वनाश्रित-आदिवासियों की कृषि कानूनों के खिलाफ हुंकार, कहा- मामला उनकी आजीविका से भी जुड़ा

Written by Navnish Kumar | Published on: December 15, 2020
वनाश्रित-आदिवासी समुदायों ने भी कृषि कानूनों के खिलाफ हुंकार भरते हुए कहा है कि मसला किसानों भर का नहीं है, उनकी आजीविका (खेती व भूमि अधिकार) से भी जुड़ा है। वनाधिकार दिवस के मौके पर देश के अलग अलग अंचलों से वन आश्रित व आदिवासी समुदाय व संगठनों ने राष्ट्रपति के नाम दिए ज्ञापन में मामला उठाया है और तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग की है। 


पलिया लखीमपुर खीरी

वनाश्रित समुदायों का कहना है कि वह संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश के किसानों के आंदोलन में उनके साथ हैं और तीनों कृषि कानूनों (कृषक उपज व्यापार, वाणिज्य संवर्धन और सरलीकरण विधेयक-2020, कृषक सशिक्तकरण व संरक्षण कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक-2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक को तत्काल प्रभाव से रद्द करने की मांग करते हैं। उन्होने कहा कि यह मसला केवल किसानों का नहीं है, बल्कि जंगलों में रहने वाले वनाश्रित समुदायों की 20 करोड़ की आबादी का भी है। हम लोग भी किसान हैं और वनों के अंदर खेती और वनोपज से अपनी जीविका चलाते हैं। खेती में लाए गए इन कानूनों से हम लोग भी पूरी तरह से बर्बाद हो जाएंगे। 

इन समुदायों का कहना है कि खेती और जंगल हमारी आजीविका के मुख्य साधन हैं, जिसको सिर्फ व्यापार के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। आजीविका को सुरक्षित रखना सरकार की जिम्मेदारी है, जबकि इन कानूनों से हमारे आजीविका के साधनों पर कारपोरेट घरानों की कंपनियों का कब्जा हो जाएगा और हम लोग खाने के अपना पेट भरने के लिए दाने दाने के लिए मोहताज हो जाएंगे और भूखों मरने लगेंगे। 

खेती के संबंध में वैसे भी कानून का दायरा राज्य के अधीन है ना कि केंद्र सरकार के। केंद्र सरकार इन कृषि कानूनों को गैर संवैधानिक रूप से व्यापार से जोड़ कर संसद के माध्यम से लाई है, जोकि संसद के दायरे के बाहर है। इस बाबत राज्य सरकारों एवं किसान संगठनों के साथ कोई सलाह मशविरा नहीं किया गया। वहीं, वन क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर अवैध रूप से कंपनियों द्वारा खनन के माध्यम से, प्रोजेक्टों के नाम पर वन भूमि को हड़पा जा रहा है और वनाश्रित समुदायों के आजीविका के साधनों को समाप्त किया जा रहा है। 


बहराइच में वनाश्रित

संसद द्वारा 15 दिसंबर 2006 में पारित वनाधिकार कानून एक तो लागू नहीं हो रहा है, ऊपर से वन विभाग द्वारा कानून और उसके पीछे की समुदायों को ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने की मंशा का भी उल्लंघन किया जा रहा है और समुदाय के लोगों पर वन विभाग द्वारा आए दिन हम पर हमला किया जाता है और उनकी दखल की गई भूमि से बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। हमारा संघर्ष और किसानों का संघर्ष अलग नहीं है। हम लोग भी अपनी ज़मीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और किसान भी अपनी जमीन व आजीविका बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार में यह स्पष्ट लिखा है कि आजीविका का अधिकार जीने का अधिकार है। हमारे जीने के अधिकार को सुरक्षित किया जाए व कॉर्पोरेट घरानों का एकाधिकार जो केंद्र सरकार बनाना चाह रही है उसे तुरंत रोका जाए। अब तो समय है कि लोगों को और विशिष्ट कानून दिए जाने चाहिए और भूमि अधिकार और वनाधिकार को मजबूत करने के लिए नए कानून लाए जाने चाहिए ना कि उनको छीनने के लिए कानून बनाए जाने चाहिए। 

