हालिया लोकसभा आमचुनाव (मई 2024) में इंडियन गठबंधन ने जाति जनगणना के मुद्दे को अपने चुनाव अभियान में महत्वपूर्ण स्थान दिया. अन्य कारकों के अलावा, इस मुद्दे ने भी इंडिया गठबंधन के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन में अपना योगदान दिया. हालाँकि इस गठबंधन को सरकार बनाने लायक सीटें नहीं मिल सकीं. भाजपा के गठबंधन साथी नीतीश कुमार बिहार में पहले ही जाति जनगणना करवा चुके हैं, हालाँकि इस मुद्दे को अभी उन्होंने ठंडे बस्ते में रख छोड़ा है. राहुल गाँधी ने वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत केन्द्रीय बजट पर चर्चा के दौरान लोकसभा में अपने भाषण में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया. उन्होंने काफी ज़ोरदार और प्रभावी ढंग से जाति जनगणना की मांग उठाई. उन्होंने 'हलवा' (सरकार से मिलने वाले लाभ) का मुद्दा भी उठाया. उन्होंने कहा कि बजट तैयार करने वाले मुख्यतः ऊंची जातियों के हैं और बजट के लाभार्थी केवल चंद उच्च वर्ग हैं.
राहुल गाँधी के इस प्रभावी भाषण का जवाब देते हुए अनुराग ठाकुर ('गोली मारो....' वाले) ने राहुल गाँधी का मखौल उड़ाते हुए कहा कि जिसे उसकी खुद की जाति नहीं मालूम, वह जाति जनगणना की मांग कर रहा है. इस मामले में राहुल गाँधी अनूठे व्यक्ति हैं - हिन्दू पिता, ईसाई मां, हिन्दू दादी और पारसी दादा. एक तरह से वे उस स्वतंत्र और खुले समाज के प्रतीक हैं, जो दकियानूसी तत्वों के अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक शादियों के विरोध के बावजूद देश में उभरता जा रहा है. ठाकुर की टिप्पणियों को लोकसभा की कार्यवाही से हटा दिया गया मगर प्रधानमंत्री ने उनके भाषण को ट्वीट कर उसका अनुमोदन किया.
जाति जनगणना आवश्यक है. कारण यह कि आरक्षण के प्रतिशत का निर्धारण दशकों पहले किया गया था और तब से लेकर अब तक विभिन्न जातियों की कुल आबादी में हिस्सेदारी में काफी परिवर्तन आ चुका है. अनुराग ठाकुर और नरेन्द्र मोदी जिस विचारधारा के हैं, वह विचारधारा सकारात्मक भेदभाव की नीति अपनाकर हाशियाकृत समुदायों को अन्य समुदायों के समकक्ष लाने के प्रयासों के खिलाफ है. यद्यपि आर्थिक दृष्टि से सक्षम हो जाने मात्र से दलितों की सामाजिक समस्याएं समाप्त नहीं हो जाएंगी मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि बेहतर आर्थिक स्थिति से सामाजिक स्थिति में भी बेहतरी आती है.
भारतीय समाज जाति व्यवस्था के चंगुल में बुरी तरह फंसा हुआ है. इसके चलते जाति प्रथा के पीड़ितों को सामाजिक न्याय, सम्मान और गरिमा मिले, यह सुनिश्चित करवाना आसान नहीं है. दलितों को सम्मान और समानता दिलवाने का संघर्ष बहुत लम्बा और कठिन रहा है. इस दिशा में पहला प्रयास जोतिराव फुले ने किया था. उन्हें अहसास था कि जाति प्रथा, हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी है. चूँकि दलितों को पढने-लिखने नहीं दिया जाता था इसलिए फुले ने दलितों के लिए स्कूल खोले. जातिगत पदक्रम को बनाये रखने में लैंगिक असमानता की भी अहम भूमिका है. अतः सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले. जातिगत व लैंगिक समानता की स्थापना के ये प्रयास करीब एक सदी पहले किये गए थे.
