कट्टरपंथी महिलाओं को पुरूषों की संपत्ति मानते हैं और साम्प्रदायिक हिंसा को दो समुदायों के बीच युद्ध के तौर पर देखा जाता है. अब चूंकि महिलाएं पुरूषों की संपत्ति हैं इसलिए दूसरे समुदायों की महिलाओं का अपमान और उनका बलात्कार वीरता का लक्षण होगा ही.
सन 1992-93 की मुंबई हिंसा के दौरान बहुसंख्यक समुदाय की महिलाओं ने स्वयं ‘अपने पुरूषों' को अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएं सौपीं थीं. हिन्दू राष्ट्रवाद के मूल स्त्रोत, विनायक दामोदर सावरकर, जो इन दिनों विघटनकारी राजनीति के नायक बने हुए हैं, ने ही सबसे पहले हमें यह बताया था कि ‘शत्रु समुदाय' की महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए. छत्रपति शिवाजी के बारे में लिखते हुए उन्होंने बसैन के मुस्लिम सूबेदार की बहू को लौटाने को सुरक्षित वापस लौटाने के शिवाजी के निर्णय की आलोचना की है. यह महिला शिवाजी की सेना द्वारा की गई लूट का हिस्सा थी. शिवाजी ने अपनी सेना को यह निर्देश दिया कि उस महिला को सुरक्षित उसके घर तक पहुंचाया जाए. सावरकर ने शिवाजी की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा कि वे आखिर यह कैसे भूल गए कि यही तो बदला लेने का समय है.
शर्मनाक केवल यह नहीं है कि गुजरात हिंसा के दोषियों (माया कोडनानी, बाबू बजरंगी इत्यादि) को जमानत दे दी गई है और अब इन 11 लोगों की बाकी सजा माफ कर दी गई है. इससे भी ज्यादा शर्मनाक है उस समुदाय की मानसिकता जो ऐसे लोगों का स्वागत करता है. साम्प्रदायिक विचारधारा ने हमारे समाज की मानवीयता और नैतिकता को मानो हर लिया है. हमनें देखा है कि मोहम्मद अखलाक की हत्या के आरोपी के शव को महेश शर्मा नामक केन्द्रीय मंत्री ने तिरंगे में लपेटा. एक अन्य केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने लिंचिंग के एक आरोपी के जमानत पर जेल से रिहा होने पर फूल मालाओं से उसका स्वागत किया था. अफराजुल के हत्यारे शंभूलाल रेगर के परिवार को वकीलों का खर्च उठाने के लिए कुछ लोगों ने चंदा करके धन उपलब्ध करवाया था.
उच्चतम न्यायालय को इस मामले में दायर की गईं जनहित याचिकाओं पर जल्दी से जल्दी निर्णय लेते हुए दोषियों को फिर से जेल पहुंचाना चाहिए. इसके साथ ही हमें उस साम्प्रदायिक मानसिकता से भी निपटने की जरूरत है जो बलात्कारियों और हत्यारों को अभिनंदन का पात्र मानती है. मोदी की नारी शक्ति के बारे में बातें तब तक खोखली रहेंगीं जब तक कि पितृसत्तात्मकता, जो कि साम्प्रदायिक विचारधारा का एक घटक है, को समाप्त नहीं कर दिया जाता.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
इस घटना ने हिंसा और नफरत भड़काई और साम्प्रदायिक आधार पर लोगों के अपने मोहल्लों में सिमटने की प्रवृत्ति में तेजी से इजाफा किया. इस हिंसा के बहुत पहले से गुजरात को हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला बताया जा रहा था. गोधरा में ट्रेन आगजनी के बहाने गुजरात में जो खून-खराबा हुआ उसमें एक हजार से अधिक लोग मारे गए. ‘तहलका' के आशीष खैतान द्वारा किए गए स्टिंग आपरेशन के दौरान बाबू बजरंगी ने कहा कि उसे लोगों की जान लेने के लिए तीन दिन का वक्त दिया गया था और यह भी कि लोगों को मारते समय उसे ऐसा लग रहा था मानो वह महाराणा प्रताप है. जनरल जमीरउद्दीन शाह ने बताया कि सेना की टुकड़ियों को कई घंटों तक दंगाईयों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करने दी गई. बाबू बजरंगी जैसे लोगों को अलग-अलग आधारों पर जमानत मिल चुकी है. माया कोडनानी, जिसे हिंसा भड़काने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, भी जमानत पर बाहर है. परंतु तीस्ता सीतलवाड जेल में हैं.
