कांग्रेस के 139वें स्थापना दिवस के अवसर पर नागपुर में ‘हैं तैयार हम’ रैली में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा कि देश में विचारधारा की लड़ाई चल रही है। लोगों को लगता है कि यह सत्ता की लड़ाई है, लेकिन इस लड़ाई की नींव विचारधारा की है। कहा देश में दो विचारधारा की लड़ाई चल रही है। बीजेपी पर निशाना साधते हुए राहुल ने कहा कि BJP की विचारधारा राजाओं की विचारधारा है, वह किसी की सुनते नहीं हैं। 'बीजेपी में गुलामी चलती है।' आर्डर ऊपर से आता है और सभी को मानना पड़ता है। जबकि कांग्रेस पार्टी में आवाज कार्यकर्ताओं से आती है और हम उसका सम्मान करते हैं।”
अभी तक कांग्रेस का स्थापना दिवस अमूमन दिल्ली पार्टी मुख्यालय में ध्वजारोहण और कुछेक औपचारिक भाषणों के साथ मना लिया जाता था। दो-चार बड़े नेताओं के सोशल मीडिया पोस्ट्स इस मौके पर आ जाते थे, जिन्हें उनके कुछ समर्थक फॉरवर्ड और लाइक कर देते थे। देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी, जिसके बिना भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास अधूरा रह जाएगा, उसके प्रति बीते वर्षों में आम जनता ने उदासीन भाव ही रखा है। देश के अधिकतर लोगों को इस बात का इल्म ही नहीं होगा कि कांग्रेस का स्थापना दिवस कब आया और कब बीत गया। लेकिन इस बार अपने 139वें स्थापना दिवस पर कांग्रेस ने- नागपुर में 'हैं तैयार हम', नाम से महारैली कर ऐलान कर दिया है कि 2024 के चुनावों में दो बार से सत्ता पर काबिज भाजपा का सामना करने के लिए कांग्रेस और इंडिया गठबंधन पूरी तरह तैयार हैं।
राहुल गांधी ने नागपुर रैली को संबोधित करते हुए कहा, “बहुत सारी पार्टियां NDA और INDIA गठबंधन में है लेकिन लड़ाई दो विचारधाराओं के बीच है।” देश में दो विचारधारा की लड़ाई है। लोगों को लगता है कि यह सत्ता की लड़ाई है, लेकिन इस लड़ाई की नींव विचारधारा की है। उन्होंने कहा कि आज़ादी से पहले हिंदुस्तान की जनता, महिलाओं के कोई अधिकार नहीं थे। दलितों को छुआ नही जाता था, ये RSS की विचारधारा है। यह हमने बदला है और वे फिर इसे वापस लाना चाहते हैं, हिंदुस्तान आज़ादी से पहले जहां था वे वहां उसे लौटाना चाह रहे हैं।
मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए कांग्रेस सांसद ने आगे कहा, “एक तरफ युवाओं पर आक्रमण किया जा रहा है और दूसरी तरफ हिंदुस्तान के 2-3 अरबपतियों को देश का पूरा धन थमा दिया जा रहा है… मोदी सरकार ने अग्निवीर योजना लागू कर, युवाओं को आर्मी और वायु सेना में नहीं आने दिया।”
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, नागपुर की रैली की घोषणा कांग्रेस ने पहले ही कर दी थी। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों के बाद मीडिया ने फिर से माहौल बनाना शुरु कर दिया था कि अब कांग्रेस का जोश ठंडा पड़ जाएगा या इंडिया गठबंधन में उसकी बात नहीं सुनी जाएगी। लेकिन साफ दिख रहा है कि कांग्रेस ने इस कोशिश को अपने संकल्प पर हावी नहीं होने दिया। पहले 19 दिसंबर को कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन की चौथी बैठक की मेजबानी की। उसके बाद निलंबित सांसदों के समर्थन में जंतर-मंतर के प्रदर्शन में अपना दम दिखाया। 138 साल पूरे होने पर देश के लिए दान अभियान चलाकर क्राउड फंडिंग की। मणिपुर से महाराष्ट्र तक भारत न्याय यात्रा निकालने का ऐलान कर दिया। इन सबसे पता चलता है कि कांग्रेस जनता के बीच जाने और जनता से जुड़ने के न सिर्फ अवसर पैदा कर रही है बल्कि उसे हाथ से भी नहीं जाने दे रही है।
नागपुर में स्थापना दिवस मनाने के भी गहरे निहितार्थ हैं। देशबंधु की एक रिपोर्ट के अनुसार,विदर्भ का यह इलाका लंबे वक्त तक कांग्रेस-मय रहा है। गांधीजी का इस इलाके से खास लगाव रहा है। दिसंबर 1920 में आयोजित कांग्रेस के नागपुर सत्र में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया था। इसके बाद 1959 में कांग्रेस के नागपुर सत्र में ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया था। नागपुर दीक्षा भूमि के लिए जाना जाता है, जहां संविधान निर्माता बीआर अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था। मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी दलित समुदाय से हैं। इसलिए उनके नेतृत्व में कांग्रेस की नागपुर में महारैली से दलितों को जोड़ने में मदद मिल सकती है। नागपुर की एक खास बात ये भी है कि यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय भी है। इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने इस बार संघ को उसके गढ़ में घुसकर चुनौती दी है।
इंडिया गठबंधन को ताकत देती रैली
हालांकि 'हैं तैयार हम' महारैली में राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों के भाषणों में वही सारी बातें सुनने को मिलीं, जो इससे पहले संसद में या चुनावी सभाओं में जनता सुन चुकी है। जैसे दोनों ने ही इस बार की लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई कहा। एक ओर संविधान विरोधी, गोडसे वाली विचारधारा है, जो हिंदुत्व को बढ़ाना चाहती है, गुलामी के दौर वाले नियम-कानून फिर से देश में लाना चाहती है, दूसरी ओर गांधी-नेहरू- अंबेडकर की विचारधारा है, जिसने देश को आजाद करने की लड़ाई लड़ी, जिसके कारण देश को संविधान मिला, जिसके कारण हिंदुस्तान के हर व्यक्ति को सभी भेदों से परे बराबरी का हक मिला, अपनी सरकार चुनने का हक मिला। राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों ने ही जनता को बतलाया कि किस तरह मोदी सरकार के 10 सालों के शासन में देश में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की तकलीफें बढ़ी हैं और केवल 2-3 अरबपतियों को फायदा हुआ है।
राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया तो वहीं मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि आप अगर हमें सत्ता में आने का मौका देते हैं तो हम आपको न्याय देंगे। यानी सबसे गरीब परिवारों को हर साल 72 हजार रूपए देने की कांग्रेस की न्याय योजना को लागू करने की बात कांग्रेस अध्यक्ष ने कही। लेकिन इन दोनों नेताओं के भाषणों में सबसे खास बात ये रही कि दोनों ने आने वाले चुनावों में केवल कांग्रेस की जीत की बात न कहकर इंडिया गठबंधन के जीतने की बात कही है। इसके बाद अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि अब भाजपा को 28 दलों की एकता का मुकाबला करना होगा। इंडिया गठबंधन बनने के बाद से कई बार उसमें दरार की खबरें चलाई जा चुकी हैं। 19 दिसंबर की बैठक के बाद यह मुहिम और तेज की जा चुकी है। लेकिन इन तमाम कोशिशों के बाद अपने स्थापना दिवस कार्यक्रम के मंच से अगर कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस के एक बड़े नेता 2024 की जीत को केवल अपनी पार्टी तक सीमित न रखकर उसमें इंडिया गठबंधन का नाम जोड़ रहे हैं, तो इससे साबित हो गया है कि गठबंधन के सभी दल छिटपुट विरोधों और असहमतियों के बावजूद एक होकर ही चुनाव लड़ेंगे।
‘BJP की राजाओं की विचारधारा है’
राहुल गांधी ने कहा कि पिछले दिनों BJP का एक MP मुझसे लोकसभा में मिला था, उसने कहा कि आपसे बात करनी है। उसके चेहरे पर चिंता थी। जब मैंने पूछा कि सब ठीक है? तो उसने कहा कि नहीं, सब ठीक नहीं है। BJP में रहकर अच्छा नहीं लग रहा, मेरा दिल कांग्रेस में है। BJP में गुलामी चलती है। जो ऊपर से कहा जाता है, वो बिना सोचे समझे करना पड़ता है। उन्होंने आगे कहा कि भाजपा सभी संस्थाओं पर कब्ज़ा कर रही है। पहले कहा जाता था कि मीडिया लोकतंत्र का रखवाला है। मैं आपसे पूछता हूं, क्या आज देश की मीडिया लोकतंत्र की रक्षा कर रही है?
