क्या आपने कभी सुना कि घोड़ी चढ़ने पर किसी सवर्ण को मार डाला गया या काम पर आने से मना करने पर पीटा गया ?

Written by Mithun Prajapati | Published on: April 6, 2018
साधो, एक विचित्र सा चलन चला है, मुद्दों से अलग खींच ले जाना। सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST एक्ट में  बदलाव किया तो विरोध में दलितों ने भारत बंद का आह्वान किया जो सफल रहा।  कुछ जगह थोड़ी हिंसा हुई जिसे गलत कहा जा सकता है। पर साधो, कुछ बातें हैं जो कहनी बहुत जरूरी हो जाती हैं। तमिलनाडु के किसान दिल्ली में धरने पर बैठे थे। सब शांतिपूर्ण रहा। न तो मीडिया में ज्यादा कवरेज मिली और न ही ज्यादा लोग उनसे जुड़ पाए। उन्होंने मूत्र तक पिया और मुंह में चूहा दबाए सरकार की तरफ एक उम्मीद से देखते रहे। मैं ये नहीं कहता कि हिंसा से लोग जुड़ जाते हैं या अपनी बात कहने का हिंसा  एक जरिया है, लेकिन एक वक्त के बाद तो कोई चारा भी नहीं बचता! 

साधो, इस बंद में कुछ और चीजें भी निकलकर आयीं। कितने ऐसे लोग भी नोटिस किये गए जो राष्ट्रवादी खेमें के एन्टी दलित लोग थे। उन्हें दलितों का भारत बंद का आह्वान नागवार गुजरा। बंद को कुछ अलग दिशा देने के लिए कई तो मारपीट करते या  पथराव करते भी नजर आए। 

हिंसा की लोगों ने खूब निंदा की।  मुझसे एक साहब  मिले, बड़े उदास थे। कहने लगे- बताओ अब दलित भी  सड़क पर उतर आए हैं। आरक्षण की भीख मिलती है। हर जगह प्राथमिकता मिलती है क्या जरूरत है आंदोलन करने की ?

साधो, उनकी बातें सुनकर मन दुःखी हुआ। उनका दुःख अलग था और मेरा दुःख अलग। वे इसलिए दुःखी थे कि अब दलित भारत बंद का आह्वान करने लगे हैं। जैसे कि भारत बंद, धरना प्रदर्शन ये सब सिर्फ सवर्णों  के ही कॉपीराइट में है।

मेरा दुःख अलग था। मैं इसलिए दुःखी था कि वे SC/ST एक्ट के बदलाव वाली बात को आरक्षण पर खींच लाये थे। मैंने कहा- पर भाई साहब, सड़क पर तो वे कानून में बदलाव होने के कारण उतरे। इसमें आरक्षण कहाँ से आ गया ?

वे बोले- तो क्या हुआ ? आखिर कानून में बदलाव गलत तो नहीं हुआ?  ज्यादातर मामलों में लगाये गए आरोप फर्जी  होते हैं। आखिर क़ानून भी तो कहता है कि  सौ गुनहागर छूट जाएं पर एक निर्दोष को सजा न होने पाए !

एक उदाहरण देते हुए वे कहने लगे- अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर एक खबर तैर रही थी जिसमें कहा गया था कि घोड़ी चढ़ने की वहज से एक दलित को मार डाला गया जो कि झूठी खबर थी। मैं उनके तर्क से रत्तीभर प्रभावित हुआ जैसा कि सब को होना चाहिए।

मैंने कहा- मैं आपकी बात का सम्मान करता हूँ कि कुछ जगह क़ानून का दुरुपयोग होता है पर बताइए, क्या आप नहीं जानते कि इस देश मे आये दिन यह खबर मिलती रहती है कि घोड़ी पर चढ़ने की वजह से दलित को मार डाला गया ? क्या आपने कभी सुना- एक ब्राह्मण को घोड़ी चढ़ने की वजह से मार डाला गया ? या आप ये बताइए, कितने सवर्ण हैं जिनको जबरन मैला खिला दिया गया, कहीं काम पर न आने की वजह से पेड़ से बांधकर पीटा गया, सड़क पर चलते हुए रास्ते को बदल देना पड़ा क्योंकि उस रास्ते पर केवल व्यक्ति विशेष ही चलता है। या ये बताइए ऐसा कोई नल आपने देखा जिसपर सवर्ण होने की वजह से आपको पानी नहीं पीने दिया गया हो या फिर गलती से नल छू लिया हो तो गांव में दौड़ाकर पीटा गया हो ? 

वे सुनते रहे फिर अचानक बोल उठे- सवर्णों को आरक्षण भी तो नहीं मिलता! 

साधो, यह कहते हुए उन्होंने एक गहरी सांस छोड़ी थी। उनकी मानें तो सृष्टि के सारे दुःख का कारण आरक्षण ही है। आज बुद्ध होते तो उन्हें दुःख के कारण को ढूंढने के लिए इतना समय नष्ट न करना पड़ता। ये जनाब फट से  बता आते की आप नाहक परेशान हैं, दुःख का कारण तो आरक्षण है। 

उन्होंने फिर कहा- हमनें आरक्षण के विरोध में 10 तारीख को भारत बंद का आह्वान किया है। 
मैंने कहा- ये तो 2 अप्रैल के बंद की प्रतिक्रिया लग रही है ?
वे बोले - बिलकुल यही है। 
इतना कहकर वे चलते बने।

साधो, मैं परेशान हूँ। इस बात को लेकर की लोगों को किस तरह समझाया जाए कि जो कानून में बदलाव हुआ है वह दलित समाज के लिए बहुत घातक है। दलितों पर अत्याचार के कितने मामले होते हैं जिनको थाने तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता। कितने गंभीर मामले ऐसे होते हैं जो प्रकाश में ही नहीं आते। जैसे तैसे मामले की रिपोर्ट लिख ली गयी तो  दबंगों द्वारा पीड़ित पर दबाव डालकर या दरोगा को पैसे खिलाकर मामला रफा दफा कर दिया जाता है। कितने मामले ऐसे होते हैं जिनमें रिपोर्ट दर्ज कराने पर पीड़ित को और प्रताड़ित किया जाता है ताकि वह  मामला थाने से खत्म कर दे। 

तुरंत गिरफ्तारी से कम से कम कुछ तो राहत होती थी। जो क़ानून में बदलाव हुआ है उसमें तो आरोपी खूब फायदा उठाएंगे। कभी अपनी पहुंच के दम पर कभी पैसे के दम पर तो कभी थाने में बैठे ऊंची जाति के साहब से साठगांठ के दम पर। तुरंत गिरफ्तारी न होने से  पीड़ित को महज थाने तक जाने के कारण कुछ भी भुगतना पड़ेगा। ऊपरी जातियों की दबंगई देश में किसी से छुपी नहीं है। 

साधो, उम्मीद यही है कि SC/ST एक्ट में  जो बदलाव हुआ है वह वापस ले लिए जाए। हजार वर्षोँ  से पीड़ित दलितों पर यह कानून जख्म पर मरहम जैसा है, जिसमें बदलाव मरहम में मिर्ची  मिलाने जैसा है।

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