व्यापार, मुनाफ़ा और चिंता से जुड़ा जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: April 9, 2022
मानव जाति के पिछले 2000 सालों के इतिहास में जलवायु परिवर्तन से आगामी दशक के विध्वंसक होने का खतरा है. मानव समस्त जीवमंडल को कई प्रकार से अस्थिर कर रहा है. इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती का तापमान बेहद तेजी से बढ़ रहा है. वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में जारी नवीनतम IPCC (आईपीसीसी) रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को जीरो करना होगा. उत्सर्जन में कटौती के बिना ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर पाना मुश्किल है. इस काम के लिए उर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव की जरुरत है. ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए जीवाश्म इंधन के उपयोग में भी भारी कमी लानी पड़ेगी.



इस रिपोर्ट को जारी करते हुए IPCC के अध्यक्ष ‘होसुंग ली’ ने कहा कि “हम एक दोराहे पर खड़े हैं. अब हम जो निर्णय लेते हैं वो एक जीवंत भविष्य को सुरक्षित कर सकता है.”

हर दिन बढ़ते तापमान का आलम यह है कि पिछले 120 सालों में 2022 का मार्च का महीना सबसे अधिक गर्म रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया की 99 फीसदी आबादी प्रदूषित हवा में साँस लेती है. WHO के मुताबिक पृथ्वी का लगभग हर कोना वायु प्रदुषण से जूझ रहा है. इतना ही नहीं, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन को लेकर लास्ट काउंटडाउन रिपोर्ट (Last Countdown report on health and climate change) के मुताबिक वर्ष 2019 में 65 वर्ष या उससे अधिक के 46000 से ज्यादा लोगों की मौत का संबंध अत्यधिक तापमान से जुड़ा था. 

भविष्य में एक डरावनी स्थिति आने वाली है जिसे अभी रोके जाने की जरुरत है. परमाणु युद्ध, विश्व युद्ध भविष्य में संभावित हो सकते हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन वर्तमान की वास्तविकता है और हालात अगर जस के तस बनी रही तो यह अवश्यम्भावी है. वैज्ञानिकों के अनुसार अगर इसी तरह से ग्रीनहाउस गैस वायुमंडल में बढ़ता रहा तो धरती की जलवायु में बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकता है. यह किसी को नहीं पता है कि धरती कितनी गर्म हो जाएगी तो वायुमंडल में कोई बड़ा उथल पुथल होगा लेकिन वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार अगर अगले कुछ सालों में इस हालत में सुधार नहीं किए गए तो वैश्विक तापमान में 2 डिग्री की बढ़ोतरी होना तय है जिससे रेगिस्तान का विस्तार होगा, बर्फ का जमाव तेजी से घटेगा, समुद्र तल ऊपर उठ जाएगा, अतिरेक मौसम की घटनाएं बढ़ जाएंगी. इस तरह के वायुमंडलीय परिवर्तनों की वजह से कृषि उत्पादन पर असर होगा, बाढ़ और सुखा की स्थिति बढ़ेगी. तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाएँगे. लाखों लोग शरणार्थी बन कर नए आवास स्थान की तलाश करेंगे जो एक विकट समस्या को जन्म देगा. 

जलवायु परिवर्तन को टालने के लिए सरकारें, कॉरपोरेट जगत और आम लोगों को मिल कर अनेक और एकजुट प्रयास करने होंगे. वैश्विक प्रयास से ही इस वायुमंडलीय संकट से बचा जा सकता है. मामला अगर जलवायु और वायुमंडल का हो तो विश्व के कोई भी देश संप्रभु नहीं रह जाते. वे पृथ्वी के दूसरी तरफ के लोगों की गतिविधियों से हो रहे दुष्प्रभावों को झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं. उदाहरण के लिए प्रशांत महासगर का छोटा सा द्वीप किरिबाती अगर अपने देश में ग्रीनहाउस गैस को घटा कर शून्य कर भी ले तो भी वो दुसरे देशों के उत्सर्जन की वजह से समुद्र तल में होने वाली वृद्धि के कारण जलमग्न हो जाने से खुद को नहीं बचा पाएंगे. 

युवाल नोआ हरारी के अनुसार, “जलवायु परिवर्तन का प्रभाव परमाणु युद्ध से अधिक खतरनाक है. एक खुला वैश्विक युद्ध सभी देशों को तबाह कर सकता है. इसके विपरीत वैश्विक तापमान में वृद्धि होने का भिन्न-भिन्न देशों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ सकता है. कुछ देश जिसमें रूस सबसे प्रमुख है, को वास्तव में इससे लाभ हो सकता है. रूस के पास बहुत कम समुद्री तट है इसलिए समुद्र तट बढ़ने से वे चीन, किरिबाती या अन्य देशों से कम चिंतित हैं. अगर बढ़ता तापमान चाड को रेगिस्तान में बदल सकता है तो यह साईबेरिया को पूरी दुनिया को खिलाने भर अन्न उपजाने वाले खेतों में बदल भी सकता है. यही नहीं सुदूर उत्तर में स्थित आर्कटिक सागर वैश्विक व्यापार का मुख्य मार्ग भी बन सकता है और कमचटका सिंगापूर की जगह दुनिया का चौराहा बन सकता है”.

दुनिया भर के वैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित किए जाने के बावजूद कॉर्पोरेट और सरकारों की जबाबदेही तय नहीं हो पा रही है. ऐसी उदासीनता की स्थिति में इंटरगवर्नमेंटल पैनल आँन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट “climate change 2022: Mitigation ऑफ़ climate change” बताती है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर हुए पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने का अब शायद यह आखरी मौका है और इस मौके का फायदा अगले 8 सालों में ही उठाया जा सकता है. उसके बाद बृहद स्तर पर की गयी कोशिश का असर भी कम होगा. 

जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जीवाश्म इंधन की जगह अक्षय उर्जा स्रोत पर जोर देने की बात की जा रही है लेकिन चीन, जापान कोरिया जैसे देश जो तेल के आयत पर निर्भर करते हैं उन्हें अक्षय उर्जा का इस्तेमाल आकर्षित कर सकता है लेकिन रूस, इरान और अरब के देश तेल के निर्यात पर निर्भर करते हैं. उनकी अर्थवयवस्था तेल और गैस के निर्यात पर टिकी है जो बंद होने पर बर्बाद हो जाएगी. इसलिए ही वे अक्षय उर्जा के इस्तेमाल पर उदासीन हैं. वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में से भारत की हिस्सेदारी 6.8 फीसदी है. हालाँकि अभी भी यह प्रतिशत G20 देशों के औसत उत्सर्जन स्तर से काफी नीचे है.

युवाल नोआ हरारी के आकलन को अगर तार्किक तौर पर विश्लेषित किया जाए तो जलवायु परिवर्तन को लेकर कुछ देशों की उदासीनता बहुत कुछ जाहिर करती है. इसका मतलब यह हुआ कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से दुनिया के कुछ देश विनष्ट हो सकते हैं तो कुछ देश नए सिरे से उन्नत भी हो सकते हैं. अर्थव्यवस्था और व्यापार को ध्यान में रख कर भी जलवायु परिवर्तन को आँका जा रहा है जो कुल मिलाकर दुनिया के अधिकांश देशों के लिए घातक है. जलवायु परिवर्तन को लेकर जानबूझ कर संदेह का वातावरण बनाया जा रहा है ताकि दुनिया के बाजार, मुनाफ़ा और व्यापार पर प्रभाव न पड़े.

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