वनाधिकार कानून-2006 : उत्तराखंड आगे बढ़ा, उत्तर प्रदेश उलझा अफसरशाही में

Written by Navnish Kumar | Published on: September 11, 2020
आजादी के 73 साल बाद ही सही, उत्तराखंड ने अपने वन टोंगिया ग्रामों को राजस्व का दर्जा देने की पहल की है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने खुद उत्तराखंड के टोंगिया परिवारों को वन भूमि पर अधिकार (हक़) देने का ऐलान किया। कहा 50 हज़ार लोगों को इसका लाभ होगा। यह इसलिए और भी महत्वपूर्ण है कि यह सभी टोंगिया गांव, राजाजी राष्ट्रीय पार्क के अंदर स्थित हैं। लेकिन जिस, उप्र से सीख लेकर उत्तराखंड ने वनाधिकार के मोर्चे पर कदम आगे बढ़ाएं हैं वहीं, उप्र अब खुद अफसरशाही में उलझता दिख रहा है। 



जी हां, उप्र सरकार ने सहारनपुर के शिवालिक जंगल में बसे टोंगिया गांवों को राजस्व का दर्जा तो दिया लेकिन लोगों के अधिकार-दावों को अफसरों द्वारा, जिस तरह मनमाने व गैर कानूनी तरीके से एकतरफा खारिज कर दिया जा रहा है उससे पूरे वनाधिकार कानून के ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के मकसद को लेकर ही सवाल खड़े हो जा रहे हैं। कि आखिर यही सब करना था तो टोंगिया लोगों को आजादी और हक (वनाधिकार) के सपने ही क्यों दिखाए।

सवाल यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि इससे कहीं आगे का यह है कि जिस हास्यास्पद तरीके, दलीलों व अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर लोगों के वन भूमि पर अधिकार के दावे-फार्मों को निरस्त किया जा रहा है वो मानव समाज की तरक्की, उसके आगे बढ़ने और उसके उत्थान और विकास की अनवरत प्रक्रिया को ही चुनौती देने जैसा है। 

मसलन, आप नौकरी करते हैं लिहाजा आपका अधिकार (वनाधिकार) खत्म। आप किसी काम के सिलसिले या अन्य कारण से कहीं बाहर रहने लगे हैं तो आपका वनाधिकार खत्म। कम से कम सहारनपुर की बेहट उपखंडीय समिति तो यही सब कर रही है। टोंगिया ग्रामीणों का कहना है कि नौकरी या बाहर रहने जैसे कारणों को आधार बताकर बेहट एसडीएम दीप्ति देव यादव द्वारा सैंकड़ों टोंगिया आश्रितों के दावे फार्म निरस्त कर दिए जा रहे हैं। 

ग्रामीणों का कहना है कि एसडीएम, वनाधिकार कानून की अपनी ही व्याख्या कर ले रहे हैं। जबकि उन्हें दावे निरस्त करने का अधिकार भी नहीं हैं। असहमति की दशा में वह दावे फार्मो को ग्राम सभा को वापस मात्र कर सकते हैं। इस बाबत सुप्रीम कोर्ट का स्टे भी है। 

वनाधिकार एक्ट, वनाश्रित समुदाय की बात करता है जबकि एसडीएम महोदय, इसे महज नौकरी (आजीविका) मात्र से जोड़कर अपनी ही मनमानी व्याख्या गढ़ ले रहे हैं। मसलन, अगर आप किसी गांव के निवासी हैं और कहीं नौकरी करने लगे। भले आप शाम को घर भी चले जाते हो या रिटायर्ड होकर गांव में ही रह रहे हो, लेकिन एसडीएम महोदय के अनुसार, आप गांव (वन भूमि) पर आश्रित नहीं माने जाएंगे। 

यही नहीं, अगर आपने कही दूसरी जगह मेहनत मजदूरी कर थोड़ी बहुत संपत्ति (आवासीय या कृषि भूमि) जुटा ली तो भी एसडीएम साहब के अनुसार, आप की अपने पैतृक गांव पर निर्भरता यानी आश्रित होने का दावा खत्म माना जाएगा। हैं ना गजब की व्याख्या। 

एसडीएम साहब आश्रित की अपनी व्याख्या में यह भी भूल गएं कि आश्रित होना या न होना, केवल नौकरी मात्र से ही तय नहीं होता हैं। आश्रित होने के लिए परिवारिक निर्भरता, सामाजिक सुरक्षा, जीवन शैली, रीति रिवाज व संस्कृति आदि बहुत से कारक-कारण भी साथ जुड़े होते हैं। 

