असम NRC: अपने ही लोगों को बेवतन करने की साजिश

Written by Teesta Setalvad | Published on: August 28, 2019
देश का मुख्य हिस्सा फिलहाल इस प्रताड़ना और यंत्रणा से बचा हुआ है. इस वक्त यह दर्द, प्रताड़ना, यंत्रणा असम के हिस्से है. प्रशासन यहां हर शख्स से उसके भारतीय नागरिक होने के सबूत मांग रहा है. और इसे साबित करने के लिए लोग अथाह दर्द और त्रासदी के दौर से गुजर रहे हैं.



देश के सुदूर हिस्से असम में हमारे सबसे गरीब लोगअपनी भारतीयता साबित करने की जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं. और एक अजीब अराजक और एक खास मंसूबे से काम करने वाली नौकरशाही ने उनका जीना दूभर कर रखा है.यह नौकरशाही अब इनका भाग्यविधाता बन गई है.

असम में CJP की टीम ने बेहद बारीकी से जो सूची तैयार की है, उसके मुताबिक 18 जुलाई, 2019 तक नागरिकता साबित करने की जद्दोजहद में 58 लोगों की मौत हो चुकी है. इनमें से सभी श्रमिक वर्ग के कृषक या शहरी पृष्ठभूमि के थे. इनमें से 28 हिंदू, 27 मुस्लिम, एक बोड़ो, एक गोरखा और चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी समुदाय से जुड़े थे. 54 लोगों की मौतों ने भारत की मुख्य धरती पर रहने वालों को भले ही न झकझोरा हो लेकिन जब जुलाई में प्रॉविजनल (अस्थायी) नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स से 40 लाख से ज्यादा लोगों के नाम हटा दिए गए तब लोगों को इसकी गंभीरता का अंदाजा लगा होगा.

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स यानी NRC जटिल प्रक्रिया है. सिर्फ असम से जुड़ी यह प्रक्रिया अपने आप में अनोखी है. सहमति से शुरू की गई यह प्रक्रिया असम समझौते से पहले से ही जारी है, जब राज्य की राजनीति में आक्रामकता, टकराव और हिंसा का दौर था. और यह दौर बाहरियों के प्रति असम के लोगों के वास्तविक या काल्पनिक डर का नतीजा था. बहरहाल नागिरकता का यह पूरा विमर्श तोड़-मरोड़ दिया गया है.

यह मुद्दा अब किसी को ‘घुसपैठिया’ या ‘विदेशी’ साबित करने के तक सीमित हो गया है.अगर ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ एनआरसी की प्रक्रिया के गिर्द बनी सहमति के बारे में समझना है तो उन विचित्र औरसंकीर्ण पूर्व-शर्तों पर गौर करना जरूरी होगा, जिनके आधार पर इसे खड़ा किया गया. फिलहाल राज्य के अंदर लोगों से जुड़े इस व्यापक विमर्श में ‘वास्तविक भारतीय नागरिकों’ जैसे जुमले उछाले जा रहे हैं.

वैधानिक रूप से आज असम में एनआरसी को सिटिजनशिप एक्ट 1955 ( जो हर भारतीय पर लागू होता है लेकिन असम को लेकर इसमें खास संशोधन है) और सिटिजनशिप संशोधन कानून, 2003 के विशेष प्रावधानों के तहत अंतिम रूप दिया जा रहा है.

सवालों के घेरे में NRC तैयार करने के मौजूदा तौर- तरीके
एनआरसी तैयार करने के लिए जो तौर-तरीके अपनाए गए हैं. उनमें नागरिकता के सवाल से जुड़े सभी पक्षों की सहमति है. इऩ पक्षों में असम आंदोलन के समर्थक, विभिन्न धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक संगठन और असम के सभी राजनीतिक दल शामिल हैं. वास्तव में यह बड़ी जद्दोजहद के बाद पैदा की गई सहमति है.असम सरकार की एक कैबिनेट उप समिति की ओर से इसे मंजूरी के बाद इसे NRC अथॉरिटी को भेज दिया गया था. NRC अथॉरिटी की यह मंजूरी रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया को भेज दी गई थी जो भारत सरकार के गृह मंत्रालय के तहत काम करता है.

