यूपी में वनाधिकारों की अनदेखी व वनविभाग द्वारा वनाश्रितों के उत्पीड़न के मुद्दे पर जनसुनवाई

Written by Sabrangindia Staff | Published on: January 23, 2019
लखनऊ। वन एवं भू अधिकार अभियान उत्तर प्रदेश के तत्वाधान में दिनांक 28 जनवरी 2019 को वनाधिकारों की अनदेखी व वनविभाग एवं पुलिस द्वारा वनाश्रित समुदाय के उत्पीड़न को लेकर लखनऊ में प्रदेश स्तरीय जन सुनवाई कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। वन एवं भू अधिकार अभियान उत्तर प्रदेश द्वारा विज्ञप्ति जारी कर कहा गया है कि आप सभी जानते हैं कि वनाधिकार कानून 2006 में वनाश्रित समुदायों के लंबे संघर्ष के बाद पारित हुआ और 2008 में नियमावली बनी। इस कानून को बनने से पहले और लागू करने तक कदम कदम पर काफी अड़चने आई और आ रही हैं। 

तमाम तथाकथित वन्यजीवप्रेमी और वन विभाग कभी नहीं चाहता था कि यह कानून बने, लेकिन हमें धन्यवाद करना चाहिए हमारी माननीय संसद का जिसने इस कानून की प्रस्तावना में ‘‘ऐतिहासिक अन्याय’’ को स्वीकारते हुए वनाधिकार कानून 2006 को पास किया था। लेकिन कानून के पास हुए 12 वर्ष से ऊपर होने जा रहे हैं जितना वनसमुदाय इस कानून को लागू करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं उतना ही उनका उत्पीड़न किया जा रहा है। 

यूपी में कुछ कामयाबी जरूर हासिल हुई कुछ बसपा सरकार के शासनकाल में जब कई जिलों में दावा की प्रक्रिया तेज़ की गई लेकिन अफसरशाही के चलते 90 फीसदी दावों को रदद कर दिया गया। कुछ कामयाबी भाजपा योगी सरकार के शासनकाल में मिली है जिसमें 34  वनग्रामों एवं वन टांगियां गांवों को अधिकार पत्र दिए गए व राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने के आदेश दिए गए, जिसका हम स्वागत करते हैं। 

उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में प्रदेश में उन्नीस से अधिक जिलों में जंगल है और उनमें लाखों की तादात मे वनाश्रित समुदायों के लोग निवास और खेती करते हैं। उत्तर प्रदेश में कई तरह के वन ग्राम है जैसे- बन गुजरो के खोल, गोठ, वनकठिया मजदूरों के वनग्राम, वनटांगिया मजदूरों के वन ग्राम, बाढ़ विस्थापितों के वनग्राम और विभिन्न वानिकी की कार्यों में लगाए गए मजदूरों के वनग्राम, फिक्स डिमान्ड होल्डिन्ग वनग्राम इसके अलावा संरक्षित वन, आरक्षित वन व नेशनल पार्क के अतंर्गत वन बस्तियां हैं जहां पर अधिकांश आदिवासी, दलित एवं अन्य परम्परागत समुदाय निवास करते हैं।  

शुरुआत में वन विभाग द्वारा मात्र 13 वन ग्राम की ही जानकारी शासन को भेजी गई थी, लेकिन जन आंदोलन के चलते वन विभाग के झूठ का पर्दाफाश हुआ और फिर सरकारी आंकड़ों के अनुसार बढ़कर 89 हो गए। अभी भी बहुत सारे एसे छोटे-छोटे लघु वनग्राम हैं, जहां तक वनाधिकार  कानून की आवाज नहीं पहुंची है। वन विभाग के अधिकारी इसे इसलिए लागू नहीं करने देना चाहते है क्योंकि इस कानून को लागू होने के बाद वनवासियों की जंगल में निगरानी बढ़ जाएगी दूसरी ओर करोड़ों रुपये की वनोपज जो अभी वन विभाग के अधीन है वह वनवासियों के हाथ में चला जाएगा। इसी डर के चलते हैं वन विभाग ने सहारनपुर जिले में वन गुर्जरों का जीवन खतरे में डाल दिया है। 

