मैं अक्सर उन लोगों से बात करने से बचने का प्रयत्न करता हूँ जो सरकार की गोद मे बैठना पसंद करते हैं और मेरे करीबी हैं। रिश्ते बिगड़ जाने का डर होता है। कई रिश्ते मैंने बिगाड़ लिए हैं। मैं चाहता हूँ कि मेरा परिचित व्यक्ति हर मुद्दों पर बात करे पर व्यक्तिगत होकर नहीं। पर ऐसा होता कहाँ है! जब तर्क खत्म होने लगते हैं तो वह या तो उत्तेजित होकर बात करने लगता है या फिर झगड़े की स्थिति बना देता है।
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अभी कल ही एक सज्जन जो कि बहुत करीबी हैं, आकर सरकार की उपलब्धियां गिनाने लगे। मैं धैर्य से उन्हें सुनता रहा जैसे वे लोरी गा रहे हों। अपनी बात कह लेने के बाद वे मेरी तरफ प्रतिक्रिया के लिए देखते। जब वे देखने लगते तो मैं 'हां बहुत बढ़िया' कह देता। वे चाहते थे कि मैं भी उनके इस सरकार की उपलब्धियां गिनवाने वाले पुण्य काम में भाग लूँ पर मेरी निष्क्रियता देख वे तिलमिला जाते। कोई गाली दे रहा हो और आप प्रतिक्रिया में कुछ न कहें तो वह तिलमिला जाता है। यह कुछ ऐसा ही था। वे कहने लगे- सरकार ने किसानों के लिए बहुत बढ़िया किया। वे कई योजनाएं बताने लगे जिनके बारे में मैंने न तो सुना था और न ही उनका कोई जमीनी अस्तित्व था। पर मैं उन्हें सुनता रहा। मैं चाहता तो पलटकर उन्हें पिछले तीन सालों में किसानों द्वारा की गई आत्महत्या, बीज की महंगाई, खाद की अनुपलब्धता, गिरते दामों या फिर किसान आंदोलन से लेकर जंतर-मंतर पर किसानों द्वारा पेशाब के पिये जाने की घटना का जिक्र कर उनको चुप कर सकता था, पर समस्या वही की वे बिना तर्क के उग्र होने लगते और रिश्ता टूटने लगता।
वे किसानों की खुशहाली गिनाने के बाद फिर बोल उठे- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएं सरकार लाई है, बढ़िया काम है न !!
मैंने हां में सिर हिला दिया। वे खुश हुए जैसे मनमुताबिक जवाब मिल गया हो। मैं उन्हें बाल विवाह, दहेज प्रथा, बाल अपराध जैसे सामाजिक मुद्दों पर ले आने की कोशिश करता पर वे मुझे सरकारी उपलब्धियां गिनाकर मामला और कहीं खींच ले जाते। मैं चाहता था कि उन्हें बताऊँ की पिछले तीन सालों में भ्रूण हत्या, बलात्कार, महिला उत्पीड़न जैसे मामले सिर्फ बढ़े हैं। सिर्फ नारा लगाने या फिर सेल्फी विथ डॉटर कर देने से कितनी तरक्की हुई महिलाओं की वे सब देख रहे हैं। और BHU में छात्राओं पर चली लाठियां कैसे भुलाई जा सकती हैं। भूख से भात के लिए तड़पती संतोषी ने दम तोड़ दिया, क्या वह इस देश की बेटी नहीं थी ! कहना तो बहुत कुछ होता है पर वही बात की रिश्ते संभालने में बहुत कुछ छूट जाता है जो हमें कहना चाहिए और हम नहीं कह पाते।
मैं चाहता हूँ कि ऐसे लोग मेरे पास थोड़ी देर के लिए आएं पर ये अपना पूरा समय लेकर आते हैं। दुनिया मे दो तरह के बुद्धू होते हैं। एक जो होते हैं और दूसरे जो बने रहना चाहते हैं। मैं उनकी बात का जवाब देना चाहता हूँ पर बुद्धू बने रहना ज्यादा उचित लगता है। पर बुद्धू बने रहने के लिए सहनशीलता का होना बहुत जरूरी है। वे फिर कहने लगे- अरे वो PM का साक्षात्कार देखा क्या ?
मैंने हाँ में सिर हिला दिया। वे फिर कहने लगे- कितना बेहतरीन था न ! उन्होंने रोजगार के सवाल पर पकौड़े बेचकर पैसे कमाने वाली बात की जो कुछ लोगों को बुरा लग रहा है। अब तुम ही बताओ न क्या उन्होंने गलत कहा कुछ ?
अब मेरे सब्र का बांध टूट गया। मैंने थोड़ा कड़क लहजे में कहा- जब इंसान के पास रोजगार के लिए कुछ नहीं रहता तब वह चाय या पकौड़े की दुकान खोल लेता है।
वे बोले- हुआ तो रोजगार ही न !
मैंने कहा- सरकार ने दिया है या फिर कोई ऐसी पकौड़े की दुकान बताओ जो सरकार के संरक्षण में चलती है?
वे थोड़ा झेंप गए। उन्हें मुझसे इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी। मैंने फिर कहा- आये दिनों प्रशासन की धमकी, पुलिस का हफ्ता, खाद्य विभाग वालों की कार्यवाही, म्युनिसिपल कॉर्पोरशन का डर न जाने कितनी मुश्किलों से पकौड़ों वालों चाय वालों, ठेला लगाने वालों को गुजरना पड़ता है। इसे आप रोजगार कहते हैं ! यदि आपकी निगाह में ये सब रोजगार हैं तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना।
वे थोड़ा शर्मिंदा हुए और नाराज़ भी। मैंने फिर कहा- न जाने कितने BA, MA किए हुए लोग या फिर अन्य डिग्रियां लेकर काम न पाने वाले लोग मजबूरीवश इस रोजगार से जुड़े हैं। ऐसे लोगों के पास न तो पैतृक जमीनें हैं और न ही कोई बड़ी प्रॉपर्टी। वे तो महज पेट पालने, पारिवारिक भरण पोषण के लिए ये दुकानें खोल बैठे हैं। इसे आप रोजगार कैसे कह सकते हैं!
थोड़ी देर शांति बनी रही। मैंने फिर कहना शुरू किया। आम आदमी की बात अलग है लेकिन यदि इस तरह की बात देश का प्रधानमंत्री कहता है तो बहुत आश्चर्य होता है। और आप ही सोचिए, प्रधानमंत्री ने दो सौ रुपये कमाने की बात कही है। इतनी कमाई के रोजगार( रोजगार मान लिया जाए तो) में आम आदमी परिवार का भरण पोषण कैसे करेगा ? आसमान छूती महंगाई में बच्चों को पढ़ाना, एक बेहतर भविष्य देना, दवा, बीमारी के खर्चे, घर की मरम्मत ऐसी तमाम चीजें हैं जिन्हें आम आदमी दो सौ रुपये की कमाई में कैसे पूरा करेगा ?
उन्होंने हां में सिर हिलाया। वे बोले- बात तो ठीक है आपकी , पर लोग इतना सोचते कहाँ हैं !
मैं खुश था कि पहली बार कोई सज्जन तर्कों से भड़का नहीं और कही गयी बातों से सहमति जताई।