राजस्थान में पुलिस कर्मचारियों की फिटनेस एक बड़ी समस्या बनकर उभरी है जिसकी लगातार अनदेखी की जाती है।

मृतक सुशील कुमार Image: NBT
पिछले दिनों जयपुर में हेड कांस्टेबल की प्रमोशन के लिए दौड़ के समय हुई मौत ने एक बार फिर इस समस्या को चर्चा में लाया लेकिन इसे भी एकल अपवाद के रूप में लिया गया और समूचे विभाग की प्रमुख समस्या मानने की तरफ किसी ने रुचि नहीं दिखाई।
नवभारत टाइम्स के अनुसार असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर बनने के लिए जिस हेड कांस्टेबल सुशील कुमार शर्मा की दौड़ के समय मौत हुई, वह महज 45 साल का था और दो किलोमीटर की दौड़ में वह हिस्सा ले रहा था।
पुलिस जैसे विभाग में 45 साल की उम्र में 2 किलोमीटर की दौड़ कोई ऐसी कठिन बाधा नहीं थी कि जिसे पार करते समय किसी की जान ही चली जाए। इसके बावजूद ऐसा हुआ तो ये मानना चाहिए कि विभाग में जवानों की फिटनेस की एकदम अनदेखी की जा रही है।
ये दौड़ किस मौसम में रखी गई और क्या इसे भीषण गर्मी के समय रखा जाना जरूरी था, ये अपने आप में अलग जांच का विषय है। ये भी सवाल उठता है कि दो किलोमीटर की दौड़ के पूर्व अभ्यर्थियों की जरूरी स्वास्थ्य जांच की गई थी या नहीं।
विभाग की ओर से हुई इस लापरवाही के अलावा, मूल बात जवानों की फिटनेस की भी आती है। पुलिस के जवान जिन परिस्थितियों में काम करते हैं, उसमें उन्हें व्यक्तिगत रूप से फिट रहने के अवसर मिलते ही नहीं।
अनुशासन के चलते पुलिसकर्मी अपनी समस्याओं के बारे में किसी से कह नहीं पाते और अधिकारी उन्हें पुलिस का जवान कम, निजी नौकर ज्यादा समझते हैं और ऐसे में उनकी फिटनेस या अन्य किसी जरूरत के बारे में सोचना उन्हें गैर जरूरी लगता है।
कांस्टेबल के जब काम के घंटे ही तय नहीं होते, तब वो फिटनेस के लिए समय नहीं निकाल सकते। छुट्टियां भी उन्हें बहुत कम मिलती हैं और उनके काम की प्रवृति ऐसी है कि महत्वपूर्ण त्यौहारों पर तो वो कतई छुट्टी नहीं ले पाते।
किसी भी खास मौके पर, या किसी वीआईपी के दौरे के समय जवानों की निजी हालत की परवाह किए बिना उन्हें तैनात कर दिया जाता है। साथ में उनसे ये अपेक्षा भी रहती है, बल्कि अनिवार्यता रहती है कि उनके काम में किसी तरह की चूक न हो। ऐसे में उनके ऊपर कितना मानसिक दबाव रहता होगा, ये समझ पाना कठिन नहीं है।
ये समस्या वैसे तो देश भर की पुलिस की है, लेकिन खास राजस्थान की ही बात करें तो 2014 के बाद से प्रमोशन टेस्ट के दौरान इस तरह की मौत की घटनाएं और भी होती रही हैं।
फरवरी 2014 में 47 साल के कांस्टेबल की मौत इसी तरह के प्रमोशन टेस्ट में हुई थी। कांस्टेबल 100 मीटर भी नहीं दौड़ पाया था कि बेहोश होकर गिर गया था।
जून 2017 में 38 साल के एक सब इंस्पेक्टर की मौत प्रमोशन टेस्ट के दौरान दिल का दौरा पड़ने से हो गई थी।
पुलिसकर्मियों की मजबूती की पोल तो समय-समय पर कई वारदातों से ही खुलती रहती है जब कोई भी अदना सा गुंडा किसी पुलिसकर्मी की पकड़कर पिटाई कर देता है।
राजस्थान में समय-समय पर पुलिसकर्मियों की फिटनेस के लिए विशेष कार्यक्रम चलाने पर विचार होता है और इसमें निजी कंपनियों की मदद लेने की बात भी सुनने में आई थी, लेकिन अमल किसी विचार पर नहीं हो पाता क्योंकि इसे सबसे गैर जरूरी काम माना जाता है।
राज्य के पुलिसकर्मियों में असंतोष लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया।
पिछले साल अक्टूबर तो राज्यभर के पुलिसकर्मी सामूहिक अवकाश पर ही चले गए थे। साथ में उनके परिवार वाले भी आंदोलन पर उतारू हो गए थे। जयपुर में तो वेतन कटौती के विरोध में एक चौकी के जवानों ने विरोध स्वरूप सिर ही मुंडा लिए थे। मुश्किल से उस समय स्थिति नियंत्रण में आई थी, लेकिन घटना से सरकार ने कुछ नहीं सीखा।
सवाल ये है कि बीमार, नाराज, तनावग्रस्त और सुविधाओं की कमी से जूझते पुलिस विभाग से किस तरह से ये अपेक्षा की जा सकती है कि वो नागरिकों की सुरक्षा करेंगे और साथ ही भ्रष्टाचार से दूर रहेंगे।