पहले तो उसने स्वयं वन गुर्जरों को हटाना चाहा था लेकिन जब वो इस काम में सक्षम नहीं हुआ तो उसने सेना की आड़ ली। वन गुजरों को बर्बाद करने का प्रयास किया क्योंकि जिस जगह पर हजारों की संख्या में वन गुर्जर रहते थे उस जगह को सेना के युद्ध अभ्यास के लिए फायरिंग जोन बनाने के लिए दे दिया और यह लिख कर दिया कि वह इस क्षेत्र में कोई मानव आबादी नहीं रहती है। लेकिन जब सेना युद्ध अभ्यास करने के लिए पहुंची तो इतनी बड़ी तादाद में रह रहे वन गुर्जरों ने इसका विरोध किया तो वन विभाग के झूठ का पर्दाफाश हुआ।  

बिजनौर जिले में वन विभाग वन आश्रित समुदाय को गैर वन आश्रित बताकर प्रशासन को गुमराह कर रहा है।

विज्ञप्ति में कहा गया है कि पीलीभीत के जंगलों को टाइगर रिजर्व बनाया गया है उसमें रह रहे वनवासियों को बाघ पालने के नाम पर उजाड़े जाने का काम चल रहा है। अभी हाल ही में खीरी और सोनभद्र में वनविभाग और पुलिस ने महिलाओं पर जबरदस्त हमला किया है। खटीमा और खीरी में महिलाओं के साथ अभद्रता की और सोनभद्र में आदिवासी महिला नेता सोकालो गोंड एवं अन्य को रेलवे स्टेशन से चोरी से पकड़ पांच महीने तक जेल में रखा गया। इतना ही नहीं सामुदायिक दावों के दायर करने के बाद सोनभद्र और चन्दौली में खुद जिला प्रशासन द्वारा वनसमुदाय पर कहर बरसाया गया। राजकुमारी और नंदू गोंण को घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। दावेदारों के अपराधिक इतिहास बनाये जा रहे हैं। जिन 16 ग्रामसभाओं ने 23 मार्च 2018 को सोनभद्र में जिलाधिकारी को सामुदायिक दावा किया था उन सभी ग्रामसभाओं के अध्यक्षों को उपजिलाधिकारी द्वारा अवैध कब्ज़े के नोटिस भेजे गए व उन्हें जमानत लेने पर मजबूर किया गया। जिला चन्दौली में 29 जुलाई को सामुदायिक दावा के बाद 7 ग्रामसभाओं को स्वयं जिलाप्रशासन ने नोटिस दिए व ग्राम भरदुआ में खड़े होकर दावे की गई भूमि पर जेसीबी से खेती उजाड़ दी गई। 

लखीमपुर खीरी जिले में थारू आदिवासी बहुल 44 गांव में लोगों को जीवन उपयोगी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए  जंगल में जाने से रोका जा रहा है। और उनके जो  सामुदायिक अधिकारों का दावा तहसील स्तर में पड़ा हुआ है उसे पास होने से रोका जा रहा है और प्रशासन को वन विभाग द्वारा गुमराह कर किया जा रहा है । वन विभाग के उत्पीड़न बढ़ते चले जा रहे हैं। पुलिस दलालों के साथ मिलकर स्थानीय जनजातीय समुदाय को मुकदमा मे फंसाने का कार्य कर रही है। 

किशनपुर में तीन और दुधवा में एक तथा कतरनिया घाट में 17 गांव में कोर जोन में दिखा करके हटाने की योजना बनाई जा रही है। लोगों को पुनस्र्थापन का लालच दिया जा रहा है। इसी तरह बहराइच जनपद में मात्र एक गांव गोकुल पुर राजस्व ग्राम की श्रेणी में किया गया है लेकिन बाकी चारों वनग्राम को राजस्व गांव होने से पहले ही वन विभाग ने टिप्पणी करके रोक दिया। वनटांगिया गांव महबूबनगर को भी प्रशासन ने साक्ष्यों के अभाव में राजस्व ग्राम में परिवर्तित होने से वंचित कर दिया है। 