नागपुर रैली की खास बात भी ये ही रही कि कांग्रेस ने भाजपा शासन की कमियां गिनाईं, विचारधारा के नुकसान बताए, देश के भविष्य के साथ होने वाले खिलवाड़ से लोगों को आगाह किया, लेकिन कहीं भी व्यक्तिगत द्वेष या नफरत की झलक नहीं दिखी। राम मंदिर, जातिगत जनगणना, सांसदों का निलंबन, संसद पर हमला, किसानों पर अत्याचार, मीडिया का कार्पोरेट के दबाव में एकतरफा रिपोर्टिंग करना, ऐसे कई मुद्दों पर रैली में चर्चा हुई और उसमें चिंता जरूर दिखी लेकिन खीझ, जलन या नफरत नहीं दिखी। यही बात कांग्रेस को भाजपा से अलहदा करती है। राहुल गांधी ने कहा भी कि जो इस बात का अर्थ समझ जाएगा कि हम नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलते हैं, वो कांग्रेस को समझ जाएगा। कांग्रेस अपने इस फलसफे को समझाने की कोशिश कर रही है, लेकिन क्या समझा पाएंगे?। कांग्रेस के सामने चुनौतियां भी कम नहीं है। ऐसे में क्या लोग इंडिया को एक मौका देंगे, का जवाब तो भविष्य ही देगा।
'क्या कांग्रेस कर पाएगी?'
रैली से इतर देखें तो तैयारी के नाम पर विपक्ष की बैठकें हो रही हैं, सीट बंटवारे पर बातचीत के लिए डेडलाइन तय की जा रही है? चुनाव लड़ने की रणनीति बन रही है और प्रचार प्रबंधन की भी टीमें बन गई हैं। लेकिन सवाल है कि विपक्ष का आंदोलन कहां है? जमीन पर लड़ने की तैयारी कहां दिख रही है? क्या बिना जमीनी लड़ाई लड़े विपक्ष अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा को हरा देने के सपने देख रहा है? जब किसी से पूछते हैं कि 2024 के चुनाव में भाजपा को कैसे हराएंगे तो वह कहता है कि जैसे 2004 में हरा दिए थे। सोचें, क्या 2004 और 2024 में फर्क नहीं है? सवाल है कि विपक्षी गठबंधन का अघोषित तौर पर नेतृत्व कर रही कांग्रेस के नेता क्यों नहीं 2004 के सिंड्रोम से बाहर निकल रहे हैं? क्या कांग्रेस कर पाएगी?
2004 और 2024 में क्या फर्क है?
वरिष्ठ पत्रकार अजीत द्विवेदी अपने लेख में कहते हैं कि ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं को 2004 को याद करके खुशी मिलती है, उम्मीद बंधती है, फीलगुड होता है इसलिए वे उसी सिंड्रोम में अटके हैं। भारत के पिछले 75 साल के इतिहास में वह एकमात्र चुनाव था, जिसमें बिना किसी बड़े आंदोलन या विरोध प्रदर्शन के सत्ता बदल गई थी। न हारने वाले ने सोचा था कि वह हार सकता है और न जीतने वाले को यकीन था कि वह जीत भी सकता है। वाजपेयी सरकार शाइनिंग इंडिया और फीलगुड के नारे पर भाजपा लड़ रही थी और सौ फीसदी जीत के भरोसे में थी। लेकिन समय से पहले चुनाव कराने और एकाध राज्यों में गलत गठजोड़ की वजह से भाजपा हार गए। उसकी सीटें 183 से घट कर 138 रह गईं। वह कांग्रेस से सात सीट पीछे हो गई। कांग्रेस उसी चमत्कार में अटकी है। असल में यह कांग्रेस नेताओं का भाग्यवाद है। वे पिछले 10 साल की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा कर पाने की अपनी अक्षमता को 2004 के चमत्कार से ढकना चाहते हैं।
कांग्रेस के नेता मानते हैं कि उस समय भी कोई आंदोलन नहीं हुआ था लेकिन तब भी कांग्रेस जीत गई थी। इसलिए अब भी कोई आंदोलन नहीं करेंगे और जीतना होगा तो जीत जाएंगे। कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि 2004 के अलावा आजाद भारत के इतिहास में कभी सत्ता पलट किसी बड़े आंदोलन के बगैर नहीं हुआ है। 1975 की संपूर्ण क्रांति ने 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी। 1987 में बोफोर्स पर हुए आंदोलन ने 1989 में राजीव गांधी की चार सौ से ज्यादा सांसदों वाली सरकार को हराया था, 1996 में भी भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण कांग्रेस की सरकार गई थी और 2011 के इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन ने 2014 में कांग्रेस की 10 साल की सरकार की विदाई का रास्ता बनाया था। कांग्रेस इन सबको भूल कर 2004 को पकड़े बैठी है, जो एक अपवाद है। यह नियतिवादी सोच कांग्रेस को भारी पड़ने वाली है। उसे समझना चाहिए कि मौजूदा भाजपा वाजपेयी-आडवाणी वाली भाजपा नहीं है। अब मोदी और शाह की भाजपा जीत के अति आत्मविश्वास में कभी गाफिल नहीं रहती है और न कोई गलत गठजोड़ करती है। कुछ राज्यों में वह जरूर हारी लेकिन वहां भी उसने अपना वोट आधार कायम रखा या उसमें बढ़ोतरी की। यह जानते हुए कि स्थिति कमजोर और चुनाव हार जाएंगे, मोदी और शाह ने कई राज्यों में प्रचार के रिकॉर्ड बनाए। ऐसी मेहनत की, जैसी किसी चुनाव में पहले देखने को नहीं मिली। वे दोनों हर चुनाव ऐसे लड़ते हैं, जैसे आखिरी चुनाव है। इसी तरह वाजपेयी- आडवाणी से उलट मोदी-शाह की भाजपा में गलत फैसलों को सीने से नहीं चिपकाए रखा जाता है। अगर कहीं गलती हो गई तो उसे तुरंत दुरुस्त किया जाता है।
मोदी और शाह के पास जो रणनीतिक लचीलापन है वह किसी और नेता में नहीं दिखता है। सरकार में आने के बाद पहले साल से लेकर अभी तक भूमि अधिग्रहण कानून से पीछे हटने से लेकर तीन विवादित कृषि कानूनों तक मोदी और शाह ने यह दिखाया है। राजनीतिक समझौतों में महबूबा मुफ्ती से लेकर नीतीश कुमार, एचडी देवगौड़ा और अजित पवार तक भाजपा ने गजब लचीलापन दिखाया है। इसके लिए उसकी आलोचना भी होती है लेकिन चुनावी जीत के आगे सारी आलोचना दब जाती है। पुरानी और नई भाजपा का फर्क यह भी है कि मोदी-शाह ने लगभग सारे पुराने वादे पूरे कर दिए हैं। अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का काम पूरा हो गया है। समान नागरिक संहिता आने वाली है और तीन तलाक को अपराध बनाया जा चुका है। अयोध्या के बाद काशी और मथुरा में सर्वे का काम शुरू हो गया है। यह दीर्घकालिक परियोजना है, जिससे शॉर्ट टर्म के ध्रुवीकरण की नहीं, बल्कि हिंदू पुनरुत्थान या पुनर्जागरण का माहौल बना है।
भाजपा इतनी बदल गई लेकिन कांग्रेस के नेता अब भी 2004 को सीने से चिपकाए हुए हैं। लगातार हार के बाद भी कांग्रेस के नेता समझ रहे हैं कि उन्हें बैठे बैठे सत्ता मिलेगी। भाजपा और उसकी केंद्र सरकार गलतियां करेंगे और लोग खुद ही उनको हटा कर कांग्रेस को चुन देंगे। ऐसा नहीं होने वाला है। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को लड़ने की तैयारी करनी होगी। लड़ाई भी मामूली नहीं होगी। कांग्रेस लंबा समय गंवा चुकी है। पिछले नौ साल में उसने कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा किया है। सरकार के ऊपर आरोप तो बहुत लगाए लेकिन सड़क पर उतर कर कोई लड़ाई नहीं लड़ी है। किसानों ने अपनी लड़ाई लड़ी और भूमि अधिग्रहण कानून भी वापस कराया और कृषि कानून भी वापस कराए। लेकिन कांग्रेस सिर्फ मुद्दे उठाती रही और आरोप लगाती रही। यह जानते हुए कि उसके किसी भी आरोप को मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने वाली है कांग्रेस उसी भरोसे में रही। तभी अब राहुल गांधी संसद में मीडिया को देख कर कहते हैं कि कुछ दिखा दीजिए आपकी भी जिम्मेदारी बनती है।
राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की, जिससे उनकी निजी छवि बदली और उन्हें गंभीरता से लिया जाने लगा। लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा में जो मुद्दे उठाए थे वह लोकप्रिय विमर्श से गायब हैं। मोहब्बत की दुकान का जुमला उन्होंने पता नहीं कब से नहीं बोला है। विचारधारा की लड़ाई का मामला भी अब परदे के पीछे है। संसद की सुरक्षा में चूक के बाद राहुल गांधी ने बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा उठाया। कांग्रेस इन दो मुद्दों पर बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती है। पूरे देश में बड़ी आबादी बेरोजगारी और महंगाई से परेशान है। अलग अलग सर्वेक्षणों में 80 फीसदी तक लोगों ने इसे बड़ा मुद्दा माना है। यह आज की समस्या नहीं है लेकिन दुर्भाग्य से 10 साल में कांग्रेस इस पर को आंदोलन नहीं कर सकी है। राहुल गांधी ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाया लेकिन उसे लेकर कोई आंदोलन नहीं किया।
कांग्रेस ने अपना कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं पेश किया। ये नहीं बताया कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो महंगाई, भ्रष्टाचार कैसे कम होगा या क्रोनी कैपिटलिज्म पर कैसे काबू पाएंगे या सरकारी संपत्ति को बेचने के फैसलों को कैसे पलटेंगे? न तो कांग्रेस सड़क पर उतरी और न उसकी सहयोगी पार्टियां उतर रही हैं। सहयोगी पार्टियों की दूसरी समस्या है। ज्यादातर सहयोगी पार्टियां सरकार में हैं। बिहार में राजद और जदयू, झारखंड में जेएमएम, तमिलनाडु में डीएमके और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है। उनकी मुश्किल यह है कि अपने ही राज्य में वे किसके खिलाफ आंदोलन करें! सो, ये पार्टियां भी सिर्फ बयान देकर भाजपा से लड़ रही हैं। इन्हें उलटे अपनी सरकार की एंटी इन्कम्बैंसी का जवाब देना है। तभी विपक्ष का न कोई मुद्दा है, न लड़ाई है, न नैरेटिव है और न कोई आंदोलन है।
क्या अयोध्या से फोकस हटा पाएंगे राहुल?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी जिस दिन मणिपुर से मुंबई की भारत न्याय यात्रा शुरू करेंगे उसके दो दिन बाद 16 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम शुरू होगा। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम पहले से तय था। कई महीने पहले इसकी तारीख घोषित हो गई थी। लेकिन राहुल की भारत न्याय यात्रा की तारीख 27 दिसंबर को घोषित की गई। यह महज संयोग नहीं है कि राहुल अपनी यात्रा 14 जनवरी से शुरू कर रहे हैं। उनकी दूसरी यात्रा जो पूरब से पश्चिम की होनी थी उसकी चर्चा कई महीनों से चल रही थी। पहले कहा जा रहा था कि अक्टूबर से वे यह यात्रा शुरू कर सकते हैं। लेकिन यात्रा शुरू हो रही है 14 जनवरी से।
सवाल है कि क्या राहुल गांधी मणिपुर से जो यात्रा शुरू करेंगे उससे वे अयोध्या के कार्यक्रम से ध्यान हटा पाएंगे या उससे कोई समानांतर नैरेटिव सेट कर पाएंगे? गौरतलब है कि राहुल गांधी ने पिछले साल जो भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी वह कांग्रेस और सहयोगी पार्टियों के असर वाले इलाके से की थी। तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके की सरकार थी, जहां से यात्रा शुरू हुई थी। उसके बाद केरल और कर्नाटक दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी थी और बहुत मजबूत थी। एक आंध्र प्रदेश के छोड़ कर बाकी जिस राज्य से भी कांग्रेस की यात्रा गुजरी वहां कांग्रेस बहुत मजबूत थी। लेकिन न्याय यात्रा का शुरुआती चरण ऐसे राज्यों में है, जहां कांग्रेस लगभग साफ हो चुकी है।
पूर्वोत्तर में किसी राज्य में कांग्रेस का आधार नहीं बचा है। हाल में हुए मिजोरम के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पांच सीटों से घट कर एक सीट पर आ गई है। भाजपा को भी उससे एक सीट ज्यादा मिली है। मणिपुर से शुरू करके वे नगालैंड, असम होते हुए मेघालय जाएंगे और वहां से पश्चिम बंगाल पहुंचेंगे। वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर व्यास कहते है कि इन पांच राज्यों में कांग्रेस बहुत कमजोर है। दूसरे, आमतौर पर पूर्वोत्तर की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा जगह नहीं पाती हैं। दूसरे, अयोध्या में राम मंदिर के कार्यक्रम को लेकर अभी से जैसा माहौल बन रहा है और सारी दुनिया जिस तरह से इस कार्यक्रम से जुड़ रही है उसे देखते हुए नहीं लगता है कि राहुल की यात्रा पर ज्यादा फोकस बनेगा। ऊपर से मुश्किल यह है कि भाजपा और दूसरे हिंदुवादी संगठन राहुल की यात्रा को राममंदिर के कार्यक्रम से ध्यान भटकाने का अभियान बता कर इसका विरोध करेंगे। सोशल मीडिया में इसकी चर्चा शुरू हो गई है। कांग्रेस की मुश्किल यह है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका में से आज तक कोई रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या नहीं गया है। इसलिए अयोध्या के ऐतिहासिक कार्यक्रम के साथ ही राहुल की यात्रा का शुरू होना कांग्रेस के लिए निगेटिव माहौल बनाने वाला भी हो सकता है। कांग्रेस नेताओं को किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए। वे 14 जनवरी की बजाय 10 दिन बाद भी यात्रा शुरू कर सकते थे।
सात दिन का अनुष्ठान और यजमान मोदी
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान सात दिन तक चलेगा। प्रधानमंत्री 16 जनवरी से राम मंदिर कार्यक्रम के यजमान के तौर पर अनुष्ठान में शामिल होंगे। पहले दिन 16 जनवरी को यजमान यानी प्रधानमंत्री मोदी सरयू में स्नान करके सबसे पहले गणेश पूजन करेंगे और उसके साथ ही अनुष्ठान की शुरुआत होगी। अगले दिन यानी 17 जनवरी को मोदी और प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान सम्पन्न कराने वाले आचार्य रामलला की मूर्ति के साथ पंचकोशी क्षेत्र में शोभा यात्रा करेंगे। उसी दिन पूजन के लिए सरयू से जल लाया जाएगा। उसके बाद मुख्य पूजा 22 जनवरी को होगी। बीच के चार दिन भी कोई न कोई अनुष्ठान होता रहेगा लेकिन यह तय नहीं है कि प्रधानमंत्री उसमें शामिल होंगे या नहीं। 22 जनवरी को सुबह साढ़े 11 से साढ़े 12 के बीच पूजा होगा और प्राण प्रतिष्ठा होगी। उसी दिन से भाजपा का अयोध्या दर्शन का अभियान शुरू होगा। पार्टी देश भर से लोगों को अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए ले जाएगी। अब सोचें, इससे जो नैरेटिव बनेगा क्या राहुल अपनी यात्रा से उसका जवाब दे पाएंगे?
चुनौतियां और भी हैं...