इसी सब को लेकर समुदाय की ओर से उड़ीसा से लेकर बिहार व उप्र से लेकर उत्तराखंड तक ज्ञापन दिए जा रहे हैं। सोनभद्र, चित्रकूट, लखीमपुर खीरी से लेकर सहारनपुर व देहरादून तक वनाश्रित समुदाय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के साथ मुट्ठी तान खड़ा होना शुरू हो गया है। 

मंगलवार को मानिकपुर, सोनभद्र, पलिया खीरी, देहरादून व बहराइच में भी आदिवासी समुदाय के लोगों ने बड़े बड़े जुलूस के साथ राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सौंपे। जिसमें कृषि में लाए गए तीनों कानूनों को फौरन रद्द किया जाने व किसान हित में नए भूमि अधिकार कानून बनाए जाने की मांग की गई हैं। साथ ही वनाधिकार कानून लागू हो व सामुदायिक दावों का निस्तारण किया जाए। भूमिहीनों को भूमि के अधिकार देने के लिए कानून को मजबूत किया जाए। 

उन्होंने कहा कि खेतिहर मजदूर के अधिकारों के लिए 40 वर्षों से अभी भी संसद में कानून लंबित है जिसे पास नहीं किया गया इस कानून को जल्द पारित करें। देश में आजादी के बाद भूमि सुधार का एजेंडा अधूरा है इसे पूरा करने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं। 

वनाधिकार को लेकर लंबे समय से वनाश्रित व आदिवासी समुदायों के साथ काम कर रहे अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के अशोक चौधरी, रोमा, हरि सिंह, राजकुमारी, सुकालो गोंड, रजनीश, मीर हमजा, माता दयाल, सहवनिया राणा, जंग बहादुर, रानी व मुन्नीलाल आदि ने एक सुर में मांग की कि वन क्षेत्र में भी प्रभावी भूमि सुधार लागू किया जाए और वन विभाग के एकाधिकार को समाप्त किया जाए।

कृषि एवं जंगल में महिलाएं 90% से भी ज्यादा योगदान करती हैं, लेकिन उन्हें किसान का दर्जा प्राप्त नहीं है। भूमिहीन महिलाओं को भूमि के अधिकार दिए जाएं तथा महिलाओं को तमाम राजस्व कानूनों में भूमि अधिकार पर पुरूषों के साथ बराबरी का दर्जा देने के प्रावधान किए जाएं।

भूमि अधिकार के साथ श्रम अधिकार का विशेष जुड़ाव है। इसलिए श्रम अधिकारों को श्रमजीवी समुदाय के पक्ष में मजबूत किया जाए तथा बढ़ते पर्यावरणीय संकट के चलते खेती व जंगल में सामूहिक खेती व वानिकी को बढ़ावा दिया जाए व इसके लिए विशिष्ट कानून बनाए जाएं।

ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल (एआईयूएफडब्लूपी) के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी ने किसानों के कंपनियों पर सीधे हमला करने की रणनीति पर कहा कि सरकार के बर्ताव से यह साफ हो चुका है कि मोदी सरकार को भारत के लोगों की बजाय कॉरपोरेट्स की फिक्र ज्यादा है।

चौधरी कहते हैं कि वैसे भी किसान आंदोलन मूलभूत रूप से भूमि अधिकार का ही आंदोलन है। अंग्रेजी जमाने में ईस्ट इंडिया कंपनी ने नील की खेती के नाम पर एग्रीमेंट कर, किसानों की जमीनों को हड़पा था। वहीं, नकद लगान न दे पाने पर किसानों ने महाजनों (सूदखोरों) से कर्ज लिया था जिसमें भी बाद में रकम न चुका पाने पर किसानों को अपनी जमीनें गंवानी पड़ी थीं। अब फिर उसी 200 साल पुराने इतिहास को दोहराने की तैयारी मोदी सरकार कर रही है।

वनजन श्रमजीवी यूनियन का ज्ञापन

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