इको पर्यटन के नाम पर पैसा लेकर शिकारियों को जंगल में घुसाया जा रहा है। इसी तरह वनों में बसी हुई कतरनियाघाट के 19 वनबस्तियों में अभी दावा सत्यापन शुरू नहीं हो पाया है। गोण्डा में वन टांगिया गांव राजस्व ग्राम में परिवर्तित हो गए हैं और उनमें विकास कार्य भी चल रहा है किंतु वन विभाग के लोग उन्हें जंगल से बाहर निकलने और सरकार से वनभूमि के बदले राजस्व भूमि की मांग करने के लिए गांव के लोगों को बहला फुसला रहा है।


बलरामपुर के जिन 5 गांव को राजस्व ग्राम का दर्जा दिया गया है उनमें सामुदायिक अधिकारों का नामोनिशान नहीं है इसी तरह गोरखपुर और महाराजगंज में व्यक्तिगत अधिकारों को तरजीह दी गई है लेकिन सामुदायिक अधिकारों की बात नहीं हो रही है। और अभी तक ग्राम पंचायतों का गठन नहीं हो पाया है। बांदा तथा चित्रकूट में जगह-जगह पर वन वासियों की जमीन को छीना जा रहा है और उन्हें जंगल में प्रवेश करने से रोका जा रहा है। बुन्देलखण्ड के सात जिले जहां पर वन अधिकारों के मामले हैं अभी तक निस्तारित नहीं हो पाए हैं। 

पूरे उत्तर प्रदेश वनाधिकार को लेकर बेहद ही गंभीर समस्या है जिसे उच्च न्यायालय इलाहाबाद द्वारा भी संज्ञान में लिया गया है व रिट संख्या 56003/2017 में 13 अक्टूबर 2018 द्वारा हाई कोर्ट ने वनाधिकार कानून के तहत दाखिल दावों की प्रक्रिया शुरू करने का आदेश दिया है उच्च न्यायालय इलाहाबाद के मुख्य न्यायाधीश दिलीप बी. पी. भौंसले व न्यायमूर्ति यंशवंत वर्मा द्वारा दिये गये आदेश में यह कहा गया है कि दावा दायर करने के दौरान व उसके बाद किसी भी दावेदार के विरूद्ध कोई उत्पीड़न की कार्यवाही नहीं की जाएगी। 

प्रदेश में संसद के कानून को लागू करने के बजाय वनाश्रित समुदाय के उपर असंख्य फर्जी मुकदमें किए जा रहे हैं व उनके साथ कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकताओं को भी नहीं बक्शा जा रहा। जंगल में केवल अराजकता फैलाई जा रही है व पुलिस दलालों दबंगों वनविभाग की मिलीभगत से ग़रीब आदिवासी दलित व महिलाओं को फंसाया जा रहा है। इन्हीं सब मामलों को लेकर  एक दिवसीय ‘‘ जनसुनवाई’’ लखनऊ में गांधी भवन में आयोजित की जा रही है। जिसमें मुम्बई हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश श्री कोलसे पाटिल, पूर्व न्यायाधीश मनू लाल मरकाम, मानवाधिकार कार्यकर्ता पत्रकार तीस्ता सीतलवाड, सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांड़े, जूरी सदस्य होगें व उ.प्र. के वनाश्रित जिलों से प्रस्तुत केसों की सुनवाई करेगें व प्रदेश सरकार को इस जनसुनवाई की रिपोर्ट सौंपेगें। इस कार्यक्रम में उपस्थित हो कर अपने वनाधिकारों की आवाज़ को बुलन्द करें। 

सुनवाई
दि0 - 28 जनवरी 2019

 स्थान- गांधी भवन, कैसर बाग, लखनऊ, उत्तर प्रदेश  

समय-सुबह 10 बजे से 5 बजे तक 
 

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