नागरिकता संसोधन कानून वापसी की बढ़ी उम्मीद
साल भर से चल रहे किसान आन्दोलन ने सरकार को घुटनों पर लाकर खड़ा कर दिया है जिसके परिणामस्वरुप प्रधानमंत्री द्वारा कृषि कानून को वापस लिए जाने की घोषणा की जा चुकी है. यह कई सवाल भी खड़े करता है और साथ ही नागरिकता कानून, धारा 370, GST सहित कई जनविरोधी फैसलों पर फिर से सोचने की दिशा में रेखांकित करती है. यह घोषणा जनता को लोकतान्त्रिक आन्दोलन की ताकत का अहसास कराता है और उम्मीद भी जगा रहा है. नागरिकता कानून और कृषि कानून में यह समानता रही है कि सरकारी मंत्रियों और तंत्रों के द्वारा दोनों ही आन्दोलनों को बदनाम करने की भरपूर कोशिश की गयी. किसान आन्दोलन को अपमानित और लोकतंत्र को शर्मिंदा करने में प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्री तक शामिल हैं.
किसान आन्दोलन को लेकर दिए गए बयान:
आन्दोलनजीवी परजीवी की तरह होते हैं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
माओवादी विचारधारा से प्रेरित लोगों के हाथों में चला गया किसान आन्दोलन- केद्रीय मंत्री पीयूष गोयल
भीड़ इक्कठा होने से कानून वापस नहीं होते- कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर
आन्दोलन की तस्वीरों में कई लोग किसान नहीं लग रहे- केन्द्रीय मंत्री वीके सिंह
आन्दोलन के पीछे चीन और पकिस्तान का हाथ है- केन्द्रीय मंत्री राव साहेब दानवे
आन्दोलनकारी टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग हैं—भाजपा सांसद मनोज तिवारी
कायर लोग हैं आत्महत्या करने वाले किसान- कर्नाटक कृषि मंत्री बीसी पटिल
बिलकुल इसी अंदाज और सोच के साथ नागरिकता कानून को ख़त्म करवाने को लेकर चल रहे आन्दोलन के लिए भी सरकार के ऐसे ही बयान थे. दिल्ली विधानसभा की एक चुनावी रैली में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, “जो लोग कश्मीर में आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं वही शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं”.
गौरतलब है कि किसान आन्दोलन पिछले एक साल से देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जारी है और CAA-NRC के ख़िलाफ़ आन्दोलन भी महीनों तक पूरे देश में चलाया गया जिसे बाद में देश भर में फैली कोरोना महामारी की वजह से बंद करवा दिया गया. किसान आन्दोलन में देश के अलग अलग राज्यों के सिख समुदाय की महती भूमिका रही व नागरिकता संसोधन कानून के ख़िलाफ़ चलाए गए आन्दोलन में मुसलमानों की तादाद अधिक थी. कृषि व्यवसाय के लिए प्रसिद्द सिख समुदाय सहित अन्य कृषक समुदाय को डर था कि मोदी सरकार तीन नए कृषि कानून के द्वारा फ़सल के दाम सहित जमीन का मालिकाना हक़ भी कोर्पोरेट के हवाले कर सकती है तो मुसलमान समुदाय को नागरिकता कानून से देश के नागरिक होने के संवैधानिक अधिकार ख़त्म होता नज़र आया.
जिस किसान आन्दोलन में खालिस्तानियों और आतंकवादियों के शामिल होने की बात सरकार करती रही उस कानून को प्रधानमंत्री द्वारा वापस लिए जाने की घोषणा नें जनता के सामने सरकार की मंशा को साफ़ कर दिया है. हालाँकि सरकार ने यह घोषणा सिख धर्म के सस्थापक गुरु नानक के जयंती के दिन किया. प्रधान मंत्री द्वारा कानून वापस लेने की घोषणा के दौरान कहा गया कि “हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए हमारी तपस्या में कोई कमी रह गयी।”
अचानक से कानून बनाकर देशवासियों को चौंकाने वाली मोदी सरकार का कृषि कानून को वापस लेने का यह रवैया बिलकुल नया है. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के अनुसार, किसान आन्दोलन का विरोध मुट्ठी भर किसान कर रहे हैं जबकि बड़ी संख्यां में किसान इस कानून का समर्थन कर रहे हैं. प्रधान मंत्री की घोषणा और कृषि मंत्री के बयानों में कोई समानता नजर नहीं आती है. नागरिकता कानून का विरोध आन्दोलन के प्रति सरकार का क्रूर सख्त रवैया और किसान आन्दोलन के प्रति एक साल के बाद नरम पड़ते व्यवहार से यह साफ़ है कि आगामी चुनाव में खिसकती जमीन और चुनावी हार के डर ने सरकार को कृषि कानून को वापस लेने को मजबूर किया है. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने कहा कि, “लोकतान्त्रिक विरोध से जो हासिल नहीं किया जा सकता , वह आने वाले चुनावों के डर से हासिल किया जा सकता है. तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रधान मंत्री की घोषण नीति परिवर्तन या ह्रदय परिवर्तन से प्रेरित नहीं है, यह चुनाव के डर से प्रेरित है”.
