सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने शनिवार 6 सितंबर को गौरी लंकेश की निर्मम हत्या की याद में आयोजित वार्षिक सार्वजनिक व्याख्यान में निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता को लेकर चिंता जताई। उन्होंने चेतावनी दी कि यह संस्था अब बढ़ते हुए पक्षपाती नजरिए से देखी जा रही है।

एक संवैधानिक संस्था और ऐतिहासिक रूप से अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता के लिए जाना जाने वाले निर्वाचन आयोग (ECI) आज अपनी विश्वसनीयता खोने के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने शनिवार, 6 सितंबर को बेंगलुरु स्थित गांधी भवन में आयोजित ‘गौरी डे 2025’ के वार्षिक सार्वजनिक व्याख्यान में दी। यह आयोजन पत्रकार गौरी लंकेश की निर्मम हत्या की स्मृति में आयोजित किया गया था। “SIR और भारत के निर्वाचन आयोग की भूमिका: क्या लोकतंत्र संकट में है?” विषय पर बोलते हुए हेगड़े ने कहा कि आज यह संस्था पक्षपातपूर्ण रवैये के रूप में देखी जा रही है, जो लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। करीब 40 मिनट के अपने संबोधन में उन्होंने इस बात पर खास जोर दिया कि निर्वाचन आयोग अब ऐसे निर्णयों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता दिख रहा है, जो विशेष रूप से अल्पसंख्यकों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को प्रभावित करते हैं।
उन्होंने कहा, "एक ऐसा निर्वाचन आयोग जो नाम काटने पर ही आमादा हो, वह निश्चित रूप से बड़ी संख्या में ऐसे नागरिकों को मताधिकार से वंचित कर देगा जो दस्तावेजहीन या कमजोर स्थिति में हैं।" उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा रवैया चुनावों की निष्पक्षता पर लोगों के भरोसे को कमजोर करता है।
उन्होंने यह कहा कि भारत में लोकतंत्र की मजबूती का आधार हमेशा निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता रही है। इसी संदर्भ में उन्होंने वर्तमान चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रणाली की आलोचना की, जिसमें सरकार को निर्णायक नियंत्रण प्राप्त है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने की सिफारिश की है। हेगड़े ने चेतावनी दी कि, "यदि आयोग पक्षपातपूर्ण दिखाई देता है, तो जनता चुनावों को एक फिक्स्ड मैच की तरह देखेगी।"
इस संबोधन में नागरिकता के ऐतिहासिक संदर्भ और निर्वाचन आयोग की गतिविधियों पर प्रकाश डाला गया - विशेष रूप से असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के तहत हुए बाहर हुए लोगों और अब बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के संदर्भ में। उन्होंने बताया कि ये घटनाएं अब समाज में डर और घबराहट का माहौल पैदा कर रही हैं। जून 2025 से जारी इस SIR प्रक्रिया की राजनीतिक स्तर पर तो आलोचना हो ही रही है, साथ ही न्यायालयों में भी इसे चुनौती दी गई है। न्यायिक आदेशों का सहारा लेना पड़ा है ताकि प्रक्रिया में कुछ हद तक जवाबदेही और समावेश सुनिश्चित किया जा सके।
पत्रकार दिनेश अमीन मट्टू ने चुनावी प्रक्रियाओं को लेकर उठ रहे मौजूदा विवादों को भारत की चुनाव प्रणाली में छिपे एक गहरे संकट का "लक्षण" करार दिया। चुनावी जवाबदेही पर बोलते हुए मट्टू ने जिक्र किया कि जहां पहले बहसें इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) को लेकर होती थीं और अब मतदाता सूचियों पर केंद्रित हैं, वहीं असली समस्या संरचनात्मक सुधारों की कमी है। उन्होंने कहा, "मुद्दा सिर्फ बिहार या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, दरअसल, यह उस गहरी बीमारी का संकेत है, जो हमारी चुनावी व्यवस्था में धीरे-धीरे समा चुकी है।"