दूसरा, विचारणीय पहलू यह भी है कि इन सभी दावेदारों के पूर्वज, वो टोंगिया काश्तकार थे जिन्होंने ये जंगल लगाए थे। सभी टोंगिया परिवार उसी वंशानुगत आधार पर एक्ट के तहत, वन भूमि पर अपने अधिकार का दावा कर रहे हैं। वनाधिकार कानून साफ साफ कहता है कि जिनके पूर्वजों ने जंगल लगाए थे, उनके आश्रितों के वन भूमि पर सामुदायिक और व्यक्तिगत अधिकार हैं। यही नहीं, अगर वंशानुगत आश्रित नहीं हैं तो उसके काबिज काश्त पर नजदीकी सगे संबंधियों का भी दावा मान्य होगा।

वनाधिकार एक्ट को लेकर अधिकारी, यह छोटी सी बात तक नहीं समझ पा रहे हैं कि वनाधिकार एक्ट में सरकार अपने खजाने से किसी को कुछ नहीं दे रही हैं। बल्कि, जिस भूमि या संपत्ति पर टोंगिया आदि वनाश्रित समुदाय के लोग काबिज-काश्त करते चले आ रहे हैं, एक्ट उसे मान्यता भर देता है। मसलन, वनाधिकार कानून जमीन आवंटन का नहीं, बल्कि जिस जमीन पर लोग काबिज काश्त करते चले आ रहे हैं, उसे मान्यता देने का कानून है। 

इस सब से इतर सर्वविदित सत्य हैं कि संवैद्यानिक अधिकार खुद में सार्वभौम और शाश्वत होते हैं। इसके लिए कोई अगर-मगर या शर्त नहीं थोपी जा सकती हैं। वनाधिकार कानून के तहत जिसका जो अधिकार हैं वो हैं। फिर चाहे वो पढा लिखा है या अनपढ़, नौकरी करता हैं या नहीं, गांव में रहता हैं या कस्बे में या फिर शहर या कहीं और। अधिकार कोई परमिट या सुविधा नहीं है कि शर्ते लागू होंगी। कि नौकरी वाले को नहीं मिलेगा या फिर आप यहां रहते हैं या कहीं और। एक्ट में कहीं नहीं लिखा है कि नौकरी करने वाले को अधिकार नहीं मिलेंगे या नौकरी नहीं करने पर ही मिलेंगे। 

वन टोंगिया निवासी व उत्तराखंड में वनाधिकार आंदोलन के चेहरे  मुन्नीलाल कहते हैं कि बेहट की उपखंडिय समिति ने जिस तरह सोढ़ीनगर, कालुवाला, भगवतपुर व बूढ़ाबन के टोंगिया काश्तकारों (दावेदारों) के पक्ष को सुना तक नहीं और गैर कानूनी तरीके से नौकरी करने जैसे हास्यास्पद कारणों से टोंगिया काश्तकारों के वंशजों के दावे फार्म खारिज किए हैं। वह एक्ट की जानकारी न होने की ओर इंगित करता हैं। मुन्नीलाल कहते हैं कि ज़िले के उच्चाधिकारियों को मोहण्ड बैठक की कार्यवाही का अवलोकन करना चाहिए तथा पुनः बैठक बुलाकर, कानून की मंशा के अनुसार सुनवाई कराई जानी चाहिए। ताकि ऐतिहासिक अन्याय के शिकार टोंगिया परिवारों को उनके वनाधिकार व न्याय मिलने का काम हो सके।

अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी भी बेहट उपखंडीय समिति के रवैये पर हैरानी जताते हैं। चौधरी कहते हैं कि वनाधिकार कानून एक विशेष तरह का क़ानून हैं। यह अधिकार को मान्यता देने का कानून हैं, कोई भूमि आवंटन करने का कानून नहीं है। इसलिए कानून और उसकी मंशा को समझने के लिए अधिकारियों के लिए भी विशेष ओरियंटेशन कार्यक्रम आयोजित करने की जरूरत हैं। अभी तक उप्र सरकार ने ऐसा कार्यक्रम आयोजित नहीं किया है।

उप्र में वनाधिकार को पाने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं हैं बल्कि इसके पीछे एक लंबी लड़ाई व जद्दोजहद छिपी हैं। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव रोमा बताती हैं कि किस तरह जंगलों आदि में गांव गांव घूमकर लोगों को जगाया। जोड़ा। संसद ने भी वन समुदाय के दर्द को समझा और महसूस किया। और सर्वसम्मति से कानून पारित हुआ। 