2023 भी कांग्रेस के लिए बड़ी उम्मीदों से शुरू हुआ था। श्रीनगर में राहुल की सफल भारत जोड़ो यात्रा का समापन हो रहा था। राहुल एक नई छवि के साथ स्थापित हो रहे थे। फिर कर्नाटक की जीत ने उस छवि को और निखार दिया था। इंडिया गठबंधन हुआ। पटना, बंगलुरु, मुबंई तीन बैठकों में विपक्ष के महारथियों के बीच राहुल छाए रहे। ममता बनर्जी जो उनकी सार्वजनिक आलोचना कर चुकी थीं। बंगलुरू में मंच से कह रही थीं हमारे फेवरेट राहुल। मगर राजनीति में छवियां जिस तेजी के साथ उभरती हैं वैसे ही कमजोर भी होती हैं। तीन राज्यों की जीती हुई बाजी को हारने के बाद राहुल एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गए है जिससे उनकी चुनौतियां भी बढ़ गई है।
वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर सवाल उठाते हैं कि राहुल का स्थितियों पर नियंत्रण क्यों नहीं है? आकलन और पूर्वानुमान के मामले में उनकी टीम इतनी कमजोर क्यों है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में क्षत्रपों को इतनी खुली छुट क्यों दे रखी थी? राहुल ने नागपुर में कहा कि भाजपा में तानाशाही है। कांग्रेस में कार्यकर्ता की बात सुनी जाती है। भाजपा की तानाशाही एक अलग मुद्दा है। मगर यह कहना कि कांग्रेस में कार्यकर्ता की सुनी जाती है थोड़ी हजम न होने वाली बात है। कार्यकर्ता की सुनी जाती थी इन्दिरा गांधी के समय तक। वे जब भी दिल्ली में होती थीं कार्यकर्ताओं के लिए उनके दरवाजे खुले रहते थे। और जब वे नहीं मिल पाती थीं तो माखनलाल फोतेदार और आरके धवन कार्यकर्ताओं से मिलकर उनकी बात सुनते थे। और यह गारंटी होती थी कि कार्यकर्ता की वह बात इन्दिरा गांधी तक पहुंच जाएगी।
भाजपा की तानाशाही देश पर है तो उसका विरोध है। लेकिन अगर पार्टी के अंदर की बात है तो उससे तो वह और मजबूत हो रही है। तीनों राज्यों में तीन एकदम अनजाने चेहरे मुख्यमंत्री बना दिए किसी ने चूं तक नहीं की। ऐसे ही दिल्ली से मंत्रिमंडल बने, विभाग बांटे। लेकिन कांग्रेस में आखिरी आखिरी तक गहलोत और सचिन लड़ते रहे कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी। अब जब राजस्थान में भाजपा के नए मंत्रिमंडल में गुर्जरों को एक केबिनेट मंत्री तक नहीं मिला तो पायलट समर्थक कह रहे हैं कि हमें तो गहलोत को हराना था। हरा दिया। राजस्थान में जैसी गुटबाजी हुई है वैसी कांग्रेस में कभी नहीं हुई। 2018 के चुनाव से पहले यह शुरू हो गई थी। और 2023 हारने के बाद भी यह खत्म नहीं हुई है। दोषी कौन? सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस नेतृत्व। दोनों को उठाकर साइड करना था। मगर अब भी नहीं किया। मतलब राजस्थान में पार्टी नाम की चीज है ही नहीं। जो हैं गहलोत और पायलट ही है? इन्दिरा गांधी ने इसी राजस्थान में मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर जैसे दिग्ग्जों को हटाया और जगन्नाथ पहाड़िया, बरकत उल्लाह खान को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी की सर्वोच्चता का कड़ा संदेश दिया। गहलोत भूल गए कि उसी समय की उपज वे हैं। पहले इन्दिरा जी ने और फिर राजीव गांधी ने उन्हें आगे बढ़ाया। ऐसे ही सचिन के पिता राजेश पायलट को। क्या राजेश पायलट का कोई राजनीतिक बैकग्राउंड था? मगर उन्हें भी इन्दिरा और राजीव गांधी ने तमाम दिग्गजों नटवर सिंह, नवल किशोर शर्मा के सामने आगे बढ़ाया।
राजनीति में पार्टी ही बड़ी होती है। राजस्थान में गहलोत और पायलट ने मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव ने यह नहीं समझा और हारे। मगर सिर्फ इन लोग पर दोष रखने से कुछ नहीं होगा। गलती तो पार्टी नेतृत्व की थी। इससे पहले और कई राज्य उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा कांग्रेस ऐसे ही हारी है। मगर जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी पार्टी की सर्वोच्च ईकाई की मीटिंग होती है तो समस्या की जड़ तक कोई नहीं पहुंचता और त्वरित इलाज के लिए राहुल से एक और यात्रा की मांग की जाती है। क्या कभी पार्ट टू पार्ट वन की तरह प्रभावी हुआ है? एक इनिंग दोबारा नहीं खेली जा सकती। और फिर जब इतनी सफल यात्रा के बाद वह मध्यप्रदेश और राजस्थान हार गए जहां यात्रा लंबे समय तक रही और कामयाब मानी गई थी तो यह दूसरी यात्रा लोकसभा चुनाव जिताने में कितनी कामयाब होगी? आज से नया साल शुरू हो गया। राहुल के लिए, कांग्रेस के लिए इस बार कोई कहने को तैयार नहीं है कि-'इक बिरहमन ने कहा है कि यह साल अच्छा है!' साल बुरा नहीं है मगर बहुत चुनौतिपूर्ण है। और इसका मुकाबला केवल और केवल विपक्षी एकता से ही किया जा सकता है। और कोई जुगाड़, फार्मूला कामयाब होने वाला नहीं है। कांग्रेस और विपक्ष याद रखे कि भाजपा और मीडिया सबसे ज्यादा इंडिया गठबंधन के ही पीछे पड़े हैं। रोज उसके बारे में नई कहानियां गढ़ते रहते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें मालूम है कि ये विपक्षी एकता ही प्रधानमंत्री मोदी को हैट्रिक करने से रोक सकती है। अगर चार सौ सीटों के लगभग सीट एडजस्टमेंट हो गया तो इस साल होने वाला लोकसभा चुनाव दिलचस्प हो जाएगा।
याद रहे अभी जिन तीन राज्यों में कांग्रेस हारी है वहां उसे 40 परसेंट वोट मिले हैं। मतलब वोट कांग्रेस के पास या दूसरे राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल के 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी को 48 प्रतिशत वोट मिले कम नहीं हैं। इसी तरह जिस उत्तर प्रदेश को विपक्ष के लिए सबसे मुश्किल बताया जा रहा है वहां 2022 विधानसभा में सपा को अकेले 32 प्रतिशत, बसपा को 12 प्रतिशत से ज्यादा, कांग्रेस को ढाई प्रतिशत और आरएलडी को तीन प्रतिशत वोट मिले थे। मतलब लगभग पचास प्रतिशत। जबकि भाजपा को 42 प्रतिशत ही वोट मिले। अब इन 42 प्रतिशत की तुलना कांग्रेस के हाल में हार वाले तीन राज्यों से करें। जहां 40 प्रतिशत वोट लेकर वह हार गई और यहां यूपी में क्योंकि विपक्ष आपस में लड़ रहा था तो भाजपा 42 प्रतिशत पर भी जीत गई। और यह भी याद रखें कि यूपी में ओवेसी की पार्टी, आम आदमी पार्टी जैसी कई अन्य पार्टियां भी चुनाव लड़ रही थीं। जिन्होंने विपक्ष की मुख्य पार्टियों के वोट काटे और भाजपा को फायदा पहुंचाया।
शकील अख्तर के अनुसार, विपक्ष को यह याद रखना है कि भाजपा को 2019 लोकसभा में केवल 37 प्रतिशत ही वोट मिला था। जबकि 2014 में वह 31 प्रतिशत वोट पर ही जीत गई थी। अब अगर सीट शेयरिंग सही होती है तो भाजपा के लिए कुछ प्रतिशत वोट बढ़ा लेने के बावजूद चुनाव जीतना संभव नहीं होगा। हमने विपक्ष के लिए सबसे मुश्किल राज्य माने जाने वाले यूपी का आंकड़ा ऊपर दिया है कि वहां विपक्ष अगर एक होकर लड़ता है तो उसका वोट प्रतिशत 50 से भी ऊपर है। बाकी और राज्यों में तो यूपी से अच्छी कहानी है। इसलिए 2024 का विपक्ष के पास एक ही मास्टर स्ट्रोक है और वह है ज्यादा से ज्यादा सीटों पर एक के मुकाबले एक उम्मीदवार उताराना। बाकी तो सब दिल बहलाव की बातें हैं उनसे कुछ नहीं होगा!
