अज्ञान का नहीं, लोकतंत्र का मज़ाक उड़ा रहा है एबीपी !

Written by Media Vigil | Published on: February 14, 2017
‘काला अक्षर भैंस बराबर’- यह है एबीपी न्यूज़ पर दो पार्ट में दिखाए गए उस कार्यक्रम का नाम जिसमें ऐसे विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों का जमकर मज़ाक उड़ाया गया जो सामान्य लगने वाले सवालों का जवाब भी नहीं जानते थे। चैनल के माइकवीरों ने पूरी यूपी में उन्हें ढूँढ-ढूँठकर घेरा और फिर मज़ाक उड़ाऊ अंदाज़ में उनकी ऐसी-तैसी की।


 




लगता है कि एबीपी इतिहास भूल गया है या संविधान बदलने की मंशा रखने वालों की आँख का तारा बनना चाहता है। वह ‘प्रत्याशियों की शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य करो’- का दम भर रहा है।  संविधान सभा में इस मुद्दे पर बहस हुई थी। डॉ.राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता यह चाहते भी थे, लेकिन तब नेहरू जी ने जो कहा, उसने सबको निरुत्तर कर दिया था। नेहरू ने कहा था कि जब आज़ादी की लड़ाई हो रही थी तो पढ़े-लिखे लोगों का बड़ा तबका स्वाधीनता आँदोलन से दूर था। ग़रीब अनपढ़ किसानों, मज़दूरों ने ही वह जलाल पैदा किया कि अंग्रेज़ों को भागना पड़ा। जिनकी मेहनत की वजह से आज़ादी के पेड़ में फल आये हैं, उन्हें इस फल से वंचित कैसे किया जाए। नतीजा हुआ कि संविधान सभा ने विधायक या सांसद बनने के लिए शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य करने का विचार ख़ारिज कर दिया।



लेकिन एबीपी को यह लोकतंत्र रास नहीं आ रहा है। उसने सामान्य ज्ञान में कमज़ोर प्रत्याशियों को बेपर्दा करने का अभियान चला दिया है और इसका रिश्ता ‘डिग्री’ से जोड़ रहा है।  एबीपी के एक ऐंकर अनुराग मुस्कान ‘घंटी बजाओ’ कार्यक्रम में साफ़ अपील करते हैं कि जनता को ऐसे प्रत्याशियों की घंटी बजा देनी चाहिए। यानी हरा देना चाहिए।



ख़ास बात यह है कि एबीपी यह सब ऐन चुनाव के बीच कर रहा है। इसलिए उसकी नीयत की पड़ताल भी ज़रूरी हो जाती है। सोशल मीडिया पर इस कार्यक्रम को दलित, पिछड़े और मुस्लिम प्रत्याशियों का माखौल उड़ाने वाला और प्रकारांतर में बीजेपी का समर्थन करने का अभियान बताया जा रहा है ।

अजीब बात यह है कि यूट्यूब या ख़ुद एबीपी न्यूज़ की वेबसाइट पर इस कार्यक्रम (काला अक्षर भैंस बराबर) का महज़ पार्ट-2 उपलब्ध है। बहरहाल, इस भाग में जिनसे सवाल पूछे गए, उनके नाम हैं-

1.आशीष यादव (एटा सदर), आरएलडी,  2.यशवंत सिंह (राबर्ट्सगंज), आरएलडी, 3. दौलतराम (बरेली), पीस पार्टी, 4.रिज़वान अहमद (इलाहाबाद पश्चिम) ।

हमें काफ़ी ढूँढने पर भी पहला भाग नहीं मिला। लेकिन चैनल के ‘घंटी बजाओ’ कार्यक्रम में इसकी झलक मिल गई। वहाँ भी वैसे ही सामान्य ज्ञान का मज़ाक उड़ाया गया था। वहाँ इन प्रत्याशियों को घेरा गया था-

1.हाजी असलम (मुरादाबाद) एआईएमआईएम, 2. पूर्णमासी देहाती (रामकोला) सपा, 3. बहादुर निषाद (गोरखपुर) बहुजन मुक्ति मोर्चा, 4. मुकेश दीक्षित (सहारनपुर) बीएसपी, 5. महेंद्र कुमार बिंद (ज्ञानपुर), बीजेपी, 6. राजेश यादव (ज्ञानपुर) बीएसपी, 7. ब्रजेश सोनी (बाराबंकी) आरएलडी

सवाल कुछ यूँ थे—राष्ट्रगीत क्या है ? (जिसका जवाब आमतौर पर राष्ट्रगान के रूप में मिल रहा था), ट्वीट क्या है ? सर्विस टैक्स और सर्विस चार्ज में फर्क क्या है? एमएलए का फुलफार्म क्या है? राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है ? विधानसभा और विधानपरिषद में फर्क़ क्या है?

एबीपी लगातार यह रोना रो रहा था कि कितने अनपढ़ या अनपढ़ों जैसे चुनाव में खड़े हैं। लेकिन उसने उन लोगों की शैक्षिक योग्यता के बारे में नहीं बताया जो उसके ‘चक्रव्यूह’ में फँसे थे। एक इंजीनियर ज़रूर बताया गया जो विदेश से पढ़कर आया था और इस परीक्षा में फेल हो गया। वैसे एबीपी के बाक़ी शिकार भी अनपढ़ थे, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला। यानी एबीपी का ‘डिग्री’ वाला तर्क, उसके कार्यक्रम में ही ग़लत साबित हो रहा था।



ग़ौर से देखिए तो कुछ चीजें साफ़ हैं। एबीपी पर जिनका मज़ाक उड़ा वे एक-आध को छोड़कर दलित,पिछड़े या मुस्लिम समाज से आते हैं। (क्या यह महज़ संयोग है ?) एक को छोड़ सब ग़ैरबीजेपी दलों के हैं जिन्हें एबीपी हराने की अपील की।

हो सकता है कि एबीपी की कोई ख़राब नीयत ना हो, लेकिन चुनाव के दौरान ऐसे प्रयोग से उसकी निष्पक्षता तो सवालों के घेरे में आ ही गई है।   जिन लोगों का मज़ाक उड़ा, उनके विरोधी एबीपी की वीडियो क्लिपिंग को अपना प्रचार-अस्त्र बना चुके हैं।



और सबसे बड़ी बात यह कि क्या एबीपी को लोकतंत्र का मतलब नहीं पता है ? क्या स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों और मूल्यों पर उसका विश्वास नहीं है ? विधायिका की शक्ल तो वैसी ही होती है जैसा देश होता है। शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता एक तानाशाही भरा ख़्याल है।

वैसे, एबीपी के संपादकों को अपने गिरहबान में भी झाँकना चाहिए। उसके कितने संवाददाता या प्रोड्यूसर उन विषयों के विशेषज्ञ हैं जिस पर वे ज्ञान देते हैं या कार्यक्रम बनाते हैं ? जबकि पत्रकारों के लिए तो यह हर हाल में ज़रुरी है। सच ये है कि गूगल बाबा छुट्टी चले जाएँ, तो एबीपी ही नहीं, सारे चैनलों की घंटी बज जाएगी। ऐसे में छापामार शैली में नेताओं के सामान्य ज्ञान की परीक्षा का क्या मतलब ? उन्हें भी गूगल की सुविधा दीजिए, सारे जवाब मिल जाएँगे।

बर्बरीक
 

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