क्या एनआरसी तैयार करने की प्रक्रिया सही है? इसके लिए हमें इन तौर-तरीकों को समझना होगा. काफी विचार-विमर्श  के बाद 15 तरह के दस्तावेज ‘लिगेसी डॉक्यूमेंट’ (जो विरासत से हासिल दस्तावेज हैं) और 10 तरह के दस्तावेजों को ‘लिंकेज डॉक्यूमेंटस’ केतौर पर मान्यता दी गई जिनके आधार पर नागरिकता के दावे की पड़ताल की जानी थी. यानी अगर कोई नागरिक खुद को वास्तविक नागरिक साबित करवाने के लिए आवेदन देता है तो इन दस्तावेजों की जांच की जा सकती है. अपडेटेड NRC में नाम जोड़ने के लिए आवेदनों की जांच के वक्त इन दस्तावेजों की जांच की जा सकती है. नियम के मुताबिक इनकी जांच जरूरी है. इन सभी दस्तावेजों को पहले RGI और फिर बाद में देश के सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दी थी. इनमें से किसी एक या सारे दस्तावेजों के आधार पर नागरिकता तय करने की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया जाना था लेकिन बाद में इस प्रक्रिया में काफी गड़बड़ियां और चालाकियां घुसेड़ दी गईं. 2016 बाद अलग-अलग प्राधिकरणों की बुरी नीयत की वजह से शुरू में तय किए गए तरीकों के तहत जिन दस्तावेजों की पुष्टि की जानी थी, उनमें से कई घटा दिए गए. जब कोर्ट के ध्यान में यह बात लाई गई तो इनमें से कुछ गड़बड़ियों को ठीक किया गया.लेकिन जमीनी स्तर पर कोर्ट की नामंजूरी के बावजूद NRC से जुड़े प्राधिकरणों ने कुछ लिगेसी और लिंकेज डॉक्यूमेंट को मंजूर करना कम कर दिया है. यह सिर्फ आम लोगों को परेशान करने के लिए नहीं है. ये काम राजनीतिक आकाओं की ओर तय ‘लक्ष्यों’ को पूरा करने के लिए हो रहा है.

NRC अथॉरिटी ने सिटिजनशिप सर्टिफिकेट, माइग्रेशन सर्टिफिकेट, रिफ्यूजी इनमेट सर्टिफिकेट जैसे सबूतों को स्वीकार करना कम कर दिया है. इसके अलावा बंगालऔर त्रिपुरा सरकार की ओर से जारी वोटर लिस्ट समेत सभी सरकारी दस्तावेजों की स्वीकृति भी रद्द हो चुकी है.नागालैंड सरकार के प्राधिकरणों की ओर से जारी सारे जन्म प्रमाण पत्र भी नामंजूर किए जा चुके हैं. इन दस्तावेजों की प्रामाणिकता जांचने के लिए कोई कदम उठाए बिना ही इन्हें रद्द कर दिया गया है.

 नागरिकता प्रमाणित करने के तौर-तरीके में अच्छी तरह सोच-समझ कर एक मजबूत प्रावधान शामिल किया गया है. इसमें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की जांच टीम (DMIT) के दखल की व्यवस्था है. इस प्रावधान के तहत किसी भी भारतीय नागरिक को अपनी नागरिकता पर सवाल उठाए जाने पर शिकायत का अधिकार है. अगर कोई वास्तविक भारतीय नागरिक सही दस्तावेज पेश करने में नाकाम रहता है तो DMIT इसकी स्वतंत्र जांच कर सकता है. DMIT को स्थानीय लोगों से मिलने और सही तरीके से जांच करने के बाद अनाथों, वंचितों और ‘लिंकेज’ डॉक्यूमेंट न रखने वाले लोगों को नागरिकता सूची में शामिल करने की मंजूरी देने का अधिकार है. लेकिन नागरिकता तय करने की मौजूदा प्रक्रिया में इसे पूरे प्रावधान को नजरअंदाज कर दिया गया है.