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अभी तक कांग्रेस का स्थापना दिवस अमूमन दिल्ली पार्टी मुख्यालय में ध्वजारोहण और कुछेक औपचारिक भाषणों के साथ मना लिया जाता था। दो-चार बड़े नेताओं के सोशल मीडिया पोस्ट्स इस मौके पर आ जाते थे, जिन्हें उनके कुछ समर्थक फॉरवर्ड और लाइक कर देते थे। देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी, जिसके बिना भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास अधूरा रह जाएगा, उसके प्रति बीते वर्षों में आम जनता ने उदासीन भाव ही रखा है। देश के अधिकतर लोगों को इस बात का इल्म ही नहीं होगा कि कांग्रेस का स्थापना दिवस कब आया और कब बीत गया। लेकिन इस बार अपने 139वें स्थापना दिवस पर कांग्रेस ने- नागपुर में 'हैं तैयार हम', नाम से महारैली कर ऐलान कर दिया है कि 2024 के चुनावों में दो बार से सत्ता पर काबिज भाजपा का सामना करने के लिए कांग्रेस और इंडिया गठबंधन पूरी तरह तैयार हैं।
राहुल गांधी ने नागपुर रैली को संबोधित करते हुए कहा, “बहुत सारी पार्टियां NDA और INDIA गठबंधन में है लेकिन लड़ाई दो विचारधाराओं के बीच है।” देश में दो विचारधारा की लड़ाई है। लोगों को लगता है कि यह सत्ता की लड़ाई है, लेकिन इस लड़ाई की नींव विचारधारा की है। उन्होंने कहा कि आज़ादी से पहले हिंदुस्तान की जनता, महिलाओं के कोई अधिकार नहीं थे। दलितों को छुआ नही जाता था, ये RSS की विचारधारा है। यह हमने बदला है और वे फिर इसे वापस लाना चाहते हैं, हिंदुस्तान आज़ादी से पहले जहां था वे वहां उसे लौटाना चाह रहे हैं।
मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए कांग्रेस सांसद ने आगे कहा, “एक तरफ युवाओं पर आक्रमण किया जा रहा है और दूसरी तरफ हिंदुस्तान के 2-3 अरबपतियों को देश का पूरा धन थमा दिया जा रहा है… मोदी सरकार ने अग्निवीर योजना लागू कर, युवाओं को आर्मी और वायु सेना में नहीं आने दिया।”
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, नागपुर की रैली की घोषणा कांग्रेस ने पहले ही कर दी थी। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों के बाद मीडिया ने फिर से माहौल बनाना शुरु कर दिया था कि अब कांग्रेस का जोश ठंडा पड़ जाएगा या इंडिया गठबंधन में उसकी बात नहीं सुनी जाएगी। लेकिन साफ दिख रहा है कि कांग्रेस ने इस कोशिश को अपने संकल्प पर हावी नहीं होने दिया। पहले 19 दिसंबर को कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन की चौथी बैठक की मेजबानी की। उसके बाद निलंबित सांसदों के समर्थन में जंतर-मंतर के प्रदर्शन में अपना दम दिखाया। 138 साल पूरे होने पर देश के लिए दान अभियान चलाकर क्राउड फंडिंग की। मणिपुर से महाराष्ट्र तक भारत न्याय यात्रा निकालने का ऐलान कर दिया। इन सबसे पता चलता है कि कांग्रेस जनता के बीच जाने और जनता से जुड़ने के न सिर्फ अवसर पैदा कर रही है बल्कि उसे हाथ से भी नहीं जाने दे रही है।
नागपुर में स्थापना दिवस मनाने के भी गहरे निहितार्थ हैं। देशबंधु की एक रिपोर्ट के अनुसार,विदर्भ का यह इलाका लंबे वक्त तक कांग्रेस-मय रहा है। गांधीजी का इस इलाके से खास लगाव रहा है। दिसंबर 1920 में आयोजित कांग्रेस के नागपुर सत्र में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया था। इसके बाद 1959 में कांग्रेस के नागपुर सत्र में ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया था। नागपुर दीक्षा भूमि के लिए जाना जाता है, जहां संविधान निर्माता बीआर अंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था। मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी दलित समुदाय से हैं। इसलिए उनके नेतृत्व में कांग्रेस की नागपुर में महारैली से दलितों को जोड़ने में मदद मिल सकती है। नागपुर की एक खास बात ये भी है कि यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय भी है। इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने इस बार संघ को उसके गढ़ में घुसकर चुनौती दी है।
इंडिया गठबंधन को ताकत देती रैली
हालांकि 'हैं तैयार हम' महारैली में राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों के भाषणों में वही सारी बातें सुनने को मिलीं, जो इससे पहले संसद में या चुनावी सभाओं में जनता सुन चुकी है। जैसे दोनों ने ही इस बार की लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई कहा। एक ओर संविधान विरोधी, गोडसे वाली विचारधारा है, जो हिंदुत्व को बढ़ाना चाहती है, गुलामी के दौर वाले नियम-कानून फिर से देश में लाना चाहती है, दूसरी ओर गांधी-नेहरू- अंबेडकर की विचारधारा है, जिसने देश को आजाद करने की लड़ाई लड़ी, जिसके कारण देश को संविधान मिला, जिसके कारण हिंदुस्तान के हर व्यक्ति को सभी भेदों से परे बराबरी का हक मिला, अपनी सरकार चुनने का हक मिला। राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों ने ही जनता को बतलाया कि किस तरह मोदी सरकार के 10 सालों के शासन में देश में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की तकलीफें बढ़ी हैं और केवल 2-3 अरबपतियों को फायदा हुआ है।
राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया तो वहीं मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि आप अगर हमें सत्ता में आने का मौका देते हैं तो हम आपको न्याय देंगे। यानी सबसे गरीब परिवारों को हर साल 72 हजार रूपए देने की कांग्रेस की न्याय योजना को लागू करने की बात कांग्रेस अध्यक्ष ने कही। लेकिन इन दोनों नेताओं के भाषणों में सबसे खास बात ये रही कि दोनों ने आने वाले चुनावों में केवल कांग्रेस की जीत की बात न कहकर इंडिया गठबंधन के जीतने की बात कही है। इसके बाद अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि अब भाजपा को 28 दलों की एकता का मुकाबला करना होगा। इंडिया गठबंधन बनने के बाद से कई बार उसमें दरार की खबरें चलाई जा चुकी हैं। 19 दिसंबर की बैठक के बाद यह मुहिम और तेज की जा चुकी है। लेकिन इन तमाम कोशिशों के बाद अपने स्थापना दिवस कार्यक्रम के मंच से अगर कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस के एक बड़े नेता 2024 की जीत को केवल अपनी पार्टी तक सीमित न रखकर उसमें इंडिया गठबंधन का नाम जोड़ रहे हैं, तो इससे साबित हो गया है कि गठबंधन के सभी दल छिटपुट विरोधों और असहमतियों के बावजूद एक होकर ही चुनाव लड़ेंगे।
‘BJP की राजाओं की विचारधारा है’
राहुल गांधी ने कहा कि पिछले दिनों BJP का एक MP मुझसे लोकसभा में मिला था, उसने कहा कि आपसे बात करनी है। उसके चेहरे पर चिंता थी। जब मैंने पूछा कि सब ठीक है? तो उसने कहा कि नहीं, सब ठीक नहीं है। BJP में रहकर अच्छा नहीं लग रहा, मेरा दिल कांग्रेस में है। BJP में गुलामी चलती है। जो ऊपर से कहा जाता है, वो बिना सोचे समझे करना पड़ता है। उन्होंने आगे कहा कि भाजपा सभी संस्थाओं पर कब्ज़ा कर रही है। पहले कहा जाता था कि मीडिया लोकतंत्र का रखवाला है। मैं आपसे पूछता हूं, क्या आज देश की मीडिया लोकतंत्र की रक्षा कर रही है?