रोमा बताती हैं कि यह पहला कानून हैं जिसकी प्रस्तावना में ही लिखा गया हैं कि आदिवासी, वन निवासी समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के लिए।
बहरहाल, कानून बन गया लेकिन असल जद्दोजहद इसके बाद शुरू हुई। 2008 में कानून लागू हुआ तो लोगों और सरकार को जगाने का पूरा दौर चला जो आज भी जारी हैं। तत्कालीन बसपा सरकार ने इसके लिए वनसमुदाय के लोगों रामचंद्र राणा आदि को शामिल करते हुए, राज्य स्तरीय निगरानी समिति का गठन किया गया। बतौर विशेष आमंत्रित सदस्य समिति में शामिल रही रोमा बताती हैं कि संयुक्त संघर्ष का ही नतीजा था कि यूनियन के प्रयासों से 2011 में पहला आदिवासी गांव सुरमा जो दुधवा नेशनल पार्क के अंदर स्थित हैं, आजाद हुआ। राजस्व का दर्जा मिला। 

रोमा बताती हैं कि इन वन ग्रामों में सभी दलित व गरीब मुस्लिम जातियों के निवास करने के चलते, तत्कालीन बसपा सरकार ने 50 साल के रिहायशी रिकॉर्ड को मानते हुए इन गांवों को राजस्व में बदलने का निर्णय लिया था। इसलिए टोंगिया को अधिकार देने में सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति सबसे अहम हैं। सरकारें चाहे तो व्यापक जनहित में 75 साल के प्रावधान को नए सिरे से व्याख्यापित कर सकती है।

खैर, सुरमा के साथ दो और गांव राजस्व घोषित हुए। इसके बाद 2012 में सरकार बदलने से मामला सुस्त पड़ गया। 2017 में
जहाँ योगी सरकार की चर्चा की है वहाँ जोड़ना होगा कि 2017 में फिर सरकार बदली तो सहारनपुर नगर विधायक व अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष संजय गर्ग ने विधानसभा में वनाधिकार कानून और वन ग्रामों का मुद्दा उठाया। जमकर बहस हुई, तब कहीं जाकर 40 गांव राजस्व में तब्दील करने का निर्णय हुआ। योगी सरकार ने इन गांवों को राजस्व का दर्जा दिया। 

यही नहीं, उप्र से प्रेरित होकर उत्तराखंड त्रिवेंद्र सरकार ने भी अपने यहां राजाजी पार्क के अंदर स्थित वन टोंगिया गांवों को राजस्व का दर्जा देने का ऐलान किया है। 
रोमा कहती हैं कि यूनियन व समुदाय के निरंतर संघर्ष का ही नतीजा हैं कि देर से सही, उत्तराखंड सरकार ने भी अपने यहां वन भूमि पर टोंगिया परिवारों को अधिकार देने का निर्णय लिया है। वह भी राजाजी राष्ट्रीय पार्क के अंदर ही तो, निसंदेह वनाश्रित समुदायों के साथ उन सबके लिए भी यह बड़ा दिन है।

----जंगल लगाने को अंग्रेजों ने बसाए थे टोंगिया गांव---- वनों के अंदर बसे टोंगिया गांव 19वीं सदी के आखिर में अंग्रेजों ने बसाए थे। टोंगिया पद्धति से जंगल लगाने के लिए अंग्रेजो ने आसपास के भूमिहीन लोगो को जोड़ा और उन्हें वन भूमि पर रहने को जगह भी दी। यह लोग जंगल लगाते थे और तीन साल वहीं रहकर देखभाल करते थे। इसके बाद नए जंगल लगाने को आगे बढ़ते थे।

वन भूमि पर रह रहे यही लोग बाद में वन टोंगिया कहलाएं। ये सब छप्पर के घरों में रहते थे। कच्ची दीवार तक नहीं बना सकते थे। आजादी के 60 साल बाद ही सही, देश की संसद ने भी माना कि वन टोंगिया के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। और वनाधिकार कानून-2006 पारित किया लेकिन कानून आने के 14 साल भी स्थिति ज्यादा कुछ नहीं बदली है।

भारत मे इस टोंगिया पद्धति को लाने का श्रेय डिट्रिच ब्रांडिस को जाता हैं जो एक जर्मन नागरिक थे। ब्रांडिस सबसे पहले बर्मा के वनों के देखरेख के इंस्पेक्टर जनरल थे। वैसे टंगिया शब्द बर्मीज़ भाषा से लिया गया जहां पहाड़ो में क्यारियों के बीच खेती की जाती थी जिससे पेड़ अच्छी तरह पनपते थे। टोंग का मतलब पहाड़ और या का मतलब खेती से है।

खैर, ताजा प्रकरण से साफ है कि लड़ाई अभी लम्बी है। देखना होगा कि उच्चाधिकारी और सरकार लोगो के अधिकार व न्यायिक मांग को कैसे सुनिश्चित करते हैं।

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