व्याख्यान के बाद आयोजित की गई पैनल चर्चा में सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों ने बिहार में मतदाता सूचियों से बड़े पैमाने पर हो रहे नामों के के हटाने पर गहरी चिंता जाहिर की। साथ ही असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को लेकर बनी हुई अनिश्चितता पर भी चर्चा हुई। प्रतिभागियों ने बिहार में मतदाता सूची की “विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR)” प्रक्रिया को गंभीर त्रुटियों वाला बताया। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि इस प्रक्रिया का उद्देश्य “अवैध प्रवासियों” को हटाना बताया जा रहा है जो कि निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र से परे का कार्य है। चर्चा में यह चिंता भी उठाई गई कि जहां नौकरशाहों और खिलाड़ियों जैसे कुछ विशिष्ट वर्गों को विशेषाधिकार दिए जा रहे हैं, वहीं आम नागरिकों - विशेषकर अल्पसंख्यकों, महिलाओं और प्रवासी श्रमिकों - को सख्त जांच-पड़ताल का सामना करना पड़ रहा है। इस पैनल चर्चा का नेतृत्व वोट फॉर डेमोक्रेसी (VFD) की सह-संयोजक तीस्ता सेतलवाड़ ने किया, जिसमें एडेलु कर्नाटका की तारा राव भी शामिल हुईं।
इसके बाद, भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर एक जीवंत और चिंतनशील चर्चा हुई। बिहार की विपक्षी पार्टियां -जैसे राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) - पिछले ढाई हफ्तों से राज्य में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ चला रही हैं, ताकि आम नागरिकों को उनके मतदान अधिकारों से वंचित किए जाने के खिलाफ जागरूक किया जा सके। इसी बीच स्वतंत्र पत्रकारों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स, जिनमें यूट्यूबर्स भी शामिल हैं, ने जमीनी स्तर पर SIR प्रक्रिया में भारी अनियमितताओं और त्रुटियों की रिपोर्टिंग की है। बताया गया कि इस प्रक्रिया के तहत लगभग 65 लाख लोगों को मतदाता सूची से बाहर कर दिया गया, जो एक चौंकाने वाला आंकड़ा है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर अभी भी सुनवाई चल रही है। निर्वाचन आयोग द्वारा यह दावा किया गया है कि उन्होंने “3 लाख अवैध प्रवासियों”, मृत लोगों, स्थायी रूप से स्थानांतरित हो चुके नागरिकों और डुप्लिकेट मतदाता कार्ड धारकों को सूची से हटाया है। लेकिन इस दावे के पीछे दलितों, मुसलमानों और महिलाओं सहित हाशिये पर खड़े समुदायों के लाखों नागरिकों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत प्राप्त सार्वभैमिक वयस्क मताधिकार से वंचित कर दिए जाने का गंभीर खतरा मंडरा रहा है।
पत्रकार गौरी लंकेश की बहन काविता लंकेश और उनकी भतीजी ईशा लंकेश भी इस मौके पर मौजूद रहीं।
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उन्होंने कहा, "एक ऐसा निर्वाचन आयोग जो नाम काटने पर ही आमादा हो, वह निश्चित रूप से बड़ी संख्या में ऐसे नागरिकों को मताधिकार से वंचित कर देगा जो दस्तावेजहीन या कमजोर स्थिति में हैं।" उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा रवैया चुनावों की निष्पक्षता पर लोगों के भरोसे को कमजोर करता है।
उन्होंने यह कहा कि भारत में लोकतंत्र की मजबूती का आधार हमेशा निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता रही है। इसी संदर्भ में उन्होंने वर्तमान चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रणाली की आलोचना की, जिसमें सरकार को निर्णायक नियंत्रण प्राप्त है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने की सिफारिश की है। हेगड़े ने चेतावनी दी कि, "यदि आयोग पक्षपातपूर्ण दिखाई देता है, तो जनता चुनावों को एक फिक्स्ड मैच की तरह देखेगी।"