न्यायमूर्ति सावंत की अध्यक्षता वाला जन न्यायाधिकरण इस नतीजे पर पहुंचा था कि गुजरात में जो कुछ हुआ उसे राज्य का समर्थन हासिल था. गुजरात के दंगा पीड़ितों से संबंधित जिन प्रकरणों में सबसे पहले न्याय मिला, उनमें बिलकीस बानो प्रकरण शामिल था. वे और उनका परिवार अपनी जान बचाने के लिए खेतों में छिप गए थे. परंतु खून की प्यासी भीड़ ने उन्हें ढूंढ़ निकाला. बिलकीस, उनकी बहन और उनकी मां के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. इस निहायत बर्बर हमले में बिलकीस के परिवार के 7 सदस्य मारे गए. बिलकीस, जिन्हें 5 माह का गर्भ था, को मरा समझकर छोड़ दिया गया.
सौभाग्य से बिलकीस की जान बच गई. जब उन्हें होश आया तब उनके तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. उन्होंने बहुत हिम्मत से अपने और अपने परिवारजनों के लिए न्याय प्राप्त करने की लड़ाई शुरू की. इस काम में अनेक प्रतिबद्ध और समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उनकी मदद की. इसके नतीजे में एक लंबी और कठिन लड़ाई के बाद सन् 2008 में 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. इनमें से एक हत्यारे और बलात्कारी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अपनी सजा में छूट की मांग की. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गुजरात सरकार से निर्णय लेने को कहा. अदालत यह भूल गई कि मामले को गुजरात से महाराष्ट्र स्थानांतरित इसलिए ही किया गया था क्योंकि गुजरात में बिलकीस बानो को न्याय मिलने की जरा भी संभावना नहीं थी.
फिर, 15 अगस्त 2022 को जब प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से नारी शक्ति का गुणगान कर रहे थे उसी दिन इन 11 बलात्कारियों और हत्यारों को जेल से रिहा कर दिया गया. उनका शानदार स्वागत हुआ, उन्हें मालाएं पहनाईं गईं और मिठाई बांटी गई.
इसके पहले भी कारावास की उनकी अवधि के दौरान उन्हें अनेक बार पेरोल दी गई. पेरोल के दौरान वे उनके खिलाफ गवाही देनें वालों को धमकाते थे. बिलकीस बानो पूरी तरह से टूट गईं हैं. जिस इलाके में वे रहती हैं वहां के मुसलमान इस डर से वहां से पलायन कर रहे हैं कि उनके खिलाफ हिंसा हो सकती है. व्याख्याकारों का कहना है कि इस मामले में उच्चतम न्यायालय और गुजरात सरकार दोनों के निर्णय मानवीयता और कानून के खिलाफ हैं.
व्यवस्था के इस प्रतिगामी कदम का नागरिक समाज ने कड़ा प्रतिरोध किया है. कहने की जरूरत नहीं कि हमारी व्यवस्था में भाजपा और संघ से सहानुभूति रखने वालों का खासा प्रतिशत है. कांग्रेस ने इस निर्णय की आलोचना की है. ऐसा लगता है कि भाजपा ने यह निर्णय समाज को साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकृत करने के लिए लिया है और उसे उम्मीद है कि ध्रुवीकरण का फायदा उसे गुजरात में इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में मिलेगा.
गोदी मीडिया ने इस मामले में चुप्पी साध रखी है. अपने ‘मन की बात' तक से देश को परिचित करवाने वाले हमारे प्रधानमंत्री भी चुप हैं. परंतु इसके साथ ही भाजपा के शांताकुमार और खुशबू सुंदर ने इसका कड़ा विरोध किया. इनके अलावा इस शर्मनाक निर्णय की भाजपा में कोई चर्चा नहीं हो रही है. कई महिला और मानवाधिकार संगठनों ने भी आवाज उठाई है परंतु सरकार पर इसका कोई असर पड़ रहा हो ऐसा नहीं लगता.