बहुमत के दम पर सरकार कई जन विरोधी नीतियाँ जनता के ऊपर थोप चुकी है. अब इस सरकार के पास हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता का बारूद ख़त्म हो चुका है जिसे जनता समझ चुकी है और चुनाव में यह हथियार निष्क्रिय हो चूका है. अब इन्हें कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है. इनकी बैचैनी समझी जा सकती है. शहरों के नाम बदलने के साथ साथ केबिनेट और मुख्यमंत्री तक बदला जा चुका है. इन्हें यह समझना चाहिए था कि देश में गैस और पेट्रोल महंगा हो रहा है, नौकरियां नहीं हैं, भूख और बेरोजगारी बढ़ रही है. हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति बेहद ख़राब है. नागरिकता कानून लाने के बाद भी पश्चिम बंगाल के चुनाव में बीजेपी को फायदा नहीं हुआ जबकि वहां 30 फ़ीसदी मुसलमान हैं. राष्ट्रीय नीतियों सहित अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा तक यह सरकार नाकाम रही है.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कृषि राज्य मंत्री रहे सोमपाल शास्त्री ने बीबीसी के हवाले से कहा कि, “मोदी सरकार ने कानून वापस लेने में बहुत देरी कर दी. अब इसका कोई फायदा नहीं होने जा रहा है. इन्होंने इस घोषणा के लिए गुरुनानक की जयंती को चुना. ये कभी मजहब की राजनीति करने से बाज नहीं आते. इन्हें अब अहसास हो गया है कि सत्ता में भावुक मुद्दों से आया जा सकता है लेकिन उसकी उम्र भावना के उफान तक ही सीमित होती है. ये सच है कि अब इनके पास बारूद नहीं बचा है.”
भारत के चुनाव में पेशेगत पहचान पर धार्मिक व जातीय पहचान हावी रही है लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी किसान समुदाय अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरा है तो सरकार को झुकना पड़ा है. अब सरकार को मजहब से हट कर मुद्दों पर और महज चुनाव से ध्यान हटा कर जनता की जरूरतों को प्राथमिकता देनी चाहिए ताकि भविष्य में इस सरकार के लम्बे कार्यकाल को सकारात्मकता के साथ याद किया जा सके.
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किसान आन्दोलन को लेकर दिए गए बयान:
आन्दोलनजीवी परजीवी की तरह होते हैं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
माओवादी विचारधारा से प्रेरित लोगों के हाथों में चला गया किसान आन्दोलन- केद्रीय मंत्री पीयूष गोयल
भीड़ इक्कठा होने से कानून वापस नहीं होते- कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर
आन्दोलन की तस्वीरों में कई लोग किसान नहीं लग रहे- केन्द्रीय मंत्री वीके सिंह
आन्दोलन के पीछे चीन और पकिस्तान का हाथ है- केन्द्रीय मंत्री राव साहेब दानवे
आन्दोलनकारी टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग हैं—भाजपा सांसद मनोज तिवारी
कायर लोग हैं आत्महत्या करने वाले किसान- कर्नाटक कृषि मंत्री बीसी पटिल
बिलकुल इसी अंदाज और सोच के साथ नागरिकता कानून को ख़त्म करवाने को लेकर चल रहे आन्दोलन के लिए भी सरकार के ऐसे ही बयान थे. दिल्ली विधानसभा की एक चुनावी रैली में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, “जो लोग कश्मीर में आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं वही शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं”.
गौरतलब है कि किसान आन्दोलन पिछले एक साल से देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जारी है और CAA-NRC के ख़िलाफ़ आन्दोलन भी महीनों तक पूरे देश में चलाया गया जिसे बाद में देश भर में फैली कोरोना महामारी की वजह से बंद करवा दिया गया. किसान आन्दोलन में देश के अलग अलग राज्यों के सिख समुदाय की महती भूमिका रही व नागरिकता संसोधन कानून के ख़िलाफ़ चलाए गए आन्दोलन में मुसलमानों की तादाद अधिक थी. कृषि व्यवसाय के लिए प्रसिद्द सिख समुदाय सहित अन्य कृषक समुदाय को डर था कि मोदी सरकार तीन नए कृषि कानून के द्वारा फ़सल के दाम सहित जमीन का मालिकाना हक़ भी कोर्पोरेट के हवाले कर सकती है तो मुसलमान समुदाय को नागरिकता कानून से देश के नागरिक होने के संवैधानिक अधिकार ख़त्म होता नज़र आया.