अम्बेडकर ने इन वर्गों को और जागरूक किया. दलितों को समझ में आया कि जमींदार और पुरोहित की जोड़ी – जिसे महाराष्ट्र में शेठजी-भट्टजी कहा जाता है - उनकी सबसे बड़ी पीड़क है. इसी के चलते ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन शुरू हुआ. ब्राह्मणों के प्रभुत्व को चुनौती देने वाले इस आन्दोलन की राह आसान नहीं रही. उच्च जातियों के लोग हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने के गांधीजी के प्रयासों से पहले ही परेशान थे. दलितों की समान अधिकारों की मांग ने उच्च जातियों को और विचलित कर दिया. उच्च जातियों के श्रेष्ठी वर्ग ने आरएसएस की स्थापना की, जिसका लक्ष्य था हिन्दू राष्ट्र की स्थापना. हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना मनुस्मृति पर आधारित है. आरएसएस ने भारत के संविधान का इस आधार पर विरोध किया था कि उसमें भारत के 'स्वर्णिम अतीत' के मूल्यों को जगह नहीं दी गई है.
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का असर धीर-धीरे समाज पर पड़ने लगा. इसके साथ ही अफवाहें फैलाने का क्रम भी शुरू हो गया. आरक्षण से लाभान्वित होने वालों को 'सरकारी दामाद' कहा जाने लगा और यह तर्क दिया गया कि वे जिन पदों पर काबिज़ हैं, वे उनके योग्य नहीं हैं. यह भी कहा गया कि आरक्षण की व्यवस्था योग्य युवाओं की राह में रोड़ा है. ऊंची जातियों के लोगों का गुस्सा सबसे पहले गुजरात के अहमदाबाद में सामने आया. माधवसिंह सोलंकी के केएचएएम या खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) गठबंधन की सफलता पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई और सन 1981 में गुजरात में दलित-विरोधी हिंसा भड़क गयी. अध्येता अच्युत याग्निक लिखते हैं: "शिक्षित मध्यम वर्ग, जिसमें ब्राह्मण, बनिया और पाटीदार शामिल हैं, ने 1981 में आरक्षण की व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया."
सन 1985 में पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ एक बार फिर गुजरात में दलित-विरोधी हिंसा हुई. इसी समय, विश्व हिन्दू परिषद् ने राममंदिर आन्दोलन के बढ़ावा देना शुरू किया और लालकृष्ण अडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरू की.
वी.पी. सिंह, जिनकी सरकार एक ओर भाजपा तो दूसरी ओर वामपंथी दलों के समर्थन से चल रही थी, ने अपनी गद्दी बचाने की खातिर मंडल आयोग की रपट को लागू कर दिया और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी), जो आबादी का 55 प्रतिशत हैं, को 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया. ऊंची जातियां, मंडल आयोग के खिलाफ थीं. मगर चुनावी कारणों से भाजपा मंडल का सीधे विरोध नहीं कर सकती थी. उसने रथयात्रा को सफल बनाने में पूरा जोर लगा दिया. इस यात्रा को मंडल-विरोधी उच्च जातियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ. मंडल का विरोध करने के लिए 'यूथ फॉर इक्वालिटी' जैसी संस्थाएं उभर आईं.
मंडल राजनीति से शरद यादव, लालू यादव और रामविलास पासवान जैसे नेता उभरे. भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा, "वे मंडल लाए तो हम बदले में कमंडल लाए." भाजपा सामाजिक न्याय की विरोधी रही है और अपने इस विरोध को उसने मुस्लिम-विरोध का जामा पहनाया. एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गिया. भाजपा का उद्देश्य है जातिगत उंच-नीच को बनाये रखते हुए हिन्दुओं को एक करना. मंडल पार्टियाँ कई मामलों में सफल रहीं मगर उनमें से कुछ ने अपने संकीर्ण हितों की खातिर मनु की राजनीति से समझौता कर लिया.
इंडिया गठबंधन में शामिल कुछ दल मंडल के विरोधी रहे हैं. मगर अपनी दो भारत जोड़ो यात्राओं के दौरान आम लोगों की स्थिति देखने के बाद राहुल गाँधी, जाति जनगणना के प्रबल समर्थक बन गए हैं. विभिन्न जातियों की आबादी, आरक्षण के प्रतिशत का निर्धारण करने का सबसे बेहतर आधार है. इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण कोटे के उप-विभाजन के सम्बन्ध में निर्णय स्वागतयोग्य है. जो जातियां आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाईं हैं, उन्हें इसका लाभ दिलवाना सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आवश्यक है.
जहाँ इंडिया गठबंधन जाति जनगणना की मांग का खुल कर समर्थन कर रहा है वहीं एनडीए की मुख्य घटक दल भाजपा इस मांग की पूर्ति की राह में हर संभव रोड़ा अटकाएगी. इस मांग के समर्थन में प्रदर्शन, सभाएं आदि कर इस मांग की पूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)