अस्मिता की आड़ में ध्रुवीकरण की सियासत

Written by Aman Wadud | Published on: May 25, 2016

Image Credits:  maeeshat.in

सन 1671 में महान अहोम साम्राज्य के लाचित बोड़फुकन ने मुगलों को हराया था। तब उस लड़ाई में उनके मातहत कमांडर थे इस्माइल आका बाग हजारिका और मुगलों की सेना का नेतृत्व जेनरल राम सिंह कर रहे थे। वह युद्ध सरायघाट में लड़ा गया। तब से अब यानी 2016 में असम विधानसभा के चुनाव तक कभी भी सरायघाट की उस जंग को हिंदुओं और मुसलमानों की लड़ाई के तौर पर नहीं देखा गया था। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने इस बार यह घोषणा की थी कि यह चुनाव सरायघाट की आखिरी लड़ाई है- असम की पहचान को बचाने की आखिरी लड़ाई। हाल ही में हुए चुनाव में भाजपा ने इसी आग्रह को चुनाव का मकसद बना दिया। अब नतीजे बता रहे हैं कि इसने असम के लोगों के एक बड़े हिस्से को भीतर से हिला दिया।
 
भाजपा ने सीधे यह कभी नहीं बताया कि 2016 में इस लड़ाई के मुगल कौन हैं। लेकिन उन्होंने इसमें शक की कोई गुंजाइश भी नहीं छोड़ी। एक अहोम के तौर पर तरुण गोगोई ने नरेंद्र मोदी को मुगलों के तौर पर पेश करने की एक कमजोर कोशिश की, जो असम पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन वे बुरी तरह नाकाम हुए। इसके उलट भाजपा ने इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए यह साबित करने में बाजी मार ली कि आज का अहोम कौन है और मुगल कौन!
 
दिलचस्प तरीके से अमित शाह ने एक चुनावी रैली में कहा कि अहोम राजा सुकफा ने मुगलों को सत्रह बार हराया। जबकि सुकफा ने 1228 ई में अहोम साम्राज्य की स्थापना की थी और 1268 ई में उसकी मौत हो गई। दूसरी ओर, इतिहास बताता है कि भारत में मुगल साम्राज्य की शुरुआत 1526 में हुई। फिर भी, यह भाजपा के लिए अपनी जनता को प्रभावित करने के लिए एक बहुत अच्छा जुमला साबित हुआ।
 
असम के लिए यह एक ऐतिहासिक चुनाव था। न सिर्फ इसलिए कि पूर्वोत्तर में पहली बार कमल खिला, बल्कि ज्यादा अहम बात यह है कि पहली बार सारी सीमाओं के पार हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हुआ। अगर यह कोई अस्मिता या पहचान बचाने की लड़ाई थी तो वह हिंदू पहचान थी, न कि असमिया अस्मिता। दरअसल, इस चुनाव में भाजपा का सबसे मुख्य निशाना बंगाली मूल के मुसलमान थे।
 
बहरहाल, पिछले लंबे समय से आजादी से पूर्व ही भारत आ गए बंगाली मूल के मुसलमानों को 'अवैध आप्रवासी' के तौर पर ब्रांडेड कर देने से लेकर इससे जुड़े जो दूसरे तमाम अभियान चलाए गए, उसने पहले ही बहुत कुछ तय कर दिया था। इसके बावजूद सच यही था कि कोई भी पार्टी मुसलमानों और बंगाली हिंदुओं के समर्थन के बिना बहुमत हासिल नहीं कर सकती थी।
 
भाजपा का बौद्धिक फ्रंट इस बात को बहुत अच्छी तरह समझता था कि केवल मुसलमानों की आलोचना से काम नहीं चलने वाला है। अगर भाजपा 'मिशन-84' का लक्ष्य हासिल करती है तभी वह अपने दम पर सरकार बना सकेगी और इसके लिए उसे हिंदुओं में 'एकता' लानी होगी। इसी मकसद से पूर्व कांग्रेसी नेता और असम के 'नए हिंदू हृदय सम्राट' हेमंत बिस्वा सरमा ने बार-बार तीखे बयान दिए..! बंगाली मूल के भारतीय मुसलमानों के बारे में बोलते हुए सरमा ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया- 'मैं यह कह रहा हूं कि ये वे लोग हैं, जो लंबे समय में अलग-अलग मौके पर बांग्लादेश से आए थे। यह लड़ाई जातीय पहचान की है, हमारी असमिया संस्कृति की है। असम में पैंतीस सीटों पर बांग्लादेशी आप्रवासी बहुमत में है!
 
जिस बदरुद्दीन अजमल के बारे में यह प्रचार किया जा रहा था कि वे बांग्लादेशी मुसलमानों की ओर से मुख्यमंत्री बनेगे, वे एक ऐसी सीट पर सोलह हजार वोटों से हार गए, जहां की सनतानवे फीसद आबादी मुसलिम है। ऐसे उदाहरण और भी हैं। भाजपा ने यह मंशा भी जाहिर की कि सत्ता में आने के बाद वह बांग्लादेश से आने वाले हिंदुओं को ही नागरिकता देगी। दरअसल, पार्टी की यह योजना 2014 से ही थी। अपने चुनाव अभियानों के दौरान भाजपा ने बांग्लादेश मूल मुसलमानों से उनकी नागरिकता छीन लेने की बात कही। अब भाजपा इस बात की व्याख्या कैसे करेगी और कैसे सही ठहराएगी? वह कैसे कह सकेगी कि उसे मुसलमानों से कोई दिक्कत नहीं है?
 
चुनावी नतीजों के बाद यह साफ जाहिर हो गया कि धार्मिक लाइन पर पूरी तरह कर ध्रुवीकरण करने में भाजपा को कामयाबी मिली। लेकिन इस सांप्रदायिक छवि को धोने के लिए भाजपा के थिंक टैंक कहे जाने वालों ने यह झूठा प्रचार करना शुरू कर दिया कि असम के मुसलमानों ने भाजपा को बड़े पैमाने पर वोट दिया!
 
क्या हम इस बात को समझ सकते हैं कि एक असमिया मुसलमान शंकर अज़ान अपने चुनाव क्षेत्र में तीस प्रतिशत से ज्यादा असमिया मुसलमानों के वोट होने के बावजूद नहीं जीत सके?

भाजपा ने असम की जीत को राष्ट्रीय जीत की तरह पेश किया है। शायद इसलिए कि इसने न सिर्फ राज्य में पहली बार चुनाव जीता है, बल्कि इसलिए भी कि असम में हिंदू वोटों को इकट्ठा कर उनका धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में उसे कामयाबी मिली।

 

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