नागपुर रैली की खास बात भी ये ही रही कि कांग्रेस ने भाजपा शासन की कमियां गिनाईं, विचारधारा के नुकसान बताए, देश के भविष्य के साथ होने वाले खिलवाड़ से लोगों को आगाह किया, लेकिन कहीं भी व्यक्तिगत द्वेष या नफरत की झलक नहीं दिखी। राम मंदिर, जातिगत जनगणना, सांसदों का निलंबन, संसद पर हमला, किसानों पर अत्याचार, मीडिया का कार्पोरेट के दबाव में एकतरफा रिपोर्टिंग करना, ऐसे कई मुद्दों पर रैली में चर्चा हुई और उसमें चिंता जरूर दिखी लेकिन खीझ, जलन या नफरत नहीं दिखी। यही बात कांग्रेस को भाजपा से अलहदा करती है। राहुल गांधी ने कहा भी कि जो इस बात का अर्थ समझ जाएगा कि हम नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलते हैं, वो कांग्रेस को समझ जाएगा। कांग्रेस अपने इस फलसफे को समझाने की कोशिश कर रही है, लेकिन क्या समझा पाएंगे?। कांग्रेस के सामने चुनौतियां भी कम नहीं है। ऐसे में क्या लोग इंडिया को एक मौका देंगे, का जवाब तो भविष्य ही देगा।
'क्या कांग्रेस कर पाएगी?'
रैली से इतर देखें तो तैयारी के नाम पर विपक्ष की बैठकें हो रही हैं, सीट बंटवारे पर बातचीत के लिए डेडलाइन तय की जा रही है? चुनाव लड़ने की रणनीति बन रही है और प्रचार प्रबंधन की भी टीमें बन गई हैं। लेकिन सवाल है कि विपक्ष का आंदोलन कहां है? जमीन पर लड़ने की तैयारी कहां दिख रही है? क्या बिना जमीनी लड़ाई लड़े विपक्ष अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा को हरा देने के सपने देख रहा है? जब किसी से पूछते हैं कि 2024 के चुनाव में भाजपा को कैसे हराएंगे तो वह कहता है कि जैसे 2004 में हरा दिए थे। सोचें, क्या 2004 और 2024 में फर्क नहीं है? सवाल है कि विपक्षी गठबंधन का अघोषित तौर पर नेतृत्व कर रही कांग्रेस के नेता क्यों नहीं 2004 के सिंड्रोम से बाहर निकल रहे हैं? क्या कांग्रेस कर पाएगी?
2004 और 2024 में क्या फर्क है?
वरिष्ठ पत्रकार अजीत द्विवेदी अपने लेख में कहते हैं कि ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं को 2004 को याद करके खुशी मिलती है, उम्मीद बंधती है, फीलगुड होता है इसलिए वे उसी सिंड्रोम में अटके हैं। भारत के पिछले 75 साल के इतिहास में वह एकमात्र चुनाव था, जिसमें बिना किसी बड़े आंदोलन या विरोध प्रदर्शन के सत्ता बदल गई थी। न हारने वाले ने सोचा था कि वह हार सकता है और न जीतने वाले को यकीन था कि वह जीत भी सकता है। वाजपेयी सरकार शाइनिंग इंडिया और फीलगुड के नारे पर भाजपा लड़ रही थी और सौ फीसदी जीत के भरोसे में थी। लेकिन समय से पहले चुनाव कराने और एकाध राज्यों में गलत गठजोड़ की वजह से भाजपा हार गए। उसकी सीटें 183 से घट कर 138 रह गईं। वह कांग्रेस से सात सीट पीछे हो गई। कांग्रेस उसी चमत्कार में अटकी है। असल में यह कांग्रेस नेताओं का भाग्यवाद है। वे पिछले 10 साल की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा कर पाने की अपनी अक्षमता को 2004 के चमत्कार से ढकना चाहते हैं।
कांग्रेस के नेता मानते हैं कि उस समय भी कोई आंदोलन नहीं हुआ था लेकिन तब भी कांग्रेस जीत गई थी। इसलिए अब भी कोई आंदोलन नहीं करेंगे और जीतना होगा तो जीत जाएंगे। कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि 2004 के अलावा आजाद भारत के इतिहास में कभी सत्ता पलट किसी बड़े आंदोलन के बगैर नहीं हुआ है। 1975 की संपूर्ण क्रांति ने 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी। 1987 में बोफोर्स पर हुए आंदोलन ने 1989 में राजीव गांधी की चार सौ से ज्यादा सांसदों वाली सरकार को हराया था, 1996 में भी भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण कांग्रेस की सरकार गई थी और 2011 के इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन ने 2014 में कांग्रेस की 10 साल की सरकार की विदाई का रास्ता बनाया था। कांग्रेस इन सबको भूल कर 2004 को पकड़े बैठी है, जो एक अपवाद है। यह नियतिवादी सोच कांग्रेस को भारी पड़ने वाली है। उसे समझना चाहिए कि मौजूदा भाजपा वाजपेयी-आडवाणी वाली भाजपा नहीं है। अब मोदी और शाह की भाजपा जीत के अति आत्मविश्वास में कभी गाफिल नहीं रहती है और न कोई गलत गठजोड़ करती है। कुछ राज्यों में वह जरूर हारी लेकिन वहां भी उसने अपना वोट आधार कायम रखा या उसमें बढ़ोतरी की। यह जानते हुए कि स्थिति कमजोर और चुनाव हार जाएंगे, मोदी और शाह ने कई राज्यों में प्रचार के रिकॉर्ड बनाए। ऐसी मेहनत की, जैसी किसी चुनाव में पहले देखने को नहीं मिली। वे दोनों हर चुनाव ऐसे लड़ते हैं, जैसे आखिरी चुनाव है। इसी तरह वाजपेयी- आडवाणी से उलट मोदी-शाह की भाजपा में गलत फैसलों को सीने से नहीं चिपकाए रखा जाता है। अगर कहीं गलती हो गई तो उसे तुरंत दुरुस्त किया जाता है।
मोदी और शाह के पास जो रणनीतिक लचीलापन है वह किसी और नेता में नहीं दिखता है। सरकार में आने के बाद पहले साल से लेकर अभी तक भूमि अधिग्रहण कानून से पीछे हटने से लेकर तीन विवादित कृषि कानूनों तक मोदी और शाह ने यह दिखाया है। राजनीतिक समझौतों में महबूबा मुफ्ती से लेकर नीतीश कुमार, एचडी देवगौड़ा और अजित पवार तक भाजपा ने गजब लचीलापन दिखाया है। इसके लिए उसकी आलोचना भी होती है लेकिन चुनावी जीत के आगे सारी आलोचना दब जाती है। पुरानी और नई भाजपा का फर्क यह भी है कि मोदी-शाह ने लगभग सारे पुराने वादे पूरे कर दिए हैं। अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का काम पूरा हो गया है। समान नागरिक संहिता आने वाली है और तीन तलाक को अपराध बनाया जा चुका है। अयोध्या के बाद काशी और मथुरा में सर्वे का काम शुरू हो गया है। यह दीर्घकालिक परियोजना है, जिससे शॉर्ट टर्म के ध्रुवीकरण की नहीं, बल्कि हिंदू पुनरुत्थान या पुनर्जागरण का माहौल बना है।
भाजपा इतनी बदल गई लेकिन कांग्रेस के नेता अब भी 2004 को सीने से चिपकाए हुए हैं। लगातार हार के बाद भी कांग्रेस के नेता समझ रहे हैं कि उन्हें बैठे बैठे सत्ता मिलेगी। भाजपा और उसकी केंद्र सरकार गलतियां करेंगे और लोग खुद ही उनको हटा कर कांग्रेस को चुन देंगे। ऐसा नहीं होने वाला है। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को लड़ने की तैयारी करनी होगी। लड़ाई भी मामूली नहीं होगी। कांग्रेस लंबा समय गंवा चुकी है। पिछले नौ साल में उसने कोई जन आंदोलन नहीं खड़ा किया है। सरकार के ऊपर आरोप तो बहुत लगाए लेकिन सड़क पर उतर कर कोई लड़ाई नहीं लड़ी है। किसानों ने अपनी लड़ाई लड़ी और भूमि अधिग्रहण कानून भी वापस कराया और कृषि कानून भी वापस कराए। लेकिन कांग्रेस सिर्फ मुद्दे उठाती रही और आरोप लगाती रही। यह जानते हुए कि उसके किसी भी आरोप को मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने वाली है कांग्रेस उसी भरोसे में रही। तभी अब राहुल गांधी संसद में मीडिया को देख कर कहते हैं कि कुछ दिखा दीजिए आपकी भी जिम्मेदारी बनती है।
राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की, जिससे उनकी निजी छवि बदली और उन्हें गंभीरता से लिया जाने लगा। लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा में जो मुद्दे उठाए थे वह लोकप्रिय विमर्श से गायब हैं। मोहब्बत की दुकान का जुमला उन्होंने पता नहीं कब से नहीं बोला है। विचारधारा की लड़ाई का मामला भी अब परदे के पीछे है। संसद की सुरक्षा में चूक के बाद राहुल गांधी ने बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा उठाया। कांग्रेस इन दो मुद्दों पर बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती है। पूरे देश में बड़ी आबादी बेरोजगारी और महंगाई से परेशान है। अलग अलग सर्वेक्षणों में 80 फीसदी तक लोगों ने इसे बड़ा मुद्दा माना है। यह आज की समस्या नहीं है लेकिन दुर्भाग्य से 10 साल में कांग्रेस इस पर को आंदोलन नहीं कर सकी है। राहुल गांधी ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाया लेकिन उसे लेकर कोई आंदोलन नहीं किया।
कांग्रेस ने अपना कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं पेश किया। ये नहीं बताया कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो महंगाई, भ्रष्टाचार कैसे कम होगा या क्रोनी कैपिटलिज्म पर कैसे काबू पाएंगे या सरकारी संपत्ति को बेचने के फैसलों को कैसे पलटेंगे? न तो कांग्रेस सड़क पर उतरी और न उसकी सहयोगी पार्टियां उतर रही हैं। सहयोगी पार्टियों की दूसरी समस्या है। ज्यादातर सहयोगी पार्टियां सरकार में हैं। बिहार में राजद और जदयू, झारखंड में जेएमएम, तमिलनाडु में डीएमके और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है। उनकी मुश्किल यह है कि अपने ही राज्य में वे किसके खिलाफ आंदोलन करें! सो, ये पार्टियां भी सिर्फ बयान देकर भाजपा से लड़ रही हैं। इन्हें उलटे अपनी सरकार की एंटी इन्कम्बैंसी का जवाब देना है। तभी विपक्ष का न कोई मुद्दा है, न लड़ाई है, न नैरेटिव है और न कोई आंदोलन है।
क्या अयोध्या से फोकस हटा पाएंगे राहुल?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी जिस दिन मणिपुर से मुंबई की भारत न्याय यात्रा शुरू करेंगे उसके दो दिन बाद 16 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम शुरू होगा। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम पहले से तय था। कई महीने पहले इसकी तारीख घोषित हो गई थी। लेकिन राहुल की भारत न्याय यात्रा की तारीख 27 दिसंबर को घोषित की गई। यह महज संयोग नहीं है कि राहुल अपनी यात्रा 14 जनवरी से शुरू कर रहे हैं। उनकी दूसरी यात्रा जो पूरब से पश्चिम की होनी थी उसकी चर्चा कई महीनों से चल रही थी। पहले कहा जा रहा था कि अक्टूबर से वे यह यात्रा शुरू कर सकते हैं। लेकिन यात्रा शुरू हो रही है 14 जनवरी से।
सवाल है कि क्या राहुल गांधी मणिपुर से जो यात्रा शुरू करेंगे उससे वे अयोध्या के कार्यक्रम से ध्यान हटा पाएंगे या उससे कोई समानांतर नैरेटिव सेट कर पाएंगे? गौरतलब है कि राहुल गांधी ने पिछले साल जो भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी वह कांग्रेस और सहयोगी पार्टियों के असर वाले इलाके से की थी। तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके की सरकार थी, जहां से यात्रा शुरू हुई थी। उसके बाद केरल और कर्नाटक दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी थी और बहुत मजबूत थी। एक आंध्र प्रदेश के छोड़ कर बाकी जिस राज्य से भी कांग्रेस की यात्रा गुजरी वहां कांग्रेस बहुत मजबूत थी। लेकिन न्याय यात्रा का शुरुआती चरण ऐसे राज्यों में है, जहां कांग्रेस लगभग साफ हो चुकी है।
पूर्वोत्तर में किसी राज्य में कांग्रेस का आधार नहीं बचा है। हाल में हुए मिजोरम के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पांच सीटों से घट कर एक सीट पर आ गई है। भाजपा को भी उससे एक सीट ज्यादा मिली है। मणिपुर से शुरू करके वे नगालैंड, असम होते हुए मेघालय जाएंगे और वहां से पश्चिम बंगाल पहुंचेंगे। वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर व्यास कहते है कि इन पांच राज्यों में कांग्रेस बहुत कमजोर है। दूसरे, आमतौर पर पूर्वोत्तर की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा जगह नहीं पाती हैं। दूसरे, अयोध्या में राम मंदिर के कार्यक्रम को लेकर अभी से जैसा माहौल बन रहा है और सारी दुनिया जिस तरह से इस कार्यक्रम से जुड़ रही है उसे देखते हुए नहीं लगता है कि राहुल की यात्रा पर ज्यादा फोकस बनेगा। ऊपर से मुश्किल यह है कि भाजपा और दूसरे हिंदुवादी संगठन राहुल की यात्रा को राममंदिर के कार्यक्रम से ध्यान भटकाने का अभियान बता कर इसका विरोध करेंगे। सोशल मीडिया में इसकी चर्चा शुरू हो गई है। कांग्रेस की मुश्किल यह है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका में से आज तक कोई रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या नहीं गया है। इसलिए अयोध्या के ऐतिहासिक कार्यक्रम के साथ ही राहुल की यात्रा का शुरू होना कांग्रेस के लिए निगेटिव माहौल बनाने वाला भी हो सकता है। कांग्रेस नेताओं को किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए। वे 14 जनवरी की बजाय 10 दिन बाद भी यात्रा शुरू कर सकते थे।
सात दिन का अनुष्ठान और यजमान मोदी
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान सात दिन तक चलेगा। प्रधानमंत्री 16 जनवरी से राम मंदिर कार्यक्रम के यजमान के तौर पर अनुष्ठान में शामिल होंगे। पहले दिन 16 जनवरी को यजमान यानी प्रधानमंत्री मोदी सरयू में स्नान करके सबसे पहले गणेश पूजन करेंगे और उसके साथ ही अनुष्ठान की शुरुआत होगी। अगले दिन यानी 17 जनवरी को मोदी और प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान सम्पन्न कराने वाले आचार्य रामलला की मूर्ति के साथ पंचकोशी क्षेत्र में शोभा यात्रा करेंगे। उसी दिन पूजन के लिए सरयू से जल लाया जाएगा। उसके बाद मुख्य पूजा 22 जनवरी को होगी। बीच के चार दिन भी कोई न कोई अनुष्ठान होता रहेगा लेकिन यह तय नहीं है कि प्रधानमंत्री उसमें शामिल होंगे या नहीं। 22 जनवरी को सुबह साढ़े 11 से साढ़े 12 के बीच पूजा होगा और प्राण प्रतिष्ठा होगी। उसी दिन से भाजपा का अयोध्या दर्शन का अभियान शुरू होगा। पार्टी देश भर से लोगों को अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए ले जाएगी। अब सोचें, इससे जो नैरेटिव बनेगा क्या राहुल अपनी यात्रा से उसका जवाब दे पाएंगे?
चुनौतियां और भी हैं...