जिस किसान आन्दोलन में खालिस्तानियों और आतंकवादियों के शामिल होने की बात सरकार करती रही उस कानून को प्रधानमंत्री द्वारा वापस लिए जाने की घोषणा नें जनता के सामने सरकार की मंशा को साफ़ कर दिया है. हालाँकि सरकार ने यह घोषणा सिख धर्म के सस्थापक गुरु नानक के जयंती के दिन किया. प्रधान मंत्री द्वारा कानून वापस लेने की घोषणा के दौरान कहा गया कि “हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए हमारी तपस्या में कोई कमी रह गयी।”
अचानक से कानून बनाकर देशवासियों को चौंकाने वाली मोदी सरकार का कृषि कानून को वापस लेने का यह रवैया बिलकुल नया है. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के अनुसार, किसान आन्दोलन का विरोध मुट्ठी भर किसान कर रहे हैं जबकि बड़ी संख्यां में किसान इस कानून का समर्थन कर रहे हैं. प्रधान मंत्री की घोषणा और कृषि मंत्री के बयानों में कोई समानता नजर नहीं आती है. नागरिकता कानून का विरोध आन्दोलन के प्रति सरकार का क्रूर सख्त रवैया और किसान आन्दोलन के प्रति एक साल के बाद नरम पड़ते व्यवहार से यह साफ़ है कि आगामी चुनाव में खिसकती जमीन और चुनावी हार के डर ने सरकार को कृषि कानून को वापस लेने को मजबूर किया है. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने कहा कि, “लोकतान्त्रिक विरोध से जो हासिल नहीं किया जा सकता , वह आने वाले चुनावों के डर से हासिल किया जा सकता है. तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रधान मंत्री की घोषण नीति परिवर्तन या ह्रदय परिवर्तन से प्रेरित नहीं है, यह चुनाव के डर से प्रेरित है”.
बहुमत के दम पर सरकार कई जन विरोधी नीतियाँ जनता के ऊपर थोप चुकी है. अब इस सरकार के पास हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता का बारूद ख़त्म हो चुका है जिसे जनता समझ चुकी है और चुनाव में यह हथियार निष्क्रिय हो चूका है. अब इन्हें कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है. इनकी बैचैनी समझी जा सकती है. शहरों के नाम बदलने के साथ साथ केबिनेट और मुख्यमंत्री तक बदला जा चुका है. इन्हें यह समझना चाहिए था कि देश में गैस और पेट्रोल महंगा हो रहा है, नौकरियां नहीं हैं, भूख और बेरोजगारी बढ़ रही है. हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति बेहद ख़राब है. नागरिकता कानून लाने के बाद भी पश्चिम बंगाल के चुनाव में बीजेपी को फायदा नहीं हुआ जबकि वहां 30 फ़ीसदी मुसलमान हैं. राष्ट्रीय नीतियों सहित अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा तक यह सरकार नाकाम रही है.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कृषि राज्य मंत्री रहे सोमपाल शास्त्री ने बीबीसी के हवाले से कहा कि, “मोदी सरकार ने कानून वापस लेने में बहुत देरी कर दी. अब इसका कोई फायदा नहीं होने जा रहा है. इन्होंने इस घोषणा के लिए गुरुनानक की जयंती को चुना. ये कभी मजहब की राजनीति करने से बाज नहीं आते. इन्हें अब अहसास हो गया है कि सत्ता में भावुक मुद्दों से आया जा सकता है लेकिन उसकी उम्र भावना के उफान तक ही सीमित होती है. ये सच है कि अब इनके पास बारूद नहीं बचा है.”
भारत के चुनाव में पेशेगत पहचान पर धार्मिक व जातीय पहचान हावी रही है लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी किसान समुदाय अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरा है तो सरकार को झुकना पड़ा है. अब सरकार को मजहब से हट कर मुद्दों पर और महज चुनाव से ध्यान हटा कर जनता की जरूरतों को प्राथमिकता देनी चाहिए ताकि भविष्य में इस सरकार के लम्बे कार्यकाल को सकारात्मकता के साथ याद किया जा सके.
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