इस संबोधन में नागरिकता के ऐतिहासिक संदर्भ और निर्वाचन आयोग की गतिविधियों पर प्रकाश डाला गया - विशेष रूप से असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के तहत हुए बाहर हुए लोगों और अब बिहार में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के संदर्भ में। उन्होंने बताया कि ये घटनाएं अब समाज में डर और घबराहट का माहौल पैदा कर रही हैं। जून 2025 से जारी इस SIR प्रक्रिया की राजनीतिक स्तर पर तो आलोचना हो ही रही है, साथ ही न्यायालयों में भी इसे चुनौती दी गई है। न्यायिक आदेशों का सहारा लेना पड़ा है ताकि प्रक्रिया में कुछ हद तक जवाबदेही और समावेश सुनिश्चित किया जा सके।
पत्रकार दिनेश अमीन मट्टू ने चुनावी प्रक्रियाओं को लेकर उठ रहे मौजूदा विवादों को भारत की चुनाव प्रणाली में छिपे एक गहरे संकट का "लक्षण" करार दिया। चुनावी जवाबदेही पर बोलते हुए मट्टू ने जिक्र किया कि जहां पहले बहसें इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) को लेकर होती थीं और अब मतदाता सूचियों पर केंद्रित हैं, वहीं असली समस्या संरचनात्मक सुधारों की कमी है। उन्होंने कहा, "मुद्दा सिर्फ बिहार या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, दरअसल, यह उस गहरी बीमारी का संकेत है, जो हमारी चुनावी व्यवस्था में धीरे-धीरे समा चुकी है।"
व्याख्यान के बाद आयोजित की गई पैनल चर्चा में सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों ने बिहार में मतदाता सूचियों से बड़े पैमाने पर हो रहे नामों के के हटाने पर गहरी चिंता जाहिर की। साथ ही असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को लेकर बनी हुई अनिश्चितता पर भी चर्चा हुई। प्रतिभागियों ने बिहार में मतदाता सूची की “विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR)” प्रक्रिया को गंभीर त्रुटियों वाला बताया। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि इस प्रक्रिया का उद्देश्य “अवैध प्रवासियों” को हटाना बताया जा रहा है जो कि निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र से परे का कार्य है। चर्चा में यह चिंता भी उठाई गई कि जहां नौकरशाहों और खिलाड़ियों जैसे कुछ विशिष्ट वर्गों को विशेषाधिकार दिए जा रहे हैं, वहीं आम नागरिकों - विशेषकर अल्पसंख्यकों, महिलाओं और प्रवासी श्रमिकों - को सख्त जांच-पड़ताल का सामना करना पड़ रहा है। इस पैनल चर्चा का नेतृत्व वोट फॉर डेमोक्रेसी (VFD) की सह-संयोजक तीस्ता सेतलवाड़ ने किया, जिसमें एडेलु कर्नाटका की तारा राव भी शामिल हुईं।
इसके बाद, भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर एक जीवंत और चिंतनशील चर्चा हुई। बिहार की विपक्षी पार्टियां -जैसे राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) - पिछले ढाई हफ्तों से राज्य में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ चला रही हैं, ताकि आम नागरिकों को उनके मतदान अधिकारों से वंचित किए जाने के खिलाफ जागरूक किया जा सके। इसी बीच स्वतंत्र पत्रकारों और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स, जिनमें यूट्यूबर्स भी शामिल हैं, ने जमीनी स्तर पर SIR प्रक्रिया में भारी अनियमितताओं और त्रुटियों की रिपोर्टिंग की है। बताया गया कि इस प्रक्रिया के तहत लगभग 65 लाख लोगों को मतदाता सूची से बाहर कर दिया गया, जो एक चौंकाने वाला आंकड़ा है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर अभी भी सुनवाई चल रही है। निर्वाचन आयोग द्वारा यह दावा किया गया है कि उन्होंने “3 लाख अवैध प्रवासियों”, मृत लोगों, स्थायी रूप से स्थानांतरित हो चुके नागरिकों और डुप्लिकेट मतदाता कार्ड धारकों को सूची से हटाया है। लेकिन इस दावे के पीछे दलितों, मुसलमानों और महिलाओं सहित हाशिये पर खड़े समुदायों के लाखों नागरिकों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत प्राप्त सार्वभैमिक वयस्क मताधिकार से वंचित कर दिए जाने का गंभीर खतरा मंडरा रहा है।
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