2023 भी कांग्रेस के लिए बड़ी उम्मीदों से शुरू हुआ था। श्रीनगर में राहुल की सफल भारत जोड़ो यात्रा का समापन हो रहा था। राहुल एक नई छवि के साथ स्थापित हो रहे थे। फिर कर्नाटक की जीत ने उस छवि को और निखार दिया था। इंडिया गठबंधन हुआ। पटना, बंगलुरु, मुबंई तीन बैठकों में विपक्ष के महारथियों के बीच राहुल छाए रहे। ममता बनर्जी जो उनकी सार्वजनिक आलोचना कर चुकी थीं। बंगलुरू में मंच से कह रही थीं हमारे फेवरेट राहुल। मगर राजनीति में छवियां जिस तेजी के साथ उभरती हैं वैसे ही कमजोर भी होती हैं। तीन राज्यों की जीती हुई बाजी को हारने के बाद राहुल एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गए है जिससे उनकी चुनौतियां भी बढ़ गई है।
वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर सवाल उठाते हैं कि राहुल का स्थितियों पर नियंत्रण क्यों नहीं है? आकलन और पूर्वानुमान के मामले में उनकी टीम इतनी कमजोर क्यों है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में क्षत्रपों को इतनी खुली छुट क्यों दे रखी थी? राहुल ने नागपुर में कहा कि भाजपा में तानाशाही है। कांग्रेस में कार्यकर्ता की बात सुनी जाती है। भाजपा की तानाशाही एक अलग मुद्दा है। मगर यह कहना कि कांग्रेस में कार्यकर्ता की सुनी जाती है थोड़ी हजम न होने वाली बात है। कार्यकर्ता की सुनी जाती थी इन्दिरा गांधी के समय तक। वे जब भी दिल्ली में होती थीं कार्यकर्ताओं के लिए उनके दरवाजे खुले रहते थे। और जब वे नहीं मिल पाती थीं तो माखनलाल फोतेदार और आरके धवन कार्यकर्ताओं से मिलकर उनकी बात सुनते थे। और यह गारंटी होती थी कि कार्यकर्ता की वह बात इन्दिरा गांधी तक पहुंच जाएगी।
भाजपा की तानाशाही देश पर है तो उसका विरोध है। लेकिन अगर पार्टी के अंदर की बात है तो उससे तो वह और मजबूत हो रही है। तीनों राज्यों में तीन एकदम अनजाने चेहरे मुख्यमंत्री बना दिए किसी ने चूं तक नहीं की। ऐसे ही दिल्ली से मंत्रिमंडल बने, विभाग बांटे। लेकिन कांग्रेस में आखिरी आखिरी तक गहलोत और सचिन लड़ते रहे कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी। अब जब राजस्थान में भाजपा के नए मंत्रिमंडल में गुर्जरों को एक केबिनेट मंत्री तक नहीं मिला तो पायलट समर्थक कह रहे हैं कि हमें तो गहलोत को हराना था। हरा दिया। राजस्थान में जैसी गुटबाजी हुई है वैसी कांग्रेस में कभी नहीं हुई। 2018 के चुनाव से पहले यह शुरू हो गई थी। और 2023 हारने के बाद भी यह खत्म नहीं हुई है। दोषी कौन? सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस नेतृत्व। दोनों को उठाकर साइड करना था। मगर अब भी नहीं किया। मतलब राजस्थान में पार्टी नाम की चीज है ही नहीं। जो हैं गहलोत और पायलट ही है? इन्दिरा गांधी ने इसी राजस्थान में मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर जैसे दिग्ग्जों को हटाया और जगन्नाथ पहाड़िया, बरकत उल्लाह खान को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी की सर्वोच्चता का कड़ा संदेश दिया। गहलोत भूल गए कि उसी समय की उपज वे हैं। पहले इन्दिरा जी ने और फिर राजीव गांधी ने उन्हें आगे बढ़ाया। ऐसे ही सचिन के पिता राजेश पायलट को। क्या राजेश पायलट का कोई राजनीतिक बैकग्राउंड था? मगर उन्हें भी इन्दिरा और राजीव गांधी ने तमाम दिग्गजों नटवर सिंह, नवल किशोर शर्मा के सामने आगे बढ़ाया।
राजनीति में पार्टी ही बड़ी होती है। राजस्थान में गहलोत और पायलट ने मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव ने यह नहीं समझा और हारे। मगर सिर्फ इन लोग पर दोष रखने से कुछ नहीं होगा। गलती तो पार्टी नेतृत्व की थी। इससे पहले और कई राज्य उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा कांग्रेस ऐसे ही हारी है। मगर जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी पार्टी की सर्वोच्च ईकाई की मीटिंग होती है तो समस्या की जड़ तक कोई नहीं पहुंचता और त्वरित इलाज के लिए राहुल से एक और यात्रा की मांग की जाती है। क्या कभी पार्ट टू पार्ट वन की तरह प्रभावी हुआ है? एक इनिंग दोबारा नहीं खेली जा सकती। और फिर जब इतनी सफल यात्रा के बाद वह मध्यप्रदेश और राजस्थान हार गए जहां यात्रा लंबे समय तक रही और कामयाब मानी गई थी तो यह दूसरी यात्रा लोकसभा चुनाव जिताने में कितनी कामयाब होगी? आज से नया साल शुरू हो गया। राहुल के लिए, कांग्रेस के लिए इस बार कोई कहने को तैयार नहीं है कि-'इक बिरहमन ने कहा है कि यह साल अच्छा है!' साल बुरा नहीं है मगर बहुत चुनौतिपूर्ण है। और इसका मुकाबला केवल और केवल विपक्षी एकता से ही किया जा सकता है। और कोई जुगाड़, फार्मूला कामयाब होने वाला नहीं है। कांग्रेस और विपक्ष याद रखे कि भाजपा और मीडिया सबसे ज्यादा इंडिया गठबंधन के ही पीछे पड़े हैं। रोज उसके बारे में नई कहानियां गढ़ते रहते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें मालूम है कि ये विपक्षी एकता ही प्रधानमंत्री मोदी को हैट्रिक करने से रोक सकती है। अगर चार सौ सीटों के लगभग सीट एडजस्टमेंट हो गया तो इस साल होने वाला लोकसभा चुनाव दिलचस्प हो जाएगा।
याद रहे अभी जिन तीन राज्यों में कांग्रेस हारी है वहां उसे 40 परसेंट वोट मिले हैं। मतलब वोट कांग्रेस के पास या दूसरे राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल के 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी को 48 प्रतिशत वोट मिले कम नहीं हैं। इसी तरह जिस उत्तर प्रदेश को विपक्ष के लिए सबसे मुश्किल बताया जा रहा है वहां 2022 विधानसभा में सपा को अकेले 32 प्रतिशत, बसपा को 12 प्रतिशत से ज्यादा, कांग्रेस को ढाई प्रतिशत और आरएलडी को तीन प्रतिशत वोट मिले थे। मतलब लगभग पचास प्रतिशत। जबकि भाजपा को 42 प्रतिशत ही वोट मिले। अब इन 42 प्रतिशत की तुलना कांग्रेस के हाल में हार वाले तीन राज्यों से करें। जहां 40 प्रतिशत वोट लेकर वह हार गई और यहां यूपी में क्योंकि विपक्ष आपस में लड़ रहा था तो भाजपा 42 प्रतिशत पर भी जीत गई। और यह भी याद रखें कि यूपी में ओवेसी की पार्टी, आम आदमी पार्टी जैसी कई अन्य पार्टियां भी चुनाव लड़ रही थीं। जिन्होंने विपक्ष की मुख्य पार्टियों के वोट काटे और भाजपा को फायदा पहुंचाया।
शकील अख्तर के अनुसार, विपक्ष को यह याद रखना है कि भाजपा को 2019 लोकसभा में केवल 37 प्रतिशत ही वोट मिला था। जबकि 2014 में वह 31 प्रतिशत वोट पर ही जीत गई थी। अब अगर सीट शेयरिंग सही होती है तो भाजपा के लिए कुछ प्रतिशत वोट बढ़ा लेने के बावजूद चुनाव जीतना संभव नहीं होगा। हमने विपक्ष के लिए सबसे मुश्किल राज्य माने जाने वाले यूपी का आंकड़ा ऊपर दिया है कि वहां विपक्ष अगर एक होकर लड़ता है तो उसका वोट प्रतिशत 50 से भी ऊपर है। बाकी और राज्यों में तो यूपी से अच्छी कहानी है। इसलिए 2024 का विपक्ष के पास एक ही मास्टर स्ट्रोक है और वह है ज्यादा से ज्यादा सीटों पर एक के मुकाबले एक उम्मीदवार उताराना। बाकी तो सब दिल बहलाव की बातें हैं उनसे कुछ नहीं होगा!
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