और आखिर में नागरिकता तय करने के लिए एक और मजबूत प्रावधान की व्यवस्था है. लिंकेज डॉक्यूमेंट पर सवाल उठते (या नागरिकता प्रमाणित करने के सारे साधन फेल हो जाते हैं) हैं तो  इसमें डीएनए टेस्ट की व्यवस्था है. इस आधार पर NRC में नाम शामिल होता है. डीएनए टेस्ट ऐसा प्रावधान है, जिस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते. लेकिन RGI  ने इकतरफा फैसला करते हुए इस प्रावधान को रद्द कर दिया. और सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में पूरी जानकारी नहीं दी गई.

दर्द और परेशानियों का लंबा सिलसिला
इसके अलावा भी कई और खामियां हैं. नागरिकता को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में लिगेसी डॉक्यूमेंट और उनका इस्तेमाल करने वालों के नामों, उपनाम, उम्र के अंतर को लेकर बड़ी संख्या में आवेदनों को रद्द कर दिया गया. जबकि NRC तैयार करने के लिए तय तौर-तरीकों में यह साफ किया गया है कि नाम, उपनाम, उम्र के जिक्र में मामूली अंतर से नागरिकता सूची में नाम शामिल करने के आवेदन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

असम के लोगों का कोई ऐसा वर्ग नहीं है जो राज्य की ओर से पैदा की गई त्रासदी से अछूता हो. चाहे बांग्ला बोलने वाले हिंदू हों या मुस्लिम या फिर गोरखा हों या फिर हिंदी बोलने वाले उत्तर या पश्चिम भारतीय. सब पर इस प्रक्रिया ने जुल्म ढाए हैं. असम के लोग जो दर्द और यंत्रणा झेल रहे हैं उनको बयां करना मुश्किल है. घरों से दूर बने जगहों पर लोग सुनवाई के लिए लंबा सफर तय कर रहे हैं. आवेदनों के दस्तावेजों को भरने में काफी पैसा खर्च हो रहा है. और तो और उन्हें कई-कई बार ‘लिगेसी पर्सन्स’ ( वे लोग जिनकी विरासत के आधार पर नागरिकता संबंधित आवेदक की नागरिकता सिद्ध की जा सके) के साथ इन केंद्रों पर बुलाया जा रहा है.

कई लोगों को तो कुछ मामलों में इन केंद्रों पर सात से चौदह बार जाना पड़ा और वह भी वंश वृक्ष से जुड़े परिवार के सभी लोगों के साथ. यानी 40 से 80 लोगों का हुजूम अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तक यात्रा करता रहा. दिल्ली में एक प्रमुख यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर को ऊपरी असम के लखीमपुर तक यानी 3000 किलोमीटर की यात्रा पूरे परिवार के साथ तीन बार करनी पड़ी.

फॉरनर्स ट्रिब्यूनल की फांस
जो लोग गलत तरीके से या किसी और तरीके फाइनल NRC में शामिल किए जाने से वंचित किए जाएंगे. उनके सामने आखिर में क्या रास्ता रह जाएगा? जाहिर है अदालत. गृह मंत्रालय के एक आदेश ने (कोर्ट में इसे चुनौती दी गई है) ने पूरी प्रकिया को कमजोर करने की कोशिश की है. इस आदेश के मुताबिक जो लोग NRC से बाहर कर दिए गए हैं वे फॉरनर्स ट्रिब्यूनल (Foreigners Tribunals) में जाने के लिए बाध्य किए जा रहे हैं.

आखिकार ये Foreigners Tribunals हैं क्या? 
आम तौर असम में ये Pre Independence Act of 1946 के तहत बनाए गए थे.इनमें पारदर्शिता नहीं है. इनकी संख्या 100 के करीब है. इसलिए सिटिजनशिप ट्रिब्यूनलों में 1955 सिटिजनशिप एक्ट के तहत ही नागरिकता पर सही तरीके से फैसला होना चाहिए. चूंकि असम में नागरिकता के सवाल पर लगातार लोगों के साथ अन्याय हो रहा है इसलिए भ्रम और भय का माहौल बना हुआ है.

(लेखिका इस लेख के इनपुट्स के लिए गुवाहाटी के नंदू घोष, बिजनी और ज़मशेर अली की आभारी हैं. लेखिका सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस की सेक्रेट्री हैं.)

 

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