सेवानिवृत्त नौकरशाहों की संस्था कांस्टिीटयूशनल कंडक्ड गु्रप ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना करते हुए यह मांग की है कि उसे पलटा जाए और दोषियों को फिर से जेल भेजा जाए. हजारों लोगों ने एक याचिका पर हस्ताक्षर कर उच्चतम न्यायालय और गुजरात सरकार के निर्णय की आलोचना की है.
अन्यों के अतिरिक्त महुआ मोईत्रा, सुभाषिणी अली, रेवती लाल एवं रूपरेखा वर्मा ने महिलाओं के इस अपमान पर दुःख और खेद व्यक्त किया है. इस घटनाक्रम का सबसे दुःखद पहलू है दोषियों का फूलमालाओं और मिठाईयों के साथ स्वागत. यह उन पितृसत्तात्मक मूल्यों को अभिव्यक्त करता है जो हिन्दुत्व सहित सभी साम्प्रदायिक विचारधाराओं के अभिन्न अंग होते हैं. सभी धार्मिक कट्टरपंथी महिलाओं को पुरूषों की संपत्ति मानते हैं और साम्प्रदायिक हिंसा को दो समुदायों के बीच युद्ध के तौर पर देखा जाता है. अब चूंकि महिलाएं पुरूषों की संपत्ति हैं इसलिए दूसरे समुदायों की महिलाओं का अपमान और उनका बलात्कार वीरता का लक्षण होगा ही.
सन 1992-93 की मुंबई हिंसा के दौरान बहुसंख्यक समुदाय की महिलाओं ने स्वयं ‘अपने पुरूषों' को अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएं सौपीं थीं. हिन्दू राष्ट्रवाद के मूल स्त्रोत, विनायक दामोदर सावरकर, जो इन दिनों विघटनकारी राजनीति के नायक बने हुए हैं, ने ही सबसे पहले हमें यह बताया था कि ‘शत्रु समुदाय' की महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए. छत्रपति शिवाजी के बारे में लिखते हुए उन्होंने बसैन के मुस्लिम सूबेदार की बहू को लौटाने को सुरक्षित वापस लौटाने के शिवाजी के निर्णय की आलोचना की है. यह महिला शिवाजी की सेना द्वारा की गई लूट का हिस्सा थी. शिवाजी ने अपनी सेना को यह निर्देश दिया कि उस महिला को सुरक्षित उसके घर तक पहुंचाया जाए. सावरकर ने शिवाजी की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा कि वे आखिर यह कैसे भूल गए कि यही तो बदला लेने का समय है.
शर्मनाक केवल यह नहीं है कि गुजरात हिंसा के दोषियों (माया कोडनानी, बाबू बजरंगी इत्यादि) को जमानत दे दी गई है और अब इन 11 लोगों की बाकी सजा माफ कर दी गई है. इससे भी ज्यादा शर्मनाक है उस समुदाय की मानसिकता जो ऐसे लोगों का स्वागत करता है. साम्प्रदायिक विचारधारा ने हमारे समाज की मानवीयता और नैतिकता को मानो हर लिया है. हमनें देखा है कि मोहम्मद अखलाक की हत्या के आरोपी के शव को महेश शर्मा नामक केन्द्रीय मंत्री ने तिरंगे में लपेटा. एक अन्य केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने लिंचिंग के एक आरोपी के जमानत पर जेल से रिहा होने पर फूल मालाओं से उसका स्वागत किया था. अफराजुल के हत्यारे शंभूलाल रेगर के परिवार को वकीलों का खर्च उठाने के लिए कुछ लोगों ने चंदा करके धन उपलब्ध करवाया था.
उच्चतम न्यायालय को इस मामले में दायर की गईं जनहित याचिकाओं पर जल्दी से जल्दी निर्णय लेते हुए दोषियों को फिर से जेल पहुंचाना चाहिए. इसके साथ ही हमें उस साम्प्रदायिक मानसिकता से भी निपटने की जरूरत है जो बलात्कारियों और हत्यारों को अभिनंदन का पात्र मानती है. मोदी की नारी शक्ति के बारे में बातें तब तक खोखली रहेंगीं जब तक कि पितृसत्तात्मकता, जो कि साम्प्रदायिक विचारधारा का एक घटक है, को समाप्त नहीं कर दिया जाता.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)